Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 25 ATha mad.

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रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कः पुनरयं स्मयः कतिप्रकारश्चेत्याह
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ।।२५।।

आत्माने ज पोतारूप अनुभवता, शुभाशुभ भावोथी पण जे उदासीन होय छे......’’

श्री कुंदकुंदाचार्ये षट्पाहुडमां (दर्शनपाहुडमां) कह्युं छे के
‘‘सम्यग्दर्शन छे मूळ जेनुं, एवो जिनवर द्वारा उपदेशेलो धर्म सांभळी, हे

पुरुषो! तमे एम मानो के सम्यक्त्व रहित जीव वंदन योग्य नथी. जे पोते कुगुरु छे अने कुगुरुना श्रद्धान सहित छे ते सम्यग्द्रष्टि क्यांथी होय? तेवा सम्यक्त्व विना अन्य धर्म पण न होय तो ते धर्म विना वंदन योग्य क्यांथी होय?’’

वळी लिंगपाहुडमां कह्युं छे के
‘‘जेओ मुनिलिंगधारी हिंसा, आरंभ, यंत्रमंत्रादि करे छे तेनो घणो निषेध कर्यो

छे.’’ (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ १८५.)

कह्युं छे के
‘‘हे जीव! जे मुनिलिंगधारी इष्ट परिषहने ग्रहण करे छे ते ऊलटी करीने ते

ज ऊलटीने पाछो ग्रहण करे छे, अर्थात् ते निंदनीय छे.’’ २४.

वळी आ मद शुं छे? तेना केटला प्रकार छे? ते कहे छे
आL मद
श्लोक २५

अन्वयार्थ :[ज्ञानं ] ज्ञान, [पूजां ] पूजाप्रतिष्ठा, [कुलं ] कुळ, [जातिं ] १. जुओ मोक्षमार्ग प्रकाशक, गुजराती आवृत्ति, पृष्ठ १७८ थी १८१. २. दंसणमूलो धम्मो, उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं

तं सोउण सकण्णे, दंसणहीणो ण वंदिव्वो ।।।।

३. जो जिणलिंगु धरेदि मुणि, इट्ठपरिग्गह लिंति

छद्दि करेवणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति ।।६१।। (अध्याय २)