Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ८१

‘‘पोताने जो पापनो उदय होय तो तेओ (व्यंतरादिक) सुख आपी शके नहि तथा पुण्यनो उदय होय तो दुःख आपी शके नहि. वळी तेमने पूजवाथी कोई पुण्यबंध नथी, पण रागादिक वृद्धि थई ऊलटो पापबंध ज थाय छे; तेथी तेमने मानवापूजवा कार्यकारी नथी, पण बूरुं करवावाळा छे.....’’

प्रश्नःक्षेत्रपाल, दहाडी अने पद्मावती आदि देवी तथा यक्षयक्षिणी आदि के जे जैनमतने अनुसरे छे, तेमनुं पूजनादि करवामां तो दोष नथी?

उत्तरःजैनमतमां तो संयम धारवाथी पूज्यपणुं होय छे. हवे देवोने संयम होतो ज नथी. वळी तेमने सम्यक्त्वी मानी पूजीए तो भवनत्रिक देवोमां सम्यक्त्वनी पण मुख्यता नथी; तथा जो सम्यक्त्व वडे ज पूजीए तो सर्वार्थसिद्धि अने लौकांतिक देवोने ज केम न पूजीए? तमे कहेशो के ‘आमने जिनभक्ति विशेष छे,’ पण भक्तिनी विशेषता तो सौधर्म इन्द्रने पण छे तथा ते सम्यग्द्रष्टि पण छे, तो तेने छोडी आमने शा माटे पूजो छो?......तीव्र मिथ्यात्वभावथी जैनमतमां पण एवी विपरीत प्रवृत्तिरूप मान्यता होय छे. ए प्रमाणे क्षेत्रपालादिकने पण पूजवा योग्य नथी.’’

‘‘वळी गायसर्पादिक तिर्यंच के जे पोतानाथी प्रत्यक्ष हीन भासे छे, तेमनो तिरस्कारादिक पण करी शकीए छीए तथा तेमनी निंद्य दशा प्रत्यक्ष जोईए छीए. वृक्ष, अग्नि, जलादिक स्थावर छे, ते तो तिर्यंचोथी पण अत्यंत हीन अवस्थाने प्राप्त जोईए छीए तथा शस्त्र, खडियो वगेरे तो अचेतन ज छे, सर्व शक्तिथी हीन प्रत्यक्ष ज जोईए छीए. तेमां पूज्यपणानो उपचार पण संभवतो नथी; तेथी तेमने पूजवा ए महामिथ्याभाव छे. तेमने पूजवाथी प्रत्यक्ष वा अनुमानथी पण कांई फळप्राप्ति भासती नथी, तेथी तेमने पूजवा ते योग्य नथी.’’

‘‘जो इष्टअनिष्ट करवुं तेमना (व्यंतरादि देवना) आधीन होय तो जे तेमने पूजे तेने इष्ट ज थवुं जोईए तथा कोई न पूजे तेने अनिष्ट ज थवुं जोईए, पण तेवुं तो देखातुं नथी, कारण के शीतळाने घणी मानवा छतां पण कोईने त्यां पुत्रादि मरता जोईए छीए, तथा कोईने न मानवा छतां पण जीवता जोईए छीए. माटे शीतळाने मानवी कांईपण कार्यकारी नथी. ए ज प्रमाणे सर्व कुदेवोने मानवा कांई पण कार्यकारी नथी.’’ २३. १. जुओ मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ १७१ थी १७८.