Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ ८३

जेओ विवाहादि संसारी कार्योमां रच्यापच्या रहे छे, तेमनो आदरसत्कार करवो, तेमनी प्रशंसा करवीतेने पाखंडीमूढता अर्थात् गुरुमूढता कहे छे.

आ ग्रंथना श्लोक १०मां दर्शावेला साचा गुरुनां लक्षणोथी विपरीत लक्षणवाळा बधा गुरुओ छे, ते पाखंडीकुगुरुओ छे. तेओ सत्कारप्रशंसाने पात्र नथी.

‘‘जे जीव विषयकषायादिक अधर्मरूप तो परिणमे छे अने मानादिकथी पोताने धर्मात्मा कहावे छेमनावे छे, धर्मात्मा योग्य नमस्कारादि क्रिया करावे छे, किंचित् धर्मनुं कोई अंग धारी महान धर्मात्मा कहेवडावे छे तथा महान धर्मात्मा योग्य क्रिया करावे छेए प्रमाणे धर्मना आश्रय वडे पोताने महान मनावे छे, ते बधा कुगुरु जाणवा, कारण के धर्मपद्धतिमां तो विषयकषायादि छूटतां जेवो धर्म धारे तेवुं ज पोतानुं पद मानवुं योग्य छे.’’

‘‘वळी कोई शास्त्रोमां निरूपण करेलो कठण मार्ग तो पोतानाथी सधाय नहि अने पोतानुं उच्च नाम धराव्या विना लोक माने पण नहि. ए अभिप्रायथी यति, मुनि, आचार्य, उपाध्याय, साधु, भट्टारक, संन्यासी, योगी, तपस्वी अने नग्न इत्यादि नाम तो उच्च धरावे छे, पण तेवां आचरणोने साधी शकता नथी, तेथी इच्छानुसार नाना प्रकारना वेष बनावे छे, तथा केटलाक तो पोतानी इच्छानुसार ज नवीन नाम धारण करे छे अने इच्छानुसार वेष बनावे छे अने एवा अनेक वेष धरवाथी पोतानामां गुरुपणुं माने छे; पण ए मिथ्या छे.’’

‘‘.......उच्च धर्मात्मा नाम धरावी नीची क्रिया करतां तो महापापी ज थाय छे.’’ श्री कुंदकुंदाचार्ये षट्पाहुडमां गाथा १८मां कह्युं छे के

‘‘मुनिपद छे ते यथाजात रूप सद्रश छे, जेवो जन्म थयो हतो तेवुं नग्न छे. ए मुनि, अर्थ जे धनवस्त्रादि वस्तुने तिलतुषमात्र पण ग्रहण करे नहि. कदाच तेने थोडी घणी पण ग्रहण करे, तो तेथी ते निगोदमां जाय.’’

‘‘जुओ, गृहस्थपणामां घणो परिग्रह राखी कंईक प्रमाण करे, तोपण ते स्वर्ग मोक्षनो अधिकारी थाय छे, त्यारे मुनिपणामां किंचित् परिग्रह अंगीकार करतां पण ते निगोदगामी थाय छे, माटे उच्च नाम धरावी नीची प्रवृत्ति करवी योग्य नथी.’’

‘‘मुनिनुं स्वरूप तो एवुं छे के बाह्याभ्यंतर परिग्रहनो ज्यां संबंध नथी; केवळ पोताना १. जह जायरूव सरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिह्णादि इत्थेसु

जइ लेइ अप्प बहुयं, तत्तो पुण जह णिगोयं ।।१८।। (सूत्र पाहुड)