कहानजैनशास्त्रमाळा ]
अथोक्तदोषैर्विवर्जितस्याप्तस्य वाचिकां नाममालां प्ररूपयन्नाह — क्षुधा - तृषा तो अशातावेदनीय कर्मनी उदीरणाथी होय छे, परंतु छठ्ठा गुणस्थानमां अशातानी उदीरणानी व्युच्छित्ति१ छे, तेथी सातमादि गुणस्थानोमां क्षुधादि वेदनाओनो अभाव छे.
सातमा गुणस्थानथी एक शातावेदनीयनो ज नवीन बंध होय छे, पण अशातानो बंध होतो नथी. केवलीने शातानो बंध एक समय पूरतो ज होय छे अने तेनो निरंतर उदय थतो ज रहे छे, तेथी अशातानो उदय पण शातारूप परिणमे छे. तेथी अशाताना उदयजनित परीषह जिनेन्द्रने होता नथी. केवली भगवानने राग - द्वेष नष्ट थया छे अने इन्द्रियजनित ज्ञाननो अभाव छे तेथी शाता - अशाताथी उत्पन्न थयेलुं इन्द्रियजनित सुख - दुःख केवलीने होतुं नथी.
‘‘केवळज्ञानीने शरीर२ संबंधी सुख - दुःख नथी, कारण के अतीन्द्रियपणुं थयुं छे तेथी एम जाणवुं.’’
‘‘केवली भगवानने शरीर संबंधी क्षुधादि दुःख के भोजनादि सुख होतुं नथी, तेथी तेमने कवलाहार होतो नथी.’’ (श्री प्रवचनसार गाथा २० अने भावार्थ)
‘‘जेमनां घातिकर्मो नाश पाम्यां तेमनुं (केवली भगवन्तोनुं) सुख (सर्व) सुखोमां परम अर्थात् उत्कृष्ट छे एवुं वचन सांभळीने जेओ तेने श्रद्धता नथी, तेओ अभव्य छे अने भव्यो तेनो स्वीकार (आदर - श्रद्धा) करे छे.’’ (श्री प्रवचनसार गाथा ६२.)
माटे भगवानने कवलाहार होई शके नहि, एम श्रद्धा करवी. ६.
हवे पूर्वोक्त दोषोथी रहित जे आप्त तेमनां वाचक नाममालानुं प्ररूपण करीने कहे छे — १. ‘जे गुणस्थानमां कर्म प्रकृतिओनो बंध, उदय अथवा सत्त्व (सत्ता)नी व्युच्छित्ति कही होय ते
गुणस्थानमां ते प्रकृतिओनो बंध, उदय अथवा सत्त्व (सत्ता) होतां नथी, तेने व्युच्छित्ति कहे
छे.(जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्न ६०४)
२. जुओ ‘श्री रत्नकरंडक श्रावकाचार’नी पं. सदासुखदासजी कृत हिन्दी टीका पृष्ठ. ७ – ८.