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कवलाहार होय छे, पक्षीओने ओजाहार (माताना उदरनी गरमीउष्मारूप आहार) अने पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवने लेपाहार (पृथ्वी आदिने स्पर्शरूप आहार) होय छे. ५.
श्री प्रवचनसार गाथा २०मां अतीन्द्रियपणाने लीधे ज शुद्ध आत्माने शारीरिक सुख - दुःख नथी, एम व्यक्त कर्युं छे, त्यां केवळी भगवानने इन्द्रिय समूह नथी. तेम शुद्ध आत्माने शरीर संबंधी सुख - दुःख नथी. तथा केवळी भगवानने शरीर संबंधी क्षुधादि दुःख के भोजनादि सुख होतुं नथी, तेथी तेमने कवलाहार होतो नथी; एम कह्युं छे.
भगवानने कवलाहार होय एम माननारा भगवानने परम उत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुख मानता ज नथी - श्रद्धता नथी, तेथी ते अभव्य छे अने भव्यो तेनो स्वीकार करे छे; एम प्रवचनसार गाथा ६२मां कह्युं छे. माटे भगवानने कवलाहार होई शके नहि एम श्रद्धा करवी.
वळी जेवो आपणामां धर्म छे तेवो ज केवली भगवानमां धर्म होवो जोईए, तेथी आपणी माफक केवली भगवानमां पण देहनी स्थिति भोजनथी होवी जोईए - एम जो कहेवामां आवे तो जेम केवली भगवानना शरीरमां परसेवादिना अभावरूप धर्म छे तेम आपणा शरीरमां पण परसेवादिनो अभाव होवो जोईए. एना उत्तरमां जो एम कहेवामां आवे के केवली भगवानमां अतिशय होवाथी तेमना शरीरमां परसेवो आदि थतां नथी तो पछी केवली भगवानने कवलाहारना अभावनो अतिशय केम न संभवे? माटे कवलाहारथी तेमना देहनी स्थिति मानवी उचित नथी.
वळी कोई कहे के केवलीने वेदनीय कर्मनो सद्भाव होवाथी भोजननी इच्छा अने ते माटे प्रवृत्ति होय छे, तो ते पण सत्य नथी; कारण के इच्छा मोहनीय कर्मना उदय निमित्ते होय छे, परंतु भगवानने मोहनीय कर्मनो तो सर्वथा अभाव होय छे, तेथी तेमने भोजननी इच्छा केम संभवे? जो इच्छा होय तो वीतरागता होई शके नहि.
जो तेमने क्षुधादिनी पीडानो संभव मानवामां आवे तो तेमने अनंत सौख्य क्यां रह्युं?
वळी कोई कहे छे के अशाता वेदनीय कर्मना उदयथी केवली भगवानने क्षुधा, तृषा, रोग, मळ - मूत्रादिक होय छे; परंतु तेमनुं ते कहेवुं पण असत्य छे, कारण के