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“ — लक्षणो न होय ते अदेव छे – कुदेव छे. ते कोई पण रीते जीवने हितकर्ता नथी, छतां तेने भ्रमथी हितकर्ता मानी तेनुं सेवन करवुं, ते मिथ्यात्व छे.
१मिथ्याद्रष्टि जीव त्रण प्रकारना प्रयोजनथी तेनी उपासना करे छे. कोई तेनी उपासनाने मोक्षनुं कारण जाणीने तेने सेवे छे, पण तेथी मोक्ष थतो नथी, कारण के मिथ्याभावयुक्त उपासना मोक्षनुं कारण केम होई शके?
केटलाक जीवो परलोकमां ‘सुख थाय – दुःख न थाय’ एवा प्रयोजनथी कुदेवने सेवे छे, पण तेनी सिद्धि तो पुण्य उपजावतां अने पाप न उपजावतां थाय छे. पण पोते तो पाप उपजावे अने कहे के — ‘‘ईश्वर मारुं भलुं करशे.’’ पण ए तो एनो भ्रम छे, कारण के जीव जेवो परिणाम करशे तेवुं ज फळ पामशे. माटे कोईनुं भलुं – बूरुं करवावाळो ईश्वर कोई छे ज नहि; तेथी कुदेवोना सेवनथी परलोकमां भलु – बूरुं थतुं नथी.
‘‘वळी घणा जीवो शत्रुनाशादिक, रोगादि नाश, धनादिनी प्राप्ति तथा पुत्रादिकनी प्राप्ति इत्यादिक आ पर्याय संबंधी दुःख मटाडवा या सुख पामवाना अनेक प्रयोजन पूर्वक ए कुदेवादिकनुं सेवन करे छे. हनुमानादिक, भैरव, देवीओ......शीतळा, दहाडी, भूत, पितृ, व्यंतरादिक, सूर्य – चंद्र, शनिश्चरादि, ज्योतिषीओने, पीर – पेगंबरादिकोने, गाय – घोडादि तिर्यंचोने, अग्नि – जलादिकने तथा शस्त्रादिकने पूजे छे. घणुं शुं कहीए? रोडां इत्यादिकने पण पूजे छे; परंतु एवा कुदेवोनुं सेवन मिथ्याद्रष्टिथी ज थाय छे, कारण के प्रथम तो ते जेनुं सेवन करे छे तेमांथी केटलाक तो कल्पना मात्र ज देव छे, एटले तेमनुं सेवन केवी रीते कार्यकारी थाय? वळी कोई व्यंतरादिक छे पण ते कोईनुं भलुं – बूरुं करवा समर्थ नथी. जो तेओ समर्थ होय तो तेओ पोते ज कर्ता ठरे, पण तेमनुं कर्युं थतुं कांई देखातुं नथी; तेओ प्रसन्न थई धनादिक आपी शकता नथी, तथा द्वेषी थई बूरुं करी शकता नथी.....’’ पण जीवना पुण्य – पापथी सुख – दुःख थाय छे, एटले तेमने मानवा – पूजवाथी तो ऊलटो राग थाय छे, पण कांई कार्यसिद्धि थती नथी....... * आ श्लोक नीचेनी संस्कृत टीका आगमयुक्त नथी, एम शेठ माणिकचंदजी ग्रंथमाळा पुष्प नं.
(श्री रामजीभाई माणेकचंद वकील, सोनगढ.)
१. जुओ मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ६, पृष्ठ १७१ थी १७८.