Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 8-20.

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तच्च प्रतिपद्यमानो मनुष्यादिचतुर्गतिसम्बन्धिशरीराभेदेन प्रतिपद्यते तत्र

नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम्
तिर्यंच तिर्यगङ्गस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ।।।।
नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा
अनंतानंतधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ।।।।

अने तेनुं प्रतिपादन करी मनुष्यादि चतुर्गति संबंधी शरीरभेदथी जीवभेदनुं तेमां प्रतिपादन करे छे.

श्लोक ८

अन्वयार्थ : (अविद्वान्) मूढ बहिरात्मा (नरदेहस्थ) मनुष्यदेहमां रहेला (आत्मानं) आत्माने (नरम्) मनुष्य, (तिर्यङ्गस्थं) तिर्यंचना शरीरमां रहेला आत्माने (तिर्यंचम्) तिर्यंच, (सुरांङ्गस्थं) देवना शरीरमां रहेला आत्माने (सुरं) देव (तथा) अने........

अन्वयार्थ : (नारकांङ्गस्थं) नारकीना शरीरमां रहेला आत्माने (नारकं) नारकी (मन्यते) माने छे. (तत्त्वतः) वास्तविक रीते (स्वयं) स्वयं आत्मा (तथा न) तेवो नथी अर्थात् ते मनुष्य, तिर्यंच, देव अने नारकीरूप नथी; परंतु वास्तविक रीते आ आत्मा (अनंतांतधीशक्ति) अनंतानंत ज्ञान अने अनंतानंत शक्ति (वीर्य) रूप छे, (स्वसंवेद्यः) स्वानुभवगम्य छेपोताना अनुभवगोचर छे अने (अचलस्थितिः) पोताना स्वरूपमां सदा निश्चलस्थिर रहेवावाळो छे.......

सुरं त्रिदशपर्यायैस्तथानरम्
तिर्यञ्च च तदङ्गे स्वं नारकाङ्गे च नारकम् ।।३२१३।।
वेत्त्यविद्यापरिश्रान्तो मूढस्तन्न पुनस्तथा
किन्त्वमूर्तं स्वसंवेद्य तद्रूपं परिकीर्तितम् ।।१४।।ज्ञानार्णवेशुभचन्द्राचार्यः
नरदेहे स्थित आत्मने नर माने छे मूढ,
पशुदेहे स्थितने पशु, सुरदेहे स्थित सुर; ८.
नरक-तने नारक गणे, परमार्थे नथी एम,
अनंत धी-शक्तिमयी, अचळरूप, निजवेद्य. ९.


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टीकानरस्य देहो नरदेहः तत्र तिष्ठतीति नरदेहस्थस्तमात्मानं नरं मन्यते कोऽसौ ? अविद्वान् बहिरात्मा तिर्यंचमात्मानं मन्यते कथंभूतं ? तिर्यगङ्गस्थं तिरश्चामङ्गं तिर्यगङ्गं तत्र तिष्ठतीति तियङ्गस्थस्तं सुराङ्गस्थं आत्मानं सुरं तथा मन्यते ।।।। नारकमात्मानं मन्यते किं विशिष्टं ? नारकाङ्गस्थं न स्वयं तथा नरादिरूप आत्मा स्वयं कर्मोपाधिमंतरेण न भवति कथं ? तत्त्वतः परमार्थतो न भवति व्यवहारेण तु यदा भवति तदा भवतु कर्मोपाधिकृता हि जीवस्य मनुष्यादिपर्यायास्तन्निवृतौ निवर्तमानत्वात् न पुनः वास्तवा इत्यर्थः परमार्थतस्तर्हिकीदृशोऽसावित्याहअनन्तानन्तधीशक्तिः धीश्च शक्तिश्च धीशक्ति अनन्तानन्ते धीशक्ति यस्य तथाभूतोऽसौकुतः परिच्छेद्य इत्याहस्वसंवेद्यो निरुपाधिकं हि रूपं वस्तुनः स्वभावोऽभिधीयते कर्माद्यपाये चानन्तान्तधीशक्तिपरिणत आत्मा स्वसंवेदनेनैव वेद्यः तद्विपरीतपरिणत्यनुभवस्य संसारावस्थायां कर्मोपाधिनिर्मितत्वात् अस्तु नाम तथा स्वसंवेद्यः

टीका : नरनो देह ते नरदेह. तेमां रहे छे तेथी नरदेहस्थ. ते (नरना देहमां रहेनार) आत्माने नर माने छे. कोण ते (आवुं माने छे)? अविद्वानबहिरात्मा (एवुं माने छे); तिर्यंचने आत्मा माने छे, केवा (तिर्यंच)ने? तिर्यंचोना शरीरमां रहेनारनेतिर्यंचोनुं शरीर ते तिर्यंचशरीरतेमां रहे छे तेथी तिर्यंगस्थतेने (आत्मा माने छे). तेवी रीते देवोना शरीरमां रहेनार (आत्मा)ने देव माने छे.

नारकने आत्मा माने छे. केवा (नारकने)? नारकीना शरीरमां रहेनारने. आत्मा स्वयं नरादिरूप नथी; कर्मोपाधि विना ते स्वयं थतो नथी. केवी रीते? तत्त्वतः एटले परमार्थे ते (तेवो) नथी, पण व्यवहारे ते होय तो भले होय. जीवनी मनुष्यादि पर्यायो कर्मोपाधिथी थयेली छे. ते (कर्मोपाधि) निवृत्त थतां (मटतां) ते (पर्याय) निवृत्त थती होवाथी वास्तवमां (ते पर्यायो जीवनी) नथीएम अर्थ छे.

त्यारे परमार्थे ते (आत्मा) केवो छे? ते कहे छे. ते अनंतानंत धीशक्तिअर्थात् अनंतानंत ज्ञान अने शक्तिवाळो छे. तेवो ते केवी रीते जाणी शकाय (अनुभवी शकाय)? ते कहे छे. ते स्वसंवेद्य छे. निरुपाधिक रूप ज वस्तुनो स्वभाव कहेवाय छे. कर्मादिनो विनाश थतां, अनंतानंत ज्ञानशक्तिरूपे परिणत आत्मा स्वसंवेदनथी ज वेदी शकाय छे. संसार अवस्थामां ते कर्मोपाधिथी निर्मित (निर्मायेलो) होवाथी तेनाथी विपरीत परिणतिनो अनुभव थाय छे.

तेवो स्वसंवेद्य (आत्मा) भले हो, पण ते केटलो काल? सर्वदा तो नहि होय, कारण के पाछळथी तेना रूपनो नाश थाय छे. (आवी शंकानो परिहार करतां) कहे छे केतेनी


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कियत्कालमसौ न तु सर्वदा पश्चात् तद्रूपविनाशादित्याहअचलस्थितिः अनंतांतधीशक्ति- स्वभावेनाचलास्थितिर्यस्य सः यैः पुनर्योगसांख्यैर्मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः ।।।। (आत्मानी) अचळ स्थिति छे, कारण के अनंतानंत धीशक्तिना स्वभावना कारणे ते अचल स्थितिवाळो छे. जे योग अने सांख्यमतवाळाओए, मुक्तिना विषयमां आत्मानी तेनाथी (मुक्तिथी) प्रच्युतिनो (पतननो) संभव मान्यो छे, तेना संबंधी (खंडनरूपे) प्रमेयकमलमार्तण्ड अने न्यायकुमुदचन्द्रमां मोक्षविचारप्रसंगे विस्तारथी कहेवामां आव्युं छे.

भावार्थ : नरनारकादि जे पर्यायोने जीव धारण करे छे ते पर्यायोरूप अज्ञानी पोताने माने छे. वास्तवमां जीव ते पर्यायोरूप नथी, पण ते स्वानुभवगम्य, शाश्वत अने अनंतानंतज्ञानवीर्यमय छे. मुक्तअवस्थामां (मोक्षमां) तेनी स्थिति अचल छे; त्यांथी (मुक्तिथी) तेनुं कदी पण पतन थतुं नथीअर्थात् जीव मुक्त थया पछी कदी फरीथी संसारमां आवतो नथी. योग अने सांख्यमतवाळानी मान्यता तेनाथी विपरीत छे.

विशेष

बहिरात्मा नरनारकादि पर्यायोने ज पोतानी साची अवस्था माने छे. आत्मानुं वास्तविक स्वरूप तेनाथी भिन्न, कर्मोपाधिरहित, शुद्ध, चैतन्यमय, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञाताद्रष्टा छे, अभेद्य छे, अनंतज्ञान तथा अनंतवीर्यथी युक्त छे अने अचलस्थितिरूप छेआवुं भेदज्ञान (विवेकज्ञान) तेने होतुं नथी, तेथी ते संसारना पर पदार्थोमां तथा मनुष्यादि पर्यायोमां आत्मबुद्धि करे छेतेने आत्मा माने छे.

जीव जे जे गतिमां जाय छे ते ते गतिने अनुरूप जुदो जुदो स्वांग (वेष) धारण करे छे. आ स्वांग अचेतन छे, जड छे अने क्षणिक छे. ते वेषने धारण करनार जीव, तेनाथी भिन्न, शाश्वत, ज्ञानस्वरूप चेतन द्रव्य छे. अज्ञानीने पोताना वास्तविक स्वरूपनुं भान नथी, तेथी ते बाह्य वेषने ज जीव मानी ते प्रमाणे वर्ताव करे छे.

‘‘.......अमूर्तिक प्रदेशोनो पुंज प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोनो धारक अनादिनिधन वस्तु पोते (आत्मा) छे, तथा मूर्तिक पुद्गल द्रव्योनो पिंड प्रसिद्ध ज्ञानादिरहित नवीन ज जेनो संयोग थयो छे एवां शरीरादि पुद्गल के जे पोतानाथी पर छेए बन्नेना संयोगरूप नाना प्रकारना मनुष्यतिर्यंचादि पर्यायो होय छे ते पर्यायोमां आ मूढ जीव अहंबुद्धि धारी रह्यो छे, स्वपरनो भेद करी शकतो नथी. जे पर्याय पाम्यो होय तेनेज पोतापणे माने छे; तथा ए पर्यायमां पण जे ज्ञानादि गुणो छे ते तो पोताना गुण छे अने रागादिक छे ते पोताने


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स्वदेहे एवमध्यवसायं कुर्वाणो बहिरात्मा परदेहे कथंभूतं करोतीत्याह

स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम्
परात्माधिष्ठितं मूढः परत्वेनाध्यवस्यति ।।१०।।

टीकाव्यापारव्याहाराकारादीना स्वदेहसदृशं परदेहं दृष्ट्वा कथंम्भूतं ? परात्मनाधिष्ठितं कर्मवशात्स्वीकृतं अचेतनं चेतनेन संगतं मूढो बहिरात्मा परत्वेन परात्मत्वेन अध्यवस्यति ।।१०।। कर्मनिमित्तथी औपाधिकभाव छे; वळी वर्णादिक छे ते पोताना गुणो नथी पण शरीरादि पुद्गलना गुणो छे; शरीरादिमां पण वर्णादिनुं वा परमाणुनुं पलटावुं नाना प्रकाररूप थया करे छे. ए सर्व पुद्गलनी अवस्थाओ छे, परंतु ते सर्वने आ जीव पोतानुं स्वरूप जाणे छे. तेने स्वभावपरभावनो विवेक थई शकतो नथी.’’

स्वदेहमां आवो अध्यवसाय करनार बहिरात्मा परदेहमां केवो अध्यवसाय करे छे, ते कहे छे

श्लोक १०

अन्वयार्थ : (मूढः) अज्ञानी बहिरात्मा, (परमात्माधिष्ठितं) बीजाना आत्मा साथे रहेला (अचेतनं) अचेतनचेतनारहित (परदेहं) बीजाना शरीरने, (स्वदेहसदृशं) पोताना शरीर समान (दृष्ट्वा) जोईने (परत्वेन) बीजाना आत्मारूपे (अध्यवस्यति) माने छे.

टीका : व्यापार, व्याहार (वाणी, वचन) आकारादिवडे परदेहने पोताना देह समान जोईनेकेवो (जोईने)? कर्मवशात् बीजाना आत्माथी अधिष्ठितस्वीकृत अचेतन (परना देहने) चेतनायुक्त जोईने बहिरात्मा तेने (देहने) परपणारूपअर्थात् परना आत्मारूपे माने छे.

णियदेहसरिच्छं पिच्छिऊ ण परविग्गहं पयत्तेण
अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभावेण ।।।।मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दाचार्यः
स्वशरीरमिवान्विध्य पराङ्गच्युतचेतनम्
परमात्मानमज्ञानी परबुद्धयाऽध्यवस्यति ।।३२१५।।ज्ञानार्णवे, शुभचन्द्रः

१. मोक्षमार्गप्रकाशक गु. आवृत्तिपृ. ४२.

निज शरीर सम देखीने परजीवयुक्त शरीर,
माने तेने आतमा, बहिरातम मूढ जीव. १०.


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एवंविधाध्यवसायात्किं भवीत्याह

स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम्
वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्रभार्यादिगोचरः ।।११।।

टीकाविभ्रमो विपर्यासः पुंसां वर्तते ? किं विशिष्टानां ? अविदितात्मनां अपरिज्ञातात्मस्वरूपाणां केन कृत्वाऽसौ वर्तते ? स्वपराध्यवसायेन क्व ? देहेषु कथम्भूतो

भावार्थ : अज्ञानी बहिरात्मा, जेवी रीते पोताना शरीरने पोतानो आत्मा माने छे तेवी रीते बीजाना (स्त्रीपुत्रमित्रादिकना) अचेतन शरीरने तेमनो (स्त्रीपुत्रमित्रादिकनो आत्मा) माने छे.

विशेष

जेम पोताना शरीरनो नाश थतां, बहिरात्मा पोतानो नाश समजे छे, तेम स्त्री पुत्रमित्रादिना शरीरनो नाश थतां ते तेमना आत्मानो नाश समजे छे. एम ते पोताना शरीरमां आत्मबुद्धिआत्मकल्पनाकरी दुःखी थाय छे, अने बीजाओ पण शरीरनी प्रतिकूळताना कारणे दुःखी थाय छे एम माने छे. १०.

एवा प्रकारना अध्यवसायथी शुं थाय छे ते कहे छे

श्लोक ११

अन्वयार्थ : (अविदितात्मनां पुंसां) आत्माना स्वरूपथी अज्ञान पुरुषोने, (देहेषु) (स्वपराध्यवसायेन) पोतानी अने परनी आत्मबुद्धिना कारणे (पुत्रभार्यादिगोचरः) पुत्रस्त्रीआदिकना विषयमां (विभ्रमः वर्तते) विभ्रम वर्ते छे.

टीका : पुरुषोने विभ्रम अर्थात् विपर्यास (मिथ्याज्ञान) वर्ते छे. केवा पुरुषोने? आत्माथी अजाणआत्मस्वरूपने नहि जाणनारापुरुषोने. शाथी करीने ते (विभ्रम) वर्ते छे? स्वपरना अध्यसायथी. (विभ्रम) क्यां थाय छे? शरीरो विषे. केवो विभ्रम थाय छे? पुत्र

सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं
सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ।।१०।।मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दाचार्यः
विभ्रम पुत्र-रमादिगत आत्म-अज्ञने थाय.
देहोमां छे जेहने आतम-अध्यवसाय. ११.


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विभ्रमः ? पुत्रभार्यादिगोचरः परमार्थतोऽनात्मीयमनुपकारकमपि पुत्रभार्याधनधान्यादिकमात्मीयमुपकारकं च मन्यते तत्सम्पत्तौ संतोषं तद्वियोगे च महासन्तापमात्मवधादिकं च करोति ।।११।। भार्यादि विषयक (विभ्रम थाय छे.)परमार्थे (वास्तवमां) पुत्र, स्त्री, धन, धान्यादि आत्मीय (पोतानां) तेमज उपकारक नहि होवा छतां, ते (विभ्रमित पुरुष) तेमने आत्मीय तथा उपकारक माने छे, तेमनी संपत्तिमां (आबादीमां) ते संतोष तथा तेना वियोगमां महासंताप अने आत्मवधादिक करे छे.

भावार्थ : जे पुरुषोने आत्मस्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान नथी, तेओ पोताना शरीरमां पोताना आत्मानी अने परना शरीरमां परना आत्मानी कल्पना करी, स्त्रीपुत्रादिकना विषयमां विभ्रान्त रहे छेअर्थात् पोताना शरीरनी साथे स्त्रीपुत्रादिकना शरीरसंबंधने ज पोताना आत्मानो संबंध माने छे.

बहिरात्मा स्त्रीपुत्रमित्रादि अनात्मीय अर्थात् पर होवा छतां तेमने आत्मीय माने छे अने पोताने अनुपकारक होवा छतां तेमने उपकारक मानी तेमनी रक्षानो प्रयत्न करे छे, तेना संयोगादिमां सुखी थाय छे अने तेमना वियोगादिमां महासंताप माने छे अने आत्मवध पण करे छे.

विशेष

‘‘........शरीरनो संयोग थवा अने छूटवानी अपेक्षाए जन्ममरण होय छे तेने पोतानां जन्ममरण मानी ‘‘हुं ऊपज्यो, हुं मरीश’’ एम माने छे. वळी शरीरनी ज अपेक्षाए अन्य जीवोथी संबंध माने छे, जेमके जेनाथी शरीर नीपज्युं तेने पोतानां माता पिता माने छे, शरीरने रमाडे तेने पोतानी रमणी माने छे, शरीरवडे नीपज्यां तेने पोतानां दीकरादीकरी माने छे, शरीरने जे उपकारक छे तेने पोतानो मित्र माने छे तथा शरीरनुं बूरुं करे तेने पोतानो शत्रु माने छे, इत्यादिरूप तेनी मान्यता होय छे. घणुं शुं कहीए? हरकोई प्रकारवडे पोताने अने शरीरने ते एकरूप ज माने छे.......’’

‘‘........वळी जेम कोई बहावरो बेठो हतो त्यां कोई अन्य ठेकाणेथी माणस, घोडा अने धनादिक आवी ऊतर्यां; ते सर्वने आ बहावरो पोतानां जाणवा लाग्यो, पण ए बधां पोतपोताने आधीन होवाथी तेमां कोई आवे, कोई जाय अने कोई अनेक अवस्थारूप परिणमेएम ए सर्वनी पराधीन क्रिया थवा छतां आ बहावरो तेने पोताने आधीन जाणी महा खेदखिन्न थाय छे. ए प्रमाणे आ जीव ज्यां पर्याय (शरीर) धारण करे छे त्यां कोई अन्य ठेकाणेथी पुत्र, घोडा अने धनादिक आवीने स्वयं प्राप्त थाय छे तेने आ जीव पोतानां १. मोक्षमार्ग प्रकाशक गु. आवृत्तिपृ. ८३.


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एवंविधविभ्रामाच्च किं भवतीत्याह

अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते दृढः
येन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ।।१२।।

टीकातस्माद्विभ्रमाद्बहिरात्मनि संस्कारो वासना दृढोऽविचलो जायते किन्नामा ? अविद्यासंज्ञितः अविद्या संज्ञाऽस्य संजातेति ‘‘तारकादिभ्य इतच्’’ येन संस्कारेण कृत्वालोको- ऽविवेकिजनः अंगमेव च शरीरमेव स्वं आत्मानं पुनरपि जन्मान्तरेऽपि अभिमन्यते ।।१२।। जाणे छे, पण ए तो पोतपोताने आधीन कोई आवे, कोई जाय तथा कोई अनेक अवस्थारूप परिणमेएम तेनी पराधीन क्रिया होय छे, तेने पोताने आधीन मानी आ जीव खेदखिन्न थाय छे.’’ ११.

एवा प्रकारना विभ्रमथी शुं थाय छे? ते कहे छेः

श्लोक १२

अन्वयार्थ : (तस्मात्) ए विभ्रमथी (अविद्यासंज्ञितः) अविद्या नामनो (संस्कारः) (दृढः) द्रढमजबूत (जायते) थाय छे, (येन) जे कारणथी (लोकः) अज्ञानी जीव (पुनः अपि) जन्मान्तरमां पण (अंगम् एव) शरीरने ज (स्वं अभिमन्यते) आत्मा माने छे.

टीका : ते विभ्रमथी बहिरात्मामां संस्कार एटले वासना द्रढअविचल थाय छे. कया नामनो (संस्कार)? अविद्या नामनो (संस्कार)अविद्या संज्ञा जेनी छे तेजे संस्कारने लीधे अविवेकी (अज्ञानी) जन अंगने ज एटले शरीरने ज फरीथी पण, अर्थात् अन्य जन्ममां पण पोतानो आत्मा माने छे.

भावार्थ : आ जीवने अज्ञानजनित अविद्या संस्कार अनादिकालथी छे, स्त्रीपुत्रादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करवाथी आ संस्कार द्रढ थाय छे अने तेने लीधे अन्य जन्ममां पण जीव शरीरने ज आत्मा माने छे.

मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो
मोहोदयेण पुणरवि अंगं संम्मण्णए मणुओ ।।११।।मोक्षप्राभृते, कुन्दकुन्दाचार्यः

२. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ५२.

आ भ्रमथी अज्ञानमय द्रढ जामे संस्कार;
अन्य भवे पण देहने आत्मा गणे गमार. १२.


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एवमभिमन्यमानश्चासौ किं करोतीत्याह

देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात्
स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनं ।।१३।।

टीकादेहे स्वबुद्धित्मबुद्धिरार्बहिरात्मा किं करोति ? आत्मानं युनक्ति सम्बद्धं करोति

अनादि अज्ञानताना कारणे आ जीवने जे पर्याय (शरीर) प्राप्त थाय छे तेने ते पोतानो आत्मा समजी ले छे अने तेनो आवो अज्ञानात्मक संस्कार जन्मजन्मान्तरोमां पण बन्यो रहेवाथी ते द्रढ थतो जाय छे. जेम रस्सीना घसाराथी कूवाना पत्थरमां कापो वधु ने वधु ऊंडो पडतो जाय छे, तेम अविद्याना संस्कारो पण अज्ञानी जीवमां वधु ने वधु ऊंडा ऊतरता जाय छे.

अविद्याना संस्कारोथी प्रेराई आ जीव शरीरादि पर पदार्थो विषे आत्मबुद्धि करे छे. पोताने परनो कर्ताभोक्ता माने छे, पर प्रत्ये अहंकारममकार बुद्धि ने एकताबुद्धि करे छे. आ कारणथी तेने रागद्वेष थाय छे अने रागद्वेषथी तेनुं संसारचक्र चालु ज रहे छे. १२.

एवी रीते मानीने ते शुं करे छे? ते कहे छेः

श्लोक १३

अन्वयार्थ : (देहे स्वबुद्धिः) शरीरमां आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा (निश्चयात्) निश्चयथी (आत्मानं) पोताना आत्माने (एतेन) तेनी साथेशरीरनी साथे (युनक्ति) जोडे छे संबंध करे छे, अर्थात् बंनेने एकरूप माने छे, परंतु (स्वात्मनि एव आत्मधीः) पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि करनार अंतरात्मा (देहिनं) पोताना आत्माने (तस्मात्) तेनाथी शरीरथी (वियोजयति) पृथक्अलग करे छे.

टीका : शरीरमां स्वबुद्धिआत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा शुं करे छे? ते (पोताना) १. पाटणजैन भंडारनी प्रत आधारे ‘समाधिशतक’नी टीकाना अनुवादमां श्रीयुत मणिलाल नभुभाई

त्रिवेदीए नीचे प्रमाणे लख्युं छेः
‘‘बहिरात्माने देहने विषे ज आत्मबुद्धि छे, ने ते आत्माने परमानंद न पामवा देतां, देहमां ज बांधी
राखे छे, अर्थात् दीर्घ संसारतापमां पाडे छे......’’
देहबुद्धि जन आत्मने करे देहसंयुक्त,
आत्मबुद्धि जन आत्मने तनथी करे विमुक्त. १३.


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दीर्धसंसारिणं करोतीत्यर्थः केन ? एतेन देहेन निश्चयात् परमार्थेन स्वात्मन्येव जीवस्वरूपे एव आत्मधीरन्तरात्मा निश्चयाद्वियोजयति असम्बद्धं करोति देहिनं ।।१३।। आत्माने (शरीर साथे) जोडे छे(तेनी साथे) संबंध करे छे; तेने दीर्घ संसारी करे छे एवो अर्थ छे. कोनी साथे (जोडे छे)? निश्चयथी एटले नक्की ते शरीर साथे (जोडे छे); पण आत्मामां ज एटले जीवस्वरूपमां ज आत्मबुद्धिवाळो अंतरात्मा निश्चयथी तेने (आत्माने) तेनाथी (शरीरथी) पृथक् (अलग) करे छे(शरीर साथे) असंबंध करे छे.

भावार्थः अज्ञानी बहिरात्मा पोताना शरीरमां स्व-बुद्धि-आत्मबुद्धि करे छे अर्थात् शरीर अने आत्माने एकरूप माने छे, ज्यारे ज्ञानी अंतरात्मा पोताना आत्माने शरीरथी भिन्न समजे छे.

‘‘........आ जीव ए शरीरने पोतानुं अंग जाणी पोताने अने शरीरने एकरूप माने छे, पण शरीर तो कर्मोदय आधीन कोई वेळा कृश थाय, कोई वेळा स्थूल थाय, कोई वेळा नष्ट थाय अने कोई वेळा नवीन ऊपजे, इत्यादि चरित्र थाय छे. ए प्रमाणे तेनी पराधीन क्रिया थवा छतां आ जीव तेने पोताने आधीन जाणी महा खेदखिन्न थाय छे.....’’

देहाध्यासथी मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा शरीरने ज आत्मा मानतो होवाथी तेने नवां नवां शरीरोनो संबंध थतो रहे छे अने तेथी ते अनंतकाल सुधी आ गहन संसारवनमां भटकतो फरे छे तथा संसारना तीव्र तापथी सदा बळतो रहे छे.

अन्तरात्माने शरीरादिमां आत्मबुद्धि (ममत्वबुद्धि) होती नथी; पण तेने पोताना ज्ञानदर्शनस्वरूप आत्मामां ज आत्मबुद्धि होय छे; तेथी ते शरीरने, पोताना चैतन्यस्वरूपथी भिन्न, पुद्गलनो पिंड समजे छे. भेदज्ञानना बळे ते ध्यानद्वारास्वरूपलीनता द्वारा पोताना आत्माने शरीरादिना बंधनथी सर्वथा पृथक् करे छे अने सदाने माटे मुक्त थई जाय छे.

आवी रीते द्रष्टिफेरने लीधे बहिरात्मा पर साथे एकत्वबुद्धि करी संसारमां रखडे छे, ज्यारे अंतरात्मा पर साथेनो संबंध तोडी तथा स्व साथे संबंध जोडी अंते संसारना दुःखोथी सर्वथा मुक्त थाय छे.

अनादि कालथी शरीरने आत्मा मानवानी भूल जीवे पोते ज पोतानी अज्ञानताथी करी छे अने आत्मज्ञान वडे ते ज पोतानी भूल सुधारी शके छे.

‘शरीरादिमां आत्मबुद्धिरूप विभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं दुःख आत्मज्ञानथी ज शान्त थाय छे’ १३. १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ५२ २. जुओः ‘समाधितंत्र’श्लोक ४१.


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देहेष्वात्मानं योजयतश्च बहिरात्मनो दुर्विलसितोपदर्शनपूर्वकमाचार्योऽनुशयं कुर्वन्नाह

देहेष्वात्मधिया जाताः पुत्रभार्यादिकल्पनाः
सम्पत्तिमात्मनस्ताभि र्मन्यते हा हतं जगत् ।।१४।।

टीकाजाताः प्रवृत्ताः काः ? पुत्रभार्यादिकल्पनाः क्व ? देहेषु कया ? आत्मधिया क्व आत्मधीः ? देहेष्वेव अयमर्थःपुत्रादिदेहं जीवत्वेन प्रतिपद्यमानस्य मत्पुत्रो भार्येतिकल्पना विकल्पा जायन्ते ताभिश्चानात्मनीयाभिरनुपकारिणीभिश्च सम्पत्तिं पुत्रभार्यादिविभूत्यतिशयं आत्मानो मन्यते जगत्कर्तृ हा हतं नष्टं स्वस्वरूपपरिज्ञानाद् बहिर्भूतं जगत् बहिरात्मा प्राणिगणः ।।१४।।

शरीरोमां आत्मानो संबंध जोडनार बहिरात्माना निन्दनीय व्यापारने बतावीने आचार्य खेद प्रगट करतां कहे छेः

श्लोक १४

अन्वयार्थ : (देहेषु) शरीरोमां (आत्मधिया) आत्मबुद्धिना कारणे (पुत्रभार्यादि- कल्पनाः जाताः) मारो पुत्र, मारी स्त्री, इत्यादि कल्पनाओ उत्पन्न थाय छे. (हा) खेद छे के (जगत्) बहिरात्मस्वरूप प्राणिगण (ताभिः) ए कल्पनाओना कारणे (सम्पत्तिम्) स्त्री पुत्रादिनी समृद्धिने (आत्मनः) पोतानी समृद्धि (मन्यते) माने छे. एवी रीते आ जगत् (हतं) हणाई रह्युं छे.

टीका : उत्पन्न थईप्रवर्ती. शुं (प्रवर्ती)? पुत्रस्त्री आदि संबंधी कल्पनाओ. शाने विषे? शरीरो विषे. कया कारणे? आत्मबुद्धिना कारणे. शामां आत्मबुद्धि? शरीरोमां ज. अर्थ ए छे केपुत्र वगेरेना देहने जीवरूपे माननारने, ‘मारो पुत्र, स्त्रीएवी कल्पनाओ विकल्पो थाय छे. अनात्मरूप अने अनुपकारक एवी ते कल्पनाओथी पुत्रभार्यादिरूप विभूतिना अतिशय स्वरूप संपत्तिने जगत् पोतानी माने छे. अरे! स्वस्वरूपना परिज्ञानथी बहिर्भूत (रहित) बहिरात्मारूप जगत्प्राणिगणहणाई रह्युं छे.

भावार्थ : देहमां आत्मबुद्धिना कारणे आत्मस्वरूपना ज्ञानथी रहित बहिरात्माओ, स्त्रीपुत्रादि संबंधोमां मारापणानी कल्पनाओ करे छे अने तेमनी समृद्धिने पोतानी समृद्धि माने छे. आम आ जगत् हणाई रह्युं छेए खेदनी वात छे.

देहे आतमबुद्धिथी सुत-दारा कल्पाय;
ते सौ निज संपत गणी, हा! आ जगत हणाय. १४.


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इदानीमुक्तमर्थमुपसंहृत्यात्मन्यन्तरात्मनोऽनुप्रवेशं दर्शयन्नाह

मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः
त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः ।।१५।।

ज्यांसुधी जीवने शरीरमां आत्मबुद्धि रहे छे त्यांसुधी तेने पोताना निराकुल निजानन्दरसनो स्वाद आवतो नथी अने पोतानी अनंतचतुष्टयरूप सम्पत्तिथी अज्ञात रहे छे. ते स्त्रीपुत्रधनधान्यादि बाह्य सम्पत्तिओने पोतानी मानी तेना संयोगवियोगमां हर्षविषाद करे छे. तेना फलस्वरूप तेनुं संसारपरिभ्रमण चालु रहे छे. तेथी आचार्य खेद दर्शावतां कहे छे के, ‘‘हाय! आ जगत् मार्युं गयुं! ठगाई गयुं! तेने पोतानुं कांई पण भान रह्युं नहि!’’

विशेष

‘‘........वळी कोई वखते कोई प्रकारे पोतानी इच्छानुसार परिणमता जोई आ जीव ए शरीरपुत्रादिकमां अहंकारममकार करे छे अने ए ज बुद्धिथी तेने उपजाववानी, वधारवानी तथा रक्षा करवानी चिंतावडे निरंतर व्याकुळ रहे छे, नाना प्रकारनां दुःख वेठीने पण तेमनुं भलुं इच्छे छे......’’

‘‘.......मिथ्यादर्शन वडे आ जीव कोई वेळा बाह्य सामग्रीनो संयोग थतां तेने पण पोतानी माने छे, पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोडा, मंदिर (मकान) अने नोकरचाकरादि जे पोतानाथी प्रत्यक्ष भिन्न छे. सदाकाळ पोताने आधीन नथीएम पोताने जणाय तो पण तेमां ममकार करे छे, पुत्रादिकमां ‘‘आ छे ते हुं ज छुं’’एवी पण कोई वेळा भ्रमबुद्धि थाय छे. मिथ्यादर्शनथी शरीरादिकनुं स्वरूप पण अन्यथा ज भासे छे.......’’ १४.

हवे कहेला अर्थनो उपसंहार करीने आत्मामां अन्तरात्मानो अनुप्रवेश दर्शावतां कहे छेः १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ५३. २. वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः

सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ।।।। (इष्टोपदेश)

३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ८३.

भवदुःखोनुं मूळ छे देहातमधी जेह;
छोडी, रुद्धेन्द्रिय बनी, अंतरमांही प्रवेश. १५.


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टीकामूलं कारणं कस्य ? संसारदुःखस्य काऽसौ ? देहएवात्मधीः देहः कायः स एवात्म इति धीः यत एवं ततस्तस्मात्कारणात् एनां देहएवात्मबुद्धिं त्यक्त्वा अन्तः प्रविशेत् आत्मनि आत्मबुद्धिं कुर्यात् अन्तरात्मा भवेदित्यर्थः कथं भूतः सन् ? बहिरव्यापृतेन्द्रियः बहिर्बाह्यविषयेषु अव्यापृतान्यप्रवृत्तानीन्द्रियाणि यस्य ।।१५।।

श्लोक १५

अन्वयार्थ : (देहे) शरीरमां (आत्मधीः एव) आत्मबुद्धि होवी ते ज (संसारदुःखस्य) संसारना दुःखनुं (मूलं) कारण छे (ततः) तेथी (एनां) तेनेशरीरमां आत्मबुद्धिने(त्यक्त्वा) छोडीने तथा (बहिः अव्यापृतेन्द्रियः) बाह्य विषयोमां इन्द्रियोनी प्रवृत्तिने रोकीने (अन्तः) अंतरंगमांआत्मामां (प्रविशेत्) प्रवेश करवो.

टीका : मूल एटले कारण, कोनुं? संसारदुःखनुं ते (कारण) कयुं? देहमां ज आत्मबुद्धि अर्थात् देहकाय ते ज आत्मा एवी बुद्धि (मान्यता) ते. ते कारणने लीधे तेनो, एटले देहमां ज आत्मबुद्धिनो, त्याग करीने अंतरमां प्रवेश करवोआत्मामां आत्मबुद्धि करवीअंतरात्मा थवुंएवो अर्थ छे. केवो थईने? बाह्यमां अव्यापृत इन्द्रियोवाळो थईने अर्थात् बाह्य विषयोमां जेनी इन्द्रियो अव्यापृत एटले अप्रवृत्त थई छे (रोकाई गई छे अटकी गई छे) तेवो थईने.

भावार्थ : शरीरमां आत्मबुद्धि थवी ए ज संसारनुं मूळ (एक ज साचुं) कारण छे, माटे तेने छोडीने तथा इन्द्रियोनी बाह्य विषयोमां थती प्रवृत्तिने रोकीने आत्मामां प्रवेश करवो, अर्थात् पर तरफथी हठीने स्वसन्मुख थवुं.

संसारमां जेटलां दुःख छे ते बधा शरीरमां एकताबुद्धिना कारणे ज होय छे. ज्यां सुधी जीवने बाह्य पदार्थोमां आत्मबुद्धि रहे छे त्यांसुधी आत्मानी साथे शरीरनो संबंध रह्या करे छे अने तेथी तेने संसारमां घोर दुःख भोगववां पडे छे.

ज्यारे जीवने शरीरादि पर पदार्थो तरफनो ममत्वभाव छूटी जाय छे त्यारे तेने बाह्य पदार्थोमां अहंकारममकारबुद्धि होती नथी. ते परथी मुख मोडी स्वसन्मुख ढळे छे अने आत्मिक आनंद अनुभवे छे; तेथी ग्रन्थकारे समस्त दुःखोनुं मूळ कारण जे शरीरमां आत्मबुद्धि छे तेनो त्याग करी, अन्तरात्मा थवानी जीवने प्रेरणा करी छे, जेथी ते घोर सांसारिक दुःखोथी छुटकारो पामी साचा निराकुल सुखनी प्राप्ति करे.


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अन्तरात्मा आत्मन्यात्मबुद्धि कुर्वाणोऽलब्धलाभात्संतुष्ट आत्मीयां बहिरात्मावस्थामनुस्मृत्य विषादं कुर्वन्नाह

विशेष

‘‘......आ जीवने पर्यायमां अहंबुद्धि थाय छे, तेथी ते पोताने अने शरीरने एकरूप जाणी प्रवर्ते छे. आ शरीरमां पोताने रुचे एवी इष्ट अवस्था थाय छे तेमां राग करे छे तथा पोताने अणरुचती एवी अनिष्ट अवस्थामां द्वेष करे छे. शरीरनी इष्ट अवस्थाना कारणभूत बाह्य पदार्थोमां राग करे छे तथा तेना घातक पदार्थोमां द्वेष करे छे......कोई बाह्य पदार्थ शरीरनी अवस्थाना कारणरूप नथी, छतां तेमां पण ते रागद्वेष करे छे.’’

‘‘पोतानो स्वभाव तो द्रष्टाज्ञाता छे. हवे पोते केवळ देखवावाळो जाणवावाळो तो रहेतो नथी, पण जे जे पदार्थोने ते देखेजाणे छे तेमां इष्टअनिष्टपणुं माने छे अने तेथी रागीद्वेषी थाय छे. कोईना सद्भावने तथा कोईना अभावने इच्छे छे, पण तेनो सद्भाव के अभाव आ जीवनो कर्यो थतो ज नथी, कारण के कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यनो कर्ता छे ज नहि, पण सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावरूप परिणमे छे; मात्र आ जीव व्यर्थ कषायभाव करी व्याकुळ थाय छे.

वळी कदाचित् पोते इच्छे तेम ज पदार्थ परिणमे तो पण ते पोतानो परिणमाव्यो तो परिणम्यो नथी, पण जेम चालता गाडाने धकेली बाळक एम माने के, ‘‘आ गाडाने हुं चलावुं छुं’’ए प्रमाणे ते असत्य माने छे.........

माटे शरीरादि मारां छे अने तेनी क्रिया हुं करी शकुं छुं एवी शरीरमां आत्मबुद्धि ते अज्ञानचेतना छे. तेनो त्याग करी ‘आत्मा ए ज मारो छे’एवी आत्मामां आत्मबुद्धिरूप ज्ञायकस्वभावनुं अवलंबन करी अंतरात्मा थवा, आचार्ये अज्ञानी जीवने उपदेश कर्यो छे. १५.

अंतरात्मा आत्मामां आत्मबुद्धि करतो, अलब्ध (पूर्वे नहि प्राप्त थयेला एवा) लाभथी संतोष पामी, पोतानी बहिरात्मावस्थानुं स्मरण करीने विषाद (खेद) करे छे. ते कहे छेः १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ९२ २. को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,

तेथी बधांये द्रव्य निज स्वभावथी ऊपजे खरे. (श्री समयसारगु. आवृत्ति, गाथा ३७२)

३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ९०.


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मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम्
तान् प्रपद्याऽहमिति मा पुरा वेद न तत्त्वतः ।।१६।।

टीकामत्त आत्मस्वरूपात् च्युत्वा व्यावृत्य अहं पतितः अत्यासक्त्या प्रवृत्तः क्व ? विषयेषु कैः कृत्वा ? इन्द्रियद्वारैः इन्द्रियमुखैः ततस्तान् विषयान् प्रपद्य ममोपकारका एते इत्यतिगृह्यानुसृत्य मां आत्मानं न वेद न ज्ञातवान् कथं ? अहमित्युल्लेखेन अहमेवाहं न शरीरादिकमित्येवं तत्त्वतो न ज्ञातवानित्यर्थः कदा ? पुरा पूर्वं अनादिकाले ।।१६।।

श्लोक १६

अन्वयार्थ : (अहं) हुं (पुरा) अनादिकालथी (मत्तः) आत्मस्वरूपथी (च्युत्वा) च्युत थईने (इन्द्रियद्वारेः) इन्द्रियोद्वारा (विषयेषु) विषयोमां (पतितः) पतित थयो, (ततः) तेथी (तान्) ते विषयोने (प्रपद्य) प्राप्त करी (तत्त्वतः) वास्तवमां (मां) मनेपोताने (अहं इति न वेद) हुं ते ज छुं आत्मा छुं एम में ओळख्यो नहि.

टीका : माराथी अर्थात् आत्मस्वरूपथी च्युत थईपाछो हठी, हुं पतित थयो अर्थात् अति आसक्तिथी प्रवर्त्यो. क्यां (प्रवर्त्यो)? विषयोमां. कोना द्वारा? इन्द्रियोरूप द्वारोथी इन्द्रियमुखेथी. पछी ते विषयोने प्राप्त करीने, ते मारा उपकारक छे एम समजी तेने अतिपणे ग्रहीअनुसरी में पोताने आत्मानेओळख्यो नहिजाण्यो नहि. केवा प्रकारे (न जाण्यो)? ‘हुं’ एवा उल्लेखथी हुं ज पोते (आत्मा) छुं, शरीरादिरूप नथी. एम तत्त्वतः (वास्तवमां) में जाण्युं नहिएवो अर्थ छे. क्यारे? पूर्वेअनादिकाले.

भावार्थ : अंतरात्मा विचार करे छे के, ‘हुं अनादिकालथी आत्मस्वरूपने चूकी इन्द्रियोना विषयोमां आसक्त रह्यो; तेमां आत्मबुद्धि करी में मारा आत्मानुं वास्तविक स्वरूप जाण्युं नहि.’

ज्यांसुधी जीवने पोताना असली चैतन्यस्वरूपनुं यथार्थ परिज्ञान होतुं नथी, त्यांसुधी ते पोताना स्वरूपथी च्युत थई बाह्य इन्द्रियोना विषयोने पोताने सुखदायकउपकारक समजी तेमां अति आसक्ति रहे छेतेमां आत्मबुद्धि करे छे, पण ज्यारे तेने चैतन्य अने पर जड पदार्थोनुं इन्द्रियोना विषयोनुं भेदविज्ञान थाय छे अने पोतानां निराकुल चिदानंदसुधारसनो स्वाद आवे

अनादिच्युत निजरूपथी, रह्यो हुं विषयासक्त,
इन्द्रियविषयो अनुसरी, जाण्युं नहि ‘हुं’ तत्त्व. १६.


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अथात्मो ज्ञप्तावुपायं दर्शयन्नाह

एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः
एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ।।१७।।

टीकाएवं वक्ष्यमाणन्यायेन बहिर्वाचं पुत्रभार्याधनधान्यादिलक्षणान्बहिरर्थ-वाचकशब्दान् त्यक्त्वा अशेषतः साकल्येन पश्चात् अन्तर्वाचं अहं प्रतिपादकः, प्रतिपाद्यः, सुखी, दुःखी, चेतनो वेत्यादिलक्षणमन्तर्जल्पं त्यजेदशेषतः एष बहिरन्तर्जल्पत्यागलक्षणः योगः स्वरूपे चित्तनिरोधलक्षणः समाधिः प्रदीपः स्वरूपप्रकाशकः कस्य ? परमात्मनः कथं ? समासेन संक्षेपेण झटिति परमात्मस्वरूपप्रकाशक इत्यर्थः ।।१७।। छे त्यारे तेने बाह्य इन्द्रियोना विषयो वगेरे पदार्थो भलाबूरा लागता नथी, फक्त तेओ तेने ज्ञेयरूप भासे छे. आ कारणथी अंतरात्मा पहेलां बहिरात्मावस्थामां विषयभोगोने सुखरूप मानी सेवतो हतो ते हवे भोगवेला विषयोनी बाबतमां विचार करवा लागे छे के, ‘अरे! अज्ञानताथी इन्द्रियोना विषयमां फसाई में मारुं चैतन्यस्वरूप ओळख्युं नहि!’ १६.

हवे आत्माने जाणवानो उपाय बतावतां कहे छेः

श्लोक १७

अन्वयार्थ : (एवं) आगळना श्लोकमां कहेवामां आवती विधि अनुसार (बहिर्वाचं) बाह्य अर्थवाचक वचनप्रवृत्तिनो (त्यक्त्वा) त्याग करीने (अन्तः) अंतरंग वचनप्रवृत्तिने पण (अशेषतः) संपूर्णपणे (त्यजेत्) तजवी. (एषः)(योगः) योग अर्थात् समाधि (समासेन) (परमात्मनः) परमात्मस्वरूपनो (प्रदीपः) प्रकाशक दीवो छे.

टीका : एवी रीते अर्थात् आगळ कहेवामां आवता न्यायथी, बाह्य वचनअर्थात् पुत्रस्त्रीधन-धान्यादिरूप बाह्यार्थ वाचक शब्दोने, अशेषपणे एटले संपूर्णपणे तजीने, पछी अंतरंग वचननेअर्थात् हुं प्रतिपादक (गुरु), हुं प्रतिपाद्य (शिष्य), सुखी, दुःखी, चेतन इत्यादिरूप अंतर्जल्पनो पूर्णपणे त्याग करवो. ए बहिर्जल्पअंतर्जल्पना त्यागस्वरूप योगअर्थात् स्वरूपमां चित्तनिरोधलक्षण समाधिप्रदीप अर्थात् स्वरूपप्रकाशक छे. कोनो? परमात्मानो. केवी रीते? समासथी एटले संक्षेपथी शीघ्रपणे ते परमात्मस्वरूपनो प्रकाशक छे

बहिर्वचनने छोडीने, अंतर्वच सौ छोड;
संक्षेपे परमात्मनो द्योतक छे आ योग. १७.


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कुतः पुनर्बहिरन्तर्वाचस्त्यागः कर्तव्य इत्याह एवो अर्थ छे.

भावार्थ : बाह्य वचनप्रवृत्तिना विकल्पो तेम ज अंतरंग विकल्पोनो सर्वथा त्याग करीने चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थवुं ते योग छे समाधि छे. आ योग परमात्मानो प्रकाशक प्रदीप छे.

‘स्त्री, पुत्र, धन, धान्यादि मारां छे’ एवो मिथ्या प्रलाप ते बाह्य वचनव्यापार बहिर्जल्प छे अने ‘हुं सुखी, हुं दुःखी, हुं रंक, हुं राय, हुं गुरु, हुं शिष्य’ इत्यादि अंतरंग वचनप्रवृत्ति ते अंतर्जल्प छे. ते बंने बहिरंग अने अंतरंग वचनप्रवृत्तिने छोडी आत्मस्वरूपमां एकाग्रता प्राप्त करवी ते योग अथवा समाधि छे. आ योग ज परमात्मस्वरूपने प्रकाशवा माटे दीपक समान छे.

आचार्ये योगने प्रदीप कह्यो छे, कारण के जेम दीवो निश्चयथी पोताना स्वरूपने प्रकाशे छे, ते योग अंदर बिराजेला निज आत्माना स्वरूपने प्रकाशे छे.

जे समये आत्मा आ बाह्यअभ्यन्तर संकल्पविकल्पोनो परित्याग करे छे ते समये ते इन्द्रियोनी प्रवृत्तिथी हठी निज स्वरूपमां लीन थई जाय छे अने पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपनो अनुभव करे छे.

विशेष

‘हुं सिद्ध समान छुं, हुं केवलज्ञानमय छुं, वगेरे’एवा विकल्पो मनमां कर्या करे अने उपयोगने शुद्धात्मस्वरूपमां न जोडे तो ते कल्पनाजाळ छे. तेमां ज फसाई रहे तो शुद्ध स्वात्मानो अनुभव थाय नहि, कारण के आवुं अंतर्जल्पन आत्मानुभवमां बाधक छे. ज्यां सुधी अंतर्जल्पनरूप अंतरंग प्रवृत्ति छे, त्यां सुधी सविकल्प दशा छे. अतीन्द्रिय ज्ञान स्वरूपमां उपयोगने जोडवा माटे ज्ञानी सविकल्प दशानो त्याग करे छे. निर्विकल्प दशामां जसमाधिमां ज शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे. तेथी ग्रन्थकारे अंतर्जल्परूप सविकल्प दशानो पण पूर्णपणे त्याग करवानुं सूचव्युं छे.

‘अंतरंगमां जे वचनव्यापारवाळी अनेक प्रकारनी कल्पनाजाळ छे ते आत्माने दुःखनुं मूल कारण छे. तेनो नाश थतां हितकारी परम पदनी प्राप्ति थाय छे.१७.

वळी अंतरंग अने बहिरंग वचनप्रवृत्तिनो त्याग केवी रीते करवो? ते कहे छे १. जुओप्रस्तुत ग्रन्थनो श्लोक ८५.


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यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा
जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ।।१८।।

टीकारूपं शरीरादिरूपं यद् दृश्यते इन्द्रियैः परिच्छिद्यते मया तदचेतनत्वात् उक्तमपि वचनं सर्वथा न जानाति जानता च समं वचनव्यवहारो युक्तो नान्येनातिप्रसङ्गात् यच्च जानद् रूपं चेतनमास्वरूपं तन्न दृश्यते इन्द्रियैर्न परिच्छिद्यते तत एवं ततः केन सह ब्रवीम्यहम् ।।१८।।

श्लोक १८

अन्वयार्थ : (मया) मारावडे (यत् रूपं) जे रूपशरीरादिरूपी पदार्थ (दृश्यते) देखाय छे (तत्) तेअचेतन पदार्थ (सर्वथा) सर्वथा (न जानाति) कोईने जाणतो नथी अने (जानत् रूपं) जे जाणवावाळो चैतन्यरूप आत्मा छे ते (न दृश्यते) देखातो नथी. (ततः) तो (अहं) हुं (केन) कोनी साथे (बव्रीमि) बोलुंवातचीत करुं?

टीका : रूप एटले शरीरादिरूप जे देखाय छे अर्थात् इन्द्रियो द्वारा माराथी जणाय छे, ते अचेतन (जड) होवाथी (मारा) बोलेला वचनने पण सर्वथा जाणतुं नथी; जे जाणतो होय (समजतो होय) तेनी साथे वचनव्यवहार योग्य छे; बीजानी साथे (वचनव्यवहार) योग्य नथी कारण के अति प्रसंग आवे छे, अने जे रूप अर्थात् चेतनआत्मस्वरूपजाणे छे ते तो इन्द्रियोद्वारा देखातुं नथीजणातुं नथी; जो एम छे तो हुं कोनी साथे बोलुं?

भावार्थ : जे शरीरादिरूपी पदार्थो इन्द्रियोथी देखाय छे ते अचेतन होवाथी बोलेलुं वचन सर्वथा जाणता नथीसमजता नथी अने जेनामां जाणवानी शक्ति छे ते चैतन्यस्वरूप आत्मा अरूपी होवाथी इन्द्रियोद्वारा देखातो नथी; तेथी अंतरात्मा विचारे छे के ‘कोईनी साथे बोलवुं या वचनव्यवहारनी प्रवृत्ति करवी ते निरर्थक छे, कारण जे परनुं जाणवावाळुं चैतन्यद्रव्य छे ते तो मने देखातुं नथी अने इन्द्रियोद्वारा जे रूपी शरीरादिक जड पदार्थो देखाय छे ते चेतनारहित होवाथी कांई पण जाणता नथी; तो हुं कोनी साथे वात करुं? कोईनी पण साथे वातचीत करवानुं बनतुं नथी, माटे हवे तो मारे मारा स्वरूपमां रहेवुं

जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा
जाणगं दिस्सदे णेव तम्हा जँपेमि केण हं ।।२९।।(मोक्षप्राभृतेश्रीकुन्दकुन्दाचार्यः)
रूप मने देखाय जे, समजे नहि कंई वात;
समजे ते देखाय नहि, बोलुं कोनी साथ? १८.


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एवं बहिर्विकल्पं परित्यज्यान्तर्विकल्पं परित्याजयन्नह

यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।।१९।।

ए योग्य छे, परंतु बोलवानो विकल्प (राग) करवो ते योग्य नथी.’’

आ श्लोकमां आचार्ये विभावभावरूप बाह्य विकल्पजाळथी छूटवा माटे एक उत्तम उपाय दर्शाव्यो छे.

विशेष

कोईनी साथे बोलवुं ए व्यवहार कथन छे. निश्चयनयनी द्रष्टिए कोई जीव बोली शकतो ज नथी. जे वाणी नीकळे छे ते भाषावर्गणारूप पुद्गलोनुं वचनरूप परिणमन छे. ते आत्मानुं कार्य नथी. ते कार्यमां अज्ञान दशामां जीवनो बोलवानो विकल्प (इच्छा) निमित्तमात्र छे. विकल्प अने वाणी ए बंनेमां निमित्तनैमित्तिक संबंध छे. विकल्पना कारणे वाणी नीकळे छे एम नथी अने वाणी नीकळी एटले विकल्प थयो एम पण नथी. अज्ञानीने आ वातनी समजण नथी, तेथी ते एम माने छे के, ‘में बोलवानी इच्छा करी एटले वाणी नीकळी,’ परंतु तात्त्विक द्रष्टिए विचारतां ए सत्य नथी. भाषावर्गणानुं वाणीरूपे परिणमन तेना कारणे छे, स्वतंत्र छे; इच्छाथी ते निरपेक्ष छे; छतां ‘हुं बोलुं छुं’ एम मानवामां ते जीव अने अजीव तत्त्वोनी एकताबुद्धि करे छे. आवी ऊंधी मान्यताने लीधे तेने अनंत संसारना कारणभूत अनंतानुबंधी कषाय थया वगर रहेतो नथी.

ज्ञानीने अस्थिरताना कारणे बोलवानो विकल्प आवे, पण स्वभावनी द्रष्टिए तेना अभिप्रायमां ते विकल्पनो तेने निषेध वर्ते छे, कारण के ते जाणे छे के विकल्प ए राग छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी, ते तेनाथी भिन्न छे.

माटे कोईनी साथे वात करवानो विकल्प करवो ते दोष छे. आवी समजणपूर्वक जे स्वरूपमां लीनतारूप मौन सेवे छे तेने ज साची वचनगुप्ति छे. आवी वचनगुप्तिथी अंतर्बाह्य वचनप्रवृत्तिनो स्वयं नाश थाय छे. १८.

एवी रीते बाह्य विकल्पोनो परित्याग करीने आभ्यन्तर विकल्पोने छोडावतां कहे छेः

बीजा उपदेशे मने, हुं उपदेशुं अन्य;
ए सौ मुज उन्मत्तता, हुं तो छुं अविकल्प. १९.


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टीकापरैरुपाध्यायादिभिरहं यत्प्रतिपाद्यः परान् शिष्यादीनहं यत्प्रतिपादये तत्सर्वं मे उन्मत्तचेष्टितं मोहवशादुन्मत्तस्येवाखिलं विकल्पजालात्मकं विजृम्भितमित्यर्थः कुत एतत् ? यदहं निर्विकल्पको यद्यस्मादहमात्मा निर्विकल्पक एतैर्वचनविकल्पैरग्राह्यः ।।१९।।

श्लोक १९

अन्वयार्थ : (अहं) हुं (परैः) बीजाओथीअध्यापकादिथी (यत् प्रतिपाद्यः) जे कांई शीखववा योग्य छुं तथा (परान्) बीजाओने शिष्यादिकने (यत् प्रतिपादये) हुं जे कांई शीखवुं (तत्) ते (मे) मारी (उन्मत्तचेष्टितं) उन्मत्त (पागल) चेष्टा छे; (यद् अहं) कारण के (वास्तवमां) हुं (निर्विकल्पकः) निर्विकल्पक अर्थात् वचनविकल्पोथी अग्राह्य छुं.

टीका : पर वडे अर्थात् उपाध्यायादि वडे मने जे शीखवाडवामां आवे छे अने बीजाओनेशिष्यो वगेरेने हुं जे शीखवुं छुं ते बधी मारी उन्मत्त (पागल) चेष्टा छे मोहवशात् उन्मत्तना (पागलना) जेवी ज ते बधी विकल्पजालरूप चेष्टा प्रवर्ते छे, एवो अर्थ छे. शाथी ते (उन्मत्त चेष्टा) छे? कारण के हुं (आत्मा) तो निर्विकल्पक अर्थात् वचनविकल्पोथी अग्राह्य छुं.

भावार्थ : अध्यापकादि मने शीखवे छे तथा हुं शिष्यादि बीजाओने शीखवुं छुं एवो संकल्प करुं ते मारुं उन्मत्तपणुंपागलपणुं छे, कारण के मारुं वास्तविक स्वरूप तो निर्विकल्प छे अर्थात् बधा विकल्पोथी हुं अग्राह्य छुंपर छुं.

आत्मानो स्वभाव तो ज्ञाताद्रष्टा छे. कोईने शीखववुं या तेनुं भलुंबूरुं करवुं ए वास्तवमां आत्मानो स्वभाव नथी, कारण के ‘कोई द्रव्य अन्य कोई द्रव्यनो कर्ता छे ज नहि, पण सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावे परिणमे छे’ एम विचारी सम्यग्द्रष्टि अंतरात्मा अंतरना विकल्पोने तोडी स्वरूपमां लीन थवा प्रयत्न करे छे.

विशेष

विकल्पो दूर करी परमात्मतत्त्वमां लीन थवा माटे उपदेश आपतां श्री अमितगति आचार्य कहे छे के

‘‘संसाररूपी भयानक जंगलमां पटकवाना हेतूभूत सर्व विकल्पोने दूर करीने तारा आत्माने सर्वथी (द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मथी) भिन्न अनुभव करतां तुं परमात्मतत्त्वमां लीन थई जईश.’’ १. सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं, संसारकान्तारनिपातहेतुम्

विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ।।२१।। (सामयिक पाठ)


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तदेव विकल्पातीतं स्वरूपं निरूपयन्नाह

यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्संवेद्यमस्म्यहम् ।।२०।।
उन्मत्तता संबंधाी स्पष्टता

उन्मत्तता बे प्रकारनी छेएक श्रद्धा अपेक्षाए अने बीजी चारित्र अपेक्षाए.

(१) श्री तत्त्वार्थसूत्रमां जे उन्मत्तता दर्शावी छे ते श्रद्धा अपेक्षाए छे. मिथ्याद्रष्टि सत अने असत्नो भेद जाणतो नथी. ते उन्मत्त पुरुषनी माफक पोतानी रुचि अनुसार वस्तुने समजे छे. जेम मदिरा पीने उन्मत्त थयेलो पुरुष मातापत्नीनो भेद जाणतो नहि होवाथी कदी माताने पत्नी अने पत्नीने माता कहे छे अने कोई वखत ते पत्नीने पत्नी अने माताने माता कहे छे, छतां ते ठीक समजीने तेम कहे छे एम नथी. तेवी रीते मिथ्याद्रष्टिने पण वस्तुस्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान नहि होवाथी तेना विकल्पो मिथ्या मान्यताना कारणे उन्मत्त पुरुषना जेवा होय छे.

(२) प्रस्तुत श्लोकमां जे उन्मत्तता दर्शावी छे ते अंतरात्मानी चारित्र अपेक्षाए छे, श्रद्धा अपेक्षाए नथी; केमके ज्ञानीने पण अस्थिरताना कारणे तेवा विकल्पो ऊठे छे, पण अभिप्रायमां तेने तेनो आदर नथी. ज्यां सुधी विकल्प ऊठे त्यां सुधी निर्विकल्प थई शकातुं नथी. तेथी आचार्ये विकल्प तोडीने आत्मस्वरूपमां लीन थवा माटे निर्देश कर्यो छे; अने अंतरात्मानी भूमिकाना विकल्पोने चारित्र अपेक्षाए उन्मत्तपणुं कह्युं छे. १९.

ते ज विकल्पातीत (निर्विकल्प) स्वरूपनुं निरूपण करतां कहे छेः

श्लोक २०

अन्वयार्थ : (यत्) जे एटले शुद्ध आत्मस्वरूप (अग्राह्यं) अग्राह्यने अर्थात् क्रोधादिस्वरूपने (न गृह्णाति) ग्रहण करतुं नथी अने (गृहीतं अपि) ग्रहण करेलाने अर्थात् २. जुओतत्त्वार्थसूत्रअ. १, सूत्र ३२.

जो णिय भाउ ण परिहरइ जो परभाउ ण लेइ
जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ ।।१८।। (परमात्मप्रकाशअ. १//
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/
१८)
ग्रहे नहीं अग्राह्यने, छोडे नहीं ग्रहेल,
जाणे सौने सर्वथा, ते हुं छुं निजवेद्य. २०.