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तच्च प्रतिपद्यमानो मनुष्यादिचतुर्गतिसम्बन्धिशरीराभेदेन प्रतिपद्यते तत्र —
अने तेनुं प्रतिपादन करी मनुष्यादि चतुर्गति संबंधी शरीरभेदथी जीवभेदनुं तेमां प्रतिपादन करे छे.
अन्वयार्थ : (अविद्वान्) मूढ बहिरात्मा (नरदेहस्थ) मनुष्यदेहमां रहेला (आत्मानं) आत्माने (नरम्) मनुष्य, (तिर्यङ्गस्थं) तिर्यंचना शरीरमां रहेला आत्माने (तिर्यंचम्) तिर्यंच, (सुरांङ्गस्थं) देवना शरीरमां रहेला आत्माने (सुरं) देव (तथा) अने........
अन्वयार्थ : (नारकांङ्गस्थं) नारकीना शरीरमां रहेला आत्माने (नारकं) नारकी (मन्यते) माने छे. (तत्त्वतः) वास्तविक रीते (स्वयं) स्वयं आत्मा (तथा न) तेवो नथी – अर्थात् ते मनुष्य, तिर्यंच, देव अने नारकीरूप नथी; परंतु वास्तविक रीते आ आत्मा (अनंतांतधीशक्ति) अनंतानंत ज्ञान अने अनंतानंत शक्ति (वीर्य) रूप छे, (स्वसंवेद्यः) स्वानुभवगम्य छे – पोताना अनुभवगोचर छे अने (अचलस्थितिः) पोताना स्वरूपमां सदा निश्चल – स्थिर रहेवावाळो छे....... ✽
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टीका — नरस्य देहो नरदेहः तत्र तिष्ठतीति नरदेहस्थस्तमात्मानं नरं मन्यते । कोऽसौ ? अविद्वान् बहिरात्मा । तिर्यंचमात्मानं मन्यते । कथंभूतं ? तिर्यगङ्गस्थं तिरश्चामङ्गं तिर्यगङ्गं तत्र तिष्ठतीति तियङ्गस्थस्तं । सुराङ्गस्थं आत्मानं सुरं तथा मन्यते ।।८।। नारकमात्मानं मन्यते । किं विशिष्टं ? नारकाङ्गस्थं । न स्वयं तथा नरादिरूप आत्मा स्वयं कर्मोपाधिमंतरेण न भवति । कथं ? तत्त्वतः परमार्थतो न भवति । व्यवहारेण तु यदा भवति तदा भवतु । कर्मोपाधिकृता हि जीवस्य मनुष्यादिपर्यायास्तन्निवृतौ निवर्तमानत्वात् न पुनः वास्तवा इत्यर्थः । परमार्थतस्तर्हिकीदृशोऽसावित्याहअनन्तानन्तधीशक्तिः धीश्च शक्तिश्च धीशक्ति अनन्तानन्ते धीशक्ति यस्य । तथाभूतोऽसौकुतः परिच्छेद्य इत्याह – स्वसंवेद्यो निरुपाधिकं हि रूपं वस्तुनः स्वभावोऽभिधीयते । कर्माद्यपाये चानन्तान्तधीशक्तिपरिणत आत्मा स्वसंवेदनेनैव वेद्यः । तद्विपरीतपरिणत्यनुभवस्य संसारावस्थायां कर्मोपाधिनिर्मितत्वात् । अस्तु नाम तथा स्वसंवेद्यः
टीका : नरनो देह ते नरदेह. तेमां रहे छे तेथी नरदेहस्थ. ते (नरना देहमां रहेनार) आत्माने नर माने छे. कोण ते (आवुं माने छे)? अविद्वान – बहिरात्मा (एवुं माने छे); तिर्यंचने आत्मा माने छे, केवा (तिर्यंच)ने? तिर्यंचोना शरीरमां रहेनारने – तिर्यंचोनुं शरीर ते तिर्यंचशरीर – तेमां रहे छे तेथी तिर्यंगस्थ – तेने (आत्मा माने छे). तेवी रीते देवोना शरीरमां रहेनार (आत्मा)ने देव माने छे.
नारकने आत्मा माने छे. केवा (नारकने)? नारकीना शरीरमां रहेनारने. आत्मा स्वयं नरादिरूप नथी; कर्मोपाधि विना ते स्वयं थतो नथी. केवी रीते? तत्त्वतः एटले परमार्थे ते (तेवो) नथी, पण व्यवहारे ते होय तो भले होय. जीवनी मनुष्यादि पर्यायो कर्मोपाधिथी थयेली छे. ते (कर्मोपाधि) निवृत्त थतां (मटतां) ते (पर्याय) निवृत्त थती होवाथी वास्तवमां (ते पर्यायो जीवनी) नथी – एम अर्थ छे.
त्यारे परमार्थे ते (आत्मा) केवो छे? ते कहे छे. ते अनंतानंत धीशक्ति – अर्थात् अनंतानंत ज्ञान अने शक्ति – वाळो छे. तेवो ते केवी रीते जाणी शकाय (अनुभवी शकाय)? ते कहे छे. ते स्वसंवेद्य छे. निरुपाधिक रूप ज वस्तुनो स्वभाव कहेवाय छे. कर्मादिनो विनाश थतां, अनंतानंत ज्ञान – शक्तिरूपे परिणत आत्मा स्वसंवेदनथी ज वेदी शकाय छे. संसार – अवस्थामां ते कर्मोपाधिथी निर्मित (निर्मायेलो) होवाथी तेनाथी विपरीत परिणतिनो अनुभव थाय छे.
तेवो स्वसंवेद्य (आत्मा) भले हो, पण ते केटलो काल? सर्वदा तो नहि होय, कारण के पाछळथी तेना रूपनो नाश थाय छे. (आवी शंकानो परिहार करतां) कहे छे के – तेनी
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कियत्कालमसौ न तु सर्वदा । पश्चात् तद्रूपविनाशादित्याह – अचलस्थितिः अनंतांतधीशक्ति- स्वभावेनाचलास्थितिर्यस्य सः । यैः पुनर्योगसांख्यैर्मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः ।।९।। (आत्मानी) अचळ स्थिति छे, कारण के अनंतानंत धीशक्तिना स्वभावना कारणे ते अचल स्थितिवाळो छे. जे योग अने सांख्यमतवाळाओए, मुक्तिना विषयमां आत्मानी तेनाथी (मुक्तिथी) प्रच्युतिनो (पतननो) संभव मान्यो छे, तेना संबंधी (खंडनरूपे) प्रमेयकमलमार्तण्ड अने न्यायकुमुदचन्द्रमां मोक्षविचार – प्रसंगे विस्तारथी कहेवामां आव्युं छे.
भावार्थ : नरनारकादि जे पर्यायोने जीव धारण करे छे ते पर्यायोरूप अज्ञानी पोताने माने छे. वास्तवमां जीव ते पर्यायोरूप नथी, पण ते स्वानुभवगम्य, शाश्वत अने अनंतानंतज्ञान – वीर्यमय छे. मुक्त – अवस्थामां (मोक्षमां) तेनी स्थिति अचल छे; त्यांथी (मुक्तिथी) तेनुं कदी पण पतन थतुं नथी – अर्थात् जीव मुक्त थया पछी कदी फरीथी संसारमां आवतो नथी. योग अने सांख्यमतवाळानी मान्यता तेनाथी विपरीत छे.
बहिरात्मा नरनारकादि पर्यायोने ज पोतानी साची अवस्था माने छे. आत्मानुं वास्तविक स्वरूप तेनाथी भिन्न, कर्मोपाधिरहित, शुद्ध, चैतन्यमय, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञाता – द्रष्टा छे, अभेद्य छे, अनंतज्ञान तथा अनंतवीर्यथी युक्त छे अने अचलस्थितिरूप छे – आवुं भेदज्ञान (विवेकज्ञान) तेने होतुं नथी, तेथी ते संसारना पर पदार्थोमां तथा मनुष्यादि पर्यायोमां आत्मबुद्धि करे छे – तेने आत्मा माने छे.
जीव जे जे गतिमां जाय छे ते ते गतिने अनुरूप जुदो जुदो स्वांग (वेष) धारण करे छे. आ स्वांग अचेतन छे, जड छे अने क्षणिक छे. ते वेषने धारण करनार जीव, तेनाथी भिन्न, शाश्वत, ज्ञानस्वरूप चेतन द्रव्य छे. अज्ञानीने पोताना वास्तविक स्वरूपनुं भान नथी, तेथी ते बाह्य वेषने ज जीव मानी ते प्रमाणे वर्ताव करे छे.
‘‘.......अमूर्तिक प्रदेशोनो पुंज प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोनो धारक अनादिनिधन वस्तु पोते (आत्मा) छे, तथा मूर्तिक पुद्गल द्रव्योनो पिंड प्रसिद्ध ज्ञानादिरहित नवीन ज जेनो संयोग थयो छे एवां शरीरादि पुद्गल के जे पोतानाथी पर छे – ए बन्नेना संयोगरूप नाना प्रकारना मनुष्य – तिर्यंचादि पर्यायो होय छे ते पर्यायोमां आ मूढ जीव अहंबुद्धि धारी रह्यो छे, स्वपरनो भेद करी शकतो नथी. जे पर्याय पाम्यो होय तेनेज पोतापणे माने छे; तथा ए पर्यायमां पण जे ज्ञानादि गुणो छे ते तो पोताना गुण छे अने रागादिक छे ते पोताने
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स्वदेहे एवमध्यवसायं कुर्वाणो बहिरात्मा परदेहे कथंभूतं करोतीत्याह –
टीका — व्यापार – व्याहाराकारादीना स्वदेहसदृशं परदेहं दृष्ट्वा । कथंम्भूतं ? परात्मनाधिष्ठितं कर्मवशात्स्वीकृतं अचेतनं चेतनेन संगतं । मूढो बहिरात्मा परत्वेन परात्मत्वेन अध्यवस्यति ।।१०।। कर्मनिमित्तथी औपाधिकभाव छे; वळी वर्णादिक छे ते पोताना गुणो नथी पण शरीरादि पुद्गलना गुणो छे; शरीरादिमां पण वर्णादिनुं वा परमाणुनुं पलटावुं नाना प्रकाररूप थया करे छे. ए सर्व पुद्गलनी अवस्थाओ छे, परंतु ते सर्वने आ जीव पोतानुं स्वरूप जाणे छे. तेने स्वभाव – परभावनो विवेक थई शकतो नथी.’’१ ८ – ९
स्वदेहमां आवो अध्यवसाय करनार बहिरात्मा परदेहमां केवो अध्यवसाय करे छे, ते कहे छे –
अन्वयार्थ : (मूढः) अज्ञानी बहिरात्मा, (परमात्माधिष्ठितं) बीजाना आत्मा साथे रहेला (अचेतनं) अचेतन – चेतनारहित (परदेहं) बीजाना शरीरने, (स्वदेहसदृशं) पोताना शरीर समान (दृष्ट्वा) जोईने (परत्वेन) बीजाना आत्मारूपे (अध्यवस्यति) माने छे.
टीका : व्यापार, व्याहार (वाणी, वचन) आकारादिवडे परदेहने पोताना देह समान जोईने – केवो (जोईने)? कर्मवशात् बीजाना आत्माथी अधिष्ठित – स्वीकृत अचेतन (परना देहने) चेतनायुक्त जोईने बहिरात्मा तेने (देहने) परपणारूप – अर्थात् परना आत्मारूपे माने छे. ✽
१. मोक्षमार्गप्रकाशक गु. आवृत्ति – पृ. ४२.
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एवंविधाध्यवसायात्किं भवीत्याह –
टीका – विभ्रमो विपर्यासः पुंसां वर्तते ? किं विशिष्टानां ? अविदितात्मनां अपरिज्ञातात्मस्वरूपाणां । केन कृत्वाऽसौ वर्तते ? स्वपराध्यवसायेन । क्व ? देहेषु । कथम्भूतो
भावार्थ : अज्ञानी बहिरात्मा, जेवी रीते पोताना शरीरने पोतानो आत्मा माने छे तेवी रीते बीजाना (स्त्री – पुत्र – मित्रादिकना) अचेतन शरीरने तेमनो (स्त्री – पुत्र – मित्रादिकनो आत्मा) माने छे.
जेम पोताना शरीरनो नाश थतां, बहिरात्मा पोतानो नाश समजे छे, तेम स्त्री – पुत्र – मित्रादिना शरीरनो नाश थतां ते तेमना आत्मानो नाश समजे छे. एम ते पोताना शरीरमां आत्मबुद्धि – आत्मकल्पना – करी दुःखी थाय छे, अने बीजाओ पण शरीरनी प्रतिकूळताना कारणे दुःखी थाय छे एम माने छे. १०.
एवा प्रकारना अध्यवसायथी शुं थाय छे ते कहे छे —
अन्वयार्थ : (अविदितात्मनां पुंसां) आत्माना स्वरूपथी अज्ञान पुरुषोने, (देहेषु) (स्वपराध्यवसायेन) पोतानी अने परनी आत्मबुद्धिना कारणे (पुत्रभार्यादिगोचरः) पुत्र – स्त्री – आदिकना विषयमां (विभ्रमः वर्तते) विभ्रम वर्ते छे.
टीका : पुरुषोने विभ्रम अर्थात् विपर्यास (मिथ्याज्ञान) वर्ते छे. केवा पुरुषोने? आत्माथी अजाण – आत्मस्वरूपने नहि जाणनारा – पुरुषोने. शाथी करीने ते (विभ्रम) वर्ते छे? स्वपरना अध्यसायथी. (विभ्रम) क्यां थाय छे? शरीरो विषे. केवो विभ्रम थाय छे? पुत्र – ✽
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विभ्रमः ? पुत्रभार्यादिगोचरः परमार्थतोऽनात्मीयमनुपकारकमपि पुत्रभार्याधनधान्यादिकमात्मीयमुपकारकं च मन्यते । तत्सम्पत्तौ संतोषं तद्वियोगे च महासन्तापमात्मवधादिकं च करोति ।।११।। भार्यादि विषयक (विभ्रम थाय छे.) – परमार्थे (वास्तवमां) पुत्र, स्त्री, धन, धान्यादि आत्मीय (पोतानां) तेमज उपकारक नहि होवा छतां, ते (विभ्रमित पुरुष) तेमने आत्मीय तथा उपकारक माने छे, तेमनी संपत्तिमां (आबादीमां) ते संतोष तथा तेना वियोगमां महासंताप अने आत्मवधादिक करे छे.
भावार्थ : जे पुरुषोने आत्मस्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान नथी, तेओ पोताना शरीरमां पोताना आत्मानी अने परना शरीरमां परना आत्मानी कल्पना करी, स्त्री – पुत्रादिकना विषयमां विभ्रान्त रहे छे – अर्थात् पोताना शरीरनी साथे स्त्री – पुत्रादिकना शरीर – संबंधने ज पोताना आत्मानो संबंध माने छे.
बहिरात्मा स्त्री – पुत्र – मित्रादि अनात्मीय अर्थात् पर होवा छतां तेमने आत्मीय माने छे अने पोताने अनुपकारक होवा छतां तेमने उपकारक मानी तेमनी रक्षानो प्रयत्न करे छे, तेना संयोगादिमां सुखी थाय छे अने तेमना वियोगादिमां महासंताप माने छे अने आत्मवध पण करे छे.
‘‘........शरीरनो संयोग थवा अने छूटवानी अपेक्षाए जन्म – मरण होय छे तेने पोतानां जन्म – मरण मानी ‘‘हुं ऊपज्यो, हुं मरीश’’ एम माने छे. वळी शरीरनी ज अपेक्षाए अन्य जीवोथी संबंध माने छे, जेमके जेनाथी शरीर नीपज्युं तेने पोतानां माता – पिता माने छे, शरीरने रमाडे तेने पोतानी रमणी माने छे, शरीरवडे नीपज्यां तेने पोतानां दीकरा – दीकरी माने छे, शरीरने जे उपकारक छे तेने पोतानो मित्र माने छे तथा शरीरनुं बूरुं करे तेने पोतानो शत्रु माने छे, इत्यादिरूप तेनी मान्यता होय छे. घणुं शुं कहीए? हरकोई प्रकारवडे पोताने अने शरीरने ते एकरूप ज माने छे.......’’१
‘‘........वळी जेम कोई बहावरो बेठो हतो त्यां कोई अन्य ठेकाणेथी माणस, घोडा अने धनादिक आवी ऊतर्यां; ते सर्वने आ बहावरो पोतानां जाणवा लाग्यो, पण ए बधां पोतपोताने आधीन होवाथी तेमां कोई आवे, कोई जाय अने कोई अनेक अवस्थारूप परिणमे – एम ए सर्वनी पराधीन क्रिया थवा छतां आ बहावरो तेने पोताने आधीन जाणी महा खेदखिन्न थाय छे. ए प्रमाणे आ जीव ज्यां पर्याय (शरीर) धारण करे छे त्यां कोई अन्य ठेकाणेथी पुत्र, घोडा अने धनादिक आवीने स्वयं प्राप्त थाय छे तेने आ जीव पोतानां १. मोक्षमार्ग प्रकाशक गु. आवृत्ति – पृ. ८३.
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एवंविधविभ्रामाच्च किं भवतीत्याह –
टीका — तस्माद्विभ्रमाद्बहिरात्मनि संस्कारो वासना दृढोऽविचलो जायते । किन्नामा ? अविद्यासंज्ञितः अविद्या संज्ञाऽस्य संजातेति ‘‘तारकादिभ्य इतच्’’ येन संस्कारेण कृत्वालोको- ऽविवेकिजनः । अंगमेव च शरीरमेव । स्वं आत्मानं । पुनरपि जन्मान्तरेऽपि । अभिमन्यते ।।१२।। जाणे छे, पण ए तो पोतपोताने आधीन कोई आवे, कोई जाय तथा कोई अनेक अवस्थारूप परिणमे – एम तेनी पराधीन क्रिया होय छे, तेने पोताने आधीन मानी आ जीव खेदखिन्न थाय छे.’’२ ११.
एवा प्रकारना विभ्रमथी शुं थाय छे? ते कहे छेः –
अन्वयार्थ : (तस्मात्) ए विभ्रमथी (अविद्यासंज्ञितः) अविद्या नामनो (संस्कारः) (दृढः) द्रढ – मजबूत (जायते) थाय छे, (येन) जे कारणथी (लोकः) अज्ञानी जीव (पुनः अपि) जन्मान्तरमां पण (अंगम् एव) शरीरने ज (स्वं अभिमन्यते) आत्मा माने छे.
टीका : ते विभ्रमथी बहिरात्मामां संस्कार एटले वासना द्रढ – अविचल थाय छे. कया नामनो (संस्कार)? अविद्या नामनो (संस्कार) – अविद्या संज्ञा जेनी छे ते – जे संस्कारने लीधे अविवेकी (अज्ञानी) जन अंगने ज एटले शरीरने ज फरीथी पण, अर्थात् अन्य जन्ममां पण पोतानो आत्मा माने छे.
भावार्थ : आ जीवने अज्ञानजनित अविद्या संस्कार अनादिकालथी छे, स्त्री – पुत्रादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करवाथी आ संस्कार द्रढ थाय छे अने तेने लीधे अन्य जन्ममां पण जीव शरीरने ज आत्मा माने छे. ✽
२. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ५२.
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एवमभिमन्यमानश्चासौ किं करोतीत्याह —
टीका – देहे स्वबुद्धित्मबुद्धिरार्बहिरात्मा किं करोति ? आत्मानं युनक्ति सम्बद्धं करोति
अनादि अज्ञानताना कारणे आ जीवने जे पर्याय (शरीर) प्राप्त थाय छे तेने ते पोतानो आत्मा समजी ले छे अने तेनो आवो अज्ञानात्मक संस्कार जन्म – जन्मान्तरोमां पण बन्यो रहेवाथी ते द्रढ थतो जाय छे. जेम रस्सीना घसाराथी कूवाना पत्थरमां कापो वधु ने वधु ऊंडो पडतो जाय छे, तेम अविद्याना संस्कारो पण अज्ञानी जीवमां वधु ने वधु ऊंडा ऊतरता जाय छे.
अविद्याना संस्कारोथी प्रेराई आ जीव शरीरादि पर पदार्थो विषे आत्मबुद्धि करे छे. पोताने परनो कर्ता – भोक्ता माने छे, पर प्रत्ये अहंकार – ममकार बुद्धि ने एकताबुद्धि करे छे. आ कारणथी तेने राग – द्वेष थाय छे अने राग – द्वेषथी तेनुं संसार – चक्र चालु ज रहे छे. १२.
एवी रीते मानीने ते शुं करे छे? ते कहे छेः –
अन्वयार्थ : (देहे स्वबुद्धिः) शरीरमां आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा (निश्चयात्) निश्चयथी (आत्मानं) पोताना आत्माने (एतेन) तेनी साथे – शरीरनी साथे (युनक्ति) जोडे छे – संबंध करे छे, अर्थात् बंनेने एकरूप माने छे, परंतु (स्वात्मनि एव आत्मधीः) पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि करनार अंतरात्मा (देहिनं) पोताना आत्माने (तस्मात्) तेनाथी – शरीरथी (वियोजयति) पृथक् – अलग करे छे.
टीका : शरीरमां १स्वबुद्धि – आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा शुं करे छे? ते (पोताना) १. पाटण – जैन भंडारनी प्रत आधारे ‘समाधिशतक’नी टीकाना अनुवादमां श्रीयुत मणिलाल नभुभाई
राखे छे, अर्थात् दीर्घ संसारतापमां पाडे छे......’’
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दीर्धसंसारिणं करोतीत्यर्थः । केन ? एतेन देहेन । निश्चयात् परमार्थेन । स्वात्मन्येव जीवस्वरूपे एव आत्मधीरन्तरात्मा । निश्चयाद्वियोजयति असम्बद्धं करोति देहिनं ।।१३।। आत्माने (शरीर साथे) जोडे छे – (तेनी साथे) संबंध करे छे; तेने दीर्घ संसारी करे छे – एवो अर्थ छे. कोनी साथे (जोडे छे)? निश्चयथी एटले नक्की ते शरीर साथे (जोडे छे); पण आत्मामां ज एटले जीवस्वरूपमां ज आत्मबुद्धिवाळो अंतरात्मा निश्चयथी तेने (आत्माने) तेनाथी (शरीरथी) पृथक् (अलग) करे छे – (शरीर साथे) असंबंध करे छे.
भावार्थः अज्ञानी बहिरात्मा पोताना शरीरमां स्व-बुद्धि-आत्मबुद्धि करे छे अर्थात् शरीर अने आत्माने एकरूप माने छे, ज्यारे ज्ञानी अंतरात्मा पोताना आत्माने शरीरथी भिन्न समजे छे.
‘‘........आ जीव ए शरीरने पोतानुं अंग जाणी पोताने अने शरीरने एकरूप माने छे, पण शरीर तो कर्मोदय आधीन कोई वेळा कृश थाय, कोई वेळा स्थूल थाय, कोई वेळा नष्ट थाय अने कोई वेळा नवीन ऊपजे, इत्यादि चरित्र थाय छे. ए प्रमाणे तेनी पराधीन क्रिया थवा छतां आ जीव तेने पोताने आधीन जाणी महा खेदखिन्न थाय छे.....’’१
देहाध्यासथी मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा शरीरने ज आत्मा मानतो होवाथी तेने नवां नवां शरीरोनो संबंध थतो रहे छे अने तेथी ते अनंतकाल सुधी आ गहन संसारवनमां भटकतो फरे छे तथा संसारना तीव्र तापथी सदा बळतो रहे छे.
अन्तरात्माने शरीरादिमां आत्मबुद्धि (ममत्वबुद्धि) होती नथी; पण तेने पोताना ज्ञानदर्शनस्वरूप आत्मामां ज आत्मबुद्धि होय छे; तेथी ते शरीरने, पोताना चैतन्यस्वरूपथी भिन्न, पुद्गलनो पिंड समजे छे. भेद – ज्ञानना बळे ते ध्यानद्वारा – स्वरूपलीनता द्वारा पोताना आत्माने शरीरादिना बंधनथी सर्वथा पृथक् करे छे अने सदाने माटे मुक्त थई जाय छे.
आवी रीते द्रष्टिफेरने लीधे बहिरात्मा पर साथे एकत्वबुद्धि करी संसारमां रखडे छे, ज्यारे अंतरात्मा पर साथेनो संबंध तोडी तथा स्व साथे संबंध जोडी अंते संसारना दुःखोथी सर्वथा मुक्त थाय छे.
अनादि कालथी शरीरने आत्मा मानवानी भूल जीवे पोते ज पोतानी अज्ञानताथी करी छे अने आत्मज्ञान वडे ते ज पोतानी भूल सुधारी शके छे.
‘शरीरादिमां आत्मबुद्धिरूप विभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं दुःख आत्मज्ञानथी ज शान्त थाय छे’२ १३. १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ५२ २. जुओः ‘समाधितंत्र’ – श्लोक ४१.
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देहेष्वात्मानं योजयतश्च बहिरात्मनो दुर्विलसितोपदर्शनपूर्वकमाचार्योऽनुशयं कुर्वन्नाह —
टीका – जाताः प्रवृत्ताः । काः ? पुत्रभार्यादिकल्पनाः । क्व ? देहेषु । कया ? आत्मधिया । क्व आत्मधीः ? देहेष्वेव । अयमर्थः – पुत्रादिदेहं जीवत्वेन प्रतिपद्यमानस्य मत्पुत्रो भार्येतिकल्पना विकल्पा जायन्ते । ताभिश्चानात्मनीयाभिरनुपकारिणीभिश्च सम्पत्तिं पुत्रभार्यादिविभूत्यतिशयं आत्मानो मन्यते जगत्कर्तृ हा हतं नष्टं स्वस्वरूप – परिज्ञानाद् बहिर्भूतं जगत् बहिरात्मा प्राणिगणः ।।१४।।
शरीरोमां आत्मानो संबंध जोडनार बहिरात्माना निन्दनीय व्यापारने बतावीने आचार्य खेद प्रगट करतां कहे छेः –
अन्वयार्थ : (देहेषु) शरीरोमां (आत्मधिया) आत्मबुद्धिना कारणे (पुत्रभार्यादि- कल्पनाः जाताः) मारो पुत्र, मारी स्त्री, इत्यादि कल्पनाओ उत्पन्न थाय छे. (हा) खेद छे के (जगत्) बहिरात्म – स्वरूप प्राणिगण (ताभिः) ए कल्पनाओना कारणे (सम्पत्तिम्) स्त्री – पुत्रादिनी समृद्धिने (आत्मनः) पोतानी समृद्धि (मन्यते) माने छे. एवी रीते आ जगत् (हतं) हणाई रह्युं छे.
टीका : उत्पन्न थई – प्रवर्ती. शुं (प्रवर्ती)? पुत्र – स्त्री आदि संबंधी कल्पनाओ. शाने विषे? शरीरो विषे. कया कारणे? आत्मबुद्धिना कारणे. शामां आत्मबुद्धि? शरीरोमां ज. अर्थ ए छे के – पुत्र वगेरेना देहने जीवरूपे माननारने, ‘मारो पुत्र, स्त्री – एवी कल्पनाओ – विकल्पो थाय छे. अनात्मरूप अने अनुपकारक एवी ते कल्पनाओथी पुत्र – भार्यादिरूप विभूतिना अतिशय स्वरूप संपत्तिने जगत् पोतानी माने छे. अरे! स्वस्वरूपना परिज्ञानथी बहिर्भूत (रहित) बहिरात्मारूप जगत् – प्राणिगण – हणाई रह्युं छे.
भावार्थ : देहमां आत्मबुद्धिना कारणे आत्मस्वरूपना ज्ञानथी रहित बहिरात्माओ, स्त्री – पुत्रादि संबंधोमां मारापणानी कल्पनाओ करे छे अने तेमनी समृद्धिने पोतानी समृद्धि माने छे. आम आ जगत् हणाई रह्युं छे – ए खेदनी वात छे.
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इदानीमुक्तमर्थमुपसंहृत्यात्मन्यन्तरात्मनोऽनुप्रवेशं दर्शयन्नाह —
ज्यांसुधी जीवने शरीरमां आत्मबुद्धि रहे छे त्यांसुधी तेने पोताना निराकुल निजानन्दरसनो स्वाद आवतो नथी अने पोतानी अनंतचतुष्टयरूप सम्पत्तिथी अज्ञात रहे छे. ते स्त्री – पुत्र – धन – धान्यादि बाह्य सम्पत्तिओने पोतानी मानी तेना संयोग – वियोगमां हर्ष – विषाद करे छे. तेना फलस्वरूप तेनुं संसार – परिभ्रमण चालु रहे छे. तेथी आचार्य खेद दर्शावतां कहे छे के, ‘‘हाय! आ जगत् मार्युं गयुं! ठगाई गयुं! तेने पोतानुं कांई पण भान रह्युं नहि!’’
‘‘........वळी कोई वखते कोई प्रकारे पोतानी इच्छानुसार परिणमता जोई आ जीव ए शरीर – पुत्रादिकमां अहंकार – ममकार करे छे अने ए ज बुद्धिथी तेने उपजाववानी, वधारवानी तथा रक्षा करवानी चिंतावडे निरंतर व्याकुळ रहे छे, नाना प्रकारनां दुःख वेठीने पण तेमनुं भलुं इच्छे छे......’’१
‘‘.......मिथ्यादर्शन वडे आ जीव कोई वेळा बाह्य सामग्रीनो संयोग थतां तेने पण पोतानी माने छे, पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोडा, मंदिर (मकान) अने नोकर – चाकरादि जे पोतानाथी प्रत्यक्ष भिन्न छे. सदाकाळ पोताने आधीन नथी – एम पोताने जणाय तो पण तेमां ममकार२ करे छे, पुत्रादिकमां ‘‘आ छे ते हुं ज छुं’’ — एवी पण कोई वेळा भ्रमबुद्धि थाय छे. मिथ्यादर्शनथी शरीरादिकनुं स्वरूप पण अन्यथा ज भासे छे.......’’३ १४.
हवे कहेला अर्थनो उपसंहार करीने आत्मामां अन्तरात्मानो अनुप्रवेश दर्शावतां कहे छेः — १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ५३. २. वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः ।
३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ८३.
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टीका — मूलं कारणं । कस्य ? संसारदुःखस्य । काऽसौ ? देहएवात्मधीः । देहः कायः स एवात्म इति धीः । यत एवं ततस्तस्मात्कारणात् । एनां देहएवात्मबुद्धिं त्यक्त्वा अन्तः प्रविशेत् आत्मनि आत्मबुद्धिं कुर्यात् अन्तरात्मा भवेदित्यर्थः । कथं भूतः सन् ? बहिरव्यापृतेन्द्रियः बहिर्बाह्यविषयेषु अव्यापृतान्यप्रवृत्तानीन्द्रियाणि यस्य ।।१५।।
अन्वयार्थ : (देहे) शरीरमां (आत्मधीः एव) आत्मबुद्धि होवी ते ज (संसारदुःखस्य) संसारना दुःखनुं (मूलं) कारण छे (ततः) तेथी (एनां) तेने – शरीरमां आत्मबुद्धिने – (त्यक्त्वा) छोडीने तथा (बहिः अव्यापृतेन्द्रियः) बाह्य विषयोमां इन्द्रियोनी प्रवृत्तिने रोकीने (अन्तः) अंतरंगमां – आत्मामां (प्रविशेत्) प्रवेश करवो.
टीका : मूल एटले कारण, कोनुं? संसारदुःखनुं ते (कारण) कयुं? देहमां ज आत्मबुद्धि अर्थात् देह – काय ते ज आत्मा एवी बुद्धि (मान्यता) ते. ते कारणने लीधे तेनो, एटले देहमां ज आत्मबुद्धिनो, त्याग करीने अंतरमां प्रवेश करवो – आत्मामां आत्मबुद्धि करवी – अंतरात्मा थवुं – एवो अर्थ छे. केवो थईने? बाह्यमां अव्यापृत इन्द्रियोवाळो थईने – अर्थात् बाह्य विषयोमां जेनी इन्द्रियो अव्यापृत एटले अप्रवृत्त थई छे (रोकाई गई छे – अटकी गई छे) तेवो थईने.
भावार्थ : शरीरमां आत्मबुद्धि थवी ए ज संसारनुं मूळ (एक ज साचुं) कारण छे, माटे तेने छोडीने तथा इन्द्रियोनी बाह्य विषयोमां थती प्रवृत्तिने रोकीने आत्मामां प्रवेश करवो, अर्थात् पर तरफथी हठीने स्वसन्मुख थवुं.
संसारमां जेटलां दुःख छे ते बधा शरीरमां एकताबुद्धिना कारणे ज होय छे. ज्यां सुधी जीवने बाह्य पदार्थोमां आत्मबुद्धि रहे छे त्यांसुधी आत्मानी साथे शरीरनो संबंध रह्या करे छे अने तेथी तेने संसारमां घोर दुःख भोगववां पडे छे.
ज्यारे जीवने शरीरादि पर पदार्थो तरफनो ममत्वभाव छूटी जाय छे त्यारे तेने बाह्य पदार्थोमां अहंकार – ममकारबुद्धि होती नथी. ते परथी मुख मोडी स्वसन्मुख ढळे छे अने आत्मिक आनंद अनुभवे छे; तेथी ग्रन्थकारे समस्त दुःखोनुं मूळ कारण जे शरीरमां आत्मबुद्धि छे तेनो त्याग करी, अन्तरात्मा थवानी जीवने प्रेरणा करी छे, जेथी ते घोर सांसारिक दुःखोथी छुटकारो पामी साचा निराकुल सुखनी प्राप्ति करे.
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अन्तरात्मा आत्मन्यात्मबुद्धि कुर्वाणोऽलब्धलाभात्संतुष्ट आत्मीयां बहिरात्मावस्थामनुस्मृत्य विषादं कुर्वन्नाह —
‘‘......आ जीवने पर्यायमां अहंबुद्धि थाय छे, तेथी ते पोताने अने शरीरने एकरूप जाणी प्रवर्ते छे. आ शरीरमां पोताने रुचे एवी इष्ट अवस्था थाय छे तेमां राग करे छे तथा पोताने अणरुचती एवी अनिष्ट अवस्थामां द्वेष करे छे. शरीरनी इष्ट अवस्थाना कारणभूत बाह्य पदार्थोमां राग करे छे तथा तेना घातक पदार्थोमां द्वेष करे छे......कोई बाह्य पदार्थ शरीरनी अवस्थाना कारणरूप नथी, छतां तेमां पण ते रागद्वेष करे छे.’’१
‘‘पोतानो स्वभाव तो द्रष्टा – ज्ञाता छे. हवे पोते केवळ देखवावाळो जाणवावाळो तो रहेतो नथी, पण जे जे पदार्थोने ते देखे – जाणे छे तेमां इष्ट – अनिष्टपणुं माने छे अने तेथी रागीद्वेषी थाय छे. कोईना सद्भावने तथा कोईना अभावने इच्छे छे, पण तेनो सद्भाव के अभाव आ जीवनो कर्यो थतो ज नथी, कारण के कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यनो कर्ता छे ज नहि,२ पण सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावरूप परिणमे छे; मात्र आ जीव व्यर्थ कषायभाव करी व्याकुळ थाय छे.
वळी कदाचित् पोते इच्छे तेम ज पदार्थ परिणमे तो पण ते पोतानो परिणमाव्यो तो परिणम्यो नथी, पण जेम चालता गाडाने धकेली बाळक एम माने के, ‘‘आ गाडाने हुं चलावुं छुं’’ – ए प्रमाणे ते असत्य माने छे.३........
माटे शरीरादि मारां छे अने तेनी क्रिया हुं करी शकुं छुं एवी शरीरमां आत्मबुद्धि ते अज्ञानचेतना छे. तेनो त्याग करी ‘आत्मा ए ज मारो छे’ — एवी आत्मामां आत्मबुद्धिरूप ज्ञायकस्वभावनुं अवलंबन करी अंतरात्मा थवा, आचार्ये अज्ञानी जीवने उपदेश कर्यो छे. १५.
अंतरात्मा आत्मामां आत्मबुद्धि करतो, अलब्ध (पूर्वे नहि प्राप्त थयेला एवा) लाभथी संतोष पामी, पोतानी बहिरात्मावस्थानुं स्मरण करीने विषाद (खेद) करे छे. ते कहे छेः — १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ९२ २. को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,
३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ९०.
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टीका — मत्त आत्मस्वरूपात् । च्युत्वा व्यावृत्य । अहं पतितः अत्यासक्त्या प्रवृत्तः । क्व ? विषयेषु । कैः कृत्वा ? इन्द्रियद्वारैः इन्द्रियमुखैः । ततस्तान् विषयान् प्रपद्य ममोपकारका एते इत्यतिगृह्यानुसृत्य । मां आत्मानं । न वेद न ज्ञातवान् । कथं ? अहमित्युल्लेखेन अहमेवाहं न शरीरादिकमित्येवं तत्त्वतो न ज्ञातवानित्यर्थः । कदा ? पुरा पूर्वं अनादिकाले ।।१६।।
अन्वयार्थ : (अहं) हुं (पुरा) अनादिकालथी (मत्तः) आत्मस्वरूपथी (च्युत्वा) च्युत थईने (इन्द्रियद्वारेः) इन्द्रियोद्वारा (विषयेषु) विषयोमां (पतितः) पतित थयो, (ततः) तेथी (तान्) ते विषयोने (प्रपद्य) प्राप्त करी (तत्त्वतः) वास्तवमां (मां) मने – पोताने (अहं इति न वेद) हुं ते ज छुं आत्मा छुं एम में ओळख्यो नहि.
टीका : माराथी अर्थात् आत्मस्वरूपथी च्युत थई – पाछो हठी, हुं पतित थयो अर्थात् अति आसक्तिथी प्रवर्त्यो. क्यां (प्रवर्त्यो)? विषयोमां. कोना द्वारा? इन्द्रियोरूप द्वारोथी – इन्द्रिय – मुखेथी. पछी ते विषयोने प्राप्त करीने, ते मारा उपकारक छे एम समजी तेने अतिपणे ग्रही – अनुसरी में पोताने आत्माने – ओळख्यो नहि – जाण्यो नहि. केवा प्रकारे (न जाण्यो)? ‘हुं’ एवा उल्लेखथी हुं ज पोते (आत्मा) छुं, शरीरादिरूप नथी. एम तत्त्वतः (वास्तवमां) में जाण्युं नहि – एवो अर्थ छे. क्यारे? पूर्वे – अनादिकाले.
भावार्थ : अंतरात्मा विचार करे छे के, ‘हुं अनादिकालथी आत्मस्वरूपने चूकी इन्द्रियोना विषयोमां आसक्त रह्यो; तेमां आत्मबुद्धि करी में मारा आत्मानुं वास्तविक स्वरूप जाण्युं नहि.’
ज्यांसुधी जीवने पोताना असली चैतन्यस्वरूपनुं यथार्थ परिज्ञान होतुं नथी, त्यांसुधी ते पोताना स्वरूपथी च्युत थई बाह्य इन्द्रियोना विषयोने पोताने सुखदायक – उपकारक समजी तेमां अति आसक्ति रहे छे – तेमां आत्मबुद्धि करे छे, पण ज्यारे तेने चैतन्य अने पर जड पदार्थोनुं इन्द्रियोना विषयोनुं भेदविज्ञान थाय छे अने पोतानां निराकुल चिदानंद – सुधारसनो स्वाद आवे
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अथात्मो ज्ञप्तावुपायं दर्शयन्नाह —
टीका – एवं वक्ष्यमाणन्यायेन । बहिर्वाचं पुत्रभार्याधनधान्यादिलक्षणान्बहिरर्थ-वाचकशब्दान् । त्यक्त्वा । अशेषतः साकल्येन । पश्चात् अन्तर्वाचं अहं प्रतिपादकः, प्रतिपाद्यः, सुखी, दुःखी, चेतनो वेत्यादिलक्षणमन्तर्जल्पं त्यजेदशेषतः । एष बहिरन्तर्जल्पत्यागलक्षणः योगः स्वरूपे चित्तनिरोधलक्षणः समाधिः । प्रदीपः स्वरूपप्रकाशकः । कस्य ? परमात्मनः । कथं ? समासेन संक्षेपेण झटिति परमात्मस्वरूपप्रकाशक इत्यर्थः ।।१७।। छे त्यारे तेने बाह्य इन्द्रियोना विषयो वगेरे पदार्थो भला – बूरा लागता नथी, फक्त तेओ तेने ज्ञेयरूप भासे छे. आ कारणथी अंतरात्मा पहेलां बहिरात्मावस्थामां विषय – भोगोने सुखरूप मानी सेवतो हतो ते हवे भोगवेला विषयोनी बाबतमां विचार करवा लागे छे के, ‘अरे! अज्ञानताथी इन्द्रियोना विषयमां फसाई में मारुं चैतन्यस्वरूप ओळख्युं नहि!’ १६.
हवे आत्माने जाणवानो उपाय बतावतां कहे छेः —
अन्वयार्थ : (एवं) आगळना श्लोकमां कहेवामां आवती विधि अनुसार (बहिर्वाचं) बाह्य अर्थवाचक वचन – प्रवृत्तिनो (त्यक्त्वा) त्याग करीने (अन्तः) अंतरंग वचन – प्रवृत्तिने पण (अशेषतः) संपूर्णपणे (त्यजेत्) तजवी. (एषः) आ (योगः) योग अर्थात् समाधि (समासेन) (परमात्मनः) परमात्मस्वरूपनो (प्रदीपः) प्रकाशक दीवो छे.
टीका : एवी रीते अर्थात् आगळ कहेवामां आवता न्यायथी, बाह्य वचन – अर्थात् पुत्र – स्त्री – धन-धान्यादिरूप बाह्यार्थ वाचक शब्दोने, अशेषपणे एटले संपूर्णपणे तजीने, पछी अंतरंग वचनने – अर्थात् हुं प्रतिपादक (गुरु), हुं प्रतिपाद्य (शिष्य), सुखी, दुःखी, चेतन इत्यादिरूप अंतर्जल्पनो पूर्णपणे त्याग करवो. ए बहिर्जल्प – अंतर्जल्पना त्याग – स्वरूप योग — अर्थात् स्वरूपमां चित्तनिरोधलक्षण समाधि – प्रदीप अर्थात् स्वरूपप्रकाशक छे. कोनो? परमात्मानो. केवी रीते? समासथी एटले संक्षेपथी शीघ्रपणे ते परमात्मस्वरूपनो प्रकाशक छे
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कुतः पुनर्बहिरन्तर्वाचस्त्यागः कर्तव्य इत्याह — एवो अर्थ छे.
भावार्थ : बाह्य वचन – प्रवृत्तिना विकल्पो तेम ज अंतरंग विकल्पोनो सर्वथा त्याग करीने चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थवुं ते योग छे समाधि छे. आ योग परमात्मानो प्रकाशक प्रदीप छे.
‘स्त्री, पुत्र, धन, धान्यादि मारां छे’ एवो मिथ्या प्रलाप ते बाह्य वचन – व्यापार – बहिर्जल्प छे अने ‘हुं सुखी, हुं दुःखी, हुं रंक, हुं राय, हुं गुरु, हुं शिष्य’ इत्यादि अंतरंग वचनप्रवृत्ति ते अंतर्जल्प छे. ते बंने बहिरंग अने अंतरंग वचन – प्रवृत्तिने छोडी आत्मस्वरूपमां एकाग्रता प्राप्त करवी ते योग अथवा समाधि छे. आ योग ज परमात्मस्वरूपने प्रकाशवा माटे दीपक समान छे.
आचार्ये योगने प्रदीप कह्यो छे, कारण के जेम दीवो निश्चयथी पोताना स्वरूपने प्रकाशे छे, ते योग अंदर बिराजेला निज आत्माना स्वरूपने प्रकाशे छे.
जे समये आत्मा आ बाह्य – अभ्यन्तर संकल्प – विकल्पोनो परित्याग करे छे ते समये ते इन्द्रियोनी प्रवृत्तिथी हठी निज स्वरूपमां लीन थई जाय छे अने पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपनो अनुभव करे छे.
‘हुं सिद्ध समान छुं, हुं केवलज्ञानमय छुं, वगेरे’ — एवा विकल्पो मनमां कर्या करे अने उपयोगने शुद्धात्मस्वरूपमां न जोडे तो ते कल्पना – जाळ छे. तेमां ज फसाई रहे तो शुद्ध स्वात्मानो अनुभव थाय नहि, कारण के आवुं अंतर्जल्पन आत्मानुभवमां बाधक छे. ज्यां सुधी अंतर्जल्पनरूप अंतरंग प्रवृत्ति छे, त्यां सुधी सविकल्प दशा छे. अतीन्द्रिय ज्ञान – स्वरूपमां उपयोगने जोडवा माटे ज्ञानी सविकल्प दशानो त्याग करे छे. निर्विकल्प दशामां ज – समाधिमां ज शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे. तेथी ग्रन्थकारे अंतर्जल्परूप सविकल्प दशानो पण पूर्णपणे त्याग करवानुं सूचव्युं छे.
‘अंतरंगमां जे वचन – व्यापारवाळी अनेक प्रकारनी कल्पना – जाळ छे ते आत्माने दुःखनुं मूल कारण छे. तेनो नाश थतां हितकारी परम पदनी प्राप्ति थाय छे.१ १७.
वळी अंतरंग अने बहिरंग वचन – प्रवृत्तिनो त्याग केवी रीते करवो? ते कहे छे — १. जुओ – प्रस्तुत ग्रन्थनो श्लोक ८५.
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टीका — रूपं शरीरादिरूपं यद् दृश्यते इन्द्रियैः परिच्छिद्यते मया तदचेतनत्वात् उक्तमपि वचनं सर्वथा न जानाति । जानता च समं वचनव्यवहारो युक्तो नान्येनातिप्रसङ्गात् । यच्च जानद् रूपं चेतनमास्वरूपं तन्न दृश्यते इन्द्रियैर्न परिच्छिद्यते । तत एवं ततः केन सह ब्रवीम्यहम् ।।१८।।
अन्वयार्थ : (मया) मारावडे (यत् रूपं) जे रूप – शरीरादिरूपी पदार्थ (दृश्यते) देखाय छे (तत्) ते – अचेतन पदार्थ (सर्वथा) सर्वथा (न जानाति) कोईने जाणतो नथी अने (जानत् रूपं) जे जाणवावाळो चैतन्यरूप आत्मा छे ते (न दृश्यते) देखातो नथी. (ततः) तो (अहं) हुं (केन) कोनी साथे (बव्रीमि) बोलुं – वातचीत करुं?
टीका : रूप एटले शरीरादिरूप जे देखाय छे अर्थात् इन्द्रियो द्वारा माराथी जणाय छे, ते अचेतन (जड) होवाथी (मारा) बोलेला वचनने पण सर्वथा जाणतुं नथी; जे जाणतो होय (समजतो होय) तेनी साथे वचन – व्यवहार योग्य छे; बीजानी साथे (वचन – व्यवहार) योग्य नथी कारण के अति प्रसंग आवे छे, अने जे रूप अर्थात् चेतन – आत्मस्वरूप – जाणे छे ते तो इन्द्रियोद्वारा देखातुं नथी – जणातुं नथी; जो एम छे तो हुं कोनी साथे बोलुं?
भावार्थ : जे शरीरादिरूपी पदार्थो इन्द्रियोथी देखाय छे ते अचेतन होवाथी बोलेलुं वचन सर्वथा जाणता नथी – समजता नथी अने जेनामां जाणवानी शक्ति छे ते चैतन्यस्वरूप आत्मा अरूपी होवाथी इन्द्रियोद्वारा देखातो नथी; तेथी अंतरात्मा विचारे छे के ‘कोईनी साथे बोलवुं या वचन – व्यवहारनी प्रवृत्ति करवी ते निरर्थक छे, कारण जे परनुं जाणवावाळुं चैतन्य – द्रव्य छे ते तो मने देखातुं नथी अने इन्द्रियोद्वारा जे रूपी शरीरादिक जड पदार्थो देखाय छे ते चेतनारहित होवाथी कांई पण जाणता नथी; तो हुं कोनी साथे वात करुं? कोईनी पण साथे वातचीत करवानुं बनतुं नथी, माटे हवे तो मारे मारा स्वरूपमां रहेवुं ✽
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एवं बहिर्विकल्पं परित्यज्यान्तर्विकल्पं परित्याजयन्नह –
ए योग्य छे, परंतु बोलवानो विकल्प (राग) करवो ते योग्य नथी.’’
आ श्लोकमां आचार्ये विभाव – भावरूप बाह्य विकल्प – जाळथी छूटवा माटे एक उत्तम उपाय दर्शाव्यो छे.
कोईनी साथे बोलवुं ए व्यवहार कथन छे. निश्चयनयनी द्रष्टिए कोई जीव बोली शकतो ज नथी. जे वाणी नीकळे छे ते भाषावर्गणारूप पुद्गलोनुं वचनरूप परिणमन छे. ते आत्मानुं कार्य नथी. ते कार्यमां अज्ञान दशामां जीवनो बोलवानो विकल्प (इच्छा) निमित्तमात्र छे. विकल्प अने वाणी ए बंनेमां निमित्त – नैमित्तिक संबंध छे. विकल्पना कारणे वाणी नीकळे छे एम नथी अने वाणी नीकळी एटले विकल्प थयो एम पण नथी. अज्ञानीने आ वातनी समजण नथी, तेथी ते एम माने छे के, ‘में बोलवानी इच्छा करी एटले वाणी नीकळी,’ परंतु तात्त्विक द्रष्टिए विचारतां ए सत्य नथी. भाषावर्गणानुं वाणीरूपे परिणमन तेना कारणे छे, स्वतंत्र छे; इच्छाथी ते निरपेक्ष छे; छतां ‘हुं बोलुं छुं’ एम मानवामां ते जीव अने अजीव तत्त्वोनी एकता – बुद्धि करे छे. आवी ऊंधी मान्यताने लीधे तेने अनंत संसारना कारणभूत अनंतानुबंधी कषाय थया वगर रहेतो नथी.
ज्ञानीने अस्थिरताना कारणे बोलवानो विकल्प आवे, पण स्वभावनी द्रष्टिए तेना अभिप्रायमां ते विकल्पनो तेने निषेध वर्ते छे, कारण के ते जाणे छे के विकल्प ए राग छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी, ते तेनाथी भिन्न छे.
माटे कोईनी साथे वात करवानो विकल्प करवो ते दोष छे. आवी समजणपूर्वक जे स्वरूपमां लीनतारूप मौन सेवे छे तेने ज साची वचन – गुप्ति छे. आवी वचन – गुप्तिथी अंतर्बाह्य वचनप्रवृत्तिनो स्वयं नाश थाय छे. १८.
एवी रीते बाह्य विकल्पोनो परित्याग करीने आभ्यन्तर विकल्पोने छोडावतां कहे छेः —
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टीका – परैरुपाध्यायादिभिरहं यत्प्रतिपाद्यः परान् शिष्यादीनहं यत्प्रतिपादये तत्सर्वं मे उन्मत्तचेष्टितं मोहवशादुन्मत्तस्येवाखिलं विकल्पजालात्मकं विजृम्भितमित्यर्थः । कुत एतत् ? यदहं निर्विकल्पको यद्यस्मादहमात्मा निर्विकल्पक एतैर्वचनविकल्पैरग्राह्यः ।।१९।।
अन्वयार्थ : (अहं) हुं (परैः) बीजाओथी – अध्यापकादिथी (यत् प्रतिपाद्यः) जे कांई शीखववा योग्य छुं तथा (परान्) बीजाओने शिष्यादिकने (यत् प्रतिपादये) हुं जे कांई शीखवुं (तत्) ते (मे) मारी (उन्मत्तचेष्टितं) उन्मत्त (पागल) चेष्टा छे; (यद् अहं) कारण के (वास्तवमां) हुं (निर्विकल्पकः) निर्विकल्पक अर्थात् वचन – विकल्पोथी अग्राह्य छुं.
टीका : पर वडे अर्थात् उपाध्यायादि वडे मने जे शीखवाडवामां आवे छे अने बीजाओने – शिष्यो वगेरेने हुं जे शीखवुं छुं ते बधी मारी उन्मत्त (पागल) चेष्टा छे – मोहवशात् उन्मत्तना (पागलना) जेवी ज ते बधी विकल्पजालरूप चेष्टा प्रवर्ते छे, एवो अर्थ छे. शाथी ते (उन्मत्त चेष्टा) छे? कारण के हुं (आत्मा) तो निर्विकल्पक अर्थात् वचनविकल्पोथी अग्राह्य छुं.
भावार्थ : अध्यापकादि मने शीखवे छे तथा हुं शिष्यादि बीजाओने शीखवुं छुं – एवो संकल्प करुं ते मारुं उन्मत्तपणुं – पागलपणुं छे, कारण के मारुं वास्तविक स्वरूप तो निर्विकल्प छे अर्थात् बधा विकल्पोथी हुं अग्राह्य छुं – पर छुं.
आत्मानो स्वभाव तो ज्ञाता – द्रष्टा छे. कोईने शीखववुं या तेनुं भलुं – बूरुं करवुं ए वास्तवमां आत्मानो स्वभाव नथी, कारण के ‘कोई द्रव्य अन्य कोई द्रव्यनो कर्ता छे ज नहि, पण सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावे परिणमे छे’ एम विचारी सम्यग्द्रष्टि अंतरात्मा अंतरना विकल्पोने तोडी स्वरूपमां लीन थवा प्रयत्न करे छे.
विकल्पो दूर करी परमात्मतत्त्वमां लीन थवा माटे उपदेश आपतां श्री अमितगति आचार्य कहे छे के —
‘‘संसाररूपी भयानक जंगलमां पटकवाना हेतूभूत सर्व विकल्पोने दूर करीने तारा आत्माने सर्वथी (द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मथी) भिन्न अनुभव करतां तुं परमात्मतत्त्वमां लीन थई जईश.’’१ १. सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं, संसारकान्तारनिपातहेतुम् ।
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तदेव विकल्पातीतं स्वरूपं निरूपयन्नाह –
उन्मत्तता बे प्रकारनी छे – एक श्रद्धा अपेक्षाए अने बीजी चारित्र अपेक्षाए.
(१) श्री तत्त्वार्थसूत्रमां२ जे उन्मत्तता दर्शावी छे ते श्रद्धा अपेक्षाए छे. मिथ्याद्रष्टि सत अने असत्नो भेद जाणतो नथी. ते उन्मत्त पुरुषनी माफक पोतानी रुचि अनुसार वस्तुने समजे छे. जेम मदिरा पीने उन्मत्त थयेलो पुरुष माता – पत्नीनो भेद जाणतो नहि होवाथी कदी माताने पत्नी अने पत्नीने माता कहे छे अने कोई वखत ते पत्नीने पत्नी अने माताने माता कहे छे, छतां ते ठीक समजीने तेम कहे छे एम नथी. तेवी रीते मिथ्याद्रष्टिने पण वस्तुस्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान नहि होवाथी तेना विकल्पो मिथ्या मान्यताना कारणे उन्मत्त पुरुषना जेवा होय छे.
(२) प्रस्तुत श्लोकमां जे उन्मत्तता दर्शावी छे ते अंतरात्मानी चारित्र अपेक्षाए छे, श्रद्धा अपेक्षाए नथी; केमके ज्ञानीने पण अस्थिरताना कारणे तेवा विकल्पो ऊठे छे, पण अभिप्रायमां तेने तेनो आदर नथी. ज्यां सुधी विकल्प ऊठे त्यां सुधी निर्विकल्प थई शकातुं नथी. तेथी आचार्ये विकल्प तोडीने आत्मस्वरूपमां लीन थवा माटे निर्देश कर्यो छे; अने अंतरात्मानी भूमिकाना विकल्पोने चारित्र अपेक्षाए उन्मत्तपणुं कह्युं छे. १९.
ते ज विकल्पातीत (निर्विकल्प) स्वरूपनुं निरूपण करतां कहे छेः –
अन्वयार्थ : (यत्) जे एटले शुद्ध आत्मस्वरूप (अग्राह्यं) अग्राह्यने अर्थात् क्रोधादिस्वरूपने (न गृह्णाति) ग्रहण करतुं नथी अने (गृहीतं अपि) ग्रहण करेलाने अर्थात् २. जुओ – तत्त्वार्थसूत्र – अ. १, सूत्र ३२. ❈
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