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पांचमी आवृत्तिप्रतः १०००वि सं. २०७०ई.स. २०१५
पारमार्थिक ट्रस्ट, पार्ला (मुंबई) तरफथी स्थायी शास्त्र प्रकाशन – किंमत घटाडवामां
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शरीरादिक परपदार्थोमां तथा परभावोमां एकत्वबुद्धि छोडीने, संसारथी मुक्त थवाना संदेशा भगवान श्री पूज्यपाद आचार्ये आ ‘समाधितंत्र’ या ‘समाधिशतक’मां आप्या छे. ते शास्त्र उपर संस्कृत टीका श्री प्रभाचंद्र आचार्ये करी छे, तेनो अक्षरश: अनुवाद प्रथमवार ज प्रकाशित करतां अत्यानंद थाय छे.
समाधिनी प्राप्ति सर्वकाळे दुर्लभ छे, तेमां पण आ वर्तमानयुगमां तो अत्यंत दुर्लभ छे. छतां समाधिप्राप्त आत्मज्ञ संत पूज्य श्री कानजीस्वामीनां भवतापनाशक अमृतमय प्रवचनोथी मुमुक्षुओने तेवी समाधिनी प्राप्ति सुलभ थई रही छे ए महान सद्भाग्य छे. तेओश्रीनां सान्निध्यमां रहीने तथा तेमनां प्रवचनोथी प्रेरणा पामीने सद्धर्मप्रेमी भाईश्री छोटालाल गुलाबचंद गांधी (सोनासणवाळा)ए आ अनुवाद तैयार करी आप्यो छे.
श्रीयुत् छोटालालभाई बी.ए. (ओनर्स); एस.टी.सी. छे. तेओ सरकारी हाईस्कूलना निवृत्त आचार्य छे. वळी तेओ साबरकांठा बेतालीस द.हु.दि. जैन केळवणी मंडळना प्रमुख तथा शेठ जी.उ.दि. जैन छात्रालय, इडरना ट्रस्टी अने मानद् मंत्री छे. हालमां तेओ मुख्यतया जैन तत्त्वज्ञाननो अभ्यास, आध्यात्मिक शास्त्रोनुं वांचन-मनन, जैन साहित्यनी सेवा अने सत्समागमादि धार्मिक प्रवृत्तिमां पोतानुं जीवन व्यतीत करी रह्या छे. छेल्ला बार वर्षथी दर वर्षे सोनगढ आवी, लांबो समय पूज्य गुरुदेवश्रीनां प्रवचनो तथा तत्त्वचर्चानो अलभ्य लाभ तेओ लई रह्या छे. तेओ शांत, सरळ स्वभावी, वैराग्यभावनावंत, अध्यात्मरसिक सज्जन छे, तेमणे आ अध्यात्मशास्त्रनो गुजराती अनुवाद अत्यंत खंत अने चीवटपूर्वक तद्दन निस्पृहभावे करी आप्यो छे. ते माटे आ संस्था तेमनी अत्यंत ऋणी छे अने आभार प्रदर्शित करवा साथे आवां सत्कार्यो तेमना द्वारा थतां रहे एम अंतरथी इच्छीए छीए.
आ ग्रंथना प्रकाशनकार्यमां श्रीयुत नवनीतभाई सी. झवेरीए सारुं प्रोत्साहन आप्युं छे अने श्रीयुत् हिंमतलाल छोटालाल शाहे ग्रंथ छपाववाना कार्यमां सहाय करी छे, तेथी ते बंनेनो आभार मानीए छीए.
आ ग्रंथना प्रकाशनार्थे कलोलना उदारचित्त सद्धर्मप्रेमी स्व. श्रीयुत वाडीलालभाई जगजीवनदास तरफथी रु. २००१नी सहायता मळी छे ते बदल तेमने तथा तेमना कुटुंबीजनोने धन्यवाद.
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वळी मुमुक्षुओ आ ग्रंथनो विशेष लाभ लई शके ए हेतुने लक्षमां राखीने आ ग्रंथनी किंमत घटाडवा माटे श्री बचुभाई हेमाणी, कलकत्तावाळा तरफथी रु. १०००) मळ्या छे ते माटे तेमनो आभार मानवामां आवे छे.
वसंत प्रिन्टींग प्रेस–अमदावादना व्यवस्थापक श्री जयंतिलाल दलाले कुशळतापूर्वक आ ग्रंथनुं सुंदर छपाई आदि कार्य करी आप्युं छे ते माटे तेमनो पण आभार मानीए छीए.
परमपदनी प्राप्तिनो मार्ग दर्शावनार आ शास्त्रनां सारी रीते अध्ययन तथा अनुभव करीने जगतना जीवो आधि-व्याधि-उपाधि रहित परम ज्ञानात्मक समाधिनी प्राप्ति करो एवी भावना भावीए छीए.
सोनगढ, ता. १-४-६६
महानसमर्थ आचार्य श्री पूज्यपादस्वामी रचित ‘समाधितंत्र’नी चोथी आवृत्ति खपी जवाथी आ पांचमी आवृत्तिनुं प्रकाशन करवामां आवी रह्युं छे. परमपूज्य परम कृपाळु सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना स्वानुभूतिप्रधान सदुपदेशथी तथा तद्भक्त प्रशममूर्ति भगवती माता पूज्य बहेनश्री चंपाबेननां आत्मार्थपोषक अंतर साधनामय पवित्र जीवन अने देवगुरु–उपकारभीना अध्यात्म उपदेशथी जीवोने भवांत करवानी रुचिनां जे बीज रोपाई-पांगरी रह्या छे, तेना प्रतापे ज ट्रस्ट तरफथी दिनोदिन प्रकाशन वृद्धिंगत बनी रह्युं छे. आ बधोय प्रताप बन्ने धर्मात्माओनो ज छे. जीवो आ प्रकाशनथी वैराग्य वधारी आत्महितनो पुरुषार्थ करे, ए ज भावना साथे– वि.सं. २०७० ता. १२-८-२०१४
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श्री पूज्यपाद आचार्ये आ ग्रन्थमां जीवनी त्रण अवस्थाओ–बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मानुं सुंदर रीते निरुपण कर्युं छे अने बहिरात्मावस्था छोडी अन्तरात्मावस्था द्वारा परमात्मपदनी प्राप्ति केवी रीते थाय तेनो उपाय सूचव्यो छे. स्व-परना भेदविज्ञान विना अन्तरात्मपणुं प्रगट थई शके नहीं, तेथी आचार्यदेवे आ ग्रन्थमां भेद-विज्ञाननुं महत्व विशेषपणे समजाव्युं छे.
आचार्यदेवे आध्यात्मिक रससागरने आ नाना ग्रन्थ–गागरमां अति कलापूर्ण कौशल्यथी भरी दीधो छे. तेमां भेदज्ञाननो ध्वनि प्रत्येक श्लोकमां गुंजी रह्यो छे. भेदज्ञाननी भावना अने तेना अभ्यास माटे ते पूरती सामग्री पूरी पाडे छे अने अभ्यासीने आगळ वधवा माटे सारी प्रेरणा आपे छे. आध्यात्मिक भावनानो आ एक अत्युत्तम ग्रन्थ छे.
परमात्मपदनी प्राप्ति भेदविज्ञान द्वारा ज थई शके, बीजी कोई रीते थई शके नहि,– ए बाबत उपर ग्रन्थकारे आगम, युक्ति अने जात अनुभवद्वारा पोतानी अनोखी, रोचक, हृदयग्राही, सरळ शैलीमां सुंदर रीते प्रकाश पाडयो छे.
आ ग्रन्थना अभ्यासथी चित्त अति प्रफुल्लित बने छे अने अनादिकाळथी अज्ञानवश थती भूलोनी परंपरानो पदे पदे बोध थाय छे. भेदविज्ञान द्वारा ते भूलो टाळी परमपदनी प्राप्ति केम करवी तेनी मार्गदर्शनपूर्वक प्रेरणा, आचार्ये सचोट भाववाही शब्दोमां करी छे. आ ग्रन्थना भावपूर्वक वांचन, विचार अने मननथी भवदुःखथी संतप्त थयेला जीवोने आत्मशांति थया वगर रहेशे नहि. ग्रन्थनी ए एक अद्भुत खूबी छे.
आचार्यदेवे आ ग्रन्थनी रचना मोक्षमार्गना अभिलाषी जीवोने लक्षमां राखीने करी छे–ए वात श्लोक (३) उपरथी जणाई आवे छे.
अंतिम श्लोक (१०५)मां ग्रन्थनो उपसंहार करतां आचार्यदेवे ग्रन्थना नाम– ‘समाधितंत्र’नो निर्देश करी तेनी उपयोगिता दर्शावतां कह्युं छे के आ मोक्षमार्गभूत ग्रन्थनो सारी रीते अभ्यास करी तथा तेने अनुभवमां उतारी, परमात्मामां निष्ठावान जीव परमपदनी- परमसुखनी प्राप्ति करी शके छे.
आ ग्रन्थमां आत्म-विषयने स्पष्ट करवा माटे एकार्थवाचक भिन्न भिन्न शब्दोनो सुंदर शैलीमां जे प्रयोग करवामां आव्यो छे ते जोतां, साहित्यद्रष्टिए पण ग्रन्थनी महत्ता विशेष प्रतिभासे छे. रचनाचातुर्य अने शब्दप्रयोगनुं कौशल्यादि कर्तानुं संस्कृतभाषानुं अगाध ज्ञान प्रगट करे छे.
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प्रस्तुत ग्रंथ भाषा–सौष्ठव, पद्य-रचना अने साहित्यगुणोनी द्रष्टिए जैन साहित्यमां एक विशिष्ठ–अनोखुं स्थान प्राप्त करे छे.
आ ग्रन्थना संस्कृत-टीकाकार श्री प्रभाचंद्र पोतानी टीका-प्रशस्तिमां, ग्रन्थना अपरनाम ‘समाधिशतक’नो उल्लेख कर्यो छे. आथी प्रस्तुत ग्रंथ, ‘समाधितंत्र’ अने ‘समाधिशतक’ — ए बंने नामोथी जैन समाजमां प्रसिद्ध छे.
श्री पूज्यपादाचार्य मूलसंघ–अन्तर्गत नन्दिसंघना प्रधान आचार्य हता. तेओ सुप्रसिद्ध, बहु प्रतिभाशाळी, प्रखर तार्किक विद्वान् अने महान तपस्वी हता. समय :
श्रवण बेल्गोलना शिलालेख नं. ४० (१०८)मा उल्लेख छे के तेओ श्री समंतभद्राचार्यनी पछी थया अने तेओ तेमना मतानुयायी हता.
तेमणे पोताना ‘जैनेन्द्र व्याकरण’मां
उल्लेख कर्यो छे. ते पण बतावे छे के श्री समन्तभद्राचार्य तेमना पूर्वागामी हता.
विद्वानोना मत प्रमाणे श्री समन्तभद्राचार्य ई.स. २००मां–बीजी शताब्दिमां थई गया. श्री भट्टाकलंकदेवे (समय–ई.स. ६२० थी ६८०) पोतानी ‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’मां अने श्री विद्यानंदे (समय ई.स. ७७५ थी ८००) पोतानी ‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ टीकामां, श्री पूज्यपाद रचित ‘सर्वार्थसिद्धि’नां वाक्योनो उपयोग अने अनुसरण कर्युं छे. आथी अनुमान थाय छे के श्री पूज्यपाद स्वामी श्री भट्टाकलंकदेवनी पहेलां अर्थात् ई.स. ६२० पहेलां थई गया होवा जोईए.
आ बंने आधारोथी साबित थाय छे के तेओ ई.स. २०० अने ई.स. ६२०नी वच्चेना काळमां थई गया.
शिलालेखो अने उपलब्ध जैन साहित्य उपरथी विद्वानोए नक्की कर्युं छे के आ सुप्रसिद्ध आचार्य ई.स. पांचमी शताब्दिमां अने विक्रमनी छठ्ठी शताब्दिमां थई गया. निवासस्थान अने माता–पितादि :
तेओ कर्णाटक देशना निवासी हता. कन्नड भाषामां लखेला ‘पूज्यपादचरिते’ तथा ‘राजावलीकथे’ नामना ग्रंथोमां तेमना पितानुं नाम ‘माधवभट्ट’ अने मातानुं नाम ‘श्रीदेवी’ आप्युं छे अने लख्युं छे के तेओ ब्राह्मणकुलमां उत्पन्न थया हता.
श्री देवसेनाचार्यकृत ‘दर्शनसार’मां लख्युं छे के तेमना एक वज्रनंदी नामना शिष्ये वि.सं. ५२६मा द्राविड संघनी स्थापना करी.
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तेमनुं नाम :
तेमनुं दीक्षा नाम देवनन्दी हतुं; अने पाछळथी तेओ पूज्यपाद, जिनेन्द्रबुद्धि आदि अपर नामोथी लोकमां प्रसिद्ध थया.
श्रवण बेल्गोलाना शिलालेखमां उल्लेख छे के–
बुद्धया पुनर्विंपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः ।
यत्पूजितः पदयुगे वनदेवताभिः ।।
उपरोक्त लेखोथी जणाय छे के तेओ त्रण नाम–देवनन्दी, जिनेन्द्रबुद्धि अने पूज्यपादथी प्रसिद्ध हता. देवनन्दी–ए तेमना गुरुए आपेलुं दीक्षानाम छे, बुद्धिनी प्रकर्षता– विपुलताना कारणे तेओए पाछळथी ‘जिनेन्द्रबुद्धि’–ए नाम प्राप्त कर्युं अने तेमना चरणयुगलनी देवताओए पूजा करी तेथी बुधजनोए तेमने ‘पूज्यपाद’ नामथी विभूषित कर्या. तेमनी अद्भुत जीवन-घटनाओ :
नीचेना शिलालेखो तेमना जीवन उपर सारो प्रकाश पाडे छे :–
उपरोक्त शिलालेखोमां दर्शाव्युं छे के—
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श्री पूज्यपादे धर्मराज्यनो उद्धार कर्यो, देवोना अधिपतिओए तेमनुं पादपूजन कर्युं तेथी तेओ पूज्यपाद कहेवाया, तेमना द्वारा उद्धार पामेलां शास्त्रो आजे पण तेमना विद्याविशारद गुणोनुं कीर्तिगान करे छे. तेओ जिनवत् विश्वबुद्धिना धारक हता अर्थात् समस्त शास्त्र-विषयोमां पारंगत हता. तेमणे कामदेवने जीत्यो हतो तेथी कृतकृत्यभावधारी उच्च कोटिना योगीओए तेमने ‘जिनेन्द्रबुद्धि’ नामे वर्णव्या छे.
वळी आ शिलालेखमां एवो पण उल्लेख छे के–- (१) तेओ अद्वितीय औषध-ऋद्धिना धारक हता, (२) विदेहक्षेत्रस्थित जिनेन्द्र भगवानना दर्शनथी तेमनुं गात्र पवित्र थई गयुं हतुं; (३) तेमना पादोदक (चरण-जल)ना स्पर्शथी एक वखत लोढुं पण सोनुं थई गयुं हतुं. आ उपरांत घोर तपश्चर्यादिथी तेमनी आंखनुं तेज नष्ट थयुं हतुं, परंतु ‘शान्त्यष्टक’ना एकाग्रतापूर्वक पाठथी नेत्र-तेज पुन: प्राप्त थयुं हतुं.
महा योगीओने माटे आवी घटनाओ असंभवित नथी. ग्रन्थरचना :
श्री पूज्यपादस्वामीए जे ग्रन्थो रच्या छे तेमां ‘जैनेन्द्र व्याकरण’, शब्दावतार, सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश ग्रन्थो प्रमुखस्थाने छे. नीचेना शिलालेखथी तेमना रचित ग्रन्थोनो ख्याल आवे छे—
सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेकः स्वकः ।
माख्यातीह स पूज्यपादमुनिषः पूज्यो मुनीनां गणैः ।।४।। (–श्र.शि.ले.नं. ४०)
जेमनुं ‘जैनेन्द्र व्याकरण’ शब्दशास्त्रोमां पोताना अनुपम स्थानने, ‘सर्वार्थसिद्धि’ सिद्धान्तमां परम निपुणताने, ‘जैनाभिषेक’ उच्च कक्षानी कविताने, ‘छन्दशास्त्र’ बुद्धिनी सूक्ष्मता (रचनाचातुर्य)ने अने ‘समाधिशतक’ स्वात्मस्थिति (स्थितप्रज्ञता)ने संसारमां विद्वानो प्रति जाहेर करे छे, ते पूज्यपाद मुनीन्द्र मुनिगणोथी पूजनीय छे. जैनेन्द्र व्याकरण :
आ संस्कृत व्याकरणनो ग्रंथ छे. तेना सूत्रोना लाघवादिना कारणे तेनुं महत्व घणुं छे अने तेथी तेणे लोकमां सारी प्रतिष्ठा प्राप्त करी छे. भारतमां आठ प्रमुख शाब्दिकोमां व्याकरणना कर्ता श्री पूज्यपाद स्वामीनी सारी गणना छे.
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सर्व व्याकरणोमां, श्री पूज्यपाद स्वयं विद्वानोना अधिपति हता, अर्थात् सर्व व्याकरण पंडितोमां शिरोमणि हता. शब्दावतार :
आ पण व्याकरणनो ग्रन्थ छे. ते प्रख्यात वैयाकरण पाणिनीना व्याकरण उपर लखेलो ‘शब्दावतार’ नामनो न्यास छे. ‘नगर’ तालुकाना शिलालेखमां तेनो उल्लेख छे. सर्वार्थसिद्धि :
श्री उमास्वामी रचित ‘तत्त्वार्थसूत्र’नी संस्कृत टीकारुपे आ ग्रन्थ छे. ‘तत्त्वार्थसूत्र’नी आ सौथी प्रथम टीका छे. तेनी पछी श्री अकलंकदेवे ‘तत्त्वार्थ राजवार्तिक’ अने श्री विद्यानंदे ‘तत्त्वार्थश्लोक’ नामनी टीकाओ लखी. आ टीकाओमां ‘सर्वार्थसिद्धि’नो सारो उपयोग करवामां आव्यो छे अने तेनुं ठीक प्रमाणमां अनुसरण करवामां आव्युं छे. सिद्धांत ग्रन्थोमां आ ग्रन्थ बहु ज प्रमाणभूत गणाय छे अने जैन समाजमां तेनुं सारुं महत्व अंकाय छे. समाधितंत्र अने इष्टोपदेश :
आ बंने आध्यात्मिक ग्रन्थो छे. समाधितंत्रनुं अपरनाम समाधिशतक छे. तेनी सं. टीका श्री प्रभाचंद्रे करी छे अने इष्टोपदेशनी सं. टीका पं. आशाधरजीए करी छे. बंने ग्रंथो जैन- समाजमां सुप्रसिद्ध छे.
श्री पूज्यपादाचार्ये ‘समाधितंत्र’मां श्री कुंदकुंदाचार्य जेवा प्राचीन आचार्योनां आगमवाक्योनुं सफळतापूर्वक अनुसरण कर्युं छे. मोक्षपाहुड, समयसारादि आध्यात्मिक शास्त्रोनो आंशिक प्रतिध्वनि, आ ग्रन्थमां तुलनात्मक द्रष्टिवाळाने जरुर जणाया वगर रहेशे नहि.
शिलालेखो, उपलब्ध ग्रन्थो अने ऐतिहासिक गवेषणाथी ज्ञात थाय छे के पूज्यपादस्वामी एक सुप्रतिष्ठित जैन आचार्य, अद्वितीय वैयाकरण, महान दार्शनिक, धुरंधरकवि, महान तपस्वी अने युगप्रधान योगीन्द्र हता. महत्त्वना विषयो उपर तेमणे जे ग्रन्थो रच्या छे ते तेमनी अपार विद्वत्तानी साक्षी पूरे छे.
तेमना दिगंतव्यापी यश अने विद्वत्ताथी आकर्षाई कर्णाटकना ई.स. ८मी, ९मी, १०मी शताब्दिना प्राय: सर्व प्राचीन विद्वान कविओए पोतपोताना ग्रन्थोमां बहु भक्ति–भावभरी श्रद्धांजलि अर्पी तेमनी मुक्तकंठे खूब खूब प्रशंसा करी छे.
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प्रस्तुत ग्रन्थनी संस्कृत टीकाने अंते आपेली प्रशस्ति उपरथी जणाय छे के श्री प्रभाचन्द्र (प्रभेन्दु) आ ग्रंथना संस्कृत टीकाकार छे. केटलाक विद्वानोना मत प्रमाणे तेओ ‘श्री समन्तभद्राचार्य’ रचित ‘रत्नकरंड-श्रावकाचार’ना पण संस्कृत टीकाकार छे. तेमणे समाधितंत्रना (समाधिशतकना) प्रत्येक श्लोकमां गर्भित रहेला भावने (हार्दने) सरळ संस्कृत भाषामां सारी रीते व्यक्त कर्यो छे.
तेमनो समय, स्थान, गुरु, माता-पितादिना संबंधमां योग्य संशोधन थवानी जरुर छे. आ ग्रन्थमां तेमनी संस्कृत टीकानो शब्दश: गुजराती अनुवाद करवामां आव्यो छे.
केटलांक वर्ष उपर परम पूज्य आत्मज्ञ संत श्री कानजीस्वामीनां, आ आध्यात्मिक ग्रन्थ उपर सोनगढमां, प्रवचनो थयेलां. मने ते पूरेपूरां सांभळवानी अलभ्य तक मळेली. हुं तेओश्रीनां प्रवचनोथी प्रभावित थयो अने विचार स्फूर्यो के आवा ग्रन्थनो गुजराती अनुवाद करवामां आवे तो, विद्वान ग्रन्थकर्ताना आध्यात्मिक ज्ञानथी जैन समाज वंचित रहे नहि. आ विचार केटलांक वर्षो सुधी घोळाया कर्यो. आखरे मित्रो अने स्नेहीओनी सलाह अने सहानुभूतिथी ए विचार बे वर्ष उपर अनुवादरुपे परिणम्यो.
खरुं कहुं, तो आ अनुवादना मूळ प्रेरकरुप श्री स्वामीजीनां प्रवचनो ज छे. तेथी अत्यंत आभारपूर्वक हुं तेओश्री प्रत्ये सादर भक्तिभाव प्रगट करुं छुं.
में मारो विचार मान्यवर मुरब्बी श्रीयुत रामजीभाई माणेकचंद दोशी, वकील आगळ रजू कर्यो अने करेला अनुवादने तपासी जवाने तेओश्रीने विनंती करी. तेमणे घणी ज काळजीपूर्वक ते अनुवादने आदिथी अंत सुधी–प्रत्येक श्लोकनो अन्वयार्थ, संस्कृत टीकानो अनुवाद, भावार्थ, वगेरे-बराबर तपास्यो अने अमूल्य सूचनाओ करी. सूचवेला सुधारा- वधारा साथे में तेओश्रीनी देखरेख नीचे फरीथी अनुवाद लख्यो. आ अनुवाद पण तेओश्री फरीथी तपासी गया. आ रीते अनुवाद पाछळ तेमणे लगभग त्रण महिना जेटला पोताना अमूल्य समयनो भोग आपी श्रम लीधो. ते माटे हुं तेओश्री प्रति कृतज्ञताभरी लागणी पूज्यभाव प्रगट करुं छुं.
आ अनुवादना प्रकाशन माटे श्री जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट–सोनगढना प्रमुख श्री नवनीतलाल सी. झवेरी (मुंबई)ने विनंती करी. तेमने पण आ ग्रन्थना अनुवादनी आवश्यकता जणाई एटलुं ज नहि, पण ते एक सुंदर ग्रन्थस्वरुप प्रगट थाय तेवी इच्छा व्यक्त करी अने बधो अनुवाद श्रीयुत खीमचंदभाई जे. शेठ द्वारा तपासावी लेवा सलाह आपी. ते प्रमाणे में तेमने विनंती करी. तेमणे मारी विनंतीने मान आपी बधो अनुवाद बारीक द्रष्टिए
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तपासी लीधो अने कोई कोई स्थळे योग्य सुधारो सूचव्यो.
मुख्यतया श्रीयुत रामजीभाई अने श्रीयुत खीमचंदभाईना सुप्रयत्नना फलस्वरुप आ अनुवाद छे. ते माटे नम्रभावे हुं तेमनो जेटलो आभार मानुं तेटलो ओछो छे. तेमनी सहाय अने प्रोत्साहनथी ज आ अनुवाद प्रकाशमां आववा पाम्यो छे, एम कहेवामां बिलकुल अतिशयोक्ति नथी.
आ ग्रन्थनो हिन्दी अनुवाद ब्र. श्री शीतलप्रसादजी तथा श्रीयुत जुगलकिशोर मुख्तारजीए करेलो छे, परंतु तेओए संस्कृत टीकानो शब्दश: अनुवाद नहीं करतां फक्त भाव ज आप्यो छे. तेनो गुजराती अनुवाद, स्व. मणिलाल नभुभाई द्विवेदीकृत, सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय–अमदावाद तरफथी प्रसिद्ध थयो छे. तेमणे पाटण–जैन भंडारनी हस्तलिखित प्रतना आधारे संस्कृत टीकानो अनुवाद कर्यो छे, परंतु उपलब्ध बीजी दिगम्बर जैन हस्तलिखित प्रतो साथे तेनो केटलीक जग्याए मेळ बेसतो नथी.
जयपुर तथा दिल्ही दि. जैन भंडारोनी हस्तलिखित प्रतो उपरथी श्री मुख्तारजीए जे संस्कृत टीका प्रगट करी छे, तेनो आ ग्रन्थमां उपयोग करवामां आव्यो छे. आ टीकाने घणे अंशे मळती एक वधु शुद्ध हस्तलिखित प्रत मने ईडर–दि. जैन सरस्वती भंडारमांथी तेना प्रबंधकर्ताना सौजन्यथी प्राप्त थई छे. आ बधी प्रतोनो आधार लई शब्दश: आ गुजराती अनुवाद करवामां आव्यो छे अने आ ग्रंथकर्ता तथा टीकाकारना भावने वधु स्पष्ट करवा, ते साथे ‘भावार्थ’ तथा ‘विशेषार्थ’ पण उमेरवामां आव्या छे.
आ कार्यमां प्रत्यक्ष या परोक्ष सहाय करनार व्यक्तिओनो तथा दि. जैन संस्थाओनो हुं आभार मानुं छुं.
ब्र. श्री गुलाबचंदभाई तथा ब्र. श्री चंदुभाईए पण अनुवाद-कार्यमां प्रोत्साहन अने सहानुभूति दर्शावी छे तथा मार्गदर्शन कर्युं छे. ते माटे हुं तेमनो पण आभारी छुं.
आ सिवाय जे जे भाईओए मने सहाय करी छे, ते सर्वेनो हुं समग्रपणे आभार मानुं छुं.
आ अनुवाद उपरोक्त बे विद्वानो द्वारा परिशोधित होवा छतां तेमां जे कांई स्खलना द्रष्टिगोचर पडे ते अनुवादकनी ज छे, एम समजवा विद्वान वर्गने विनंती छे.
सोनगढ (सौराष्ट्र) ता. ३-४-१९६६ श्री महावीर जयंति
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श्लोकविषयपृष्ठ १.मंगलाचरण (सिद्धात्माने नमस्कार)......................................................... १ २.मंगलाचरण (सकल परमात्मा–श्री अरिहंतने नमस्कार) ................................ ६ ३.ग्रन्थकारनी ग्रन्थरचना माटे प्रतिज्ञा....................................................... १० ४.आत्माना त्रण भेद .......................................................................... १३ ५.बहिरात्मादिनां लक्षण ....................................................................... १७ ६.परमात्मा वाचक नाम ....................................................................... २१ ७.बहिरात्मानी शरीरादिमां आत्मबुद्धि ..................................................... २२ ८-९.चतुर्गति संबंधी शरीरभेदथी जीवभेदनी मान्यता ....................................... २५ १०.बहिरात्मानी अन्य शरीरमां मान्यता ..................................................... २८ ११.शरीरमां आत्मबुद्धिनुं परिणाम............................................................ २९ १२.अविद्याना संस्कारनुं परिणाम .............................................................. ३१ १३.बहिरात्मा अने अंतरात्मामां कर्तव्य भेद ................................................ ३२ १४.शरीरमां आत्मबुद्धि माटे खेद ............................................................. ३४ १५.संसारदुःखनुं मूळ ............................................................................ ३५ १६.अन्तरात्मानो पूर्व अवस्था संबंधी खेद ................................................... ३७ १७.आत्मज्ञाननो उपाय ......................................................................... ३९ १८.अन्तरंग–बहिरंग वचन–प्रवृत्तिना त्यागनो उपाय..................................... ४० १९.अन्तर्विकल्पोना त्यागनो उपाय ............................................................ ४२ २०.आत्मानुं निर्विकल्प स्वरुप .................................................................. ४४ २१-२२. अन्तरात्मानी आत्मज्ञान पहेलां अने पछी चेष्टा ..................................४६-४८ २३.लिंग-संख्यादि विषे भ्रम–निवारण ........................................................ ४९ २४.आत्मस्वरुपनो अनुभव .................................................................... ५१ २५-२६. आत्मानुभवीनो शत्रु-मित्र विचार ....................................................५२-५४ २७.परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय ............................................................. ५५ २८.परमात्मपदनी भावनानुं फळ .............................................................. ५६ २९.भय अने अभयनुं स्थान ................................................................... ५७ ३०-३१-३२. परमात्मस्वरुपनी प्राप्तिनो उपाय ........................................... ५९-६०-६२ ३३.आत्मज्ञान विना तपश्चरण व्यर्थ ........................................................... ६३ ३४.आत्मज्ञानीने तपश्चरणनो खेद होतो नथी. .............................................. ६५ ३५.राग-द्वेष रहित मनवाळो ज आत्मदर्शी छे............................................... ६७ ३६.आत्मतत्त्व अने आत्मभ्रान्ति .............................................................. ६८
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३७.विक्षिप्त अने अविक्षिप्त मननुं कारण ..................................................... ७० ३८.विक्षिप्त अने अविक्षिप्त मननुं फळ ....................................................... ७२ ३९.राग-द्वेषादि दूर करवानो उपाय ............................................................ ७३ ४०.शरीरादिनो प्रेम केवी रीते दूर थाय ? ..................................................... ७५ ४१.आत्मविभ्रमज दुःख दूर करवानो उपाय ................................................. ७६ ४२.तपथी बहिरात्मा अने अंतरात्मा शुं चाहे छे ? ......................................... ७८ ४३.कर्मबंधन कोण करे छे? बहिरात्मा के अंतरात्मा ? ...................................... ८० ४४.बहिरात्मा अने अंतरात्माना विचारो ..................................................... ८२ ४५.अन्तरात्माने देहादिमां अभेद-भ्रान्ति केम ?............................................. ८३ ४६.अन्तरात्मा थयेली भ्रांतिने केवी रीते छोडे ? ............................................. ८५ ४७.बहिरात्मा अने अन्तरात्मानो त्याग-ग्रहण विषय ...................................... ८६ ४८.अन्तरात्मानो अंतरंग त्याग-ग्रहण ....................................................... ८८ ४९.बहिरात्मा अने अंतरात्माने जगत केवुं भासे छे ? ..................................... ९० ५०.अन्तरात्मानी भोजनादिकमां केवी प्रवृत्ति होय छे ? .................................... ९१ ५१.अनासक्त अन्तरात्मा आत्मज्ञानने ज बुद्धिमां धारण करे छे. ........................ ९३ ५२.आत्मानुभव करनारने दुःख-सुख केवी रीते होय ? ..................................... ९४ ५३.आत्मस्वरुपनी भावना केवी रीते करवी ? ................................................ ९६ ५४.शरीरादिमां भ्रान्त-अभ्रान्त मनुष्यनो व्यवहार .......................................... ९८ ५५.बहिरात्मानी बाह्य विषयमां आसक्ति ................................................. १०० ५६.बहिरात्मानी दशा ......................................................................... १०२ ५७.स्व शरीर अने पर शरीरने केवी रीते अवलोकवुं ? ................................... १०३ ५८.अन्तरात्मा बहिरात्माने आत्मतत्त्व केम बतावता नथी. ............................. १०५ ५९.बहिरात्माने आत्मतत्त्वमां रुचि नथी. .................................................. १०७ ६०.बहिरात्माने आत्मबोध केम थतो नथी ?............................................... १०९ ६१.अंतरात्मानी शरीरादिकनी शणगारवामां उदासीनता ................................. ११० ६२.संसार शाथी टके छे ? ..................................................................... ११२ ६३-६६. अंतरात्मा शरीरनी अवस्थाथी आत्मानी अवस्था मानतो नथी. ............ ११४-११८ ६७.अन्तरात्माने मुक्तिनी योग्यता .......................................................... ११८ ६८.बहिरात्माने संसार-भ्रमणनुं कारण ..................................................... १२० ६९.बहिरात्मा कोने आत्मा माने छे ?....................................................... १२२ ७०.शरीरथी भिन्न आत्म-भावना करवानो उपदेश ....................................... १२३ ७१.आत्मानी एकाग्र भावनानुं फळ ......................................................... १२४ ७२.चित्तनी स्थिरता माटे लोकसंसर्गनो त्याग .............................................. १२५
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७३.शुं मनुष्योनो संसर्ग छोडी जंगलमां वसवुं ?........................................... १२७ ७४.आत्मभावना अने अनात्मभावनानुं फळ .............................................. १२८ ७५.आत्मा ज आत्मानो गुरु छे ............................................................. १२९ ७६.बहिरात्मा मरणथी शाथी डरे छे ?...................................................... १३१ ७७.अन्तरात्मानी मरण समये निर्भयता .................................................... १३२ ७८.जे व्यवहारमां सूतो ते आत्मविषयमां जागृत .......................................... १३४ ७९.जे आत्मविषयमां जागृत होय छे ते मुक्ति पामे छे. ................................. १३६ ८०.अन्तरात्माने जगत योग अवस्थामां केवुं लागे छे. ................................... १३७ ८१.आत्माने शरीरादिथी भिन्न भाळ्या विना मुक्ति नथी................................ १३९ ८२.अन्तरात्माए भेदविज्ञाननी भावना केवी रीते करवी ? .............................. १४० ८३.अव्रतोनी जेम व्रतोना विकल्प पण त्याज्य छे. ........................................ १४२ ८४.व्रतोना विकल्पोने छोडवानो क्रम ......................................................... १४३ ८५.विकल्पजाळना नाशथी परमपदनी प्राप्ति. .............................................. १४४ ८६.उत्प्रेक्षा--जालना नाशनो क्रम.............................................................. १४६ ८७.लिंग--विकल्प मोक्षनुं कारण नथी. ....................................................... १४९ ८८.जातिनो आग्रह पण मुक्तिनुं कारण नथी............................................... १५० ८९.जाति संबंधी आगम--हठवाळो परमपदने पामता नथी. ............................. १५१ ९०.मोही जीवोनो शरीरमां अनुराग ........................................................ १५३ ९१.मोही जीवोनो शरीरमां दर्शन-व्यापारनो विपर्यास .................................... १५४ ९२.संयोगी अवस्थामां अन्तरात्मा शुं करे छे ? ............................................ १५५ ९३.बहिरात्मा अने अन्तरात्मानी कई दशा भ्रमरुप अने कई भ्रमरहित होय छे. .. १५६ ९४.बहिरात्मानुं सकल शास्त्रज्ञान निष्फळ छे. .............................................. १५९ ९५.ज्ञातात्मानुं सप्तादि अवस्थाओमां पण स्वरुप संवेदन ............................... १६० ९६.चित्त क्यां अनासक्त होय छे ? .......................................................... १६२ ९७.भिन्नात्मानी उपासनानुं फळ............................................................. १६३ ९८.अभिन्नात्मानी उपासनानुं फळ .......................................................... १६४ ९९.भिन्नाभिन्नात्मभावनानो अस्वीकार ................................................... १६६ १००.चार्वाक--सांख्यमतनुं निरसन ............................................................. १६८ १०१.शरीरनो नाश थवा छतां आत्मानो अविनाश.......................................... १७१ १०२.मुक्ति माटे भेदविज्ञान साथे तपश्चरण ................................................. १७२ १०३.आत्मानी गति-स्थितिथी शरीरनी गति-स्थिति ......................................... १७३ १०४.शरीर--यंत्रोनुं आत्मामां आरोपण ...................................................... १७६ १०५.ग्रन्थनो उपसंहार .......................................................................... १७७ टीका प्रशस्ति................................................................................ १७९
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निर्वाणमार्गममलं विबुधेन्द्रवन्द्यम् ।
वक्ष्ये समाधिशतकं प्रणिपत्य वीरम् ।।
श्रीपूज्यपादस्वामी मुमुक्षूणां मोक्षोपायं मोक्षस्वरूपं चोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह —
अर्थः सिद्ध, अनुपमज्ञानवान् (अनंतज्ञानी), निर्वाणमार्गरूप, निर्मळ (वीतराग), देवेन्द्रोथी वंदनीय तथा संसार – सागरने पार करवा माटे उत्कृष्ट नावरूप – एवा वीर जिनेन्द्र भगवानने प्रणिपात करीने, हुं (श्रीप्रभाचंद्र) समाधिशतक कहीश.
श्री पूज्यपादस्वामी (आ समाधितंत्रना रचयिता) मुमुक्षुओने मोक्षनो उपाय अने मोक्षनुं स्वरूप बताववानी कामनाथी तथा निर्विघ्ने शास्त्रनी परिसमाप्ति – आदिरूप फलनी अभिलाषाथी इष्टदेवताविशेषने नमस्कार करीने कहे छेः –
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टीका — अत्र पूर्वार्द्धेन मोक्षोपाय उत्तरार्द्धेन च मोक्षस्वरूपमुपदर्शितम् । सिद्धात्मने सिद्धपरमेष्ठिने सिद्धः सकलक र्मविप्रमुक्तः स चासावात्मा च तस्मै नमः । येन किं कृतं ? अबुद्ध्यत ज्ञातः । कोऽसौ ? आत्मा । कथं ? आत्मैव । अयमर्थः येन सिद्धात्मनाऽत्रात्मैवाध्यात्मैवा- ध्यात्मत्वेनाबुद्ध्यत न शरीरादिकं कर्मापादितसुरनरनारकतिर्यगादिजीवपर्यायादिकं वा । तथा परत्वेनैव चापरम् । अपरं च शरीरादिकं कर्मजनितमनुष्यादिजीवपर्यायादिकं वा परत्वेनैवात्मनोभेदेनैवाबुद्ध्यत ।
अन्वयार्थ : (येन) जेनाथी (आत्मा आत्मा एव) आत्मा आत्मा रूपे ज (अबुध्यत) जणायो (च) अने (अपरं परत्वेन एव) पर पररूपे ज जणायुं (तस्मै) ते (अक्षयानन्तबोधाय) अविनाशी अनन्त ज्ञानस्वरूप (सिद्धात्मने) सिद्धात्माने (नमः) नमस्कार हो!
टीका : अहीं पूर्वार्धथी मोक्षनो उपाय अने उत्तरार्धथी मोक्षनुं स्वरूप दर्शाव्युं छे.
सिद्धात्माने एटले सिद्धपरमेष्ठीने – सिद्ध एटले सर्व कर्मथी संपूर्णपणे (अत्यंत) मुक्त एवा आत्माने – नमस्कार हो!
जेणे शुं कर्युं? जाण्यो. कोने? आत्माने. केवी रीते (जाण्यो)? आत्मारूपे ज अर्थ ए छे के सिद्धात्माए अहीं आत्माने आत्मारूपे ज अर्थात् अध्यात्मरूपे ज जाण्यो, तेने शरीरादिक के कर्मोपादित सुर – नर – नारक – तिर्यंचादिक जीवपर्यायादिकरूपे न जाण्यो तथा (जेणे) अन्यने एटले शरीरादिक वा कर्मजनित मनुष्यादि जीवपर्यायादिने पररूपे अर्थात् आत्माथी भिन्नरूपे ज जाण्या.
केवा तेमने (नमस्कार)? अक्षय अनंत१ बोधवाळा – अक्षय एटले अविनश्वर अने १. अनन्त – क्षेत्रनी अंतरहित अने कालथी अंतरहित (जुओ – पंचास्तिकाय गाथा १नी सं. टीका)
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तस्मे कथंभूताय ? अक्षयानन्तबोधाय अक्षयोऽविनश्वरोऽनन्तोदेशकालानवच्छिन्न-स्समस्तार्थपरिच्छेदको वा बोधो यस्य तस्मै । एवंविधबोधस्य चानन्तदर्शनसुखवर्यैरविनाभावित्व-सामर्थ्यादनंतचतुष्टयरूपायेति’ गम्यते । ननु चेष्टदेवताविशेषस्य पञ्चपरमेष्ठिरूपत्वात्तदत्र सिद्धात्मन एव कस्माद् ग्रन्थकृता नमस्कारः कृत इति चेत्, ग्रन्थस्य कर्तुर्व्याख्यातुः श्रोतुरनुष्ठातुश्च सिद्धस्वरूपप्राप्त्यर्थत्वात् । यो हि यत्प्राप्त्यर्थी स तं नमस्करोति यथा धनुर्वेदप्राप्त्यर्थी धनुर्वेदविदं नमस्करोति । सिद्धस्वरूपप्राप्त्यर्थी च समाधिशतकशास्त्रस्यकर्ता व्याख्याता श्रोता तदर्थानुष्ठाता चात्मविशेषस्तस्मात्सिद्धात्मानं नमस्करोतीति । सिद्धशब्देनैव चार्हदादीनामपि ग्रहणम् । तेषामपि देशतः सिद्धस्वरूपोपेतत्वात् ।।१।। अनंतर एटले देशकालथी अनवच्छिन्न एवा समस्त पदार्थोना परिच्छेदक अर्थात् ज्ञानवाळा – तेमने (नमस्कार). आवा प्रकारना ज्ञान अनंत दर्शन – सुख – वीर्य साथेना अविनाभावीपणाना सामर्थ्यने लीधे तेओ अनंतचतुष्टयरूप छे एम बोध थाय छे.
शंकाः इष्टदेवता विशेष पंचपरमेष्ठी होवा छतां अहीं ग्रन्थकर्ताए सिद्धात्मने ज केम नमस्कार कर्या?
समाधानः ग्रन्थकर्ता, व्याख्याता, श्रोता अने अनुष्ठाताने सिद्धस्वरूपनी प्राप्तिनुं प्रयोजन होवाथी (तेमणे तेम कर्युं छे) ए जेनी प्राप्तिनो अर्थी होय ते तेने नमस्कार करे छे; जेम धनुर्विद्याप्राप्तिनो अर्थी धनुर्वेदीने नमस्कार करे छे तेम. तेथी सिद्धस्वरूपनी प्राप्तिना अर्थी – समाधिशतक शास्त्रना कर्ता, व्याख्याता, श्रोता अने तेना अर्थना अनुष्ठाता आत्मविशेष – ( – ए सर्वे) सिद्धात्माने नमस्कार करे छे.
‘सिद्ध’ शब्दथी अर्हंतादिनुं पण ग्रहण समजवुं कारण के तेमणे पण देशतः (अंशे) सिद्धस्वरूप प्राप्त कर्युं छे. (१)
भावार्थ : ग्रन्थकारे श्लोकना पूर्वार्धमां स्व – परनुं भेदविज्ञान ते ज मोक्षप्राप्तिनो उपाय छे एम सूचव्युं छे अने तेना उत्तरार्धमां फळस्वरूप परिपूर्ण ज्ञान आनंदरूप एवी सिद्धदशा ते मोक्षस्वरूप छे एम दर्शाव्युं छे; अर्थात् प्रस्तुत श्लोकमां मोक्षनो उपाय अने मोक्षनुं स्वरूप बताव्युं छे.
जेमणे आत्माने आत्मारूपे ज यथार्थ जाण्यो छे शरीरादि अने सुर नर – नारकादि पर्यायरूपे जाण्यो नथी अने परने पररूपे जाण्यो छे – अर्थात् शरीरादि अने नर – नारकादि पर्यायने आत्माथी पर जाण्या छे, तेवा अविनाशी अनंतज्ञानस्वरूप सिद्धात्माने अहीं नमस्कार कर्या छे.
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आत्मा आत्मारूपे छे अने शरीरादि पर पदार्थोरूपे नथी तथा शरीरादि पर पदार्थो पररूपे छे अने आत्मारूपे नथी – एवुं निर्णयपूर्वक स्व – परनुं भेदविज्ञान सिद्धपद पामवानो मोक्षप्राप्तिनो उपाय छे.
श्री समयसार गाथा २नी टीकामां पण लख्युं छे के –
‘........सर्व पदार्थोना स्वभावने प्रकाशवामां समर्थ एवा केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योति उदय पामे छे......’’
ए प्रमाणे भेदज्ञानज्योति ज केवळज्ञान प्रगट करवानुं साधन (उपाय) छे.
‘‘प्रथम तो दुःख दूर करवा माटे स्व – परनुं ज्ञान अवश्य जोईए कारण के स्व – परनुं ज्ञान जो न होय तो पोताने ओळख्या विना पोतानुं दुःख ते केवी रीते दूर करे?
अथवा स्व – परने एकरूप जाणी पोतानुं दुःख दूर करवा अर्थे परनो उपचार करे तो तेथी पोतानुं दुःख केवी रीते दूर थाय? अथवा पोताथी भिन्न एवा परमां आ जीव अहंकार – ममकार करे तो तेथी दुःख ज थाय. माटे स्व – परनुं ज्ञान थतां दुःख दूर थाय छे.
हवे स्व – परनुं ज्ञान जीव – अजीवनुं ज्ञान थतां ज थाय छे कारण के पोते जीव छे तथा शरीरादिक अजीव छे. जो लक्षणादि वडे जीव – अजीवनी ओळखाण थाय तो ज स्व – परनुं भिन्नपणुं भासे; माटे जीव – अजीव जाणवा जोईए.....’’१
‘‘........सर्वे दुःखोनुं मूळ कारण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र छे. ए सर्वे दुःखोनो अभाव करवा माटे तेने बे प्रकारनुं भेदज्ञान कराववामां आवे छे.
जीव पोताना गुणो अने पर्यायोथी एक छे – अभिन्न छे तथा पर द्रव्यो, तेना गुणो अने पर्यायोथी अत्यंत जुदो छे अर्थात् जीव स्वद्रव्ये स्वक्षेत्रे स्वकाळे अने स्वभावे, पर द्रव्यनां द्रव्यक्षेत्रकाळभावथी अत्यंत जुदो छे. तेथी ते अपेक्षाए पर द्रव्यो, तेना गुणो अने १. मोक्षमार्ग प्रकाशक – गु. आवृत्ति – पृ. ८२