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टीका — अथवा आत्मानमेव चित्स्वरूपमेव चिदानन्दमयमुपास्य आत्मा परमः परमात्मा जायते । अमुमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण समर्थयमानः प्राह – मथित्वेत्यादि । यथाऽऽत्मानमेव मथित्वा घर्षयित्वा तरुरात्मां (?) तरुरूषः स्वभावः स्वत एवाग्निर्जायते ।।९८।।
अन्वयार्थ : — (अथवा) अथवा (आत्मा) आत्मा (आत्मानं एव) पोताना आत्मानी ज (उपास्य) उपासना करी (परमः) परमात्मा (जायते) थई जाय छे; (यथा) जेम (तरुः) वांसनुं झाड (आत्मानं) पोताने (आत्मा एव) पोते ज (मथित्वा) मथीने – रगडीने (अग्निः) अग्निरूप (जायते) थई जाय छे तेम.
टीका : — अथवा आत्मानी ज एटले चिदानन्दमय चित्स्वरूपनी ज उपासना करीने आत्मा परम एटले परमात्मा थाय छे. आ ज अर्थनुं द्रष्टान्त द्वारा समर्थन करी कहे छे — मथीने इत्यादि – जेम पोते पोताने ज मथीने (रगडीने) – घसीने, वृक्ष अर्थात् वृक्षरूप स्वभाव स्वतः ज अग्निरूप थाय छे, तेम (आत्मा आत्माने ज मथीने – उपासीने – परमात्मारूप थाय छे).
भावार्थ : — जेम वांसनुं वृक्ष वांस साथे रगडी (मथी) स्वयं अग्निरूप थई जाय छे, तेम आत्मा पण पोताना चिदानन्दमय चित्स्वरूपनी उपासना करीने स्वयं परमात्मारूप थई जाय छे.
जेम वांसना वृक्षमां अग्नि शक्तिरूपे विद्यमान छे अने ते घर्षणथी प्रगट थाय छे, तेम आत्मामां पण पूर्ण ज्ञानादि गुणो शक्तिरूपे विद्यमान छे अने ते आत्मानी आत्मा साथे एकरूपता थतां प्रगट थाय छे – अर्थात् आत्मा अन्य बाह्याभ्यंतर संकल्प – विकल्परूप व्यापारोथी पोताना उपयोगने हठावी स्वरूपमां एकाग्र करी दे छे त्यारे तेना ते गुण (शुद्ध पर्यायो) प्रगट थाय छे. आत्माना आत्मा साथेना संघर्षथी ध्यानरूपी अग्नि प्रगट थाय छे. तेना निमित्ते ज्यारे कर्मरूपी इन्धन सर्वथा बळी जाय छे. त्यारे ते आत्मा परमात्मा थई जाय छे.
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उक्तमर्थमुपसंहृत्य फलमुपदर्शयन्नाह —
सम्यग्द्रष्टि ज्यारे आत्मध्यानमां मग्न थई जाय छे, त्यारे ध्यान, ध्याता अने ध्येय — एवो भेद रहेतो नथी, वचन के अन्य विकल्प होता नथी. त्यां (आत्मध्यानमां) तो आत्मा ज कर्म, आत्मा ज कर्ता अने आत्मानो भाव ते क्रिया होय छे – अर्थात् कर्ता, कर्म अने क्रिया – ते त्रणे तद्दन अखंड अभिन्न थई जाय छे; शुद्धोपयोगनी निश्चल दशा प्रगट थाय छे अने सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्र पण एकसाथे एकरूप थईने प्रकाशे छे.१
आ श्लोकमां आचार्यदेवे ए बताव्युं छे के – पोताना आत्मानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप समजी, अर्हंतादिनी उपासनाना रागथी पराङ्मुख थई, स्वसन्मुख थई जीव जो पोताना शुद्धात्मानी – परम पारिणामिक कारण परमात्मानी – ज उपासना करे तो ते स्वयं परमात्मा थई शके छे. दरेक जीवमां द्रव्यद्रष्टिए परमात्मा थवानी शक्ति छे. जो ते जिनोपदेशानुसार पुरुषार्थपूर्वक उद्यम करे, तो ते शक्तिने संपूर्णपणे व्यक्त करी परमात्मा थई शके. ९८.
उक्त अर्थनो उपसंहार करीने फल दर्शावी कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (इति) उक्त प्रकारे (इदं) भेद – अभेदरूप आत्मस्वरूपनी (नित्यं) निरन्तर (भावयेत्) भावना भाववी. एम करवाथी (तत्) ते (अवाचां गोचरं पदं) अनिर्वचनीय परमात्मपदने (स्वतः एव) स्वतः ज – पोतानी मेळे ज आ जीव (आप्नोति) प्राप्त करे छे. (यतः) जे पदथी (पुनः) फरीथी ते (न आवर्तते) पाछो आवतो नथी. १.जहँ ध्यान – ध्याता – ध्येय को न विकल्प वच – भेद न जहाँ,
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दशा,
प्रगटी जहाँ द्रग – ज्ञान – व्रत ये तीनधा एकै लसा.
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इति एवमुक्तप्रकारेण इदं भिन्नमभिन्नं चात्मस्वरूपं भावयेत् नित्यं सर्वदा । ततः किं भवति ? आप्नोति । किं ? तत्पदं मोक्षस्थानं । कथम्भूतं ? अवाचां गोचरं वचनैरनिर्देश्यं । कथं तत्प्राप्नोति ? स्वतः एव आत्मनैव परमार्थतो न पुनर्गुर्वादिबाह्यनिमित्तात् । यतः प्राप्तात् तत्पदान्नावर्तते संसारे पुनर्न भ्रमति ।।९९।।
टीका : — आ प्रमाणे एटले उक्त प्रकारे आ भिन्न ने अभिन्न आत्मस्वरूपनी, नित्य एटले सर्वदा, भावना करवी. तेथी शुं थाय छे? ते पद – मोक्षस्थान (प्राप्त थाय छे). ते (पद) केवुं छे? वाणीने अगोचर एटले वचनो द्वारा कही शकाय नहि तेवुं (अनिर्वचनीय) छे. ते केवी रीते प्राप्त करे छे? परमार्थे स्वतः ज (पोतानी मेळे ज) – आत्माथी ज (प्राप्त करे छे) पण गुरु आदि बाह्य निमित्त वडे नहि; ज्यांथी एटले प्राप्त थयेला ते पदथी (मोक्षस्थानेथी) ते पाछो आवतो नथी – अर्थात् फरीथी संसारमां भमतो नथी.
भावार्थ : — साधकने निर्विकल्प दशामां पोताना आत्मानो आश्रय अने सविकल्प दशामां अर्हंतादिनी उपासनादि होय छे. क्रमे क्रमे आत्मानो आश्रय वधतो जाय छे अने भगवाननी उपासनादिरूप व्यवहार घटतो जाय छे. पोताना आत्मानी उपासना पूर्ण थतां भगवाननी उपासनारूप विकल्पनो पण अभाव थाय छे. तेनुं नाम भिन्न ने अभिन्न आत्मस्वरूपनी नित्य भावना करवी एम कहेवामां आवे छे. ते प्रमाणे वीतरागता पूर्ण थतां केवळज्ञान पामी जीव मोक्ष प्राप्त करे छे अने मोक्षस्थान पाम्या पछी जीव कदी संसारमां पाछो आवतो नथी; केम के तेने रागनो सर्वथा अभाव वर्ते छे. राग विना संसार अर्थात् भवभ्रमण – जन्म
आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे जेमणे आत्मानो पूर्ण विकास साध्यो छे तेवा अर्हन्त अने सिद्ध परमात्माना स्वरूपने यथार्थपणे जाणी तद्रूप थवानी भावनामां मग्न रहेवुं, अने पछी पोताना आत्मस्वरूपमां स्थिर थवानो सदा द्रढ अभ्यास करवो. एम करवाथी वचनातीत अतीन्द्रिय परमात्मपदनी प्राप्ति थाय छे. ते पद प्राप्त कर्या पछी संसारमां फरीथी जन्म लेवो पडतो नथी. सदाने माटे संसारना सर्व प्रकारनां दुःखोथी छूटकारो थाय छे अने ते सदा ज्ञानानन्दमां मग्न रहे छे.
प्रस्तुत श्लोकमां ‘स्वतः एव’ शब्दो घणा अर्थसूचक छे. ते बतावे छे के परमात्मपदनी प्राप्ति पोतनामांथी ज पोताना पुरुषार्थथी ज थाय छे. तेमां तीर्थंकर भगवान आदिनी उपासना, दिव्य – ध्वनि, गुरुना उपदेशादि बाह्य निमित्तो होवा छतां निमित्तोथी निरपेक्षपणे
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ननु आत्मनि सिद्धे तस्य तत्पदप्राप्तिः स्यात् न चासौ तत्त्वचतुष्टयात्मकाच्छरीरात्तत्त्वान्तरभूतः सिद्ध इति चार्वाकाः । सदैवात्मा मुक्तः सर्वदा स्वरूपोपलम्भसम्भवादिति सांख्यास्तान् प्रत्याह —
टीका — चित्तत्त्वं चेतनालक्षणं तत्त्वं यदि भूतजं पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणभूतेभ्यो जातं यद्यभ्युपगम्यते तदाऽयत्नसाध्यं निर्वाणं यत्नेन तात्पर्येण साध्यं निर्वाणं न भवति । परमपदनी प्राप्ति थाय छे. निमित्तथी कदी थती नथी, केम के ज्यां सुधी निमित्त तरफ लक्ष होय त्यां सुधी आत्मा तरफ लक्ष वळतुं नथी.
परमात्मा थवानी शक्ति पोतानामां मोजूद छे. ते शक्तिनुं सम्यक् प्रकारे श्रद्धान – ज्ञान करी, आत्मसन्मुख थई तेने प्रगट करवानो अविरत प्रयत्न करवामां आवे तो परमपदनी प्राप्ति अवश्य थाय. ९९.
आत्मा छे एवुं सिद्ध होय, तो तेने ते पदनी प्राप्ति संभवे, पण ते (आत्मा) चार तत्त्वोना समूहरूप शरीरथी भिन्न अन्य तत्त्वरूप सिद्ध थतो नथी एवुं चार्वाको माने छे; अने सर्वदा स्वरूपनी उपलब्धिनो संभव होवाथी सदाय मुक्त छे – एवो सांख्यमत छे. तेमना प्रति कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (चित्तत्वं) चेतना लक्षणवाळो आ जीव (यजि भूतजम्) जो भूत – चतुष्टयथी उत्पन्न थयेला होय, तो (निर्वाणं) मोक्ष (अयत्नसाध्यं) यत्न साधवा योग्य रहे नहि, (अन्यथा) अथवा (योगतः) योगथी एटले शारीरिक योगक्रियाथी (निर्वाणं) निर्वाणनी प्राप्ति थाय, तो (तस्मात्) तेनाथी (योगिनां) योगीओने (क्वचित्) कोई पण अवस्थामां (दुःखं न) दुःख होय नहि.
टीका : — चित्तत्व एटले चेतनास्वरूप तत्त्व जो भूत ज होय अर्थात् पृथ्वी, पाणी, तेज अने वायुरूप भूतोमांथी उत्पन्न थयेलुं मानवामां आवे, तो निर्वाण अयत्नसाध्य रहे
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एतच्छरीरपरित्यागेन विशिष्टावस्थाप्राप्तियोग्यस्यात्मन एव तन्मते अभावादित्यात्मनो मरणरूपविनाशादुत्तरकालमभावः । सांख्यमते तु भूतजं सहजं भवनं भूतं शुद्धात्मतत्त्वं तत्र जातं तत्स्वरूपसंवेदकत्वेन लब्धात्मलाभं एवंविधं चित्तत्त्वं यदि तदाऽयत्नसाध्यं निर्वाणं यत्नेन ध्यानानुष्ठानादिना साध्यं न भवति निर्वाणं । सदा शुद्धात्मस्वरूपानुभवे सर्वदैवात्मनो निरुपायमुक्तिप्रसिद्धेः । अथवा निष्पन्नेतरयोग्यपेक्षया अयत्नेत्यादिवचनम् । तत्र निष्पन्नयोग्यपेक्षया चित्तत्त्वं भूतजं स्वभावजं । भूतशब्दोऽत्र स्वभाववाची । मनोवाक्कायेन्द्रियैरविक्षिप्तमात्मस्वरूपं भूतं तस्मिन् जातं तत्स्वरूपसंवेदकत्वेन लब्ध्यात्मलाभं एवंविधं चित्तत्त्वं यदि तदाऽयत्नसाध्यं निर्वाणं तथाविधमात्मस्वरूपमनुभवतः कर्मबंधाभावतो निर्वाणस्याप्रयाससिद्धत्वात् अथवा अन्यथा प्रारब्धयोग्यपेक्षया भूतजं चित्तत्त्वं न भवति । तदा योगतः स्वरूपसंवेदनात्मक- चित्तवृत्तिनिरोधाभ्यासप्रकर्षान्निर्वाणं । यत एवं तस्मात्क्वचिदप्यवस्थाविशेषे दुर्धरानुष्ठाने छेदनभेदनादौ अथवा यत्नथी निर्वाण साधवा योग्य न रहे. आ शरीरना परित्यागथी विशिष्ट अवस्थानी प्राप्ति योग्य आत्मानो तेना मतमां (चार्वाकना मतमां) अभाव छे, केम के (तेओ) मरणरूप (शरीरना) विनाशथी उत्तरकाले आत्मानो अभाव (माने छे).
‘सांख्यमत’मां भूत ज एटले सहज भवन ते भूत अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व – तेमां उत्पन्न थयेलुं ते. तेना स्वरूपना संवेदकपणाथी जेनो आत्मलाभ प्राप्त थयो छे एवा प्रकारनुं चित्तत्व जो होय, तो निर्वाण अयत्नसाध्य थाय अर्थात् यत्नथी एटले ध्यानना अनुष्ठानादिथी निर्वाण साधवा योग्य रहेतो नथी, कारण के नित्य शुद्धात्मस्वरूपना अनुभवमां सर्वदा ज आत्मानी निरुपाय (अयत्नसाध्य) मुक्ति प्रसिद्ध छे.
अथवा (आ श्लोकमां) अयत्न इत्यादि वचन छे ते निष्पन्न इतर योगीनी अपेक्षाए छे. त्यां निष्पन्न योगीनी अपेक्षाए चित्तत्व जो भूत ज एटले स्वभाव ज होय, [भूत शब्दने अहीं स्वभावना अर्थमां समजवो] – अर्थात् मन, वाणी, काया, इन्द्रियो, आदिथी अविक्षिप्त आत्मस्वरूप भूत एटले तेमां उत्पन्न थयेलुं होय अर्थात् तेना स्वरूपना संवेदकपणाथी जेनो आत्मलाभ प्राप्त थयो छे एवा प्रकारनुं चित्तत्व जो होय, तो निर्वाण अयत्नसाध्य छे, कारण के तेवा प्रकारना आत्मस्वरूपनो अनुभव करनारने कर्मबंधनो अभाव होवाथी निर्वाण वगर प्रयासे सिद्ध छे.
अथवा – अन्य प्रकारे प्रारब्ध योगीनी अपेक्षाए भूत ज चित्तत्व न होय, तो योगद्वारा स्वरूपसंवेदनात्मक चित्तवृत्तिना निरोधना प्रकर्ष अभ्यासथी निर्वाण थाय, तेथी क्वचित् पण अवस्थाविशेषमां अर्थात् दुर्धर अनुष्ठानमां के छेदन – भेदनादिमां योगीओने दुःख न होय,
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वा योगिनां दुःखं न भवति । आनन्दात्मकस्वरूपसंवित्तौ तेषां तत्प्रभवदुःखसंवेदना-सम्भवात् ।।१००।। कारण के आनंदात्मक स्वरूपना संवेदनमां तेमने तेनाथी उत्पन्न थतां दुःखना वेदननो अभाव छे.
भावार्थ : — ‘चार्वाकमत’ अनुसार जीवतत्त्व भूत ज छे – अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि अने वायु – ए भूतचतुष्टयथी उत्पन्न थाय छे. जो भूतचतुष्टयथी उत्पन्न थयेला शरीरने ज आत्मा मानवामां आवे, तो शरीरना नाशने ज मोक्ष मानवानो प्रसंग आवे अने तेथी मोक्ष अयत्नसाध्य रहे; निर्वाण माटे अन्य कोई पुरुषार्थनी जरूर रहे नहि. माटे शरीरनो नाश थतां आत्मानो अभाव मानवो अने आत्माना अभावने मोक्ष मानवो – एवी चार्वाकोनी जीवात्मा संबंधी कल्पना भ्रममूलक – मिथ्या छे.
‘सांख्यमतानुसार’ आत्मा भूत ज अर्थात् सर्वथा स्वभावसिद्ध शुद्धस्वरूप ज छे. तेने सर्व अवस्थाओमां शुद्ध ज माने छे. निर्वाण माटे सम्यक्ज्ञान, ध्यान, तपादिरूप पुरुषार्थनी तेमने आवश्यकता नहि जणाती होवाथी, तेमना मते मोक्ष अयत्नसाध्य छे. माटे सांख्यनी कल्पना पण युक्तिसंगत नथी.
‘जैनमतानुसार’ स्वरूप – संवेदनात्मक चित्तवृत्तिना निरोधना द्रढ अभ्यास द्वारा सर्व विभाव परिणतिने हठावी शुद्धात्मस्वरूपमां स्थिरतारूप निर्वाण ‘यत्नसाध्य’ छे. अने तेवा प्रकारना आत्मस्वरूपनो अनुभव करनारने कर्मनो अभाव स्वयं थवाथी निर्वाणनी सिद्धि कर्म अपेक्षाए प्रयत्न विना अर्थात् ‘अयत्नसाध्य’ थाय छे, केम के कर्म पुद्गल छे. तेनी अवस्था जीव करी शकतो नथी; तेथी तेना अभाव माटे जीवने कोई प्रयत्न करवो पडतो नथी.
योगीजनोने, अति उग्र तप या ध्यानादि करती वखते कोई पण प्रकारनो खेद के दुःख थतुं नथी, परंतु पोताना लक्ष्यनी सिद्धि थती जोई तप – ध्यानादि करवामां आनंद माने छे. तेओ शरीरने आत्माथी भिन्न समजे छे, तेथी शरीर कृश थतां तेओ खेद खिन्न थता नथी तथा उपसर्ग समये पोताना साम्यभावनी स्थिरताने छोडता नथी.
‘‘जेम सुवर्ण, अग्निथी तपावा छतां तेना सुवर्णपणाने छोडतुं नथी, तेम ज्ञानी कर्मना उदये तप्त होवा छतां ते पोताना ज्ञानीपणाने छोडतो नथी.’’१ १००. १.ज्यम अग्नितप्त सुवर्ण पण निज स्वर्णभाव नहि तजे, त्यम कर्मउदये तप्त पण ज्ञानी न ज्ञानीपणुं तजे. (१८४)
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नन्वात्मना मरणरूपविनाशादुत्तरकालमभावसिद्धेः कथं सर्वदाऽस्तित्वं सिध्येदिति वदन्तं प्रत्याह —
टीका — स्वप्ने स्वप्नावस्थायां दृष्टे विनष्टेऽपि शरीरादौ आत्मनो यथा नाशो नास्ति तथा जागरदृष्टेऽपि जागरे जाग्रदवस्थायां दृष्टे विनष्टेऽपि शरीरादौ आत्मनो नाशो नास्ति । ननु स्वप्नावस्थायां भ्रांतिवशादात्मनो विनाशः प्रतिभातीति चेत्तदेतदन्यत्रापि समानं । न खलु शरीरविनाशे आत्मनो विनाशमभ्रान्ती मन्यते । तस्मादुभयत्राप्यात्मनो विनाशोऽनुपपन्नो विपर्यासाविशेषत् । यथैव हि स्वप्नावस्थायामविद्यमानेऽप्यात्मनो विनाशे विनाशः प्रतिभासत इति विपर्यासः तथा जाग्रदवस्थायामपि ।।१०१।।
मरणरूप विनाशथी उत्तरकालमां (विनाश पछी) आत्मानो अभाव सिद्ध होय तो तेनुं सर्वदा अस्तित्व केवी रीते सिद्ध थाय? एवुं बोलनार प्रति कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (स्वप्ने) स्वप्न – अवस्थामां (दृष्टे विनष्टे अपि) प्रत्यक्ष जोवामां आवेला शरीरादिकनो नाश थवा छतां (यथा) जेम (आत्मनः) आत्मानो (नाशः न अस्ति) नाश थतो नथी (यथा) तेम (जागरदृष्टे अपि) जाग्रत अवस्थामां पण देखेला शरीरादिकनो नाश थवा छतां, आत्मानो नाश थतो नथी; (विपर्यासाविशेषतः) कारण के बंने अवस्थाओमां विपरीत प्रतिभासमां कांई फेर नथी.
टीका : — स्वप्नमां एटले स्वप्न – अवस्थामं देखवामां आवेला शरीरादिनो नाश थवा छतां जेम आत्मानो नाश थतो नथी, तेम जाग्रत अवस्थामां पण देखवामां आवेला शरीरादिनो नाश थवा छतां, आत्मानो नाश थतो नथी. स्वप्न – अवस्थामां भ्रान्तिने लीधे आत्मानो विनाश प्रतिभासे छे एम शंका करवामां आवे, तो अन्यत्र पण (जाग्रत अवस्थामां पण) ते समान छे. भ्रान्ति विनानो माणस, शरीरनो विनाश थतां आत्मानो विनाश खरेखर मानतो नथी. तेथी बंनेमां (स्वप्न अवस्थामां अने जाग्रत अवस्थमां) पण विपर्यासमां (भ्रान्तिमां) फेर नहि होवाथी (भ्रान्ति समान होवाथी) आत्मानो विनाश नहि होवा छतां (तेनो) विनाश प्रतिभासे छे, तेम एवी भ्रान्ति जाग्रत अवस्थामां पण थाय छे.
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नन्वेव प्रसिद्धस्याप्यनाद्यनिधनस्यात्मनो मुक्त्यर्थं दुर्द्धरानुष्ठानक्लेशो व्यर्थो ज्ञानभावनामात्रैणैव मुक्तिसिद्धेरित्याशङ्कयाह —
भावार्थ : — स्वप्नमां शरीरनो नाश जोवा छतां आत्मानो नाश थतो नथी तो पण आत्माना नाशनो भ्रम (विपरीत प्रतिभास) थाय छे; तेम जाग्रत – अवस्थामां पण शरीरनो नाश जोवा छतां आत्माना विनाशनो भ्रम थाय छे. बंने अवस्थाओमां जे भ्रम थाय छे ते समान छे. तेमां कांई तफावत नथी. परमार्थ द्रष्टिए जोवामां आवे तो स्वप्नमां मनुष्यना शरीरनो अने तेना आत्मानो नाश थयो नथी; तेम जाग्रत अवस्थामां पण मरणथी मनुष्यना शरीरनो अने तेमां रहेला आत्मानो नाश थतो नथी, कारण के दरेक द्रव्य सत् छे. सत्नो कदी नाश थतो नथी, फक्त तेनी पर्यायमां फेरफार थाय छे. एक पर्यायनो व्यय, बीजी पर्यायनो उत्पाद अने ते बंनेमां द्रव्यनुं ध्रौव्यरूपे कायम रहेवुं – एवी वस्तुस्थिति छे.
आत्मा एक चेतन, अमूर्तिक, अविनाशी पदार्थ छे. तेना विनाशनी कल्पना करवी ए नितान्त भ्रम छे. संसार – अवस्थामां शरीर साथे आत्मानो परस्पर एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग संबंध छे, पण अज्ञानीने ते बंनेनुं भेदविज्ञान नहि होवाथी बंनेने एकरूप माने छे; तेथी शरीररूप पुद्गल – पर्यायनो व्यय जोई तेमां संयोगरूपे रहेला आत्मानो पण भ्रमथी विनाश माने छे; परंतु झूंपडी बळी जतां तेमां रहेलुं आकाश कांई बळी जतुं नथी, तेम शरीरनो नाश थतां तेमां रहेला आत्मानो नाश थतो नथी. १०१.
अनादिनिधन आत्मा प्रसिद्ध होवा छतां तेनी मुक्ति माटे दुर्द्धर तपश्चरणरूप क्लेश करवो व्यर्थ छे, कारण के ज्ञानभावनामात्रथी ज मुक्तिनी सिद्धि छे एवी आशंका करी कहे छेः — ✽
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टीका — अदुःखेन कायक्लेशादिकष्टं विना सुकुमारोपक्रमेण भावितमेकाग्रतया चेतसि पुनः पुनः संचिन्तितं ज्ञानं शरीरादिभ्यो भेदेनात्मस्वरूपपरिज्ञानं क्षीयते अपकृष्यते । कस्मिन् ? दुःखसन्निधौ दुःखोपनिपाते सति । यत एवं तस्मात्कारणात् यथाबलं स्वशक्त्यनतिक्रमेण मुनिर्योगी आत्मानं दुःखैर्भावयेत् कायक्लेशादिकष्टेः सहाऽऽत्मस्वरूपं भावयेत् । कष्टसहोभवन्सदाऽऽत्मस्वरूपं चिन्तयेदित्यर्थः ।।१०२।।
ननु यद्यात्मा शरीरात्सर्वथाभिन्नस्तदा कथमात्मनि चलति नियमेन तच्चलम् तिष्ठति नियमेन तिष्ठेदिति वदन्तं प्रत्याह —
अन्वयार्थ : — (अदुःखभावितं ज्ञानं) जे ज्ञानदुःख विना भाववामां आवे छे, ते (दुःखसनिधौ) उपसर्गादि दुःखो आवी पडतां (क्षीयते) नाश पामे छे, (तस्मात्) माटे (मुनिः) मुनिए अन्तरात्मा योगीए – (यथाबलं) पोतानी शरीरादिथी भिन्न भावना भाववी.
टीका : — दुःख विना एटले कायक्लेशादिना कष्ट विना सुकुमार उपक्रमथी भाववामां आवेलुं अर्थात् एकाग्रताथी मनमां वारंवार चिंतवेलुं ज्ञान एटले शरीरादिथी भिन्न आत्मस्वरूपनुं परिज्ञान क्षय पामे छे – क्षीण थाय छे. क्यारे? दुःखनी सन्निधिमां (उपस्थितिमां) – दुःखो आवी पडतां, तेटला माटे यथाशक्ति एटले पोतानी शक्तिनुं उल्लंघन कर्या सिवाय मुनिए – योगीए दुःखथी आत्मानी भावना भाववी अर्थात् कायक्लेशादिरूप कष्टोथी आत्मस्वरूपनी भावना करवी – कष्ट सहीने सदा आत्मस्वरूपनुं चिंतवन करवुं – एवो अर्थ छे.
भावार्थ : — जेमने शरीरादिनी अनुकूळतामां या साताशीलपणामां ज्ञान – भावना करवानी आदत पडी छे, तेमने उपसर्गादि आवतां ज्ञान – भावना अचल रही शकती नथी, कारण के तेओ भूख, तरस, गरमी, ठंडी वगेरेनी थोडी पण बाधा सही शकता नथी. तेओ नजीवुं संकट आवी पडतां गभराई जाय छे अने ज्ञान – भावनाथी चलित थई जाय छे; तेथी आचार्यदेवे आ श्लोकमां कह्युं छे के ज्ञान – भावनाना अभ्यासीने उचित छे के ते अनेक कष्टो सहन करवानी एवी टेव पाडे के कष्टो आवी पडे तो पण ते ज्ञान – भावनाथी चलायमान थाय नहि. १०२.
जो आत्मा शरीरथी सर्वथा भिन्न होय तो तेना चालवाथी शरीर नियमथी केम चाले अने तेना ऊभा रहेवाथी ते (शरीर) नियमथी केम ऊभुं रहे छे? एम शंका करनार प्रति कहे छेः —
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टीका — आत्मनः सम्बंधिनः प्रयत्नाद्वायुः शरीरे समुच्चलति कथम्भूतात् प्रयत्नात् ? इच्छाद्वेषप्रवर्तितात् रागद्वेषाभ्यां जनितात् । तत्र समुच्चलिताच्च वायोः शरीरयंत्राणि शरीराण्येव यंत्राणि शरीरयंत्राणि । किं पुनः शरीराणां यंत्रैः साधर्म्ययतस्तानि यन्त्राणीत्युच्यन्ते ? इति चेत् उच्यते – यथा यंत्राणि काष्ठादिविनिर्मितसिंहव्याध्रादीनि स्वसाध्यविविधक्रियायां परप्रेरितानि प्रवर्तन्ते तथा शरीराण्यपीत्युभयोस्तुल्यतां । तानि शरीरयंत्राणि वायोः सकाशाद्वर्तन्ते । केषु ? कर्मसु क्रियासु । कथम्भूतेषु ? स्वेषु स्वसाध्येषु ।।१०३।।
अन्वयार्थ : — (इच्छाद्वेषप्रवर्तितात्) इच्छा (राग) – द्वेषनी प्रवृत्तिथी थता (आत्मनः प्रयत्नात्) आत्माना प्रयत्नना निमित्ते (वायुः) वायु उत्पन्न थाय छे – वायुनो संचार थाय छे. (वायोः) वायुना संचारथी (शरीर यंत्राणि) शरीर यंत्रो (स्वेषु कर्मसु) पोत पोताना कार्योमां (वर्तन्ते) प्रवर्ते छे.
टीका : — आत्माना प्रयत्नथी वायुनो शरीरमां संचार थाय छे. केवा प्रयत्नथी? इच्छाद्वेषथी प्रवर्तेला – राग – द्वेषथी उत्पन्न थयेला (प्रयत्नथी), तेमां (शरीरमां) संचारित वायुथी शरीर यंत्रो – शरीरो ए ज यंत्रो ते शरीरयंत्रो – (स्वकार्यमां प्रवर्ते छे).
शुं शरीरोने यंत्रो साथे समान धर्म छे के जेथी तेओ (शरीरो) यंत्रो कहेवाय छे? एम पूछो तो कहेवानुं के जेम लाकडा वगेरेनां बनेलां सिंह – व्याघ्रादियंत्रो परप्रेरित थईने पोतपोताने साधवा योग्य विविध क्रियाओमां प्रवर्ते छे, तेम शरीरो पण (प्रवर्ते) छे. एम बंनेमां (शरीर अने यंत्रोमां) समानता छे. ते शरीरयंत्रो वायु द्वारा प्रवर्ते छे. शामां? कार्योमां – क्रियाओमां. केवा (कार्योमां)? पोतपोताने साधवा योग्य (कार्योमां).
भावार्थ : — जीवने ज्यारे शरीरनी क्रिया करवानी इच्छा थाय छे, त्यारे तेना (इच्छाना) निमित्ते वायु पोतानी योग्यताथी शरीरमां उत्पन्न थाय छे. ते वायुना संचार निमित्ते शरीरयंत्रो अर्थात् शरीरनी क्रियाओ पोतपोतानी योग्यताथी पोतानुं काम करे छे.
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आम जीवनी इच्छा अने शरीरनी क्रियाने सीधो निमित्त – नैमित्तिक संबंध नथी, परंतु जीवनी इच्छा अने वायुने निमित्त – नैमित्तिक संबंध छे अने वायु तथा शरीरनी क्रियाने निमित्त – नैमित्तिक संबंध छे.
स्थूलद्रष्टिए (व्यवहार नये) जीवनी इच्छाथी शरीर चाले छे एम कहेवामां आवे छे तेनो अर्थ ए छे के जीवनी इच्छाथी के वायुथी शरीरनी क्रियाओ खरेखर थती नथी, पण निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे उपचारथी तेम कहेवामां आवे छे.१
योग (अर्थात् मन – वचन – कायना निमित्ते आत्म – प्रदेशोनुं चलन) अने उपयोग (अशुद्ध उपयोग – ज्ञाननुं कषायो साथे जोडावुं) – ए बंनेनो कर्ता, आत्मा कदाचित भले हो, तथापि पर द्रव्य – स्वरूप कर्मनो कर्ता तो ते निमित्तपणे पण कदी नथी. अज्ञान अवस्थामां ज आत्माने योग – उपयोगनो कर्ता कही शकाय, पण शरीरादि पर द्रव्योनो कर्ता तो ते निमित्तपणे पण कदी नथी.
आ उपरथी एम समजवुं के जो जीव, पुद्गल – कर्मनो खरेखर कर्ता नथी, तो शरीरनी कोई क्रियानो कर्ता ते केम होई शके? जरा पण नहि; परंतु अज्ञान दशामां जीवनो योग अने उपयोग, शरीरनी क्रियामां निमित्त थाय छे.
द्रव्यद्रष्टिथी तो ‘कोई द्रव्य कोई द्रव्यनो कर्ता नथी,’ परंतु पर्यायद्रष्टिथी कोई द्रव्यनो पर्याय कोई वखते कोई अन्य द्रव्यना पर्यायने निमित्त थाय छे, तेथी आ अपेक्षाए एक द्रव्यना परिणाम अन्य द्रव्यना परिणामना निमित्त – कर्ता कहेवाय छे. परमार्थे द्रव्य पोताना ज परिणामनो (शुद्ध – अशुद्ध परिणामनो) कर्ता छे, ते अन्य द्रव्यना परिणामनो कर्ता नथी.२
‘‘अन्य द्रव्यथी अन्य द्रव्यने गुणनी (पर्यायनी) उत्पत्ति करी शकाती नथी; तेथी (ए सिद्धांत छे के) ‘सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावथी ज ऊपजे छे.’’३
‘‘.....सर्व द्रव्यो, निमित्तभूत अन्य द्रव्योना स्वभावथी ऊपजतां नथी, परंतु पोताना १. जुओ – मोक्षमार्ग प्रकाशक – गु. आवृत्ति पृ. २५६. २. जुओ – श्री समयसार गु. आवृत्ति – गा. १०० अने तेनो भावार्थ. ३. को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,
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तेषां शरीरयंत्राणामात्मन्यारोपाऽनारोपौ कृत्वा जडविवेकिनौ किं कुर्वंत इत्याह —
टीका — तानि शरीरयंत्राणि साक्षाणि इंद्रियसहितानि आत्मनि समारोप्य गौरोऽहं स्वभावथी ज ऊपजे छे, कारण के (द्रव्यना) पोताना स्वभावे द्रव्यना परिणामनो उत्पाद जोवामां आवे छे. आम होवाथी सर्व द्रव्योने, निमित्तभूत अन्य द्रव्यो पोताना (अर्थात् सर्व द्रव्योना) परिणामना उत्पादक छे ज नहि.....’’१
‘‘.......वळी पर्यायमां जीव – पुद्गलना परस्पर निमित्तथी अनेक क्रियाओ थाय छे; ते सर्वने बे द्रव्योना मेळापथी नीपजी माने छे, पण आ जीवनी क्रिया छे तेमां पुद्गल निमित्त छे तथा आ पुद्गलनी क्रिया छे तेमां जीव निमित्त छे, एम (अज्ञानीने भिन्न भिन्न भाव भासतो नथी........’’२
माटे जीवनी क्रियाथी शरीरनी चालवानी तथा ऊभा रहेवानी वगेरे क्रिया थती मानवी ते भ्रम छे. १०३.
ते शरीरयंत्रोनो आत्मामां आरोप अने अनारोप करीने जड (अज्ञानी) अने विवेकी पुरुषो शुं करे छे? ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (जडः) अज्ञानी बहिरात्मा (साक्षाणि) इन्द्रियो सहित (तानि) ते शरीरयंत्रोने (आत्मनि समारोप्य) आत्मामां आरोपी (असुखं आस्ते) दुःखी थाय छे. (पुनः) किन्तु (विद्वान्) ज्ञानी अंतरात्मा (आरोपं त्यक्त्वा) शरीरादिकमां आत्मानो आरोप (आत्मानी कल्पना) छोडी (परमं पदं) परम पदने – मोक्षने (प्राप्नोति) प्राप्त करे छे.
टीका : — ते अक्ष सहित एटले इन्द्रियो सहित शरीरयंत्रोने आत्मामां आरोपीने १. श्री समयसार गु. आवृत्ति – गा. ३७२ टीका. २. मोक्षमार्ग प्रकाशक – गु. आवृत्ति पृ. २३०.
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सुलोचनोऽहं स्थूलोऽहंमित्याद्यभेदरूपतया आत्मन्यध्यारोप्य जडो बहिरात्मा असुखं सुखं वा यथा भवत्येवमास्ते । विद्वानन्तरात्मा पुनः प्राप्नोति किं ? तत्परमं पदं मोक्ष । किं कृत्वा ? त्यक्त्वा । कं ? आरोपं शरीरादिनामात्मन्यध्यवसायम् ।।१०४।।
कथमसौ तं त्यजतीत्याह – अथवा स्वकृतग्रन्थार्थमुपसंहृत्य फलमुपदर्शयन्मुक्त्वेत्याह — (शरीरादिने आत्मा कल्पी) – अर्थात् हुं गोरो, हुं सुंदर आंखवाळो, हुं जाडो इत्यादि अभेदरूपपणे (एकताबुद्धिए) आत्मामां आरोपीने, जड – बहिरात्मा जेम असुख – सुख थाय तेम वर्ते छे, परंतु विद्वान – अन्तरात्मा प्राप्त करे छे. शुं? ते परमपदने – मोक्षने. शुं करीने? त्यजीने, शुं (त्यजीने)? शरीरादिनो आत्मा विषे जे आरोप छे – अध्यवसाय छे तेने (त्यजीने).
भावार्थ : — हुं गोरो, हुं सुंदर, हुं जाडो इत्यादिरूप, शरीरादिमां आत्मानी अभेद कल्पना करी (आत्मबुद्धि करी) अज्ञानी बहिरात्मा सुख – दुःख माने छे, परंतु ज्ञानी अंतरात्मा आत्मामां शरीरादिनो मिथ्या अभेद – अध्यवसायनो त्याग करी परमपदने – मोक्षने प्राप्त करे छे.
अनादिथी शरीर अने आत्माने संयोगसंबंध छे. आ संबंधने लीधे शरीरना अंगोपांगनी क्रिया जोई अज्ञानीने भ्रम थाय छे के ए बधी क्रियाओ आत्मानी छे, पण वास्तवमां आत्मा अने शरीर लक्षणे एकबीजाथी तद्दन भिन्न छे. एक चेतन अने अरूपी छे अने बीजुं अचेतन – जड अने रूपी छे. बंने वच्चे मात्र निमित्त – नैमित्तिक संबंध छे, पण अज्ञानी भ्रमथी निमित्त – नैमित्तिक संबंधने बदले कर्ता – कर्म संबंध समजी पोताने सुखी – दुःखी कल्पे छे.
ज्ञानीने शरीर अने आत्मानुं भेदज्ञान छे. ते शरीरनी क्रियाओने आत्मानी क्रिया मानतो नथी. तेने शरीरमां आत्मबुद्धि – एकताबुद्धि नथी, तेथी शरीरनी क्रियामां तेने कर्ता – बुद्धि नथी. शरीरादिमां कर्ता – बुद्धि नहि होवाथी तेने हर्ष – शोक के राग – द्वेष पण नथी. तेना अभावमां ज्ञानीने कर्मनो नवो बंध थतो नथी. भेदविज्ञानना बळे जेम जेम वीतरागता वधती जाय छे, तेम तेम जूनां कर्म पण उदयमां आवी निर्जरी जाय छे. अंते कर्मोनो संपूर्णपणे अभाव थतां परम वीतरागपदनी प्राप्ति थाय छे. १०४.
ते तेने केवी रीते त्यजे छे ते कहे छे – अथवा पोताना रचेला ग्रन्थना अर्थनो उपसंहार करीने फल दर्शावतां. ‘मुक्त्वा’ एम कहीने, कहे छेः —
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संसारदुःखजननीं जननाद्विमुक्तः ।
टीका — उपैति प्राप्नोति । किं तत् ? सुखं । कथम्भूतं ? ज्योतिर्मयं ज्ञानात्मकं । किंविशिष्टः सन्नसौ तदुपैति ? जननाद्विमुक्तः संसाराद्विशेषेण मुक्तः । ततो मुक्तोऽप्यसौ कथम्भूतः सम्भवति ? परमात्मात्मनिष्ठः परमात्मस्वरूपसंवेदकः । किं कृत्वाऽसौ तन्निष्ठः स्यात् । मुक्त्वा । कां ? परबुद्धिं अहंधियं च स्वात्मबुद्धिं च । क्व ? परत्र शरीरादौ । कथम्भूतां तां ?
अन्वयार्थ : — (तन्मार्ग) ते परमपदनी प्राप्तिनो उपाय बतावनार (एतत् समाधितंत्र) आ ‘समाधितंत्र’ शास्त्रनुं (अधिगम्य) अध्ययन करीने – अनुभव करीने (संसारदुःखजननीं) संसारनां दुःखोने उत्पन्न करवावाळी, (परत्र) शरीरादि पदार्थोमां (अहंधियं परबुद्धिं च) अहंबुद्धिने तथा परबुद्धिने (पर ते हुं छुं एवी बुद्धिने) (मुक्त्वा) छोडीने (परात्मनिष्ठः) परमात्मानी भावनामां स्थिर चित्तवाळो अन्तरात्मा (जननात् विमुक्तः) संसारथी मुक्त थईने (ज्योतिर्मयं सुखं) ज्ञानमय सुखने (उपैति) प्राप्त करे छे.
टीका : — पामे छे एटले प्राप्त करे छे. शुं ते? सुख. केवुं (सुख)? ज्योतिर्मय एटले ज्ञानात्मक (सुख). केवा प्रकारनो थई ते ते (सुख) प्राप्त करे छे? जन्मथी मुक्त एटले खास करीने संसारथी मुक्त थईने (सुख प्राप्त करे छे). तेनाथी (संसारथी) मुक्त थयेलो छतां ते केवो संभवे छे? (ते) परमात्मनिष्ठ – परमात्मस्वरूपनो संवेदक (थाय छे). शुं करीने ते तनिष्ठ (एटले परमात्मनिष्ठ) बने? छोडीने. शुं (छोडीने)? परबुद्धि अने अहंबुद्धि एटले स्वात्मबुद्धि (छोडीने). शामां (छोडीने)? परमां – शरीरादिमां. केवी ते (बुद्धिने)? संसारनां दुःखोने उत्पन्न करनारी – चतुर्गतिनां दुःखोनी उत्पत्तिना कारणभूत (बुद्धिने). तेथी तेवा
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संसारदुःखजननीं चतुर्गतिक दुःखोत्पत्तिहेतुभूतां । यतस्तथाभूतां तां त्यजेत् । किं कृत्वा ? अधिगम्य । किं तत् ? समाधितंत्रं समाधेः परमात्मस्वरूपसंवेदनैकाग्रतायाः परमोदासीनताया वा तन्त्रं प्रतिपादकं शास्त्रं । कथम्भूतं तत् ? तन्मार्ग तस्य ज्योतिर्मयसुखस्य मार्गमुपायमिति ।।१०५।।
टीका – प्रशस्तिः
मोक्षोऽनन्तचतुष्टयाऽमलवपुः सद्ध्यानतः कीर्तितः ।
प्रकारनी ते (बुद्धि)नो त्याग करवो. शुं करीने? जाणीने. शुं (जाणीने)? समाधितंत्रने – समाधिना एटले परमात्मस्वरूपना संवेदनमां एकाग्रताना अथवा परम उदासीनताना तंत्रने एटले प्रतिपादक शास्त्रने. ते केवुं छे? तेना मार्गरूप छे, तेना एटले ज्योतिर्मय सुखना मार्गरूप एटले उपायरूप (शास्त्र) छे.
भावार्थ : — श्री पूज्यपादाचार्य – विरचित आ ‘समाधितंत्र’ शास्त्र, परमात्मस्वरूपना संवेदनमां एकाग्रता ज समाधि छे – अर्थात् परमपदनी प्राप्तिनो उपाय छे – तेनुं प्रतिपादन करे छे. आ ‘समाधितंत्र’नो सारी रीते अभ्यास करीने, शरीरादि पर पदार्थोमां जे अंतरात्मा अहंबुद्धि अने परबुद्धिनो त्याग करे छे अने परमात्मानी भावनामां चित्त स्थिर करे छे ते संसारना दुःखोथी मुक्त थई केवळज्ञानमय परम सुखने प्राप्त करे छे.
ए रीते आचार्यदेवे प्रस्तुत ‘समाधितंत्र’नी अगत्यता दर्शावी परम पदनी प्राप्तिनो उपाय बताव्यो छे.
ज्यां सुधी स्व – परनुं भेदज्ञान थाय नहि, त्यां सुधी जीव अज्ञानी रहे छे अने अज्ञानजनित भ्रमने लीधे ते शरीरादि परपदार्थोमां अहंबुद्धि – आत्मबुद्धि करे छे, अर्थात् तेमां पोताना आत्मानी कल्पना करी कर्ता – बुद्धि सेवे छे. ते शरीरनी क्रिया अथवा परनां कार्यो हुं करुं छुं – एम माने छे. वळी तेने शरीर अने परपदार्थो प्रत्ये ममकारबुद्धि होय छे, अर्थात् शरीर मारुं, स्त्री – पुत्र – मकानादि मारां – एवी भ्रमजनित मान्यता ते करे छे. आ अज्ञानमूलक मान्यताना कारणे जीवने राग – द्वेषादि कषायभाव थाय छे जे चतुर्गतिरूप संसार – भ्रमणनुं मूल कारण छे. स्वसन्मुख थई आत्मस्वरूपमां स्थिर थवानी भावना करवी ते ज संसारनां दुःखोथी मुक्तिनो अने परम पदनी प्राप्तिनो उपाय छे. १०५.
जेमणे आत्माने बर्हि, अंतर ने उत्तम – एम त्रण प्रकारे वर्णवी बताव्यो छे, जेमणे
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भव्यानन्दकरः समाधिशतकश्रीमत्प्रभेन्दुः प्रभुः ।।१।।
सद्ध्यानथी अनन्त – चतुष्टमय अमल शरीररूप मोक्ष छे एम प्रसिद्ध कर्युं छे, ते पूज्यपाद प्रभु अहीं जय पामो! ते केवा छे? ते जिन छे, तेमना (इन्द्रिय) विषयो बधा अस्त थई गया छे, ते अमल छे, भव्य जीवोने आनंदकर छे, समाधिशतकरूप श्रीथी युक्त छे अने प्रभामां चंद्र समान छे.
आ श्लोकमां समाधितंत्रना (अपर नाम समाधिशतकना) रचयिता श्री पूज्यपादाचार्य प्रति प्रशस्ति द्वारा पूज्यभाव प्रगट करी तेना टीकाकार श्री प्रभाचन्द्रे गर्भितपणे ‘श्रीमत् प्रभेन्दु’ शब्दो द्वारा समाधिशतकना टीकाकार तरीके पोताना नामनो पण उल्लेख कर्यो छे.
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अचेतनमिदं दृश्य४६८५
अज्ञापितं न जानन्ति५८१०५
अदुःखभावितं ज्ञानं१०२ १७२
अनन्तरज्ञः संधत्ते९९१६६
अपमानादयस्तस्य३८७२
अपुण्यमव्रतैः पुण्यं८३१४२
अयत्नसाध्यं निर्वाणं१०० १६८
अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं३६६८
अविद्याभ्याससंस्कारैः३७७०
अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्१२३१
अव्रतानि परित्यज्य८४१४३
अव्रती व्रतमादाय८६१४६
आत्मज्ञानात्५०९१
आत्मदेहान्तर३४६५
आत्मन्येवात्मधी७७१३२
आत्मविभ्रमजं – ४१७६
आत्मानमन्तरे७९१३६
इतीदं भावयेन्नित्य – ९९१६६
उत्पन्नपुरुषभ्रान्ते२१४६
उपास्यात्मानमेवात्मा९८१६४
एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं१७३९
क्षीयन्तेऽचैव२५५२
गौरः स्थूलः७०१२३
ग्रामोऽरण्यमिति७३१२७
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नष्टे वस्त्रे यथात्मनं६५११६
नारकं नारकांगस्थं९२५
निर्मलः केवलः शुद्धः६२१
परत्राहंमतिः४३८०
पश्येन्निरतंरं५७१०३
पूर्वस्य दृष्टात्मतत्त्वस्य८०१३७
प्रचाव्य विषयेभ्यो३२६२
प्रयत्नादात्मनो – १०३ १७३
प्रविशद्गलतां६९१२२
बहिरन्तः परश्चेति८२५
बहिरात्मा शरीरादौ५१७
बहिरात्मेन्द्रियद्वारैः७२२
बहिस्तुष्यति मूढात्मा६०१०९
भिन्नात्मानमुपास्य – ९७१६३
मत्तश्च्युत्वेन्द्रिय१६३७
मामापश्यन्नयं२६५४
मुक्तिरेकान्तिकी७२१२५
मुक्त्वा परत्र परबुद्धि१०५ १७७
मूढात्मा यत्र विश्वस्त२०४४
मूलं संसारदुःखत्य१५३५
यत्त्यागाय निवर्तन्ते९०१५३
यत्परैः प्रतिपाद्या१९४२
यत्पश्यामीन्द्रियै – ५१९३
यत्रावाहितधीः९५१६०
यथासौ चेष्टते२२४८
यदग्राह्यं न गृह्णाति२०४४
यदन्तर्जल्पसंपृक्त८५१४४
यदभावे सुषुप्तो – २४५१