Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 2-7.

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तेना पर्यायो साथेनो संबंध मात्र व्यवहारनये संयोगरूप के निमित्तरूप छे एवुं ज्ञान कराववामां आवे छे.

आ द्रष्टिए पर द्रव्यो साथेनो संबंध असद्भूतअसत्य होवाथी ते संबंधीनुं ज्ञान करावनारा नयने ‘व्यवहारनय’ कहेवामां आवे छे अने जीवना द्रव्यगुणपर्याय पोताना होवाथी ते सद्भूतसत्य होवाथी ते संबंधीनुं ज्ञान करावनारा नयने ‘निश्चयनय’ कहेवामां आवे छे.

बीजा प्रकारनुं भेदज्ञान

पण पहेला प्रकारनुं भेदज्ञान करवा मात्रथी ज सम्यग्दर्शनज्ञान थतुं नथी. अनादिथी जीवनो पर्याय अशुद्ध छे. तेने पोतामां थतो होवानी अपेक्षाए ‘निश्चयनय’नो विषय कहे छे, तो पण ते परना आश्रये थतो होवाथी तेने व्यवहारनयनो पण विषय कहेवाय छे. वळी शुद्ध पर्यायो पण जीवनुं त्रिकाली स्वरूप नथी, तेम ज तेना आश्रये तथा गुणभेदना आश्रये विकल्प उत्पन्न थाय छे तेथी तेनो आश्रय छोडाववा माटे तेने पण व्यवहार कहेवामां आवे छे अने जीव द्रव्यनुं त्रिकाली शुद्धस्वरूप के जे ध्रुव छे तेने ‘निश्चय’ कहेवामां आवे छे केम के तेने आश्रये ज धर्मनी शरूआततेनुं टकवुं

तेनी वृद्धि अने पूर्णता थाय छे.
सिद्धात्माने नमस्कार शा माटे?

‘‘.......सिद्ध भगवंतो सिद्धपणाने लीधे, साध्य जे आत्मा तेना प्रतिच्छंदना (प्रतिबिंबना) स्थाने छेजेमना स्वरूपनुं संसारी भव्य जीवो चिंतवन करीने, ते समान पोताना स्वरूपने ध्यावीने, तेमना जेवा थई जाय छे.....’’

‘‘संसारीने शुद्ध आत्मा साध्य छे अने सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा छे तेथी तेमने नमस्कार करवा उचित छे......’’

वळी श्री मोक्षमार्गप्रकाशकगु. आवृत्ति पृ. ३मां सिद्ध भगवाननुं स्वरूप बतावतां कह्युं छे के

‘‘.......जेना ध्यान वडे भव्य जीवोने स्वद्रव्यपरद्रव्यनुं उपाधिक भाव तथा १. जुओः श्री समयसारश्री रायचंद्र ग्रन्थमाळाश्री जयसेनाचार्य टीकागाथा ५७; पृ. १०१; गाथा

१०२, पृ. १६७; गाथ १११ थी ११५, पृ. १७९; गाथा १३७१३८, पृ. १९८ (गु. द्रव्यसंग्रह
पृ. ८, ९).

२. श्री समयसारनवी गु. आवृत्ति पृ. ६, ७.


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अथोक्तप्रकारसिद्धस्वरूपस्य तत्प्राप्त्युपायस्य चोपदेष्टारं सकलात्मानमिष्टदेवताविशेषं स्तोतुमाह स्वाभाविक भावनुं विज्ञान थाय छे, जे वडे पोताने सिद्ध समान थवानुं साधन थाय छे. तेथी साधवा योग्य पोतानुं शुद्ध स्वरूप, तेने दर्शाववा माटे जे प्रतिबिंब समान छे तथा जे कृतकृत्य थया छे तेथी ए ज प्रमाणे अनंतकाळ पर्यंत रहे छे एवी निष्पन्नताने पामेला श्री सिद्ध भगवानने अमारा नमस्कार हो......’’

प्रश्नः पंचपरमेष्ठीमां पहेला अरिहंत देव छे; तो तेमना बदले अहीं सिद्ध भगवानने प्रथम नमस्कार केम कर्या?

उत्तरः सिद्ध दशा ते आत्मानुं परम ध्येय छे. ते ज आत्माने इष्ट छे. ग्रन्थकर्ता व्याख्याता, श्रोता अने अनुष्ठाताने सिद्धस्वरूप प्राप्त करवानी भावना छे, तेथी सिद्ध भगवानने नमस्कार करी कर्ताए ग्रन्थनी शरूआत करी छे. जेने जे गुणनी प्राप्तिनी भावना होय ते ते गुणधारीनुं बहुमान करी तेने नमस्कार करे ए स्वाभाविक छे. जेम धनुर्विद्यानी प्राप्तिनो अभिलाषी पुरुष धनुर्विद्या जाणनारनुं बहुमान करे छे, तेम सिद्धपदनी प्राप्तिनी भावनावाळो जीव, सिद्धपदने पामेला सिद्ध भगवानने नमस्कार करीने शुद्धात्मानो आदर करे छे.

वळी आ अध्यात्म शास्त्र छे तेथी तेमां प्रथम सिद्ध भगवानने नमस्कार करवा ते उचित छे.

श्री कुन्दकुन्दाचार्ये पण श्री समयसारनी शरूआत करतां प्रथम ‘‘वंदित्तु सव्वसिद्धे.......’ कहीने सर्व सिद्धोने नमस्कार कर्या छे.

अरहंतादिने एकदेश सिद्धपणुं प्रगट थयुं छे, माटे सिद्ध भगवानोने नमस्कार करतां पंचपरमेष्ठी भगवंतोने पण तेमां नमस्कार आवी जाय छे.

आ कारणथी शास्त्रकर्ताए मंगलाचरणमां प्रथम सिद्ध भगवानने नमस्कार कर्या छे. १. हवे उक्त प्रकारना सिद्धस्वरूपना तथा तेनी प्राप्तिना उपायना उपदेशदाता इष्टदेवता विशेष ‘सकलात्मनी’ (अरहंत भगवाननी) स्तुति करतां कहे छेः १. जुओः बृ. द्रव्यसंग्रह-गाथा १नी टीका.


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जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारतीविभूतयस्तीर्थकृतोप्यनीहितुः
शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ।।।।

टीकायस्य भगवतो जयन्ति सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते काः ? भारतीविभूतयः भारत्याः वाण्याः विभूतयो बोधितसर्वात्महितत्वादिसम्पदः कथंभूतस्यापि जयन्ति ? अवदतोऽपि ताल्वोष्ठपुटव्यापारेण वचनमनुच्चारयतोऽपि उक्तं च

‘‘यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पंदितोष्ठद्वयं,
नो वांछाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमं
श्लोक २

अन्वयार्थ :(यस्य अनीहितुः अपि) जेमने इच्छा पण नथी, (अवदतः अपि) जेमने तालु, ओष्ठादिद्वारा शब्दोच्चारण पण नथी, (तीर्थकृतः) जेओ तीर्थना करनार छे अने जेमनी (भारतीविभूतयः) वाणीनी (सर्व प्राणीओने हित उपदेशवारूप) विभूतिओ (जयन्ति) जयवंत वर्ते छे, (तस्मै) ते (शिवाय) शिवने (धात्रे) विधातानेब्रह्माने, (सुगताय) सुगतने, (विष्णवे) विष्णुने, (जिनाय) जिनने अने (सकलात्मने) सशरीर शुद्धात्माने (अरहंत परमात्माने) (नमः) नमस्कार हो.

टीका : जे भगवाननी जयवंत वर्ते छे अर्थात् सर्वोत्कर्षरूपे वर्ते छेशुं (जयवंत वर्ते छे)? भारतीनी विभूतिओभारतीनी एटले वाणीनी अने विभूतिओ एटले सर्व आत्माओने हितनो उपदेश देवो इत्यादिरूप संपदाओ(जयवंत वर्ते छे).

केवा होवा छतां (तेमनी वाणीनी विभूतिओ) जयवंत वर्ते छे? नहि बोलता होवा छतां अर्थात् तालुओष्ठना संपुटरूप (संयोगसम) व्यापारद्वारा वचनोच्चार कर्या विना पण (तेमनी वाणी प्रवर्ते छे).

वळी कह्युं छे के

‘‘जे सर्व आत्माओने हितरूप छे, वर्णरहित निरक्षरी छे, बंने होठना परिस्पंदन

बोल्या विण पण भारती-ॠद्धि ज्यां जयवंत,
इच्छा विण पण जेह छे तीर्थंकर भगवंत,
वंदुं ते सकलात्मने श्री तीर्थेश जिनेश,
सुगत तथा जे विष्णु छे, ब्रह्मा तेम महेश. २.


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शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकर्णितं कर्णिभिः,
तन्नः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्वं वचः’’
।।।।

अथवा भारती च विभूतयश्च छत्रत्रयादयः पुनरपि कथम्भूतस्य ? तीर्थकृतोऽप्यनीहितुः ईहा वाञ्छा मोहनीयकर्मकार्यं, भगवति च तत्कर्मणः प्रक्षयात्तस्याः सद्भावानुपपत्तिरतोऽनीहितुरपि तत्करणेच्छारहितस्यापि, तीर्थकृतः संसारोरत्तणहेतुभूतत्त्वात्तीर्थमिव तीर्थमागमः तत्कृतवतः किं नाम्ने तस्मै सकलात्मने ? शिवाय शिवं परमसौख्यं परमकल्याणं निर्वाणं चोच्यते तत्प्राप्ताय धात्रे असिमषिकृष्यादिभिः सन्मार्गोपदेशकत्वेन च सकललोकाभ्युद्धारकाय सुगताय शोभनं गतं ज्ञानं यस्यासौ सुगतः, सुष्ठु वा अपुनरावर्त्यगतिं गतं सम्पूर्णं वा अनन्तचतुष्टयं गतः प्राप्तः सुगतस्तस्मै (हलनचलनरूप व्यापारथी) रहित छे, वांछारहित छे, कोई दोषथी मलिन नथी, तेना (उच्चारणमां) श्वासनुं रूंधन नहि होवाथी अक्रम (एक साथे) छे अने जेने शान्त तथा क्रोधरूपी विषथी रहित (मुनिगण) साथे पशुगणे पण कर्णद्वारा (पोतानी भाषामां) सांभळी छे ते दुःखविनाशक सर्वज्ञनी अपूर्व वाणी अमारी रक्षा करो.’’

अथवा ‘भारतीविभूतयः’नो अर्थ ‘भारती एटले वाणी अने विभूतिओ एटले त्रण छत्रादि’ एम पण थाय.

वळी केवा भगवाननी? तीर्थना कर्ता होवा छतां इच्छारहितनीइहा एटले वांछा जे मोहनीयकर्मनुं कार्य छे, ते कर्मनो भगवानने क्षय होवाथी तेमनामां तेनो (वांछानो) असद्भाव (अभाव) छे; तेथी तेओ इच्छारहित होवा छतांते करवानी इच्छा रहित होवा छतां ‘तीर्थकृत्’ छे अर्थात् संसारथी तारवाना (पार कराववाना) कारणभूतपणाने लीधे तीर्थ समान अर्थात् तीर्थ एटले आगमतेना करनार छेतेमनी (वाणी जयवंत वर्ते छे).

केवा नामवाळा तेमने (नमस्कार)? सकलात्माने, ‘शिव’नेशिव एटले परम सुख, परम कल्याण अने जे निर्वाण कहेवाय छे ते जेमणे प्राप्त कर्युं तेवाने, ‘धाताने’असिमसि- कृषि आदिद्वारा सन्मार्गना उपदेशक होवाना कारणे जेओ सकल लोकना अभ्युद्धारक (तारणहार) तेमने, ‘सुगतने’सारुं छे गत एटले ज्ञान जेमनुं अथवा जे सारी रीते अपुनरावर्त्यगतिने (मोक्षने) पाम्या छे तेमने, अथवा संपूर्ण के अनंतचतुष्टयने जेमणे प्राप्त १. शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयं

प्राप्तं मुक्तिपदं येन सः शिवः परिकीर्तितः ।।


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विष्णवे केवलज्ञानेनाशेषवस्तुव्यापकाय जिनाय अनेकभवगहनप्रापहेतून् कर्मारातीन् जयतीति जिनस्तस्मै सकलात्मे सह कलया शरीरेण वर्तत इति सकलः सचासावात्मा च तस्मै नमः ।।।। कर्युं छे तेवा सुगतने, ‘विष्णुनेजेओ केवळज्ञान द्वारा अशेष (समस्त) वस्तुओमां व्यापक छे एवाने, ‘जिने’अनेक भवरूपी अरण्यने (वनने) प्राप्त कराववाना कारणभूत कर्मशत्रुओने जेमणे जीत्या छे ते जिननेएवा सकलात्मानेकल एटले शरीर सहित जे वर्ते छे ते सकल; अने सकल अर्थात् सशरीर आत्मा ते ‘सकलात्मा’तेमने नमस्कार हो! (२)

भावार्थ : जेओ तीर्थंकर छे, शिव छे, विधाता छे, सुगत छे, विष्णु छे तथा समवरणादि वैभव सहित छे अने भव्य जीवोने कल्याणरूप जेमनी दिव्य वाणी (दिव्य ध्वनि) मुखेथी नहि पण सर्वांगेथी इच्छा वगर छूटे छे अने जयवंत वर्ते छे ते सशरीर शुद्धात्माने अर्थात् जीवनमुक्त अरहंत परमात्माने अहीं नमस्कार कर्या छे.

आ पण मांगलिक श्लोक छे. तेमां ग्रन्थकारे श्री अरहंत भगवानने अने तेमनी दिव्य ध्वनिने नमस्कार कर्या छे.

श्री अरहंत देव केवा छे?

ताळुओष्ठ वगेरेनी क्रियारहित अने इच्छारहित तेमनी वाणी जयवंत वर्ते छे, तेओ तीर्थना कर्ता छे अर्थात् जीवोने मोक्षनो मार्ग बतावनारा छेहितोपदेशी छे, तेमने मोहना अभावने लीधे कोई पण प्रकारनी इच्छा शेष रही नथी अर्थात् तेओ वीतराग छे अने ज्ञानावरणादि चार घातियां कर्मोनो नाश थवाथी तेमने अनंतज्ञानादि गुणो प्रगट थया छे अर्थात् तेओ ‘सर्वज्ञ’ छे.

वळी तेओ शिव छे, धाता छे, सुगत छे, विष्णु छे, जिन छे अने सकलात्मा छे. आ बधां तेमनां गुणवाचक नामो छे.

भगवाननी वाणी केवी छे?

ते दिव्य वाणी छे. ते भगवानना सर्वांगेथी इच्छा विना छूटे छे, सर्व प्राणीओने हितरूप छे अने निरक्षरी छे.

वळी भगवानना दिव्यध्वनिने देव, मनुष्य, तिर्यंचादि सर्व जीवो पोतपोतानी भाषामां १. विश्वं हि द्रव्यपर्यायं विश्वं त्रैलोक्यगोचरम्

व्याप्तं ज्ञानत्विषा येन स विष्णुर्व्यापको जगत् ।।।।—(आप्तस्वरूपः)

२. रागद्वेषादयो येन जिताः कर्म-महाभटाः

कालचक्रविनिर्मुक्तंः स जिनः परिकीर्तितः ।।२१।।—(आप्तस्वरूपः)


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ननु निष्कलेतररूपमात्मानं नत्वा भवान् किं करिष्यतीत्याह

श्रुतेन लिंगेन यथात्मशक्ति समाहितान्तः करणेन सम्यक्

समीक्ष्य कैवल्यसुखस्पृहाणां विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ।।।। पोताना ज्ञाननी योग्यतानुसार समजे छे. ते निरक्षर ध्वनिने ‘ॐकार ध्वनि’ कहे छे. श्रोताओना कर्णप्रदेश सुधी ते ध्वनि न पहोंचे त्यां सुधी ते अनक्षर ज छे अने ज्यारे ते श्रोताओना कर्णो विषे प्राप्त थाय छे त्यारे ते अक्षररूप थाय छे.

‘‘.......जेम सूर्यने एवी इच्छा नथी के हुं मार्ग प्रकाशुं परंतु स्वाभाविक ज तेनां किरणो फेलाय छे, जेथी मार्गनुं प्रकाशन थाय छे. ते ज प्रमाणे श्री वीतराग केवली भगवानने एवी इच्छा नथी के अमे मोक्षमार्गने प्रकाशित करीए, परंतु स्वाभाविकपणे ज अघातिकर्मना उदयथी तेमनां शरीररूप पुद्गलो दिव्यध्वनिरूप परिणमे छे, जेनाथी मोक्षमार्गनुं सहज प्रकाशन थाय छे.....’’

भगवाननी दिव्य ध्वनि द्रव्यश्रुत वचनरूप छे. ते सरस्वतीनी मूर्ति छे, कारण के वचनोद्वारा अनेक धर्मवाळा आत्माने ते परोक्ष बतावे छे. केवळज्ञान अनंत धर्मसहित आत्मतत्त्वने प्रत्यक्ष देखे छे, तेथी ते पण सरस्वतीनी मूर्ति छे. आ रीते सर्व पदार्थोनां तत्त्वने जणावनारी ज्ञानरूप अने वचनरूप अनेकान्तमयी सरस्वतीनी मूर्ति छे. सरस्वतीनां वाणी, भारत, शारदा, वाग्देवी इत्यादि घणां नाम छे.२.

निष्कलथी अन्यरूप आत्माने (निष्कल नहि एवा सकल आत्माने) नमस्कार करीने आप शुं करशो? ते कहे छे

श्लोक ३

अन्वयार्थ : (अथ) हवे परमात्माने नमस्कार कर्या बाद (अहं) हुंपूज्यपाद १. जुओः गोम्मटसारजीवकांड गाथा २२७नी टीका. २. जुओः मोक्षमार्गप्रकाशकगु. आवृत्ति पृ. २२ ३. जुओः श्री समयसारगु. आवृत्ति पृ. ४.

आगमथी ने लिंगथी, आत्मशक्ति अनुरूप,
हृदय तणा ऐकार्ग्य्राथी सम्यक् वेदी स्वरूप,
मुक्तिसुख-अभिलाषीने कहीश आतमरूप,
परथी, कर्मकलंकथी, जेह विविक्तस्वरूप. ३.


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टीकाअथ इष्टदेवतानमस्कारकरणानन्तरं अभिधास्ये कथयिष्ये कं ? विविक्तमात्मानं कर्ममलरहितं जीवस्वरूपं कथभिधास्ये ? यथात्मशक्ति आत्मशक्तेरनतिक्रमेण किं कृत्वा ? समीक्ष्य तथाभूतमात्मानं सम्यग्ज्ञात्वा केन ? श्रुतेन

‘‘एगो मे सासओ आदा णाणदंसणलक्खणो
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा’’ ।।

इत्याद्यागमेन तथा लिंगेन हेतुना तथा हिशरीरादिरात्मभिन्नोभिन्नलक्षणलक्षितत्त्वात् ययोर्भिन्नलक्षणलक्षितत्वं तयोर्भेदो यथाजलानलयोः भिन्नलक्षणलक्षितत्वं चात्मशरीरयोरिति चानयोर्भिन्नलक्षणलक्षितत्वमप्रसिद्धम् आत्मनः उपयोगस्वरूपोपलक्षितत्वात्शरीरादेस्तद्विपरीतत्त्वात् समाहितान्तः करणेन समाहितमेकाग्रीभूतं तच्च तदन्तःकरणं च मनस्तेन सम्यक्समीक्ष्य आचार्य (विविक्तं आत्मानं) परथी भिन्न एवा आत्माना शुद्धस्वरूपने (श्रुतेन) श्रुतद्वारा (लिंगेन) अनुमान अने हेतुद्वारा, (समाहितान्तः करणेन) एकाग्र मनद्वारा (सम्यक्समीक्ष्य) सम्यक् प्रकारे जाणीनेअनुभवीने (कैवल्यसुखस्पृहाणां) केवल्यपदविषयक अथवा निर्मल अतीन्द्रियसुखनी भावनावाळाओने (यथाशक्ति) शक्ति अनुसार (अभिधास्ये) कहीश.

टीका : हवे इष्टदेवताने नमस्कार कर्या पछी हुं कहीश. शुं (कहीश)? विविक्त आत्माने अर्थात् कर्ममलरहित जीवस्वरूपने (कहीश). केवी रीते कहीश? यथाशक्ति आत्मशक्तिनुं उल्लंघन कर्या वगरकहीश. शुं करीने (कहीश)? समीक्षा करीने अर्थात् तेवा आत्माने (विविक्त आत्माने) सम्यक् प्रकारे जाणीने (कहीश). शा वडे (कया साधन वडे)? श्रुतद्वारा

‘‘ज्ञानदर्शनलक्षणवाळो शाश्वत एक आत्मा मारो छे; बाकीना बधा संयोगलक्षणवाळा भावो माराथी बाह्य छे.’’ इत्यादि आगमद्वारा तथा लिंग अर्थात् हेतुद्वारा (कहीश). ते आ प्रमाणेः

शरीरादि आत्माथी भिन्न छे, कारण के तेओ भिन्न लक्षणोथी लक्षित छे. जेओ भिन्न लक्षणोथी लक्षित छे, तेओ बंने (एकबीजाथी) भिन्न छे; जेम जल अने अग्नि (एक बीजाथी) भिन्न छे तेम. आत्मा अने शरीर (बंने) भिन्न लक्षणोथी लक्षित छे अने ते बंनेनुं भिन्न लक्षणोथी लक्षितपणुं अप्रसिद्ध नथी (अर्थात् प्रसिद्ध छे). कारण के आत्मा उपयोगस्वरूपथी उपलक्षित छे अने शरीरादिक तेनाथी विपरीत लक्षणवाळां छे.

समाहित अन्तःकरणथीसमाहित एटले एकाग्र थयेला अने अंतःकरण एटले


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सम्यग्ज्ञात्वा अनुभूयेत्यर्थः केषां तथा भूतमात्मानमभिधास्ये ? कैवल्यसुखस्पृहाणां कैवल्ये सकलकर्मरहितत्त्वे सति सुखं तत्र स्पृहा अभिलाषो येषां, कैवल्ये विषयाप्रभवे वा सुखे; कैवल्यसुखयो स्पृहा येषाम् ।।।। मनएकाग्र थयेला मन वडे, सम्यक्प्रकारे समीक्षा करीने(विविक्त आत्माने) जाणीने अनुभवीने (कहीश) एवो अर्थ छे. हुं कोने तेवा प्रकारना आत्माने कहीश? कैवल्य सुखनी स्पृहावाळाओनेकैवल्य अर्थात् सकल कर्मोथी रहित थतां जे सुख (ऊपजे) तेनी स्पृहा (अभिलाषा) करनाराओने(कहीश). कैवल्य अर्थात् विषयोथी उत्पन्न नहि थयेला एवा सुखनीअथवा कैवल्य अने सुखनीस्पृहावाळाओने (कहीश). (३)

भावार्थ : श्री पूज्यपाद स्वामी प्रतिज्ञारूपे कहे छे के, ‘हुं श्रुत वडे, युक्तिअनुमान वडे अने चित्तनी एकाग्रता वडे शुद्धात्माने यथार्थ जाणीने तथा तेनो अनुभव करीने, निर्मळ अतीन्द्रिय सुखनी भावनावाळा भव्य जीवोने मारी शक्ति अनुसार शुद्ध आत्मानुं स्वरूप कहीश.

विशेष
आगममां आत्मानुं स्वरुप

कह्युं छे केः

हुं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञान दर्शनमय खरे;
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे!

दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमेलो आत्मा जाणे छे के‘निश्चयथी हुं एक छुं, शुद्ध छुं, दर्शनज्ञानमय छुं, सदा अरूपी छुं; कांई पण अन्य पर द्रव्यपरमाणुमात्र पण मारुं नथी. ए निश्चय छे.’

युकित (अनुमान)

शरीर अने आत्मा एकबीजाथी भिन्न छे कारण के ते बंनेनां लक्षण भिन्न भिन्न छे. आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षणवाळो छे अने शरीरादि तेनाथी विरुद्ध लक्षणवाळां छेअर्थात् अचेतन जड छे. जेमनां लक्षण भिन्न भिन्न होय छे ते बधां एकबीजाथी भिन्न होय १. श्री समयसारगु. आवृत्तिगाथा ३८ २. घणा मळेला पदार्थोमांथी कोई पदार्थने जुदो करनार हेतुने लक्षण कहे छे. (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका)


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कतिभेदः पुनरात्मा भवति ? येन विविक्तमात्मानमिति विशेष उच्यते तत्र कुतः छे; जेम के जलनुं लक्षण शीतलपणुं अने अग्निनुं लक्षण उष्णपणुं छे. एम बंनेना लक्षण भिन्न छे, तेथी जलथी अग्नि भिन्न छे.

जेम सोना अने चांदीनो एक पिंड होवा छतां तेमां सोनुं तेनां पीळाशादि लक्षण वडे अने चांदी तेना शुक्लादि लक्षण वडेबंने जुदां छेएम जाणी शकाय छे, तेम जीव अने कर्मनोकर्म (शरीर) एकक्षेत्रे होवा छतां तेमनां लक्षणो वडे तेओ एकबीजाथी भिन्न जाणी शकाय छे.

वळी अंतरंग रागद्वेषादि विकारी परिणामो पण वास्तवमां आत्माना ज्ञान लक्षणथी भिन्न छे, कारण के रागद्वेषादि भावो क्षणिक अने आकुळता लक्षणवाळा छे; ते स्व परने जाणता नथी; ज्यारे ज्ञानस्वभाव तो नित्य ने शान्त-अनाकुळ छे, स्वपरने जाणवानो तेनो स्वभाव छे. आ रीते भिन्न लक्षणद्वारा ज्ञानमय आत्मा रागादिकथी भिन्न छेएम नक्की थाय छे. माटे आत्मा परमार्थे परभावोथी अर्थात् शरीरादिक बाह्य पदार्थोथी तथा रागद्वेषादि अंतरंग परिणामोथी विविक्त छेभिन्न छे.

अनुभव

आगम अने युक्ति द्वारा आत्मानुं शुद्ध स्वरूप जाणी पोताना त्रिकाळ शुद्धात्मानी सन्मुख थतां आचार्यने जे शुद्धात्मानो अनुभव थयो ते अनुभवथी तेओ विविक्त आत्मानुं स्वरूप बताववा मागे छे.

आचार्य आत्मानुं स्वरूप कोने बताववा मागे छे? आत्माना अतीन्द्रिय सुखनी ज जेने स्पृहा छेइन्द्रियविषयसुखनी जेने स्पृहा नथी, तेवा (जिज्ञासु) भव्य जीवोने ज आचार्य विविक्त आत्मानुं (शुद्धात्मानुं) स्वरूप कहेवा मागे छे.

आ रीते श्री पूज्यपाद आगम, युक्ति अने अनुभवथी आत्मानुं शुद्धस्वरूप कहेवानी प्रतिज्ञा करी छे. ३.

आत्माना वळी केटला भेद छे. जेथी ‘विविक्त आत्मा’एम विशेष कह्युं छे? अने १. जुओः समयसार गाथा२७२८ २. जीव बंध बंने, नियत निज निज लक्षणे छेदाय छे,

प्रज्ञाछीणीथकी छेदतां, बंने जुदा पडी जाय छे. (श्री समयसारगु. आवृत्ति गा. २९४)


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कस्योपादानं कस्य वा त्यागः कर्तव्य इत्याशंक्याह

बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु
उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद्बहिस्त्यजेत् ।।।।

टीकाबहिर्बहिरात्मा, अन्तः अन्तरात्मा, परश्च परमात्मा इति त्रिधा आत्मा त्रिप्रकार आत्मा क्वा ? सर्वदेहिषु सकलप्राणिषु ननु अभव्येषु बहिरात्मन एव सम्भवात् कथं सर्वदेहिषु त्रिधात्मा स्यात् ? इत्यप्यनुपपन्नं, तत्रापि द्रव्यरूपतया त्रिधात्मसद्भावोपपत्तेः कथं पुनस्तत्र ए आत्माना भेदोमां शा वडे कोनुं ग्रहण अने कोनो त्याग करवा योग्य छे? एवी आशंका करी कहे छे

श्लोक ४

अन्वयार्थ : (सर्वदेहिषु) सर्व प्राणीओमां (बहिः) बहिरात्मा, (अन्त) अन्तरात्मा (च परः) अने परमात्मा (इति) एम (त्रिधा) त्रण प्रकारे (आत्मा अस्ति) आत्मा छे. (तत्र) तेमां (मध्योपायात्) अंतरात्माना उपायद्वारा (परमं) परमात्माने (उपेयात्) अंगीकार करवो जोईए अने (बहिः) बहिरात्माने (त्यजेत्) छोडवो जोईए.

टीका : बहिः एटले बहिरात्मा, अंतः एटले अंतरात्मा अने परः एटले परमात्माएम त्रिधा एटले त्रण प्रकारे आत्मा छे. ते (प्रकारो) शामां छे? सर्व देहीओमांसकल प्राणीओमां.

अभव्योमां बहिरात्मानो ज संभव होवाथी सर्व देहीओमां त्रण प्रकारनो आत्मा छे एम केवी रीते होई शके?

एम कहेवुं पण योग्य नथी कारण के त्यां पण (अभव्यमां पण) द्रव्यरूपपणाथी त्रण प्रकारना आत्मानो सद्भाव घटे छे. वळी त्यां पांच ज्ञानावरण (कर्मो)नी उपपत्ति केवी तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं

तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा ।।
मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दः
आत्म त्रिधा सौ देहीमांबाह्यांतर-परमात्म;
मध्योपाये परमने ग्रहो, तजो बहिरात्म. ४.


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पंचज्ञानावरणान्युपपद्यन्ते ? केवलज्ञानाद्याविर्भावसामग्री हि तत्र कदापि न भविष्यतित्यभव्यत्वं, न पुनः तद्योग्यद्रव्यस्याभावादिति भव्यराश्यपेक्षया वा सर्वदेहिग्रहणं आसन्नदूरदूरतरभव्येषु भव्यसमानअभव्येषु च सर्वेषु त्रिधाऽऽत्मा विद्यत इति तर्हि सर्वज्ञे परमात्मन एव सद्भावाद्बहिरन्तरात्मोरभावात्त्रिधात्मनो विरोध इत्यप्ययुक्तम् भूतपूर्वप्रज्ञापननयापेक्षया तत्र तद्विरोधासिद्धेः घृतघटवत् यो हि सर्वज्ञावस्थायां परमात्मा सम्पन्नः स पूर्वबहिरात्मा अन्तरात्मा चासीदिति घृतघटवदन्तरात्मनोऽपि बहिरात्मत्वं परमात्मत्वं च भूतभाविप्रज्ञापननयापेक्षया दृष्टव्यम् तत्र कुतः कस्योपादानं कस्य वात्यागः कर्तव्य इत्याहउपेयादिति तत्र तेषु त्रिधात्मसु मध्ये उपेयात् स्वीकुर्यात् परमं परमात्मानं कस्मात् ? मध्योपायात् मध्योऽन्तरात्मा स एवोपायस्तस्मात् तथा बहिः बहिरात्मानं मध्योपायादेव त्यजेत् ।।।। रीते घटी शके? केवलज्ञानादिना प्रगट थवारूप सामग्री ज तेमने कदापि थवानी नथी तेथी तेमनामां अभव्यपणुं छे, पण नहि के तद्योग्य द्रव्यना अभावथी (अभव्यपणुं छे); अथवा भव्यराशिनी अपेक्षाए सर्व देहीओनुं ग्रहण समजवुं. आसन्न भव्य, दूर भव्य, दूरतर भव्यमां तथा अभव्य जेवा भव्योमांसर्वेमां त्रण प्रकारनो आत्मा छे.

तो सर्वज्ञमां परमात्मानो ज सद्भाव होवाथी अने (तेमां) बहिरात्मानो अने अंतरात्मानो असद्भाव होवाथी तेमां (सिद्धमां) त्रण प्रकारना आत्मानो विरोध आवशे?

एम कहेवुं पण योग्य नथी, कारण के भूतपूर्व प्रज्ञापननयनी अपेक्षाए तेमां घृतघटवत् ते विरोधनी असिद्धि छे (तेमां विरोध आवतो नथी). जे सर्वज्ञ अवस्थामां परमात्मा थया, ते पूर्वे बहिरात्मा तथा अंतरात्मा हता.

घृतघटनी जेम भूतभावि प्रज्ञापननयनी अपेक्षाए अंतरात्माने पण बहिरात्मपणुं अने परमात्मपणुं समजवुं.

ए त्रणेमांथी कोनुं शा वडे ग्रहण करवुं के कोनो त्याग करवो ते कहे छे. ग्रहण करवुं एटले तेमां ते त्रण प्रकारना आत्माओने विषे परमात्मानो स्वीकार (ग्रहण) करवो. केवी रीते? मध्य उपायथीमध्य एटले अन्तरात्मा ते ज उपाय छे ते द्वारा (परमात्मानुं ग्रहण करवुं) तथा मध्य (अंतरात्मारूप) उपायथी ज बहिरात्मानो त्याग करवो. (४)

भावार्थ : सर्वे जीवोमां बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्माए त्रण प्रकारनी १. जे भूतकाळना पर्यायने वर्तमानवत् कहे ते ज्ञानने (अथवा वचनने) भूतनैगमनय (अथवा

भूतपूर्वप्रज्ञापननय कहे) छे. जे भविष्यकाळना पर्यायने वर्तमानवत् कहे ते ज्ञानने (अथवा वचनने)
भाविनैगमनय (अथवा भाविप्रज्ञापननय) कहे छे. (जुओः गु. मोक्षशास्त्रअ. १/ सूत्र ३३)


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अवस्थाओ होय छे. तेमां बहिरात्मावस्था छोडवा योग्य छे; अंतरात्मावस्था, परमात्मपदनी प्राप्तिनुं साधन छे, माटे ते प्रगट करवा योग्य छे अने परमात्मावस्था जे आत्मानी स्वाभाविक परम वीतरागी अवस्था छे ते साध्य छे माटे ते परम उपादेय (प्रगट करवा योग्य) छे.

प्रश्नः सर्व प्राणीओमां आत्मानी त्रण अवस्थाओ छे एम श्लोकमां कह्युं छे पण अभव्यने तो एक बहिरात्मावस्था ज संभवित छे, तो सर्व प्राणीओने आत्मानी त्रण अवस्थाओ केम बनी शके?

उत्तरः जे जीव अज्ञानी बहिरात्मा छे तेमां पण अंतरात्मा अने परमात्मा थवानी शक्ति छे. भव्य अने अभव्य जीवोमां पण केवलज्ञानादिरूप परमात्मशक्ति छे. जो ते शक्ति तेमनामां न होय, तो तेने प्रगट न थवामां निमित्तरूप केवळज्ञानावरणादि कर्म पण न होवां जोईए, पण बहिरात्माने (अभव्यने पण) केवलज्ञानावरणादि कर्म तो छे; तेथी स्पष्ट छे के बहिरात्मामां (भव्य के अभव्यमां) केवलज्ञानादि शक्तिपणे छे. अभव्यने ते शक्ति प्रगट करवा जेटली योग्यता नथी.

अनादिथी बधा जीवोमां केवलज्ञानादिरूप परमस्वभाव शक्तिरूपे छे. ते स्वभावनां श्रद्धाज्ञान करी तेमां लीन थाय तो ते केवलज्ञानादि शक्तिओ प्रगट थई जाय अने केवलज्ञानावरणादि कर्मो स्वयं छूटी जाय.

श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के

‘सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय.’

बधाय जीवो शक्तिपणे परिपूर्ण सिद्ध भगवान जेवा छे, पण जे पोतानी त्रिकाल शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्वभावशक्तिने सम्यक् प्रकारे समजे, तेनी प्रतीत करे अने तेमां स्थिरता करे, ते परमात्मदशा प्रगट करी शके.

वर्तमानमां जे धर्मी अंतरात्मा छे तेने पूर्वे अज्ञान दशामां बहिरात्मपणुं हतुं ने हवे अल्प काळमां परमात्मपणुं प्रगट थशे.

परमात्मपदने प्राप्त थयेला श्री अरिहंत अने सिद्ध भगवानने पण पूर्वे बहिरात्मदशा हती. तेओ पोतानी स्वाभाविक शक्तिनी प्रतीति करी जे समये स्वभावसन्मुख थया ते समये तेमनुं बहिरात्मपणुं टळी गयुं अने अंतरात्मदशा प्रगट थई अने पछी उग्र पुरुषार्थ करी स्वभावमां लीन थई परमात्मा थया.

ए रीते, अपेक्षाए दरेक जीवमां त्रण प्रकारो लागु पडे एम समजवुं.


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तत्र बहिरन्तः परमात्मनां प्रत्येकं लक्षणमाह

बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः
चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिर्निमलः ।।।।
विशेष

बहिरात्मा

बाह्य शरीरादि, विभावभाव तथा अपूर्णदशामां जे आत्मबुद्धि करे छे अर्थात् तेनी साथे एकतानी बुद्धि करे छे ते बहिरात्मा छे. ते आत्मानुं वास्तविक स्वरूप भूली बहारमां काया अने कषायोमां मारापणुं माने छे, तेने भावकर्म अने द्रव्यकर्म साथे एकताबुद्धि छे; तेनाथी ज पोताने लाभहानि माने छे. ते मिथ्याद्रष्टि जीव अनादिकालथी संसारपरिभ्रमणनां दुःखोथी पिडाय छे. अंतरात्मा

जेने शरीरादिथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानुं भान छे ते अंतरात्मा छे. तेने स्वपरनुं भेदज्ञान छे. तेने एवो विवेक वर्ते छे के ‘हुं ज्ञानदर्शनरूप छुं; एक शाश्वत आत्मा ज मारो छे, बाकीना संयोगलक्षणरूप अर्थात् व्यवहाररूप जे भावो छे ते बधा माराथी भिन्न छेमाराथी बाह्य छे.’ आवो सम्यग्द्रष्टि आत्मा मोक्षमार्गमां स्थित छे. परमात्मा

जेणे अनंतज्ञानदर्शनादिरूप चैतन्यशक्तिओने पूर्णपणे विकास करी सर्वज्ञपद प्राप्त कर्युं छे ते परमात्मा छे. ४.

त्यां बहिरात्मा, अन्तरात्मा अने परमात्माप्रत्येकनुं लक्षण कहे छे

श्लोक ५

अन्वयार्थ : (शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिः बहिरात्मा) शरीरादिमां जेने आत्मभ्रान्ति अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पो

कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।।।।मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दः
आत्मभ्रान्ति देहादिमां करे तेह ‘बहिरात्म’;
‘आन्तर’ विभ्रमरहित छे, अतिनिर्मळ ‘परमात्म’. ५.


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टीकाशरीरादौ शरीरे आदिशब्दाद्वाङ्मनसोरेव ग्रहणं तत्र जाता आत्मेतिभ्रान्तिर्यस्य स बहिरात्मा भवति आन्तरः अन्तर्भवः तत्र भव इत्यणष्टेर्भमात्रे टि लोपमित्यस्याऽनित्यत्वं येषां च विरोधः शाश्वतिक इति निर्देशात् अन्तरे वा भव आन्तरोऽन्तरात्मा स कथं भूतो भवति ? चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः चित्तं च विकल्पो, दोषाश्च रागादयः, आत्मा च शुद्धं चेतनाद्रव्यं तेषु विगता विनष्टा भ्रान्तिर्यस्य चित्तं चित्तत्वेन बुध्यते दोषाश्च दोषत्वेन आत्मा आत्मत्वेनेत्यर्थः चित्तदोषेषु वा विगता आत्मेति भ्रान्तिर्यस्य परमात्मा भवति किं विशिष्टः ? अतिनिर्मलः प्रक्षीणाशेषकर्ममलः ।।।। उत्पन्न थई छे ते ‘बहिरात्मा’ छे; (चित्तदोषात्मविभ्रातिः अन्तरः) चित्त (विकल्पो), रागादि दोषो अने आत्मा (शुद्ध चेतनाद्रव्य)ना विषयमां जेने भ्रान्ति नथी (अर्थात् जे चित्तने चित्तरूपे, दोषोने दोषरूपे अने आत्माने आत्मारूपे जाणे छे) ते ‘अन्तरात्मा’ छे; (अतिनिर्मलः परमात्मा) जे सर्व कर्ममलथी रहित अत्यंत निर्मळ छे ते ‘परमात्मा’ छे.

टीका : शरीर आदिमांशरीरमां अने ‘आदि’ शब्दथी वाणी अने मननुं ज ग्रहण समजवुं, तेमां जेने ‘आत्मा’ एवी भ्रान्ति उत्पन्न थई छे ते बहिरात्मा छे. अन्तर्भव अथवा अंतरे भव ते आन्तर अर्थात् अन्तरात्मा. ते (अन्तरात्मा) केवो छे? ते चित्त, दोष अने आत्मा संबंधी भ्रान्ति विनानो छेचित्त एटले विकल्प, दोष एटले रागादि अने आत्मा एटले शुद्ध चेतना द्रव्यतेमां जेनी भ्रान्ति नाश पामी छे तेअर्थात् जे चित्तने चित्तरूपे, दोषने दोषरूपे अने आत्माने आत्मारूपे जाणे छे ते अन्तरात्मा छे, अथवा चित्त अने दोषोमां ‘आत्मा’ मानवारूप भ्रान्ति जेने जती रही छे ते (अन्तरात्मा) छे.

परमात्मा केवा होय छे? अति निर्मळ छे अर्थात् जेनो अशेष (समस्त) कर्ममल नाश पाम्यो छे ते (परमात्मा) छे. (५)

भावार्थ : जे शरीरादि बाह्य पदार्थोमां आत्मानी भ्रान्ति करे छेतेने ज आत्मा माने छेते ‘बहिरात्मा’ छे; विकल्पो, रागादि दोषो अने चैतन्यस्वरूप आत्माना विषयमां जेने भ्रान्ति नथी, अर्थात् जे विकारने विकाररूपे अने आत्माने आत्मारूपेएकबीजाथी भिन्न समजे छे ते ‘अंतरात्मा’ छे; जे रागादि दोषोथी सर्वथा रहित छेअत्यंत निर्मळ छे अने सर्वज्ञ छे ते ‘परमात्मा’ छे.

विशेष
बहिरात्मा

जे शरीरादि (शरीर, वाणी, मन वगेरे) अजीव छे तेमां जीवनी कल्पना करे छे


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तथा जीवमां अजीवनी कल्पना करे छे, दुःखदायी रागद्वेषादिक विभावभावोने सुखदायी समजे छे, ज्ञान-वैराग्यादि जे आत्माने हितकारी छे तेने अहितकारी जाणी तेमां अरुचि या दोष करे छे, शुभ कर्मफलने सारां अने अशुभ कर्मफलने बूरां मानी ते प्रत्ये राग द्वेष करे छे, शरीरनो जन्म थतां पोतानो जन्म अने तेनो नाश थतां पोतानो नाश माने छे ते मिथ्याद्रष्टि ‘बहिरात्मा’ छे.

वळी आ शरीरादि जड पदार्थो प्रगटपणे आत्माथी जुदा छे, ते कोई पदार्थो आत्माना नथीआत्माथी पर (भिन्न) ज छे, छतां तेने पोताना मानवा, तेमज शरीरनी बोलवाचालवा वगेरेनी क्रिया हुं करुं छुं, मने तेनाथी लाभअलाभ थाय छे; आ शरीर मारुं, हुं पुरुष, हुं स्त्री, हुं राजा, हुं रंक, हुं रागी, हुं द्वेषी, हुं धोळो, हुं काळोएम बाह्य पदार्थोथी पोताना आत्माने भिन्न नहि जाणतो ते पर पदार्थोने ज आत्मा माने छे अने मोक्षमार्गमां प्रयोजनभूत जीव अजीवादि तत्त्वोना स्वरूपमां भ्रान्तिथी प्रवर्ते छे ते जीव ‘बहिरात्मा’ छे.

पर पदार्थोमां आत्मभ्रान्तिने लीधे आ अज्ञानी जीव विषयोनी चाहरूप दावानलमां रातदिन जलतो रहे छे, आत्मशान्ति खोई बेसे छे, अतीन्द्रिय चैतन्य आत्माने भूली बाह्य इन्द्रियविषयोमां मूर्छाई जाय छे अने आकुलता रहित मोक्षसुखनी प्राप्ति माटे कोई प्रयत्न करतो नथी.

अंतरात्मा

चैतन्य लक्षणवाळो जीव छे अने तेनाथी विपरीत लक्षणवाळो अजीव छे; आत्मानो स्वभाव ज्ञाताद्रष्टा छे, अमूर्तिक छे अने शरीरादिक परद्रव्य छे, पुद्गलपिंडरूप छे, जड छे, विनाशीक छे; ते मारां नथी अने हुं तेनो नथीएवुं भेदज्ञान करनार सम्यग्द्रष्टि ‘अंतरात्मा’ छे.

वळी ते जाणे छे के, ‘हुं देहथी भिन्न छुं, देहादिक मारा नथी, मारो तो एक ज्ञानदर्शन लक्षणरूप शाश्वत आत्मा ज छे, बाकीना संयोग लक्षणवाळा (व्यावहारिक भावो) जे कोई भावो छे ते बधाय माराथी भिन्न छे; आत्माना आश्रये जे ज्ञानवैराग्यरूप भाव प्रगटे छे ते संवरनिर्जरामोक्षनुं कारण होई मने हितरूप छे अने बाह्य पदार्थोने आश्रये जे रागादि भावो थाय छे ते आस्रवबंधरूप होई संसारनुं कारण छे, मने ते अहितरूप छे.’ आ रीते जीवादि तत्त्वोने जेम छे तेम जाणीने तेनी साची प्रतीति करीने जे पोताना ज्ञानानंदस्वरूप आत्मामां ज अंतर्मुख थईने वर्ते छे ते ‘अंतरात्मा’ छे.


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अंतरात्माना त्रण भेद छेउत्तम अंतरात्मा, मध्यम अंतरात्मा अने जघन्य अंतरात्मा.

अंतरंगबहिरंग परिग्रहोथी रहित शुद्धोपयोगी आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि ‘उत्तम अंतरात्मा’ छे. ‘आ महात्मा सोळ कषायोना अभावद्वारा क्षीणमोह पदवीने प्राप्त करीने स्थित छे.’

चोथा गुणस्थानवर्ती व्रतरहित सम्यग्द्रष्टि आत्मा ‘जघन्य अंतरात्मा’ कहेवाय छे. आ बेनी (जघन्य अंतरात्मा अने उत्तम अंतरात्मानी) मध्यमां रहेला सर्वे ‘मध्यम अंतरात्मा’ छे, अर्थात् पांचमांथी अगियारमा गुणस्थानवर्ती जीवो मध्यम अंतरात्मा छे.

परमात्मा

जेमणे अनंतज्ञानदर्शनादिरूप चैतन्य शक्तिओनो पूर्णपणे विकास करी सर्वज्ञपद प्राप्त कर्युं छे ते ‘परमात्मा’ छे.

परमात्माना बे प्रकार छेसकल परमात्मा अने निकल परमात्मा.

अरहंत परमात्मा ते सकल परमात्मा छे अने सिद्ध परमात्मा ते निकल परमात्मा छे, तेओ केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयथी सहित छे.

अरहंत परमात्माने चार अघाति कर्मो बाकी छे. तेनो क्षणे क्षणे क्षय थतो जाय छे. तेमने बहारमां समवसरणादि दिव्य वैभव होय छे. तेमने इच्छा विना भव्य जीवोने कल्याणरूप दिव्य ध्वनि छूटे छे. तेओ परम हितोपदेशक छे. परम औदारिक शरीरना संयोग सहित होवाथी तेओ सकल (कलशरीर सहित) परमात्मा कहेवाय छे.

जे ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म अने शरीरादि नोकर्मथी रहित छे, शुद्धज्ञानमय छे, औदारिक शरीर (कल) रहित छे, ते निर्दोष अने परम पूज्य सिद्ध परमेष्ठी ‘निकल परमात्मा’ कहेवाय छे. तेओ अनंतकाळ सुधी अनंत सुख भोगवे छे.

‘आत्मामां परमानंदनी शक्ति भरी पडी छे. बाह्य इन्द्रियविषयोमां वास्तविक सुख नथी. एम अंतर प्रतीति करीने धर्मी जीव अंतर्मुख थईने आत्माना अतीन्द्रिय सुखनो स्वाद ले छे. जेम लींडीपीपरना दाणे दाणे चोसठ पहोरी तीखाशनी ताकात भरी छे तेम प्रत्येक आत्मानो स्वभाव परिपूर्ण ज्ञानआनंदथी भरेलो छे, पण तेनो विश्वास करी अंतर्मुख १. जुओनियमसार, गु. आवृत्तिपृ. २९५


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तद्वाचिकां नाममालां दर्शयन्नाह

निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः
परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ।।।।

टीकानिर्मलः कर्ममलरहितः केवलः शरीरादिनां सम्बन्धरहितः शुद्धः द्रव्यभावकर्मणामभावात् परमविशुद्धिसमन्वितः विविक्तः शरीरकर्मादिभिरसंस्पृष्टः प्रभुरिन्द्रादीनां स्वामी अव्ययो लब्धानंतचतुष्टयस्वरूपादप्रच्युतः परमेष्ठी परमे इन्द्रादिवंद्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी थईने तेमां एकाग्र थाय तो ते ज्ञान-आनंदनो स्वाद अनुभवमां आवे. आत्माथी भिन्न बाह्य विषयोमां क्यांय आत्मानो आनंद नथी. धर्मात्मा पोताना आत्मा सिवाय बहारमां क्यांयस्वप्नमां य आनंद मानतो नथी. आवो अंतरात्मा पोताना अंतरस्वरूपमां एकाग्र थईने परिपूर्ण ज्ञान आनंद प्रगट करीने पोते ज परमात्मा थाय छे......’’ ‘आत्मधर्म’मांथी)

परमात्मानां नामवाचक नामावलि दर्शावतां कहे छेः

श्लोक ६

अन्वयार्थ : (निर्मलः) निर्मळमल रहित, (केवलः) केवळशरीरादि पर द्रव्यना संबंधथी रहित, (शुद्धः) शुद्धरागादिथी अत्यंत भिन्न थई गया होवाथी परम विशुद्धिवाळा, (विविक्तः) विविक्तशरीर अने कर्मादिकना स्पर्शथी रहित, (प्रभुः) प्रभुइन्द्रादिकना स्वामी, (अव्ययः) अव्ययपोताना अनंतचतुष्टयरूप स्वभावथी च्युत नहि थवावाळा, (परमेष्ठी) परमेष्ठीइन्द्रादिथी वन्द्य परम पदमां स्थित, (परात्मा) परात्मासंसारी जीवोथी उत्कृष्ट आत्मा, (ईश्वरः) ईश्वरअन्य जीवोमां असंभव एवी विभूतिना धारकअर्थात् अंतरंग अनंतचतुष्टय अने बाह्य समवसरणादि विभूतिथी युक्त, (जिनः) जिनज्ञानावरणादि संपूर्ण कर्मशत्रुओने जीतनार (इति परमात्मा)ए परमात्मानां नाम छे.

टीका : निर्मल एटले कर्ममलरहित, केवल एटले शरीरादिना संबंधरहित, शुद्ध एटले द्रव्यकर्मभावकर्मना अभावना कारणे परम विशुद्धिवाळा, विविक्त एटले शरीर कर्मादिथी नहि स्पर्शायेला, प्रभु एटले इन्द्रादिना स्वामी, अव्यय एटले प्राप्त थयेल अनंतचतुष्टयमय स्वरूपथी च्युत (भ्रष्ट) नहि थयेला, परमेष्ठी एटले परम अर्थात् इन्द्रादिथी

निर्मळ, केवळ, शुद्ध, जिन, प्रभु, विविक्त, परात्म,
इश्वर, परमेष्ठी अने अव्यय ते परमात्म. ६.


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स्थानशीलः परात्मा संसारिजीवेभ्य उत्कृष्ट आत्मा इति शब्दः प्रकारार्थे एवंप्रकारा ये शब्दास्ते परमात्मनो वाचकाः परमात्मेत्यादिना तानेव दर्शयति परमात्मा सकलप्राणिभ्य उत्तम आत्मा ईश्वर इंद्राद्यसम्भविना अन्तरङ्गबहिरङ्गेण परमैश्वर्येण सदैव सम्पन्नः जिनः सकलकर्मोन्मूलकः ।।।।

इदानीं बहिरात्मनो देहस्यात्मत्वेनाध्यवसाये कारणमुपदर्शयन्नाह वन्द्यएवुं मोटुं पदतेमां जे रहे छे ते स्थानशील परमेष्ठी, परात्मा एटले संसारी जीवोथी उत्कृष्ट आत्माएवा प्रकारना जे शब्दो छे ते परमात्माना वाचक छे,

‘परमात्मा’ इत्यादिथी तेमने ज दर्शावाय छे. परमात्मा एटले सर्व प्राणीओमां उत्तम आत्मा, ईश्वर एटले इन्द्रादिने असंभवित एवा अंतरंगबहिरंग परम ऐश्वर्यथी सदाय संपन्न; जिनसर्वकर्मोनो मूलमांथी नाश करनार(इत्यादि परमात्मानां अनंत नाम छे).

भावार्थ : निर्मळ, केवळ, शुद्ध, विविक्त, प्रभु, अव्यय, परमेष्ठी, परमात्मा, ईश्वर, जिन वगेरे नामो परमात्मावाचक छे.

आ नामो परमात्माना स्वरूपने बतावे छे. ते स्वरूपने ओळखीने पोताना आत्माने पण तेवा स्वरूपे चिंतववो ते परमात्मा थवानो उपाय छे.

आत्मामां शक्तिरूपे रहेला गुणोनुं जीवने भान थाय तेटला माटे भिन्न भिन्न गुणवाचक नामोथी परमात्मानी ओळखाण करावी छे.

आत्मा चैतन्यादि अनंत गुणोनो पिंड छे. आ गुणो भगवानमां पूर्णपणे विकसित थई गया छे, तेथी ते गुणोनी अपेक्षाए तेओ अनेक नामोथी ओळखाय छे.

परमात्माने गुण अपेक्षाए जेटलां नाम लागु पडे छे ते बधांय नामो आ आत्माने पण स्वभाव अपेक्षाए लागु पडे छे, कारण के शक्ति अपेक्षाए बंने आत्माओ समान छे; तेमां कांई फेर नथी. जे परमात्माना गुणोने बराबर ओळखे छे ते पोताना आत्माना स्वरूपने जाण्या वगर रहे नहि. जेटला गुणो परमात्मामां छे तेटला ज गुणो दरेक आत्मामां छे. पोताना त्रिकाली आत्मानी सन्मुख थईने तेमनो पूर्णपणे विकास करीने आ आत्मा पण परमात्मा थई शके छे. ६.

हवे बहिरात्माने देहमां आत्मबुद्धिरूप मिथ्या मान्यता कया कारणे थाय छे ते बतावतां कहे छे १. जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे,

ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. (श्री प्रवचनसार, गु. आवृत्तिगाथा ८०)


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बहिरात्मेन्द्रियद्वारैरात्मज्ञानपराङ्मुखः
स्फु रितः स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ।।।।

टीकाइन्द्रियद्वारैरिन्द्रियमुखैः कृत्वा स्फु रितो बहिरर्थग्रहणे व्यापृतः सन् बहिरात्मा मूढात्मा आत्मज्ञानपराङ्मुखो जीवस्वरूपज्ञानाद्वहिर्भूतो भवति तथाभूतश्च सन्नसौ किं करोति ? स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति आत्मीयशरीरमेवाहमिति प्रतिपद्यते ।।।।

श्लोक ७

अन्वयार्थ : (बहिरात्मा) बहिरात्मा (इन्द्रियद्वारैः) इन्द्रिय द्वारोथी (स्फु रित) बाह्य पदार्थोने ज ग्रहण करवामां प्रवृत्त होवाथी (आत्मज्ञानपराङ्मुखः) आत्मज्ञानथी पराङ्मुख वंचित होय छे; तेथी ते (आत्मनः देह) पोताना शरीरने (आत्मत्वेन अध्यवस्यति) मिथ्या अभिप्रायपूर्वक आत्मारूप समजे छे.

टीका : इन्द्रियोरूप द्वारोथी अर्थात् इन्द्रियोरूप मुखथी बहारना पदार्थोना ग्रहणमां रोकायेलो होवाथी ते बहिरात्मामूढात्मा छे. ते आत्मज्ञानथी पराङ्मुख अर्थात् जीवस्वरूपना ज्ञानथी बहिर्भूत छे. तेवो थयेलो ते (बहिरात्मा) शुं करे छे? पोताना देहने आत्मारूपे माने छे अर्थात् पोतानुं शरीर जे ‘हुं छुं’ एवी मिथ्या मान्यता करे छे.

भावार्थ : बहिरात्मा इन्द्रियोद्वारा जे बाह्य मूर्तिक पदार्थो ग्रहण करे छे तेने मोहवशात् पोताना माने छे. तेने अंदर आत्मतत्त्वनुं कंई पण ज्ञान नथी; तेथी ते पोताना शरीरने ज आत्मा समजे छेअर्थात् शरीर, मन अने वाणीनी क्रिया जे जडनी क्रिया छे तेने पोते करी शके छे अने तेनो पोते स्वामी छे एम माने छे.

जीव त्रिकाली ज्ञानस्वरूप छे. तेने बहिरात्मा अज्ञानवश जाणतो नथी अने बाह्य इन्द्रियगोचर पदार्थो जे मात्र ज्ञेयरूप छे तेमां इष्टअनिष्टनी कल्पना करी पोताने सुखीदुःखी, धनवाननिर्धन, बलवाननिर्बल, सुरूपकुरूप, राजारंक वगेरे होवानुं माने छे.

बहिरत्थे फु रियमणो इंद्रियदारेण णियसरूवचओ
णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठिओ ।।।। मोक्षप्राभृतेकुन्दकुन्दाचार्यः
इन्द्रिय द्वारा विषयमां बहार भमे बहिरात्म;
आतमज्ञानविमुख ते माने देह निजात्म. ७.


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विशेष

मिथ्या अभिप्रायवश अज्ञानी माने छे के, ‘शरीर उत्पन्न थवाथी मारो जन्म थयो, शरीरनो नाश थवाथी हुं मरी जईश, शरीरनी उष्ण अवस्था थतां मने ताव आव्यो, शरीरनी भूख, तरस, आदिरूप अवस्था थतां मने भूखतरस लागी, शरीर कपाई जतां हुं कपाई गयो, वगेरे.’ ए रीते अजीवनी अवस्थाने ते पोताना आत्मानी अवस्था माने छे.

‘‘........आपने आपरूप जाणी तेमां परनो अंश पण न मेळववो तथा पोतानो अंश पण परमां न मेळववोएवुं साचुं श्रद्धान करतो नथी. जेम अन्य मिथ्याद्रष्टि निर्धार विना पर्यायबुद्धिथी जाणपणामां वा वर्णादिमां अहंबुद्धि धारे छे, तेम आ पण आत्माश्रित ज्ञानादिमां तथा शरीराश्रित उपदेशउपवासादि क्रियाओमां पोतापणुं माने छे...... वळी पर्यायमां जीवपुद्गलना परस्पर निमित्तथी अनेक क्रियाओ थाय छे ते सर्वेने बे द्रव्योना मेळापथी नीपजी माने छे, पण आ जीवनी क्रिया छे तेमां पुद्गल निमित्त छे तथा आ पुद्गलनी क्रिया छे तेमां जीव निमित्त छेएम भिन्न भिन्न भाव भासतो नथी.......’’

‘जेनी मति अज्ञानथी मोहित छे अने जे मोह, राग, द्वेष आदि घणा भावोथी सहित छे एवा जीव एम कहे छे के आ शरीरादि बद्ध तेम ज धनधान्यादि अबद्ध पुद्गल द्रव्य मारुं छे.’

वळी शरीरादि बाह्य पदार्थोमां एकताबुद्धि करवाथी अज्ञानीने भ्रम थाय छे के रस, रूप, गंध, स्पर्श अने शब्दनुं जे ज्ञान थाय छे ते इन्द्रियोथी थाय छे तथा घटपटादिनुं जे ज्ञान थाय छे ते बाह्य पदार्थोथी थाय छे, पण तेने खबर नथी के जीवने जे ज्ञान थाय छे ते पोताना ज्ञानगुणरूप उपादान शक्तिथी थाय छे. इन्द्रियो अने घटपटादि पदार्थो तो जड छे. तेनाथी ज्ञान थाय नहि. ते तो ज्ञान थवामां निमित्तमात्र छे.

ए रीते बहिरात्मा पोताना ज्ञानात्मक स्वभावने भूली शरीरादि पर पदार्थोथी पोतानुं अस्तित्व माने छे अर्थात् शरीरादि पर पदार्थोमां ते आत्मबुद्धि करे छे. ७. १. मोक्षमार्ग प्रकाशकगु. आवृत्ति पृ. २३०. २. अज्ञानथी मोहितमति, बहु भावसंयुत जीव जे,

‘‘आ बद्ध तेम अबद्ध पुद्गल द्रव्य मारुं’’ ते कहे.
(श्री समयसार, गु. आवृत्तिगाथा २३)