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टीका — यदुत्प्रेक्षाजालं चिंताजालं कथम्भूतं ? अन्तर्जल्पसंपृक्तं अन्तर्वचनव्यापारोपेतं । आत्मनो दुःखस्य मूलं कारणं । तन्नाशे तस्योत्प्रेक्षाजालस्य विनाशे । इष्टमभिलषितं यत्पदं तच्छिष्टं प्रतिपादितम् ।।८५।।
अन्वयार्थ : — (अन्तर्जल्पसंपृक्तं) अंतरंग जल्पयुक्त (यत् उत्प्रेक्षाजालं) जे विकल्पजाल छे ते (आत्मनः) आत्माना (दुःखस्य) दुःखनुं (मूलं) मूल – कारण छे. (तन्नाशे) तेनो एटले विकल्पजालनो नाश थतां (इष्ट) हितकारी (परमं पदं शिष्टम्) परम पदनी प्राप्ति थाय छे – एम प्रतिपादन कर्युं छे.
टीका : — जे उत्प्रेक्षाजाल एटले विकल्पजाल छे, ते केवी छे? अन्तर्जल्पथी युक्त अर्थात् अंतरंग वचन – व्यापारथी युक्त छे, ते आत्माना दुःखनुं मूल एटले कारण छे. तेनो नाश थतां अर्थात् ते उत्प्रेक्षाजालनो (विकल्पजालनो) नाश थतां, ए पद इष्ट एटले अभिलषित छे (जे पदनी अभिलाषा करवामां आवी छे) ते शिष्ट छे अर्थात् तेनुं प्रतिपादन करवामां आव्युं छे.
भावार्थ : — अंतरंग जल्प (सूक्ष्म – वचन – प्रवृत्ति) युक्त जे अनेक प्रकारना विकल्परूप कल्पनाजाल छे ते संसारी आत्माने दुःखनुं मूल छे. तेनो नाश थाय तो ज परम वीतराग पदनी प्राप्ति थाय.
आ जीव पोताना चिदानन्दमय परम अतीन्द्रिय अविनाशी निर्विकल्प स्वरूपने भूली, ज्यां सुधी बाह्य विषयोना लक्षे दुःखोना मूल कारणभूत अन्तर्जल्परूप अनेक विकल्पोनी जाळमां फसायेलो रहे छे, त्यां सुधी तेने सुखमय परम वीतराग पदनी प्राप्ति थती नथी. ते पदनी प्राप्ति तो तेने होय जे अन्तर्जल्परूप विकल्पोनी जालनो सर्वथा त्याग करी पोताना चैतन्य चमत्काररूप विज्ञानघन आत्मामां लीन थई जाय.
हिंसादि अव्रतरूप अशुभ विकल्पो अने अहिंसादि व्रतरूप शुभ विकल्पो – बंने प्रकारना विकल्पो राग – द्वेषादिरूप होवाथी आत्मस्वरूपना घातक छे. भगवाननी पूजा – भक्ति, अणुव्रत महाव्रतादि तथा तपादि करवाना भाव पण शुभ विकल्प छे. आ समस्त शुभ – अशुभ विकल्पोथी हठी उपयोग ज्यारे आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे त्यारे ज परम वीतराग पदनी प्राप्ति थाय छे.
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तस्य चोत्प्रेक्षाजालस्य नाशं कुर्वाणोऽनेन क्रमेण कुर्यादित्याह —
‘‘आत्माने आत्मा वडे बे पुण्य – पापरूप शुभाशुभ योगोथी रोकीने दर्शन – ज्ञानमां स्थित थई अने अन्य वस्तुनी इच्छाथी विरमी (अटकी) जे आत्मा (इच्छारहित थवाथी) सर्व संगथी रहित थई पोताना आत्माने आत्मा वडे ध्यावे छे – कर्म अने नोकर्मने ध्यातो नथी, पोते चेतयिता (देखनार – जाणनार) होवाथी एकत्वने ज चिंतवे छे – चेते छे – अनुभवे छे, ते आत्मा आत्माने ध्यातो, दर्शन – ज्ञानमय अने अनन्यमय थई अल्पकाळमां ज कर्मथी रहित आत्माने पामे छे.’’१
‘‘.....वस्तुस्वरूपने जेम छे तेम जाणीने ज्यां ज्ञान तेमां एकाग्र थाय त्यां राग के विकल्पनी उत्पत्ति ज थती नथी; एनुं नाम ज चित्तनो निरोध. आ सिवाय ‘हुं चित्तने रोकुं, हुं विकल्पने रोकुं’ एवी नास्तिना लक्षे कांई विकल्प तूटतो नथी, पण विकल्प उत्पन्न थाय छे. ‘हुं चैतन्यमात्र स्वभाव छुं’ एम अस्तित्वभाव तरफ ज्ञाननुं जोर आपतां चित्तनो निरोध सहेजे थई जाय छे, स्वभावनी एकाग्रताना जोरे रागना – विकल्पनो अभाव थई जाय छे; माटे पहेलां वस्तुना स्वभावने बधां पडखाथी जेम छे तेम जाणवो जोईए.
ज्यां श्रुतज्ञानने सन्मुख वाळीने अंदर स्वभावमां एकाग्र कर्युं त्यां सर्व विकल्पो स्वयं विलय थाय छे अने अनंत धर्मोनो चैतन्य – पिंडलो स्वसंवेदनमां आवी जाय छे.’’ ८५.
ते उत्प्रेक्षाजालनो नाश करनारे आ क्रमथी करवुं – ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (अव्रती) हिंसादिक पांच अव्रतोमां अनुरक्त माणसे (व्रतं आदाय)अहिंसादि व्रतोनुं ग्रहण करीने अव्रतावस्थामां थतां विकल्पोनो नाश करवो तथा (व्रती) अहिंसादिक व्रतोना धारके (ज्ञानपरायणः) ज्ञानस्वभावमां लीन थई व्रतावस्थामां थता विकल्पोनो नाश करवो अने पछी अरहंत – अवस्थामां (परात्मज्ञानसम्पन्नः) केवळज्ञानथी युक्त १. श्री समयसार – गु. आवृत्ति – गाथा १८७, १८८, १८९. २. नयप्रज्ञापन – पृ. ८, २३.
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टीका — अव्रतित्वावस्थाभावि विकल्पजालं व्रतमादाय विनाशयेत् । व्रतित्वावस्थाभावि पुनर्विकल्पजालं ज्ञानपरायणो ज्ञानभावनानिष्ठो भूत्वा परमवीतरागतावस्थायां विनाशयेत् । संयोगिजिनावस्थायां परात्मज्ञानसम्पन्नः परं सकलज्ञानेभ्यः उत्कृष्टं तच्चा तदात्मज्ञानं च केवलज्ञानं तेन सम्पन्नो युक्तः स्वयमेव गुर्वाद्युपदेशानपेक्षः परः सिद्धस्वरूपः परमात्मा भवेत् ।।८६।। थई (स्वयम् एव) स्वयं ज (परः भवेत्) परमात्मा थवुं – सिद्धस्वरूपने प्राप्त करवुं.
टीका : — अव्रतीपणानी अवस्थामां थतां विकल्पोनी जालनो, व्रत ग्रहण करीने, विनाश करवो, तथा व्रतीपणानी अवस्थामां थतां विकल्पोनी जालनो, ज्ञानपरायण थईने, अर्थात् ज्ञानभावनामां लीन थईने परम वीतरागतानी अवस्थामां (तेनो) विनाश करवो. सयोगीजिन अवस्थामां परात्मज्ञानसंपन्न अर्थात् पर एटले सर्व ज्ञानोमां उत्कृष्ट जे आत्मज्ञान – जे केवळज्ञान – तेनाथी संपन्न एटले युक्त थईने स्वयं ज अर्थात् गुरु आदिना उपदेशनी अपेक्षा राख्या विना (निरपेक्ष थईने) पर एटले सिद्धस्वरूप परमात्मा थवुं.
भावार्थ : — विकल्प – जालनो नाश करी सिद्धस्वरूपनी प्राप्ति केवी रीते करवी तेनो नीचे प्रमाणे आचार्ये क्रम बताव्यो छेः —
१. अव्रत अवस्थामां हिंसादि पापोना जे विकल्पो थाय तेनो अहिंसादि व्रतोनुं ग्रहण करी नाश करवो.
२. व्रत अवस्थामां अहिंसादि शुभभावरूप जे विकल्पो थाय तेनो ज्ञानपरायण थई अर्थात् ज्ञानभावनामां लीन थई विनाश करवो.
३. ज्ञानभावनामां लीन थतां परम वीतराग तथा केवळज्ञानयुक्त जिन दशा (अरहंतअवस्था) प्रगटे छे;
४. अने स्वयं ज सिद्धपदनी प्राप्ति थाय छे.
‘‘व्रत – अव्रत ए बंने विकल्परहित ज्यां परद्रव्यना ग्रहण – त्यागनुं कांई प्रयोजन नथी एवो उदासीन वीतराग शुद्धोपयोग छे, ते ज मोक्षमार्ग छे.......
......पहेलां अशुभोपयोग छूटी शुभोपयोग थाय, पछी शुभोपयोग छूटी शुद्धोपयोग थाय, एवी क्रमपरिपाटी छे.’’१ १. मोक्षमार्ग प्रकाशक – गु. आवृत्ति पृ. २६२
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धर्मनी शरूआत चोथा अविरत सम्यक्त्व गुणस्थानथी थाय छे. ते पहेलां जीवनी मिथ्यात्व अवस्था होय छे. आ अवस्थामां जे व्रत – तपादि करवानो विकल्प आवे छे ते बधां बाल तप गणाय छे.१
अविरत सम्यग्द्रष्टिओने, देशविरत श्रावकोने अने मुनिओने भूमिकानुसार शुभ – अशुभ विकल्पो आवे छे, परंतु तेमने भेद – विज्ञान होवाथी ते विकल्पोने तेओ श्रद्धा-ज्ञानमां पोतानुं स्वरूप मानता नथी, शुद्ध आत्मस्वरूपनी प्राप्तिमां तेमने विघ्नरूप माने छे अने ते छोडवा माटे पोतानी भूमिकानुसार प्रयत्न करे छे.
‘जेने (सम्यग्द्रष्टि श्रावकने) जेटले अंशे सम्यग्दर्शन होय छे (शुद्धि छे – शुद्धभाव छे, रागरहित अंश छे) तेटले अंशे तेने बंध नथी; जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे तेने बंध थाय छे.
तेने जेटले अंशे सम्यग्ज्ञान छे तेटले अंशे बंध नथी अने जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे तेने बंध थाय छे;
तेने जेटले अंशे सम्यक्चारित्र छे तेटले अंशे तेने बंध नथी अने जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे तेने बंध थाय छे.’’२
आथी स्पष्ट छे के सम्यग्द्रष्टिने भूमिकानुसार जे पूजा, भक्ति, आदि तथा व्रत, महाव्रत, नियमादिनो शुभभाव आवे छे ते पण आस्रव – बंधनुं कारण छे, पण ते संवर – निर्जरानुं कारण नथी. संवर – निर्जरानुं कारण तो शुभ अंशो साथे जे शुद्ध अंश छे ते ज छे. जे शुभ राग बंधनुं कारण होय ते मोक्षनुं कारण कदी होई शके नहि. माटे व्रतादिना शुभ विकल्पोने पण अव्रतादि अशुभ विकल्पोनी जेम मोक्षमार्गमां हेय – छोडवा योग्य गणवामां आव्या छे. १. जुओ – श्री समयसार गाथा – १५२, १५३. २.येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।।२१२।।
येनांशेन ज्ञान तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।।२१३।।
येनांशेन चारित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।।२१४।। (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-गा. २१२ थी २१४)
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यथा च व्रतविकल्पो मुक्तिहेतुर्न भवति तथा लिङ्गविकल्पोऽपीत्याह —
टीका — लिङ्गं जटाधारणनग्नत्वादिदेहाश्रितं दृष्टं शरीरधर्मतया प्रतिपन्नं । देह एवात्मनो भवः संसारः । यत एवं तस्माद्ये लिंगकृताग्रहाः लिंगमेव मुक्तेर्हेतुरितिकृताभिनिवेशास्ते न मुच्यंते । कस्मात् भवात् ।।८७।।
‘‘ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र थतुं नथी, त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टिने बे धारा रहे छे – शुभाशुभ कर्मधारा अने ज्ञानधारा. ते बंने साथे रहेवामां कोई विरोध नथी. ते स्थितिमां कर्म (अशुद्धभावरूप कर्म) पोतानुं कार्य करे छे अने ज्ञान (शुद्धभावरूप ज्ञानकर्म) पोतानुं कार्य करे छे. जेटला अंशे शुभाशुभ कर्मधारा छे तेटला अंशे कर्मबंध थाय छे अने जेटला अंशे ज्ञानधारा छे तेटला अंशे कर्मनो नाश थतो जाय छे. विषय – कषायना विकल्पो के व्रत – नियमना विकल्पो — शुद्धस्वरूपनो विचार सुद्धां — कर्मबंधनुं कारण छे; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ज मोक्षनुं कारण छे.’’१
सातमा अप्रमत्त गुणस्थानथी जे निर्विकल्प दशा थाय छे ते दशामां आत्मस्वरूपमां स्थिरता जामती जाय छे अने अंते शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करी सिद्धपदनी प्राप्ति थाय छे. ८६.
जेम व्रतनो विकल्प मुक्तिनो हेतु नथी, तेम लिंगनो विकल्प पण मुक्तिनो हेतु नथी, ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (लिङ्गं) नग्नपणुं आदि (देहाश्रित दृष्टं) देहने आश्रित जोवामां आवे छे. (देहः एव) देह ज (आत्मनः भवः) आत्मानो भव (संसार) छे; (तस्मात्) तेथी (ये लिङ्गकृताग्रहाः) जे लिंगना ज आग्रही छे (ते पुरुषाः) ते पुरुषो (भवात्) संसारथी (न मुच्यन्ते) मुक्त थता नथी. १. श्री समयसार गु. आवृत्ति – कलश ११०नो भावार्थ.
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येऽपि ‘वर्णानां ब्राह्मणो गुरुरतः स एव परमपदयोग्य’ इति वदन्ति तेऽपि न मुक्तियोग्या इत्याह —
टीका : — लिंग एटले जटाधारण, नग्नपणुं, आदि — ते देहाश्रित देखाय छे – अर्थात् शरीरना धर्मरूपे मानवामां आवे छे. देह ज आत्मानो भव एटले संसार छे; तेथी जे लिंगने विषे आग्रह राखे छे – अर्थात् लिंग ए ज मुक्तिनो हेतु छे एवा अभिनिवेशवाळा जे छे ते (लोक) मुक्त थता नथी. शानाथी? भवथी (संसारथी).
भावार्थ : — जे जीव केवळ लिंग अथवा बाह्य वेषने ज मोक्षनुं कारण माने छे ते देहात्मद्रष्टि छे अर्थात् ते देहने ज आत्मा माने छे, तेथी ते मुक्ति पामतो नथी. लिंग शरीरने आश्रित छे अने शरीर साथेना संबंधथी ज आत्मानो संसार छे. शरीरना अभावमां संसार होतो नथी. माटे जे लिंगनो आग्रही छे अर्थात् जे लिंगने ज मुक्तिनुं कारण समजे छे ते संसारनो ज आग्रही छे; ते कदी संसारथी छूटी शकतो नथी.
अंतरंग वीतरागस्वरूप आत्माना धर्म विना लिंगमात्रथी – बाह्य वेषमात्रथी धर्मनी सम्पत्तिरूप सम्यक्त्वनी प्राप्ति थती नथी; माटे रागद्वेषरहित आत्मानो शुद्धज्ञान – दर्शनरूप स्वभाव जे अंतरंग भावधर्म छे तेने, हे भव्य! तुं जाण. बाह्य लिंग – वेषमात्रथी तने शुं प्रयोजन छे? कांई पण नहि.१
शरीरनी नग्न अवस्था, अठ्ठावीस मूल गुणोनुं पालनादि बाह्यलिंग ए मुनि अवस्थामां नियमा होय छे; तेथी विरुद्ध दशा होय तो ते भावलिंगी मुनि होय नहि, परंतु ते बाह्य लिंगथी अथवा अठ्ठावीस मूल गुणोना पालनथी मोक्ष थाय एवी जे श्रद्धा करे ते मिथ्याद्रष्टि छे. लिंग संबंधीनो विकल्प पण आत्म – साधनामां बाधक छे. मुनिने बाह्य लिंग हरकोई होय तो चाले एम अहीं कहेवानो हेतु नथी. श्री कुन्दकुन्दाचार्ये जे त्रण प्रकारना लिंग कह्या छे ते ते ते गुणस्थाने नियम होय छे खरां, पण तेना लक्षे मोक्ष थतो नथी, पण तेना लक्षे राग थाय छे, तेथी ते तरफनो झुकाव अने विकल्प छोडी आत्मामां लीन थवा माटे आ श्लोक कह्यो छे. ८७.
‘वर्णोमां ब्राह्मण गुरु छे, तेथी ते ज परमपदने योग्य छे’ एवुं जे बोले छे तेओ पण मुक्ति योग्य नथी, ते कहे छेः — १. धर्मेण भवति लिंगं न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः ।
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टीका — जातिर्ब्राह्मणादिर्देहाश्रितेत्यादि सुगमं ।।८८।।
तर्हिं ब्राह्मणादिजातिविशिष्टो निर्वाणादिदीक्षया दीक्षितो मुक्तिं प्राप्नोतीति वदन्तं प्रत्याह —
अन्वयार्थ : — (जातिः) जाति (देहाश्रिता दृष्टा) शरीरने आश्रित जोवामां आवे छे अने (देहः एव) देह ज (देहमां आत्मबुद्धि ज) (आत्मनः भवः) आत्मानो भव (संसार) छे; (तस्मात्) तेथी (ये) जेमने (जातिकृताग्रहाः) मुक्तिनी प्राप्ति माटे जातिनो हठाग्रह छे (ते अपि) तेओ (भवात् न मुच्यन्ते) संसारथी मुक्त थता नथी.
टीका : — ब्राह्मणादि देहाश्रित छे, इत्यादि अर्थ सुगम छे (अर्थात् समजवो सहेलो छे).
भावार्थ : — लिंगनी माफक जाति पण देहाश्रित छे अने देहमां आत्मबुद्धि ते संसार छे, तेथी जेओ मुक्ति माटे जातिनो आग्रह राखे छे अर्थात् जातिने ज मुक्तिनुं मूळ माने छे तेओ पण संसारथी छूटता नथी, कारण के तेओ संसारना आग्रही छे.
जाति पण मुनि अवस्थामां, जे प्रकारनी आगममां कही छे ते प्रमाणे, नियमा होय छे; तेनाथी विरुद्ध जाति भावलिंगी मुनिने होती नथी. ते जातिथी के ते तरफना वलण के विकल्पथी मोक्ष थतो नथी, किन्तु राग उत्पन्न थाय छे. माटे ते तरफनुं वलण छोडी आत्मसन्मुख थई तेमां लीन थवाथी मोक्ष थाय छे एम आ श्लोक उपरथी समजवुं. ८८.
त्यारे तो ब्राह्मणादि जातिविशिष्ट निर्वाणादिनी दीक्षाथी दीक्षित थईने मुक्ति प्राप्त करी शके एवुं बोलनार प्रति कहे छेः —
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टीका — जातिलिंगरूपः विकल्पो भेदस्तेन येषां शैवादिनां समयाग्रहः आगमानुबंधः उत्तमजातिविशिष्टं हि लिंग मुक्तिहेतुरित्यागमे प्रतिपादितमतस्तावन्मात्रेणैव मुक्तिरित्येवंरूपो येषामागमाभिनिवेशः तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः ।।८९।।
अन्वयार्थ : — (येषां) जेमने (जातिलिंगविकल्पेन) जाति अने लिंगना विकल्पथी मुक्ति थाय छे एवो (समयाग्रहः) आगम संबंधी आग्रह छे (ते अपि) तेओ पण (आत्मनः परं पदं) आत्माना परम पदने (न प्राप्नुवन्ति एव) प्राप्त करी शकता ज नथी.
टीका : — जाति अने लिंगरूप विकल्प एटले भेद तेनाथी जे शैवादिने समयनो आग्रह एटले आगमनो आग्रह छे – अर्थात् उत्तम जातिविशिष्ट लिंग ज मुक्तिनुं कारण छे एवुं आगममां प्रतिपादन कर्युं छे, तेथी ते मात्रथी ज मुक्ति छे – एवो जेने आगमनो अभिनिवेश (आग्रह) छे, तेओ पण आत्माना परम पदने प्राप्त करी शकता ज नथी.
भावार्थ : — जाति अने लिंग बंने देहाश्रित छे. तेना तरफना विकल्पथी राग थाय छे, अने राग ते संसार छे. तेथी जे एवुं माने छे के आगममां जाति अने लिंगथी मोक्ष थाय छे एम प्रतिपादन कर्युं छे, ते हठाग्रही छे अने आगमना स्वरूपथी तद्दन अज्ञात छे. वीतरागी आगम तो कहे छे के वीतरागताथी ज मोक्षनी प्राप्ति थाय, अने वीतरागता थतां बाह्य लिंगादि होय खरां, पण तेना आश्रये मोक्ष न थाय, तेना विकल्पथी पण मोक्ष न थाय. जाति, लिंग ने ते संबंधी विकल्पथी मोक्ष थाय एम माननारा समयाग्रही छे – समयना जाणकार नथी.
लिंग ए मोक्षनुं साचुं कारण नथी. तेनुं प्रतिपादन करतां श्री कुन्दकुन्दाचार्ये श्री समयसारमां कह्युं छे के —
‘‘बहु प्रकारनां मुनि – लिंगोने अथवा गृही – लिंगोने ग्रहण करीने मूढ (अज्ञानी)जनो एम कहे छे के ‘आ (बाह्य) लिंग मोक्षमार्ग छे.’ परंतु लिंग मोक्षमार्ग नथी, कारण के अर्हंतदेवो देह प्रत्ये निर्मम वर्तता थका लिंगने छोडीने दर्शन – ज्ञान – चारित्रने ज सेवे छे.
जेओ बहु प्रकारनां मुनिलिंगोमां अथवा गृहस्थलिंगोमां ममकार करे छे (अर्थात् द्रव्यलिंग ज मोक्षनुं देनार छे एम माने छे), तेमणे समयसारने नथी जाण्यो.
जेओ खरेखर ‘हुं श्रमण छुं, हुं श्रमणोपासक (श्रावक) छुं’ एम द्रव्यलिंगमां ममकार वडे मिथ्या अहंकार करे छे, तेओ ‘अनादिरूढ’ (अनादिकाळथी चाल्या आवेला) व्यवहारमां
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तत्प्रदप्राप्यर्थं जात्यादिविशिष्टे शरीरे निर्ममत्वसिद्धयर्थं भोगेभ्यो व्यावृत्त्यापि पुनर्मोहवशाच्छशरीर एवानुबन्धं प्रकुर्वन्तीत्याह —
टीका — यस्य शरीरस्य त्यागाय निर्ममत्वाय भोगेभ्यः स्रग्वनितादिभ्यो निवर्तन्ते । तथा यदवाप्तये यस्य परमवीतरागत्वस्यावाप्तये प्राप्तिनिमित्तं भोगेभ्यो निवर्तन्ते । प्रीतिमनुबन्धं तत्रैव शरीरे एव कुर्वन्ति द्वेषं पुनरन्यत्र परमवीतरागत्वे । के ते ? मोहिनो मोहवन्तः ।।९०।। मूढ (मोही) वर्तता थका, प्रौढ विवेकवाळा निश्चय (निश्चयनय) पर अनारूढ वर्तता थका, परमार्थसत्य (जे परमार्थ सत्यार्थ छे एवा) भगवान समयसारने देखता – अनुभवता नथी.’’१ ८९.
ते पदनी प्राप्ति अर्थे जाति आदि विशिष्ट शरीरमां निर्ममत्वनी सिद्धि माटे भोगोथी व्यावृत्त थईने (पाछो हठीने) पण फरीथी मोहवश शरीरमां ज अनुबंध (अनुराग) करे छे ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (यत्त्यागाय) जेना (शरीरना) त्याग माटे अर्थात् जेनाथी ममत्व हठाववा माटे अने (यद् अवाप्तये) जेने (परम वीतरागपदने) प्राप्त करवा माटे (भोगेभ्यः) इन्द्रियोना भोगोथी (निवर्तन्ते) निवृत्ति पामे छे (तत्र एव) तेमां ज एटले शरीर अने इन्द्रियोना विषयोमां ज (मोहिनः) मोही जीवो (प्रीतिं कुर्वन्ति) प्रीति करे छे अने (अन्यत्र) बीजे एटले वीतराग पद उपर (द्वेषं कुर्वन्ति) द्वेष करे छे.
टीका : — शरीरना त्याग माटे अर्थात् तेमां निर्ममत्व माटे भोगोथी एटले माळा – वनितादिथी निवृत्त थाय छे (पाछा हठे छे) तथा जेनी प्राप्ति माटे अर्थात् जे परम वीतरागता, तेनी प्राप्ति माटे एटले प्राप्ति निमित्ते भोगोथी निवृत्त थाय छे; तेमां ज एटले आ बद्ध शरीरमां प्रीति एटले अनुबंध करे छे अने बीजे अर्थात् परम वीतरागता उपर १. श्री समयसार-गाथा-४०८, ४०९, ४१३ अने टीका.
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तेषां देहे दर्शनव्यापारविपर्यासं दर्शयन्नाह —
टीका — अनन्तरज्ञो भेदाग्राहक पुरुषो यथा पङ्गोर्दष्टिमन्धके सन्धत्ते आरोपयति । कस्मात् संयोगात् पंग्वन्ध्योः सम्बन्धमाश्रित्य । तद्वत् तथा देहात्मनोः संयोगादात्मनो दृष्टिमंगेऽपि सन्धत्ते अंगं (गः) पश्यतीति [मन्यते मोहाभिभूतो बहिरात्मा ।।९१।। द्वेष करे छे. कोण तेओ? मोही – मोहान्ध जीवो.
भावार्थ : — शरीरादि पर पदार्थोथी ममत्व हठाववा माटे परम वीतराग पदनी प्राप्ति माटे केटलाक जीवो विषय – भोगोनो त्याग करी संयमना साधन अंगीकार करे छे, परंतु पाछळथी मोहवश तेओ ते ज शरीर अने विषय – भोगोमां प्रीति करे छे अने संयमनां साधनो उपर द्वेष करे छे.
मोहनी आवी विचित्र लीला छे; तेथी पुरुषार्थ द्रढ करी जीव मोहमां न फसाय ते माटे आचार्यनो आ श्लोक द्वारा उपदेश छे. ९०.
तेमनो देहमां दर्शन – व्यापारनो विपर्यास (विपरीतता) बतावीने कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (अनन्तरज्ञः) तफावतने – भेदने नहि जाणनार पुरुष (यथा) (संयोगात्) संयोगना कारणे भ्रममां पडी (पंगोः दृष्टिं) लंगडानी द्रष्टिने पुरुषमां (अन्धके) अंध (संधत्ते)आरोपे छे, (तद्वत्) तेम (आत्मनः दृष्टिं) आत्मानी द्रष्टिने (अङ्गे अपि) शरीरमां पण (संधत्ते) आरोपे छे.
टीका : — अनन्तरने (भेदने) नहि जाणनार – भेदने ग्रहण नहि करनार पुरुष, जेम लंगडानी द्रष्टिने अंध पुरुषमां जोडे छे – आरोपे छे, शाथी? संयोगथी अर्थात् लंगडा अने अंधपुरुषना संबंधनो आश्रय करीने, तेम देह अने आत्माना संयोगने लीधे, आत्मानी द्रष्टिने शरीरमां पण आरोपे छे, अर्थात् मोहाभिभूत बहिरात्मा माने छे के ‘शरीर देखे छे.’
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अन्तरात्मा किं करोतीत्याह —
भावार्थ : — शरीर अने आत्माना संयोग – संबंधने लीधे अज्ञानीने भ्रम थाय छे के शरीरनी क्रिया जीव करे छे. आचार्य आ वात द्रष्टांतथी समजावे छे. अंध, लंगडाने खभा उपर बेसाडी रस्ते जई रह्यो छे. ठीक रस्ते जवा माटे लंगडो अंधाने इशारो करे छे. लंगडा – आंधळानुं – बंनेनुं संयोगरूप जोडुं छे. मार्गे चालवामां लंगडानी द्रष्टि अने आंधळाना पग काम करे छे. आ बंनेनी संयुक्त गतिनो भेद नहि जाणनार कोई मंद द्रष्टिवाळो पुरुष एम समजे छे के आ अंधो ज सावधानीपूर्वक जोईने चाली रह्यो छे, पण तेनो ए भ्रम छे; तेवी रीते आत्मा अने शरीरना संयोग संबंधनो भेद नहि जाणनार बहिरात्मा शरीरनी क्रियाने आत्मानी क्रिया समजे छे अर्थात् शरीरने ज आत्मा माने छे. ए तेनो तेवो ज भ्रम छे.
जेम आंधळानी गतिमां लंगडानी द्रष्टि निमित्तमात्र छे – अर्थात् जेम ए गति अने द्रष्टि वच्चे कर्ताकर्म संबंध नथी पण मात्र निमित्त – नैमितिक संबंध छे – तेम शरीरनी गतिनो आत्मा कर्ता नथी. बंने वच्चे कोई वखते मात्र निमित्त – नैमित्तिक संबंध होय छे, परंतु कर्ताकर्म संबंध होतो नथी. अज्ञानीने संयोग – संबंधने लीधे बंनेना एकपणानो भ्रम थई जाय छे अने तेथी ते शरीर अने आत्माने एक गणी शरीरनी क्रिया जीव करे छे एम माने छे.
निमित्त होवा छतां, निमित्तथी निरपेक्ष उपादाननुं परिणमन होय छे.१ ९१.
अंतरात्मा शुं करे छे ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (दृष्टभेदः) जे भेद जाणे छे ते (यथा) जेम (पंगोः दृष्टिं) लंगडानी द्रष्टिने (अंधे) अंध पुरुषमां (न योजयेत्) योजतो नथी – आरोपतो नथी (तथा) तेम १. वज्झ कारण निरपेक्खो वथ्थु परिणामो । वस्तुनुं परिणमन बाह्य कारणथी निरपेक्ष होय छे. (जुओ-जयधवल-पेरा – २४४, पृ. ११७; पुस्तक ७.)
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टीका — दृष्टभेदः पंग्बन्धयोः प्रतिपन्नभेदः पुरुषो यथा पंगोर्दष्टिमन्धे न योजयेत् । तथा आत्मनो दृष्टिं देहे न योजयेत् । कोऽसौ ? दृष्टात्मा देहाद्भेदेन प्रतिपन्नात्मा ।।९२।।
बहिरन्तरात्मनोः काऽवस्था भ्रान्तिः का वाऽभ्रान्तिरित्याह — (दृष्टात्मा) आत्माने शरीरादिथी भिन्न अनुभवनार अन्तरात्मा (आत्मनः दृष्टिं) आत्मानी द्रष्टिने – तेना ज्ञान – दर्शन – स्वभावने – (देहे) देहमां (न योजयेत्) आरोपतो नथी – अर्थात् देह साथे एकरूप करतो नथी.
टीका : — भेद जाणनार अर्थात् लंगडा अने अंधनो भेद (तफावत) जाणनार पुरुष, जेम लंगडानी द्रष्टिने अंधमां योजतो (आरोपतो) नथी, तेम ते आत्मानी द्रष्टिने देहमां आरोपतो नथी. कोण ते? द्रष्टात्मा – अर्थात् जेणे देहथी भेद करीने आत्मा जाण्यो छे ते (अंतरात्मा).
भावार्थ : — जे आंधळा अने लंगडानो भेद बराबर जाणे छे, ते बंनेना संयोगना कारणे भ्रममां पडी लंगडानी द्रष्टिने आंधळामां आरोपतो नथी – अर्थात् आंधळाने द्रष्टिहीन अने लंगडाने द्रष्टिवान समजे छे; तेवी रीते भेदज्ञानी अन्तरात्मा, आत्मा अने शरीरना संयोगसंबंधथी भ्रममां पडी कदी पण शरीरमां आत्मानी कल्पना करतो नथी, अर्थात् ते शरीरने चेतनारहित जड अने आत्माने ज्ञान – दर्शनस्वरूप ज समजे छे.
आत्मा अने शरीरनो एकक्षेत्रावगाह संबंध होवा छतां उपयोगरूप लक्षणथी आत्मा परखाय छे; जेम सोना – रूपानो एकपणारूप संबंध होवा छतां, तेमना वर्णादि द्वारा ते बंने भिन्न भिन्न पारखी शकाय छे तेम.१
अन्तरात्माने शरीर अने आत्माना लक्षणोनुं बराबर ज्ञान छे, तेथी ते बंनेने एकरूप अथवा एकने बीजारूप मानतो नथी. ९२.
बहिरात्मा अने अन्तरात्मानी अवस्था भ्रान्तिरूप छे अने कई अभ्रान्तिरूप छे ते कहे छेः — १. सर्वार्थसिद्धि – अ. २/सूत्र ८नी सं. टीका.
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टीका — सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव विभ्रमः प्रतिभासते । केषाम् ? अनात्मदर्शिनां यथा – वदात्मस्वरूपपरिज्ञानरहितानां बहिरात्मनाम् । आत्मदर्शिनोऽन्तरात्मनः पुनरक्षीणदोषस्य मोहाक्रान्तस्य बहिरात्मनः सम्बंधिन्यः सर्वावस्थाः सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थावत् जाग्रत्प्रबुद्धानुन्मत्ताद्यवस्थाऽपि विभ्रमः प्रतिभासते यथावद्वस्तुप्रतिभासाभावात् । अथवासुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव एवकारोऽपिशब्दार्थे तेन सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थाऽपि न विभ्रमः । केषाम् ? आत्मदर्शिनां दृढतराभ्यासात्तदवस्थायामपि आत्मनि
अन्वयार्थ : — (अनात्मदर्शिनाम्) जेमने आत्मस्वरूपनुं वास्तविक ज्ञान नथी तेवा बहिरात्माओने, (सुप्तोन्मत्तादि अवस्था एव) सुप्त अवस्था अने उन्मत्तादि अवस्था ज (विभ्रमः) विभ्रमरूप लागे छे, परंतु (आत्मदर्शिनः) आत्मानुभवी अन्तरात्माने, (अक्षीणदोषस्य) मिथ्यात्वादि दोषो जेना क्षीण थया नथी तेवा बहिरात्मानी (सर्वावस्थाः) बधीय अवस्थाओ (विभ्रमः) विभ्रमरूप लागे छे.
टीका : — सुप्त अने उन्मत्तादि अवस्था ज विभ्रमरूप प्रतिभासे छे. कोने? आत्मस्वरूप नहि जाणनाराओने – अर्थात् आत्मस्वरूपना यथार्थ परिज्ञानथी रहित बहिरात्माओने, आत्मदर्शीने एटले अंतरात्माने, अक्षीण दोषवाळा एटले जेना दोष क्षीण थया नथी तेवा मोहथी घेराएला बहिरात्मा संबंधीनी सर्व अवस्थाओ – जाग्रत, प्रबद्ध, अनुन्मत्तादि अवस्था पण सुप्त, उन्मत्तादि अवस्थानी जेम, विभ्रमरूप प्रतिभासे छे; कारण के तेने (बहिरात्माओने) यथार्थपणे वस्तुना प्रतिभासनो अभाव छे;
अथवा सुप्त उन्मत्तादि अवस्था पण (अहीं एव शब्द अपिना अर्थमां छे) विभ्रमरूप (भासती नथी). कोनी? आत्मदर्शीओनी, कारण के द्रढतर अभ्यासने लीधे ते अवस्थामां पण तेमने आत्मा विषे अविपर्यास (अविपरीतता) होय छे अने स्वरूप – संवेदनमां वैकल्यनो (च्युतिनो) अभाव होय छे.
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तेषामविपर्यासात् । स्वरूपसंवित्तिवैकल्यासम्भवाच्च । यदि सुप्ताद्यवस्थायामप्यात्मदर्शनं स्यात्तदा जाग्रदवस्थावत्तत्राप्यात्मनः कथं सुप्तादिब्यपदेश इत्युप्युक्तम् । यतस्तत्रेन्द्रियाणां स्वविषये निद्रया प्रतिबन्धात्तद्व्यपदेशो न पुनरात्मदर्शनप्रतिबन्धादिति । तर्हि कस्याऽसौ विभ्रमो भवति ? अक्षीणदोषस्य बहिरात्मनः । कथम्भूतस्य ? सर्वावस्थात्मदर्शिनः सर्वावस्थां बालकुमारादिलक्षणां सुप्तोन्मत्तादिरूपां चात्मेति पश्यत्येवं शीलस्य ।।९३।।
जो सुप्तादि अवस्थामां पण आत्मदर्शन होय तो जागृत अवस्थानी जेम, तेमां पण आत्माने सुप्तादिनो व्यपदेश (कथन) केवी रीते घटे? माटे ते पण अयोग्य छे.
(समाधान) — त्यां इन्द्रियोने स्वविषयमां निद्राने लीधे प्रतिबंध छे, परंतु त्यां आत्मदर्शननो प्रतिबंध नथी, माटे तेनो व्यपदेश घटे छे.
त्यारे कोनी ते विभ्रमरूप लागे छे? अक्षीण दोषवाळा बहिरात्मानी. केवा (बहिरात्मानी)? सर्व अवस्थाओमां आत्मा माननारनी – अर्थात् बालकुमारादिरूप अने सुप्त – उन्मत्तादिरूप सर्व अवस्थाने जे आत्मा माने छे तेवा स्वभाववाळानी (बहिरात्मानी).
भावार्थ : — संस्कृत टीकाकारे प्रस्तुत श्लोकने नीचेना रूपमां समजी बीजो अर्थ पण कर्यो छेः —
अर्थः — आत्मदर्शी पुरुषोनी निद्रावस्था अने उन्मत्तावस्था पण विभ्रमरूप होती नथी अने सर्व अवस्थाओमां आत्मा माननारनी (बहिरात्मानी) – जेना मिथ्यात्वादि दोषो क्षीण थया नथी तेवानी – ते (निद्रावस्था अने जाग्रतावस्थादि सर्व अवस्थाओ) विभ्रमरूप छे.
जे आत्मदर्शी अन्तरात्मा छे तेने सुप्तादि अवस्था विभ्रम नथी, तो जाग्रतादि अवस्थाओ तो विभ्रमरूप केम ज होय? न ज होय, कारण के आत्मस्वरूपना द्रढतर अभ्यासना कारणे तेनुं ज्ञान ते अवस्थाओमां आत्मस्वरूपथी च्युत थतुं नथी. इन्द्रियोनी शिथिलता अने रोगादिवश कदाचित् तेने उन्मत्तता पण आवी जाय, तो पण तेना आत्मानुभव संस्कार छूटता नथी – बराबर कायम ज रहे छे; परंतु अज्ञानी बहिरात्मने बाल, कुमारादिरूप तथा सुप्त – उन्मत्तादिरूप सर्व अवस्थाओमां देहाध्यास – आत्मबुद्धि होवाथी तेनी बधी क्रियाओ विभ्रमरूप – मिथ्या छे.
अंतरात्माने निरंतर ज्ञानचेतनानुं परिणमन होवाथी बधी अवस्थाओमांओ – सुप्त के जाग्रत, उन्मत्त के अनुन्मत्त अवस्थामां – तेनी क्रियाओ विभ्रमरूप होती नथी, परंतु
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ननु सर्वावस्थात्मदर्शिनोऽप्यशेषशास्त्रपरिज्ञानान्निद्रारहितस्य मुक्तिर्भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याह —
टीका — न मुच्यते न कर्मरहितो भवति । कोऽसौ ? देहात्मदृष्टिर्बहिरात्मा । कथम्भूतोऽपि ? विदिताशेषशास्त्रोऽपि परिज्ञाताशेषशास्त्रोऽपि देहात्मदृष्टिपर्यतः देहात्मनोर्भेदरुचिरहितो यतः । पुनरपि कथम्भूतोऽपि ? जाग्रदपि निद्रयाऽनभिभूतोऽपि । यस्तु ज्ञातात्मा परिज्ञातात्मस्वरूपः स सुप्तोन्मत्तोऽपि बहिरात्माने सर्व अवस्थाओमां निरंतर अज्ञान चेतनानुं परिणमन होवाथी तेनी बधी क्रियाओ विभ्रमरूप – मिथ्या होय छे.
आ रीते बहिरात्मा अने अन्तरात्मानी अवस्थामां मोटो फेर छे. अंतरात्मा आत्मस्वरूमां सदा जागृत रहे छे अने बहिरात्मानी एनाथी विपरीत दशा होय छे. ९३.
सर्व अवस्थाओमां आत्मा माननारनी पण, अशेष (संपूर्ण) शास्त्रोना परिज्ञानने लीधे निद्रारहित (जाग्रत) थयेलानी मुक्ति थशे? एवुं बोलनार प्रति कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (देहात्मदृष्टिंः) शरीरमां आत्मबुद्धि राखनार बहिरात्मा (विदिताशेषशास्त्रः अपि) संपूर्ण शास्त्रोनो जाणकार होवा छतां तथा (जाग्रत अपि) जागतो होवा छतां (न मुच्यते) कर्मबंधनथी छूटतो नथी; किन्तु (ज्ञातात्मा) भेदज्ञानी – अन्तरात्मा (सुप्तोन्मत्तः अपि) निद्रावस्थामां या उन्मत्तावस्थामां होवा छतां (मुच्यते) कर्मबंधनथी मुक्त थाय छे – विशिष्ट रूपथी कर्मोनी निर्जरा करे छे.
टीका : — मुक्त थतो नथी – कर्मरहित थतो नथी. कोण ते? शरीरमां आत्मबुद्धि राखनार – बहिरात्मा केवो होवा छतां? सर्व शास्त्रोनो जाणकार होवा छतां सर्व शास्त्रोना परिज्ञानवाळो होवा छतां – , कारण के ते देहात्मद्रष्टि छे अर्थात् देह अने आत्माना भेदनी रुचि विनानो छे. वळी ते केवो (होवा छतां) छे? जागृत होवा छतां – निद्राथी अभिभूत (घेरायेलो) नहि होवा छतां.
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मुच्यते विशिष्टां कर्मनिर्जरां करोति दृढतराभ्यासात्सुप्ताद्यवस्थायामप्यात्मस्वरूपसंवित्त्यवैकल्यात् ।।९४।।
कुतस्तदा तदवैकल्यमित्याह —
जे ज्ञातात्मा छे अर्थात् जेणे आत्मस्वरूप जाण्युं छे (अनुभव्युं छे) ते सुप्त अने उन्मत्त होवा छतां मुक्त थाय छे – विशिष्ट कर्म – निर्जरा करे छे, कारण के तेने द्रढतर अभ्यासने लीधे सुप्तादि अवस्थामां पण आत्मस्वरूपना संवेदनमां वैकल्य (च्युति) होतुं नथी.
भावार्थ : — जेने शरीरमां आत्मबुद्धि छे – जे शरीरने ज आत्मा माने छे एटले के शरीरनी क्रिया आत्मा करे छे एवुं माने छे – ते भले सर्व शास्त्रोनो जाणकार होय अने जागृतावस्थामां (सभान अवस्थामां) होय, तो पण भेदविज्ञानना अभावे तेने मुक्तिनी प्राप्ति थती नथी, परंतु जेने शरीर अने आत्मानुं भेदज्ञान छे अने आत्मस्वरूपना अनुभवनो द्रढतर अभ्यास छे तेवो अन्तरात्मा, निद्रावस्थामां या उन्मत्तावस्थामां होवा छतां विशिष्ट प्रकारे कर्मोनी निर्जरा करे छे कारण के तेने निरंतर ज्ञान चेतनानुं परिणमन छे. आ कर्मनिर्जरा तेनी मुक्तिना कारणरूप बने छे.
अज्ञानी जीवने अगियार अंग अने नव पूर्वनुं ज्ञान होय, पोताना शास्त्रज्ञानथी बीजाओने मुग्ध करे, प्रशंसाने पात्र बने, पण जो ते आत्मज्ञानशून्य होय तो तेनुं बधुं ज्ञान आत्महित माटे कार्यकारी नथी – बाधक छे. गधेडा उपर लादेलां शास्त्रोना बोजा समान ते ज्ञान तेने बोजारूप छे. ९४.
(सुप्तादि अवस्थाओमां पण) ते अवैकल्य (अच्युति) शा कारणे होय छे? ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (यत्र एव) ज्यां ज एटले जे कोई विषयमां ज (पुंसः) पुरुषनी
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टीका — यत्रैव यस्मिन्नेव विषये आहितधीः दत्तावधाना बुद्धिः । ‘‘यत्रात्महितधीरिति च पाठः यत्रात्मनो हितमुपकारस्तत्राहितधीर्बुद्धिरिति’’ स हितमुपकारक इति बुद्धिः । कस्य ? पुंसः । श्रद्धा रुचिस्तस्य तत्रैव तस्मिन्नेव विषये जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते आसक्तं भवति ।।९५।। (आहितधीः) दत्तावधानरूप बुद्धि होय छे, (तत्र एव) त्यां ज एटले ते विषयमां ज तेने (श्रद्धा जायते) श्रद्धा उत्पन्न थाय छे अने (यत्र एव) ज्यां ज एटले जे विषयमां श्रद्धा (श्रद्धा जायते) श्रद्धा उत्पन्न थाय छे (तत्र एव) त्यां ज एटले ते विषयमां ज (चित्तं लीयते) तेनुं चित्त लीन (तन्मय) थई जाय छे.
टीका : — ज्यां ज एटले जे विषयमां ज बुद्धि लागे छे अर्थात् बुद्धि दत्तावधानरूप (लग्न) होय छे – ‘‘यत्रात्महितधीरिति’ एवो पण पाठ छे, (तेनो अर्थ ए छे के) ज्यां आत्महितनी बुद्धि छे अर्थात् ज्यां आत्मानुं हित – उपकार होय छे एटले ज्यां ‘ते हितकर – उपकारक छे’ एवी बुद्धि होय छे त्यां धी एटले बुद्धि (लागे छे.) कोनी? पुरुषनी. तेनी श्रद्धा – रुचि त्यां ज एटले ते विषयमां ज उत्पन्न थाय छे. ज्यां ज श्रद्धा उत्पन्न थाय छे त्यां ज चित्त लीन थाय छे – आसक्त थाय छे.
भावार्थ : — जे विषयमां कोई पुरुषनी बुद्धि सावधानीपूर्वक लागी रहे छे, अर्थात् जे विषय तेने हितकर के उपकारक लागे छे, तेमां तेने श्रद्धा उत्पन्न थाय छे अने ज्यां श्रद्धा उत्पन्न थाय छे त्यां चित्त लीन थई जाय छे. चित्तनी आ लीनता ज सुप्त – उन्मत्त अवस्थामां पण पुरुषने ते विषयथी हठावी शकती नथी, अर्थात् ते पुरुष ते विषयथी च्युत थतो नथी, तेमां लीन रहे छे.
भेद – विज्ञान द्वारा श्रद्धापूर्वक आत्मस्वरूपना जे संस्कारो जाम्या छे तेनुं बळ कोई पण अवस्थामां – जागृत, सुप्त के उन्मत्त अवस्थामां चालु रह्या विना रहेतुं नथी; तेथी आत्मार्थीए भेदविज्ञान द्वारा आत्मस्वरूपना संवेदन माटे आत्मरुचिपूर्वक एवो अविरत प्रयत्न करवो जोईए के जेथी आत्मश्रद्धामां बाह्य कोईपण परिस्थिति विघ्नरूप थाय नहि के च्युत करे नहि. जेम – जेम स्व - पर पदार्थोना भेदविज्ञान द्वारा आत्मानुं उत्तम स्वरूप, संवेदनमां विकसित थतुं जाय छे, तेम तेम सहज प्राप्त रमणीय पंचेन्द्रियना विषयो पण रुचता नथी, अर्थात् तेमना प्रति उपेक्षा अने उदासीनता उत्पन्न थाय छे.१ ९५. १. यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।
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क्व पुनरनासक्तं चित्तं भवतीत्याह —
टीका — यत्र यस्मिन्विषये अनाहितधीरदत्तावधाना बुद्धिः । ‘‘यत्रैवाहितधीरिति च पाठः यत्र च अहितधीरनुपकारकबुद्धिः ।’’ कस्य ? पुंसः । तस्माद्विषयात्सकाशात् श्रद्धा निवर्तते । यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लयः तस्मिन् विषये लय आसक्तिस्तल्लयः कुतो नैव कुतश्चिदपि ।।९६।।
वळी चित्त क्यां अनासक्त होय छे ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (यत्र) ज्यां एटले जे विषयमां (पुंसः) पुरुषनी (अनाहित धीः) बुद्धि सावधानरूप होती नथी, (तस्मात्) तेनाथी (श्रद्धा) श्रद्धा, (निवर्तते) हठी जाय छे – ऊठी जाय छे; अने (यस्मात्) जेनाथी (श्रद्धा) श्रद्धा (निवर्तते) हठी जाय छे ते विषयमां (चित्तस्य) चित्तनी (तल्लयः कुतः) लीनता केवी रीते होई शके? अर्थात् होई शके नहि.
टीका : — ज्यां एटले जे विषयमां बुद्धि संलग्न होती नथी अर्थात् बुद्धि दत्तावधानरूप होती नथी, – ‘यत्रैवाहितधीरिति’ एवो पण पाठ छे, तेनो अर्थ ए छे के – ज्यां अहित बुद्धि एटले अनुपकारक बुद्धि होय छे – कोनी? पुरुषनी, ते विषयथी श्रद्धा पाछी फरे छे. जेनाथी श्रद्धा पाछी फरे, ते विषयमां चित्तनी लीनता केम होई शके? ते विषयमां चित्तनो लय एटले आसक्ति क्यांथी थाय? क्यांयथी पण नहि.
भावार्थ : — जे वस्तुने पुरुष हितकारी समजतो नथी ते वस्तुमां तेने रुचि उत्पन्न थती नथी अने जे वस्तुमां रुचि न होय ते वस्तुमां तेनुं मन केवी रीते लागे? न ज लागे.
अज्ञानी जीवोने इन्द्रियोना विषयो इष्ट लागे छे – हितकारी लागे छे, तेथी तेमनी रुचि तेमां उत्पन्न थाय छे अने मन तेमां लागे छे; ज्ञानीने ते विषयो अनिष्ट लागता नथी, पण ते प्रत्येनो राग अनिष्ट – अहितकारी लागे छे, तेथी तेनी रुचि ते तरफथी हठे छे अने तेमां मन लागतुं नथी. ते विषयो प्रत्ये उदासीन रहे छे.
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यत्र च चित्तं विलीयते तद्ध्येयं भिन्ननभिन्नं च भवति, तत्र भिन्नात्मनि, ध्येये फलमुपदर्शयन्नाह —
टीका — भिन्नात्मानमाराधकात् पृथग्भूतमात्मानमर्हत्सिद्धरूपं उपास्याराध्य आत्मा आराधकः पुरुषः परः परमात्मा भवति तादृशोऽर्हत्सिद्धस्वरूपसदृशः । अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह वर्तिरित्यादि । दीपाद्भिन्ना वर्तिर्यथा दीपमुपास्य प्राप्य तादृशी भवति दीपरूपा भवति ।।९७।।
जेम जेम सहज प्राप्त इन्द्रियोना विषयोथी रुचि हठती जाय छे – घटती जाय छे, तेम तेम शुद्ध आत्मस्वरूप स्वानुभवमां आवतुं जाय छे – स्वसंवेदननो विषय बनतो जाय छे.१ ९६.
जेमां चित्त लीन थाय छे, ते ध्येय भिन्न तथा अभिन्न (एम बे प्रकारे) होय छे; त्यां भिन्नात्मरूप ध्येयनुं फल दर्शावी कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (आत्मा) आत्मा (भिन्नात्मानं) पोतानाथी भिन्न आत्मानी (उपास्य) उपासना करीने (तादृशः) तेना समान (परः भवति) परमात्मा थाय छे. (यथा) जेम (भिन्नावर्तिः) दीपकथी भिन्न बत्ती (वाट) (दीपं उपास्य) दीपकनी उपासना करीने (तेने पामीने) (तादृशी) तेना जेवी – दीपकस्वरूप (भवति) थई जाय छे तेम.
टीका : — भिन्न आत्मानी एटले आराधकथी पृथक्भूत अर्हत् सिद्धरूप आत्मानी उपासना करी – आराधना करी, आत्मा एटले आराधक पुरुष, तेवो एटले अर्हत् – सिद्धस्वरूप समान, पर एटले परमात्मा थाय छे. अहीं ते ज अर्थनुं द्रष्टान्त कहे छे – वाट इत्यादि – १. यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ।
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इदानीमभिन्नात्मनोपासने फलमाह — जेम दीपथी भिन्न वाट (दीवेट) दीपने उपासी एटले पामी ताद्रश (तेना जेवी) थाय छे – अर्थात् दीपरूप थाय छे तेम.
भावार्थ : — जेम वाट दीपकनी उपासना करी (दीपकनो गाढ नजीक संबंध साधी) तद्रूप (दीपकरूप) थई जाय छे, तेम आ आत्मा पोतानाथी भिन्न आत्मानी (अर्हन्त – सिद्धरूप परमात्मानी) उपासना करीने स्वयं तेमना समान परमात्मा थई जाय छे.
अर्हंतादि भिन्न साध्यनी उपासना द्वारा अर्थात् तेमना द्रव्य – गुण – पर्यायना सत्य ज्ञान द्वारा जो जीव पोताना द्रव्य – गुण – पर्यायने सम्यक्पणे जाणे अने तेनी प्रतीति करे तथा त्यारबाद अर्हंतादि पर तरफनुं पण वलण हठावी स्वसन्मुख थई सम्यक् श्रद्धा – ज्ञानपूर्वक पोताना चैतन्यस्वरूपमां स्थिरता करे तो तेनो मोह नाश पामे छे अने ते परमात्मा थाय छे.१
आत्मस्वरूपमां स्थिरता ते निश्चय उपासना अर्थात् अभिन्न साध्यनी उपासना छे अने अर्हंतादि भिन्न साध्यनी उपासना ते व्यवहार उपासना छे.
साधक दशामां सम्यग्द्रष्टि जीवने अस्थिरताना कारणे भगवाननी पूजा – भक्ति आदिरूप पुण्यबंधनी संप्राप्तिना हेतुभूत शुभ राग भूमिकानुसार आवे छे, पण ते तेने आत्महित माटे भलो मानतो नथी. ते रागने रोग समान गणे छे, तेथी तेने ते हेयबुद्धिए वर्ते छे – अर्थात् तेने रागनो राग नथी – तेनुं तेने स्वामीत्व नथी. तेनो आ शुभ राग सवारनी लाल संध्या जेवो छे. जेम सवारनी लाल संध्यानो अभाव थतां तुरत ज सूर्यना तेजस्वी प्रकाशनो आविर्भाव थाय छे, तेम सम्यग्द्रष्टिना हेयबुद्धिए वर्तता शुभ रागनो अभाव थतां – तेनो अतिक्रम थतां आत्माना निर्मळ प्रचंड प्रकाशनो आविर्भाव थाय छे. रागरूप सविकल्प दशानो (व्यवहारनो) अभाव थतां वीतरागरूप निर्विकल्प दशा प्रगट थाय छे. आ दशामां जीवने वचनातीत अपूर्व आनंदनो अनुभव थाय छे. ए रीते सम्यग्द्रष्टिना भिन्नात्मानी उपासनारूप शुभ रागनो अभाव ते मोक्षनुं – परमात्मपदनुं साक्षात् कारण छे. ९७.
हवे अभिन्न आत्मानी उपासनानुं फल कहे छेः — १. जुओ – श्री प्रवचनसार गाथा – ८०.