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टीका — एकान्तिकी अवश्यम्भाविनी तस्यान्तरात्मनो मुक्तिः । यस्य चित्ते अविचला धृतिः आत्मस्वरूपधारणं स्वरूपविषया प्रसतिर्वा । यस्य तु चित्ते नास्त्यचला धृतिस्तस्य नैकान्तिकी मुक्तिः ।।७१।।
चित्तेऽचलाधृतिं च लोकसंसर्ग परित्यज्यात्मस्वरूपस्य संवेदनानुभवे सति स्यान्नान्यथेति दर्शयन्नाह —
अन्वयार्थ : — (यस्य) जेना (चित्ते) चित्तमां (अचला) आत्मस्वरूपनी निश्चल (धृतिः) धारणा छे (तस्य) तेनी (ऐकान्तिकी मुक्तिः) एकान्ते एटले नियमथी मुक्ति थाय छे. (यस्य) जेने (अचला धृतिः न अस्ति) आत्मस्वरूपमां निश्चल धारणा नथी (तस्य) तेनी (एकान्तिकी मुक्तिः न) अवश्यपणे मुक्ति थती नथी.
टीका : — एकान्तिक एटले अवश्य थवावाळी मुक्ति ते अन्तरात्माने थाय छे के जेना चित्तमां अविचल (निश्चल) धृति अर्थात् आत्मस्वरूपनी धारणा होय के स्वरूपमां प्रसत्ति (लीनता) होय; परंतु जेना चित्तमां अचल धृति (धारणा) होती नथी, तेने अवश्यंभावी मुक्ति थती नथी.
भावार्थ : — जेनो उपयोग बीजे नहि भमतां आत्मस्वरूपमां ज स्थिर थाय छे, तेनी नियमथी मुक्ति थाय छे, परंतु जेनो उपयोग एकथी बीजे भमे छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थतो नथी, तेनी कदी मुक्ति थती नथी. ज्यां मोहभाव सहित उपयोग पर पदार्थोमां अटके छे त्यां सविकल्प दशा वर्ते छे. आ सविकल्प दशामां उपयोग आत्मस्वरूपमां स्थिर थई शकतो नथी. निर्विकल्प दशामां ज उपयोग आत्मस्वरूपमां स्थिर थई शके छे. जेनो उपयोग आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे तेने ज मुक्ति थाय छे, बीजा कोईने नहि. ७१.
चित्तमां अचल धृति, लोकना संसर्गनो परित्याग करीने आत्मस्वरूपना संवेदननो अनुभव थतां थाय छे. बीजी रीते नहि. ते दर्शावी कहे छेः —
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टीका — जनेभ्यो वाक् वचनप्रवृत्तिर्भवति । प्रवृत्तेः स्पन्दो मनसः व्यग्रता मानसे भवति । तस्याऽऽत्मनः स्पन्दाच्चित्तविभ्रमाः नानाविकल्पपवृत्तयो भवन्ति । यत एवं, तत्तस्मात् योगी त्यजेत् । कं ? संसर्ग सम्बन्धम् । कैः सह ? जनैः ।
अन्वयार्थ : — (जनेभ्यः) लोकोना संसर्गथी (वाक्) वचननी प्रवृत्ति थाय छे; (ततः) तेनाथी एटले वचनप्रवृत्तिथी (मनसः स्पन्दः) मननी व्यग्रता थाय छे – चित्त चलायमान थाय छे, (तस्मात्) तेनाथी एटले चित्तनी चंचलताथी (चित्त – विभ्रमाः भवन्ति) चित्तमां विविध प्रकारना विकल्पो ऊठवा लागे छे अर्थात् मन विक्षिप्त थई जाय छे; (ततः) तेथी (योगी) योगीए – योगमां संलग्न थवावाळा अन्तरात्माए – (जनैः संसर्गं त्यजेत्) लौकिक जनोना संसर्गनो त्याग करवो.
टीका : — लोको साथे बोलवाथी वचननी प्रवृत्ति थाय छे, प्रवृत्तिथी मननुं स्पंदन – मनमां व्यग्रता – थाय छे, ते आत्माना (भावमनना) स्पंदनथी चित्तविभ्रमो अर्थात् विविध प्रकारना विकल्पोनी प्रवृत्ति थाय छे; तेटला माटे योगीए तजवो. शुं (तजवो)? संसर्ग – संबंध कोनी साथेनो? लोको साथेनो.
भावार्थ : — लौकिक जनो साथे वार्तालाप करवाथी मन व्यग्र बने छे, – चित्त चलायमान थाय छे अने विविध प्रकारना संकल्प – विकल्पो ऊठे छे. तेनाथी आत्मस्वरूपमां स्थिरता रहेती नथी. माटे आत्मस्वरूपना अभ्यासीए लौकिक जनोना संसर्गथी दूर रहेवुं योग्य छे.
साधकने जेम जेम भेद – विज्ञाननुं बळ वधतुं जाय छे तेम तेम तेने पर पदार्थो प्रत्ये उपेक्षाभाव थाय छे अने वीतरागता वधती जाय छे. वीतरागताना प्रमाणमां ते आत्मस्थिरता प्राप्त करे छे. स्वरूप – स्थिरताना काळे लौकिक जनो साथेनो संसर्ग स्वयं छूटी जाय छे. ७२.
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तहिर्तैः संसर्ग परित्यज्याटव्यां निवासः कर्तव्य इत्याशंकां निराकुर्वन्नाह —
टीका — ग्रामोऽरण्यमित्येवं द्वेधा निवासः स्थानं अनात्मदर्शिनामलब्धात्मस्वरूपोपलम्भानां दृष्टात्मनामुपलब्धात्मस्वरूपाणां निवासस्तु विविक्तात्मैव रागादिरहितो विशुद्धात्मैव निश्चलः चित्तव्याकुलतारहितः ।।७३।।
तो शुं तेमनो (लोकोनो) संसर्ग छोडी जंगलमां निवास करवो? एवी आशंकानुं निराकरण करतां कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (अनात्मदर्शिनां) जेमने आत्मानो अनुभव थयो नथी तेवा लोकोने (ग्रामः अरण्यम्) ग्राम के अरण्य (इति द्वेधा निवासः) एवां बे प्रकारना निवासस्थान छे; (तु) किन्तु (दृष्टात्मनां) जेमने आत्मस्वरूपनो अनुभव थयो छे तेवा ज्ञानी पुरुषोने, (निश्चल) चित्तनी व्याकुलता रहित (विविक्तात्मा एव) रागादिरहित शुद्ध आत्मा ज (निवासः) निवासस्थान छे.
टीका : — ग्राम अने अरण्य ए बे प्रकारनां निवासस्थान, अनात्मदर्शीओ माटे अर्थात् जेमने आत्मानो अनुभव थयो नथी, जेमने आत्मानी उपलब्धि थई नथी तेवां लोको माटे छे, परंतु जेमने आत्मानो अनुभव थयो छे, जेमने आत्मस्वरूपनी उपलब्धि थई छे, तेवा (ज्ञानी) लोकोने माटे तो निवासस्थान विविक्त एटले विमुक्त आत्मा ज अर्थात् रागादिरहित शुद्ध आत्मा ज छे जे निश्चल, एटले चित्तनी आकुलतारहित छे.
भावार्थ : — जेने आत्मानो अनुभव नथी, भेद – ज्ञान नथी ते पुरुषने ज गाम के जंगलमां वसवानो विकल्प आवे छे.
जे आत्मदर्शी छे – जेमने आत्मानो अनुभव छे – तेमनुं निवासस्थान वास्तवमां पोतानो शुद्धात्मा ज छे. ते राग – द्वेषादि रहित अने निश्चल होवाथी, तेमने ग्रामनिवास माटे के
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अनात्मदर्शिनो दृष्टात्मनश्च फलं दर्शयन्नाह —
टीका – देहान्तरे भवान्तरे गतिर्गमनं तस्य बीजं कारणं किं ? आत्मभावना । क्व ? वननिवास माटे प्रेम होतो नथी अने तेमनुं चित्त संकल्पो – विकल्पोथी आकुलित होतुं नथी. तेओ ग्राम के वनने पोताना आत्मस्वरूपथी बहिर्भूत समजे छे; तेथी कोईमां पण आसक्ति राखवी के तेने पोतानुं निवासस्थान मानवुं ए तेमने इष्ट नथी. तेओ तो शुद्धात्मस्वरूपने ज पोतानी विहार – भूमि बनावे छे अने तेमां ज सदा रम्या करे छे.
‘‘चटाई, पत्थर, घास, जमीन, लाकडानुं पाटियुं वगेरे ध्यान माटे निस्सार छे, कारण के जेणे राग – द्वेष अने विषय – कषायरूपी शत्रुओने दूर कर्या छे तेवा पुरुषने तो तेनो आत्मा ज ध्यान माटे साचुं अत्यंत निर्मळ आसन छे – एवुं ज्ञानीजनोए मान्युं छे’’१
आत्मस्वरूपना अनुभव माटे ग्राम – अरण्यनी जेम अन्य पर पदार्थो पण निस्सार छे; त्रिकाली शुद्धात्मानुं अवलंबन ज सारभूत छे. ७३.
अनात्मदर्शी अने आत्मदर्शीना फलने दर्शावी कहे छेः —
अन्वयार्थ : (अस्मिन् देहे) आ शरीरमां (आत्मभावना) आत्मानी भावना अर्थात् शरीरने ज आत्मा मानवो ते (देहान्तरगतेः) अन्य शरीरग्रहणरूप भवान्तरप्राप्तिनुं (बीजं) बीज एटले कारण छे अने (आत्मनि एव) आत्मामां ज (आत्मभावना) आत्मानी भावना अर्थात् आत्माने ज आत्मा मानवो ते (विदेहनिष्पत्तेः) शरीरना सर्वथा त्यागरूप मुक्तिनुं(बीजं) बीज छे.
टीका : अन्य देहमां एटले अन्य भवमां गति एटले गमन – तेनुं बीज एटले १. न संस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मितः ।
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देहेऽस्मिन् अस्मिन्कर्मवशाद्गृहीते देहे । विदेहनिष्पत्तेः विदेहस्य सर्वथा देहत्यागस्य निष्पत्तेर्मुक्तिप्राप्तेः पुनर्बीजं स्वात्मन्येवात्मभावना ।।७४।।
तर्हि मुक्तिप्राप्तिहेतुः क श्चिद्गुरुर्भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याह – कारण. क्युं? आत्मभावना. शामां? आ देहमां एटले कर्मवश ग्रहेला आ देहमां. विदेहनिष्पत्तिनुं – विदेहनी अर्थात् सर्वथा देहत्यागनी निष्पत्तिनुं एटले मुक्ति प्राप्तिनुं बीज पोताना आत्ममां ज आत्मभावना (करवी ते) छे.
भावार्थ : शरीरमां आत्मबुद्धि करवाथी एटले शरीरने ज आत्मा मानवाथी अन्य भवमां पण शरीरनी ज प्राप्ति थाय छे अने पोताना आत्मामां ज – निज स्वरूपमां ज आत्मबुद्धि करवाथी अर्थात् आत्माने ज आत्मा मानवाथी मुक्ति थाय छे – देहनो संबंध सर्वथा छूटी जाय छे.
माटे फरीथी शरीरनी प्राप्ति न थाय — पुनर्भव करवो न पडे ते माटे ज्ञानीए शरीरमां आत्मबुद्धिनो त्याग करीने पोताना आत्मामां ज आत्म-भावना करवी ए ज योग्य छे.
‘‘ज्यां सुधी देहप्रधान विषयोमां ममत्व छोडतो नथी, त्यां सुधी कर्मथी मलिन आत्मा फरी फरीने अन्य अन्य प्राणो धारण करे छे.’’१
‘‘जे इन्द्रियादिनो विजयी थईने उपयोगमात्र आत्माने ध्यावे छे ते कर्मो वडे रंजित थतो नथी; तेने प्राणो कई रीते अनुसरे? (अर्थात् तेने प्राणोनो संबंध थतो नथी.)’’२
‘‘जे अज्ञानी जीव (शरीरादिक) पुद्गल द्रव्यने अभिनंदे छे — अर्थात् तेने पोतानुं माने छे – तेमां आत्मीय भाव करे छे, ते जीवनी साथे संयोग-संबंध चारे गतिओमां ते पुद्गल द्रव्य छोडतुं नथी.’’३ ७४
तो मुक्ति-प्राप्तिनो हेतु कोई गुरु हशे — एवुं बोलनार प्रति कहे छे. १. कर्मे मलिन जीव त्यां लगी प्राणो धरे छे फरी फरी,
२. करी इन्द्रियादिक-विजय, ध्यावे आत्मने-उपयोगने,
३. ‘इष्टोपदेश’ – श्लोक ४६
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टीका — जन्म संसारं नयति प्रापयति । कं ? आत्मानं । कोऽसौ ? आत्मैव देहादौ दृढात्मभावनावशात् । निर्वाणमेव च आत्मानमात्मैव नयति स्वात्मन्येवात्मबुद्धिप्रकर्षसद्भावात् । यत एवं तस्मात् परमार्थतो गुरुरात्मात्मनः । नान्यो गुरुरस्ति परमार्थतः । व्यवहारेण तु यदि भवति तदा भवतु ।।७५।।
अन्वयार्थ : (आत्मा एव) आत्मा ज (आत्मानं) आत्माने (जन्म निर्वाणम् एव च नयति) जन्म अने निर्वाण प्रति दोरे छे – अर्थात् प्राप्त करावे छे; (तस्मात्) माटे (परमार्थतः) निश्चयथी (आत्मनः गुरुः) आत्मानो गुरु (आत्मा एव) आत्मा ज छे; (अन्यः न अस्ति) बीजो कोई नहि.
टीका : — जन्म एटले संसार प्रति दोरे छे – प्राप्त करावे छे. कोने? आत्माने. कोण ते? देहादिमां द्रढ आत्मभावनावश आत्मा ज (जन्म प्राप्त करावे छे); अने पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धिना प्रकर्ष सद्भावथी आत्मा ज आत्माने निर्वाण प्रति लई जाय छे, कारण के वास्तवमां आत्मा आत्मानो गुरु छे; परमार्थे बीजो कोई गुरु नथी. व्यवहारे ते होय तो भले हो.
भावार्थ : — जे आत्मा देहादिमां द्रढ आत्मबुद्धि करे छे ते जन्म – मरणरूप संसारमां भ्रमण करे छे – अर्थात् आत्मा ज पोताना आत्माने स्व – अपराधथी संसारमां रखडावे छे, अने ते ज आत्मा जो पोताना आत्मामां ज द्रढ आत्मबुद्धि करे, तो ते संसारभ्रमणथी मुक्त थाय छे – निर्वाण पामे छे – अर्थात् आत्मा ज पोताना आत्माने निर्वाण पमाडे छे; तेथी परमार्थे आत्मा ज आत्मानो गुरु छे, बीजो कोई गुरु नथी.
अहीं आचार्ये स्पष्ट कर्यु छे के जीव पोताना शुद्ध के अशुद्ध उपादानथी ज पोताना आत्मानुं हित – अहित करे छे. तेमां कर्म के पर पदार्थो अहेतुवत् छे अकिंचित्कर छे.
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देहे स्वबुद्धिर्मरणोपनिपाते किं करोतीत्याह —
ज्यां सुधी जीव पोताना आत्माना सामर्थ्यनुं भान करी अंतरंग रागादि शत्रुओ अर्थात् कषायपरिणति पर विजय प्राप्त करी स्वयं पोताना आत्मानो उद्धार करवानो प्रयत्न करतो नथी, त्यां सुधी ते संसाररूपी कीचडमां फस्यो रहे छे अने जन्ममरणनां असह्य कष्टो भोगवतो रहे छे, परंतु ज्यारे ते आत्मस्वरूपनुं बराबर ज्ञान करी स्वभाव – सन्मुख विशेष उग्र पुरुषार्थ आदरे छे, त्यारे क्रमे क्रमे राग – द्वेषादि कषाय – भावोनो या विभाव परिणतिनो स्वयं त्याग थई जाय छे अने रागादि भावथी सर्वथा मुक्त थतां अर्थात् परम वीतरागता प्राप्त थतां ते मोक्ष पामे छे.
‘आत्मा, पोताना आत्मामां मोक्षसुखनी सदा अभिलाषा करे छे, अभीष्ट मोक्षसुखनुं ज्ञान करावे छे अने स्वयं कल्याणकारी आत्म – सुखनी प्राप्तिमां पोताने योजे छे, तेथी आत्मा ज आत्मानो गुरु छे.१
माटे आत्मा परनुं – निमित्तनुं अवलंबन छोडी पोते पोतानो गुरु बने अर्थात् धर्मनी सिद्धि माटे स्वाश्रयी बने, तो ते जन्म – मरणनां दुःखोथी मुक्त थई निर्वाण पामे. ७५.
देहमां आत्मबुद्धि करनार (बहिरात्मा) मरण नजीक आवता शुं करे छे? ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (देहादौ दृढात्मबुद्धिः)देहादिमां द्रढ आत्मबुद्धिवाळो बहिरात्मा (आत्मनः नाशं) पोताना एटले पोताना शरीरना नाशने (च) अने (मित्रादिभिः वियोगं) मित्रादिथी थता वियोगने (उत्पश्यन्) देखीने (मरणात्) मरणथी (भृशम्) अत्यंत (बिभेति) डरे छे. १. स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः ।
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टीका — देहादौ दृढात्मबुद्धिरविचलात्मदृष्टिर्बहिरात्मा । उत्पश्यन्नवलोकयन् । आत्मनो नाशं मरणं मित्रादिभिर्वियोगं च मम भवति इति बुद्ध्यमानो मरणाद्बिभेति भृशमत्यर्थम् ।।७६।।
यस्तु स्वात्मन्येवात्मबुद्धिः स मरणोपनिपाते किं करोतीत्याह —
टीका : — देहादिना द्रढ आत्मबुद्धिवाळो एटले अविचल आत्मद्रष्टिवाळो बहिरात्मा, पोतानो नाश एटले मरण जोईने – अवलोकीने तथा ‘मित्रादिथी मारो वियोग थशे’ एम समजीने मरणथी अत्यंत भय पामे छे; एवो अर्थ छे.
भावार्थ : — अज्ञानी जीव शरीरने ज द्रढपणे आत्मा माने छे, तेथी शरीर छूटवाना समये अर्थात् मरण समये पोताना आत्मानो नाश अने तेथी करीने स्त्री – पुत्र – मित्रादिथी वियोग – ए बे वात जाणी मरणथी घणो ज भय पामे छे.
जे पुरुषोनुं चित्त संसारमां आसक्त छे, तेमने माटे मृत्यु भयनुं कारण छे. कारण के ते माने छे के ‘मारा शरीरनो नाश थतां, स्त्री – पुत्रादिथी वियोग थशे. हवे मने तेमना संयोगनुं सुख मलशे नहि.’ आवा वियोगना दुःखथी ते मरणथी बहु बीवे छे. ७६.
परंतु जेने पोताना आत्ममां ज आत्मबुद्धि छे ते मरण नजीक आवतां शुं करे छे? ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (आत्मनि एव आत्मधीः) आत्मस्वरूपमां आत्मबुद्धिवाळो (शरीरगतिं) शरीरनी गतिने – शरीरना विनाशने (आत्मनः अन्यां) आत्माथी भिन्न (मन्यते) माने छे अने (वस्त्रं त्यक्त्वा वस्त्रान्तरग्रहम् इव) मरणना अवसरने एक वस्त्रने छोडी बीजा वस्त्रनुं ग्रहण करवानी जेम समजी (निर्भयं मन्यते) पोताने निर्भय माने छे.
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टीका — आत्मन्येवात्मस्वरूप एव आत्मधीः अन्तरात्मा शरीरगतिं शरीरविनाशं शरीरपरिणतिं वा बालाद्यवस्थारूपां आत्मनो अन्यां भिन्ना निर्भयं यथा भवत्येवं मन्यते । शरीरोत्पादविनाशौ आत्मनो विनाशोत्पादौ (उत्पादविनाशौ इति साधुः) न मन्यत इत्यर्थः । वस्त्रं त्यक्त्वा वस्त्रान्तरग्रहणमिव ।।७७।।
टीका : — आत्मामां ज एटले आत्मस्वरूपमां ज आत्मबुद्धिवाळो – अंतरात्मा, शरीरनी गतिने एटले शरीरना विनाशने अथवा बालादि अवस्थारूप शरीरनी परिणतिने निर्भयपणे (निःशंकपणे) आत्माथी अन्य – भिन्न माने छे, शरीरना उत्पाद – विनाशने आत्मानो उत्पाद – विनाश ए मानतो नथी – एवो अर्थ छे, जेम वस्त्रनो त्याग करीने अन्य वस्त्रनुं ग्रहण करवुं तेम.
भावार्थ : — अंतरात्मा आत्माने शरीरथी भिन्न समजे छे, बंनेने एकरूप मानतो नथी, तेथी ते शरीरनी अवस्थाने आत्मानी अवस्था मानतो नथी, अर्थात् शरीरनी उत्पत्तिथी आत्मानी उत्पत्ति अने शरीरना नाशथी आत्मानो नाश मानतो नथी. जेम एक वस्त्र तजी बीजुं वस्त्र ग्रहण करतां शरीरने कांई थतुं नथी, तेम एक देह तजी बीजो देह धारण करतां आत्माने कांई थतुं नथी – एम समजी ते मरण – समये निर्भय रहे छे, मरणथी डरतो नथी.
ज्ञानी समजे छे के जेम मकाननो नाश थतां तेमां व्यापेला आकाश द्रव्यनो नाश थतो नथी, तेम शरीरनो नाश थतां तेमां रहेला आत्मानो कदी नाश थतो नथी. आवी समजणने लीधे तेने कोई पण प्रकारनी आकुलता रहेती नथी. ते मरण – प्रसंगे निर्भयता सेवे छे अने आत्मस्वरूपमां मग्न रहे छे.
ज्ञानी मरण समये वधु द्रढता माटे पोताना आत्माने उद्देशीने कहे छे केः —
‘हे आत्मन्, तुं तो ज्ञानरूपी दिव्य शरीरनो धारी छे, माटे सेंकडो कीडोना समूहथी भरेला आ जीर्ण – शीर्ण शरीररूपी पींजराना नाश समये तने भय करवो उचित नथी.’
‘हे आत्मन्, आ मृत्युरूप महोत्सव प्राप्त थवाथी तुं केम डरे छे? कारण के आ मृत्यु द्वारा तो तुं ज्ञानादिक स्वरूपमां स्थित रहीने अन्य शरीररूप नवा नगर तरफ गमन करे छे.’
‘गर्भथी लई आज सुधी, देह पींजरामां तुं अनेक प्रकारनां दुःख भोगवतो पड्यो रह्यो छे. मृत्युरूपी बलवान राजा सिवाय बीजो कोण तने आ देह – पींजरामांथी मुक्त करी शके तेम छे?’
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एवं च स एव बुध्यते यो व्यवहारेऽनादरपरः यस्तु तत्रादरपरः स न बुध्यत इत्याह —
टीका — व्यवहारे विकल्पाभिधानलक्षणेप्रवृत्तिनिवृत्यादिस्वरूपे वा सुषुप्तोऽप्रयत्नपरो यः स जागर्त्यात्मगोचरे आत्मविषये संवेदनोद्यतो भवति । यस्तु व्यवहारेऽस्मिन्नुक्तप्रकारे जागर्ति स सुषुप्तः आत्मगोचरे ।।७८।।
‘जे पुरुषे, मृत्युरूपी कल्पवृक्ष प्राप्त थवा छतां, पोताना आत्मानुं हित साध्युं नहि, ते संसाररूपी कादवमां फरी फसाई जई पोतानुं शुं कल्याण करशे?’१
आवा विचारथी ज्ञानी मरणथी भय पामतो नथी, पण मरणने ते मित्र समान गणे छे, तेने एक महोत्सव तरीके लेखे छे, अने तेथी ते निराकुलतापूर्वक आत्मस्वरूपमां स्थिर थई समाधि – मरण साधे छे. ७७.
आवुं ज्ञान तेने ज थाय के जे व्यवहार विशे अनादर राखे छे, परंतु जेने त्यां (व्यवहारमां) आदर छे तेने आवुं ज्ञान थतुं नथी. ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (यः) जे (व्यवहारे) व्यवहारमां (सुषुप्तः) सूतेलो छे, (सः) ते (आत्मगोचरे) आत्माना विषयमां (जागर्ति) जागे छे (च) अने जे (अस्मिन् व्यवहारे) आ व्यवहारमां (जागर्ति) जागे छे ते (आत्मगोचरे) आत्माना विषयमां (सुषुप्तः) सूतेलो छे.
टीका : — व्यवहारमां एटले विकल्प नाम जेनुं लक्षण छे तेमां (‘विकल्पना स्थानरूप’) अर्थात् प्रवृत्ति – निवृत्ति – आदिस्वरूप (व्यवहारमां) जे सूतो छे – प्रयत्नपरायण नथी, ते आत्मदर्शनमां एटले आत्मविषयमां जागे छे अर्थात् संवेदनमां (आत्मानुभवमां) तत्पर होय छे, पण जे आ उक्त प्रकारना व्यवहारमां जागे छे ते आत्म – विषयमां सूतो छे. (अर्थात् आत्मदर्शन पामतो नथी.) ✽
१. ‘मृत्युमहोत्सव’ – श्लोक ९, १०, १२, १४.
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यश्चात्मगोचरे जागर्ति स मुक्तिं प्राप्नोतीत्याह —
भावार्थ : — ज्ञानी, प्रवृत्ति – निवृत्तिरूप सांसारिक कार्योमां अनासक्त तेम ज अप्रयत्नशील होय छे अने आत्मानुभवना कार्यमां सजाग रहे छे – तत्पर रहे छे, ज्यारे अज्ञानी प्रवृत्ति – निवृत्तिरूप संसारनां कार्योमां प्रयत्नशील रहे छे – जागृत रहे छे अने आत्मानुभवना कार्यमां अतत्पर रहे छे.
अहीं आचार्ये ए बताव्युं छे के प्रवृत्ति – निवृत्तिरूप व्यवहारमां – अर्थात्, अहिंसा, भक्ति, व्रत, नियमादि शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहारमां अने हिंसा, जूठ, चोरी, आदि अशुभ कार्यथी निवृत्तिरूप व्यवहारमां – एम बन्ने व्यवहारोमां जे अतत्पर होय छे ते ज आत्मानुभव करी शके छे. परंतु भक्ति आदि शुभ कार्योमां प्रवृत्तिथी अने अशुभ कार्यमां निवृत्तिथी आत्मस्वरूपनी प्राप्ति थती नथी, कारण के ते प्रवृत्ति विकल्पारूढ छे – रागयुक्त छे. राग भले शुभ होय तो पण तेनाथी आत्मज्ञान थतुं नथी.
ज्ञानी तो आत्मस्वरूपमां स्थिरतारूप प्रवृत्ति करे छे, तेथी तेने व्यवहार धर्मथी स्वयं निवृत्ति थई जाय छे. तेनी ते प्रवृत्ति विकल्पारूढ नथी, पण निर्विकल्प छे अने तेनाथी धर्म थाय छे.
ज्ञानीने अस्थिरताने लीधे कदाचित् पूजा – भक्ति आदिनो शुभ राग आवे, पण ते तेने भलो मानतो नथी, तेने तेनुं स्वामीत्व के कर्ताबुद्धि नथी. तेने ते राग हेयबुद्धिए वर्ते छे; तेथी तेमां तेनी प्रवृत्ति देखावा छतां ते वास्तवमां निवृत्तिमय ज छे.
अज्ञानी शुभरागमय प्रवृत्तिने धर्म मानी तेनाथी संतुष्ट थाय छे अने आत्मस्वरूपनी भावना माटे अतत्पर होय छे.
‘‘वळी कोई जीव भक्तिने मोक्षनुं कारण जाणी तेमां अति अनुरागी थई प्रवर्ते छे, पण ते तो जेम अन्यमती भक्तिथी मुक्ति माने छे तेवुं आनुं पण श्रद्धान थयुं; भक्ति तो रागरूप छे अने रागथी बंध छे, माटे ते मोक्षनुं कारण नथी. रागनो उदय आवतां जो भक्ति न करे तो पापानुराग थाय, एटला माटे अशुभ राग छोडवा अर्थे ज्ञानी भक्तिमां प्रवर्ते छे. वा मोक्षमार्गमां बाह्य निमित्तमात्र पण जाणे छे, परंतु त्यां ज उपादेयपणुं मानी संतुष्ट थतो नथी, पण शुद्धोपयोगनो उद्यमी रहे छे.....’’१ १. मोक्षमार्गप्रकाशक – गु. आवृत्ति पृ. २२७.
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टीका — आत्मानमन्तरेऽभ्यन्तरे दृष्ट्वा देहादिकं बहिर्दष्टवा तयोरात्मदेहयोरन्तरविज्ञानात् भेदविज्ञानात् अच्युतो मुक्तो भवेत् । ततोऽच्युतो भवन्नप्यभ्यासाद्भेदज्ञानभावनातो भवति न पुनर्भेदविज्ञानमात्रात् ।।७९।।
‘‘........आ भक्ति, केवळ भक्ति ज छे प्रधान जेने एवा अज्ञानी जीवोने ज होय छे तथा तीव्र रागज्वर मटाडवा अर्थे वा अस्थाननो राग निषेधवा अर्थे कदाचित् ज्ञानीने पण होय छे.’’१ एटले के ज्ञानी ज्यारे स्वरूपमां स्थिर थई शकतो नथी त्यारे तेने आवी भक्ति हेयबुद्धिए होय छे. ७८.
जे आत्मस्वरूपमां जागे छे, ते मुक्ति पामे छे, ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (अन्तरे) अंतरंगमां (आत्मानं) आत्माना वास्तविक स्वरूपने (दृष्ट्वा) जोईने अने (बहिः) बाह्यमां (देहादिकं) शरीरादि पर भावोने (दृष्ट्वा) जोईने (तयोः) बन्नेना – आत्मा अने शरीरादिकना – (अन्तरविज्ञानात्) भेदविज्ञानथी तथा (अभ्यासात्) तेना अभ्यासथी (अच्युतः भवेत्) अच्युत एटले मुक्त थवाय.
टीका : — आत्माने अंतरमां – अभ्यंतरमां जोईने अने देहादिकने बाह्य जोईने, ते बन्नेना अर्थात् आत्मा अने देहना अंतरविज्ञानथी एटले भेदविज्ञानथी (जीव) अच्युत एटले मुक्त थाय. तेथी एकला भेदज्ञानथी ज अच्युत थाय एम नहि, पण तेना (भेदज्ञानना) अभ्यासथी – भेदज्ञाननी भावनाथी अच्युत थाय.
भावार्थ : — आत्मा अने देहना भेदज्ञानथी अने तेना निरंतर अभ्यासथी अर्थात् भेदज्ञाननी निरंतर भावनाथी – ए बंनेथी ज संसारथी मुक्त थवाय, कारण के अभ्यासथी भेदज्ञानमां द्रढता आवे छे अने द्रढताथी आत्मस्वरूपमां स्थिरता पामी मुक्त थवाय छे. १. श्री पंचास्तिकाय – गाथा १३६नी टीका.
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यस्य च देहात्मनोर्भेददर्शनं तस्य प्रारब्धयोगावस्थायां निष्पन्नयोगावस्थायां च कीदृशं जगत्प्रतिभासत इत्याह —
ज्यारे जीव अंदरना आत्माने अने बाह्य शरीरादिक पर पदार्थोने तेमनां लक्षणो द्वारा एकबीजाथी भिन्न भिन्न समजे छे – बंनेनुं भेदविज्ञान करे छे. त्यारे तेनी परिणतिमां पलटो आवे छे. ते बाह्य विषयोथी हठी अंतर्मुख थाय छे अने पोताना उपयोगने इन्द्रियोना विषयोमां नहि भमावतां तेने हवे स्वसन्मुख वाळी आत्मस्वरूपमां एकाग्र थवा अभ्यास करे छे. आत्मसाधनानो अभ्यास वधारतां वधारतां एने आत्मस्वरूपमां एटली द्रढता – स्थिरता प्राप्त थाय छे के ते फरीथी आत्मस्वरूपथी च्युत थतो नथी, अने आत्मिक गुणोनो पूर्ण विकास थतां ते मोक्षपद प्राप्त करे छे.
भेद – विज्ञान ए मुक्तिनुं प्रथम पगथियुं छे. तेना विना मुक्ति कदी प्राप्त थाय नहि. माटे भेद – विज्ञान करी तेनो अभ्यास त्यां सुधी जारी राखवो के ज्यां सुधी ज्ञाननो उपयोग पर पदार्थोथी हठी आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय.’’१
‘‘जे कोई सिद्ध थया छे ते भेद – विज्ञानथी सिद्ध थाय छे; जे कोई बंधाया छे ते तेना ज (भेद – विज्ञानना ज) अभावथी बंधाया छे.’’२
भेदज्ञान – ज्योतिने केवलज्ञान उत्पन्न करनारी कही छे.३
अविचळ आत्मानुभूतिनुं मूळ कारण भेदविज्ञान छे. ७९. जेने देह अने आत्मानुं भेद – दर्शन छे, तेने प्राथमिक योगावस्थामां अने पूर्ण (सिद्धि) योगावस्थामां जगत् केवुं प्रतिभासे छे? ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (पूर्व) प्रथम अर्थात् योगाभ्यासनी प्राथमिक अवस्थामां, १. – २. श्री समयसार कलश १३०, १३१. ३. जुओ – श्री समयसार गाथा. २ नी टीका
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टीका — पूर्वं प्रथमं दृष्टात्मतत्त्वस्य देहाद्भेदेन प्रतिपन्नात्मस्वरूपस्य प्रारब्धयोगिनः विभात्युन्मत्तवज्जगत् स्वरूपचिंतनविकलत्वाच्छुभेतरचेष्टायुक्तमिदं जगत् नाना – बाह्यविकल्पैरूपेतमुन्मत्तमिव प्रतिभासते । पश्चान्निष्पन्नयोगावस्थायां सत्यां स्वभ्यस्तात्मधियः सुष्टुभावितमात्मस्वरूपं येन तस्य निश्चलात्मस्वरूपमनुभवतो जगद्विषयचिन्ताभावात् काष्ठपाषाणवत्प्रतिभाति । तत्र परमौदासीन्यावलम्बात् ।।८०।। (दृष्टात्मतत्त्वस्य) जेने आत्मदर्शन थयुं छे एवा अंतरात्माने (जगत्) जगत् (उन्मत्तवत्) उन्मत्त जेवुं – पागल जेवुं (विभाति) जणाय छे, अने (पश्चात्) पछीथी अर्थात् योगनी परिपक्व अवस्थामां, (स्वभ्यस्तात्मधियः) आत्मस्वरूपना अभ्यासमां परिपक्वबुद्धिवाळा अंतरात्माने आ (काष्ठपाषाणरूपवत्) काष्ठ – पाषाण जेवुं (निश्चेष्ट) भासे छे.
टीका : — प्रथम, जेणे आत्म – तत्त्व जाण्युं छे अर्थात् देहथी आत्मस्वरूप भिन्न छे एवुं जेने प्रथम ज्ञान थयुं छे तेवा योगनो आरंभ करनार योगीने जगत् उन्मत्त जेवुं (पागल जेवुं) लागे छे – अर्थात् स्वरूप – चिंतनना विकलपणाने लीधे शुभ – अशुभ चेष्टायुक्त आ जगत् विविध बाह्य विकल्पयुक्त, उन्मत्त जेवुं लागे छे. पछीथी ज्यारे योगनी परिपक्व अवस्था थाय, त्यारे जेने आत्मबुद्धिनो सारो अभ्यास थयो छे अर्थात् जेणे आत्मस्वरूपनी सारी पेठे भावना करी छे, तेवा निश्चल आत्मस्वरूपनो अनुभव करनारने, जगत् संबंधी चिंताना अभावने लीधे अर्थात् परम उदासीनपणाना अवलंबनने लीधे ते (जगत्) काष्ठ – पाषाणवत्) प्रतिभासे छे.
भावार्थ : — जेने स्व – परनुं भेदज्ञान थयुं छे तेवा अन्तरात्माने, आत्मानुभवनी प्रथम भूमिकामां अर्थात् योगना आरंभकालमां आ सचेष्ट अने विकल्पारूढ जगत् उन्मत्त जेवुं – पागल जेवुं लागे छे, परंतु बादमां ज्यारे ते योगना परिपक्व अभ्यासद्वारा आत्मस्वरूपमां स्थिर थई जाय छे, त्यारे तेने आ जगत् संबंधी बुद्धिपूर्वक कांई विकल्प ऊठतो नथी, कारण के तेने ते समये निर्विकल्प दशा वर्ते छे.
प्रथम भूमिकामां अर्थात् सविकल्प दशामां ज्ञानीनो उपयोग बाह्य पदार्थो तरफ जाय छे अने तेथी विविध विकलपो थाय छे, परंतु जेम जेम ते स्वरूप – स्थिरतानो अभ्यास वधारतो जाय छे, तेम तेम उपयोगनुं पर तरफनुं वलण छूटतुं जाय छे अने ते स्वरूपमां स्थिर थतो जाय छे. अभ्यासना बळे छेवटे आत्मस्वरूपमां उपयोगनी स्थिरता एटली जामे छे के तेने ते समये बाह्य जगत्नो बिलकुल विचार पण आवतो नथी.
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ननु स्वभ्यस्तात्मधियः इति व्यर्थम् । शरीराद्भेदेनात्मनस्तस्वरूपविद्भ्यः श्रवणात्स्वयं वाऽन्येषां तत्स्वरूपप्रतिपादनान्मुक्तिर्भविष्यतीत्याशङ्कयाह —
टीका — अन्यत उपाध्यायपदेः कामं अत्यर्थं श्रृण्वन्नपि कलेवराद्भिन्नमात्मानमाकर्णयन्नपि ततो भिन्नं तं स्वयमन्यान् प्रति वदन्नपि यावत्कलेवराद्भिन्नमात्मानं न भावयेत् । तावन्न मोक्षभाक् मोक्षभाजनं तावन्न भवेत् ।।८१।।
‘‘वळी जे ज्ञान पांच इन्द्रिय अने छठ्ठा मन द्वारा प्रवर्ततुं हतुं ते ज्ञान सर्व बाजुथी समेटाई निर्विकल्प अनुभवमां केवळ स्वरूपसन्मुख थयुं. केम के आ ज्ञान क्षयोपशमरूप छे, ते एक काळमां एक ज्ञेयने ज जाणी शके; हवे ते ज ज्ञान स्वरूप जाणवाने प्रवर्त्युं त्यारे अन्यने जाणवानुं सहेजे ज बंध थयुं. त्यां एवी दशा थई के बाह्य अनेक शब्दादिक विकार होवा छतां पण स्वरूप – ध्यानीने तेनी कांई खबर नथी......’’ ८०.१
‘स्वभ्यस्तात्मधियः’ ए पद व्यर्थ छे, कारण के ‘शरीरथी आत्मा भिन्न छे’ तेवुं तेना स्वरूपना जाणनाराओ पासेथी सांभळवाथी अथवा स्वयं बीजाओने तेनुं स्वरूप समजाववाथी मुक्ति थई शके छे – एवी आशंका करी कहे छेः —
अन्वयार्थ : — आत्मानुं स्वरूप (अन्यतः) बीजा पासेथी (कामम्) बहु ज (शृण्वन् अपि) सांभळवा छतां तथा (कलेवरात्) मुखथी (वदन् अपि) बीजाओने कहेवा छतां पण (यावत्) ज्यां सुधी (आत्मानं) आत्माने (भिन्नं) शरीरादिथी भिन्न (न भावयेत्) भावे नहि, (तावत्) त्यां सुधी (मोक्षभाक् न) जीव मोक्षने पात्र थतो नथी.
टीका : — बीजा पासेथी एटले उपाध्यायादि पासेथी बहु ज सांभळवा छतां अर्थात् शरीरथी आत्मा भिन्न छे एवुं श्रवण करवा छतां, तेनाथी (शरीरथी) ते (आत्मा) भिन्न छे एवुं स्वयं बीजाओ प्रति कहेवा छतां, ज्यां सुधी शरीरथी आत्मा भिन्न छे एवी भावना १. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक – श्री टोडरमल्लजीनी रहस्यपूर्ण चिठ्ठी – पृ ३४९ (गु. आवृति)
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न करे, त्यां सुधी जीव मोक्षभाजन – मोक्षपात्र थई शके नहि.
भावार्थ : — ‘शरीरादिथी आत्मा भिन्न छे’ ए वात घणी वार गुरुमुखेथी सांभळे तथा बीजाओने तेवो उपदेश पण वारंवार आपे, छतां ज्यां सुधी आत्माने शरीरादिथी द्रढपणे भिन्न अनुभवे नहि अर्थात् ज्यां सुधी स्वसन्मुखतापूर्वक तेनुं तेने भाव – भासन थाय नहि, त्यां सुधी जीव मुक्ति लायक बनी शके नहि.
भेद – विज्ञान द्वारा स्वसन्मुखतापूर्वक जीव – अजीवादि तत्त्वोनुं भाव – भासन थवुं – साची प्रतीति थवी – ते ज निश्चय सम्यक्त्व छे, ते विन जीव मोक्षने पात्र थाय नहि.
‘‘वळी शास्त्रमां ‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’ (मोक्षशास्त्र अ. १ सूत्र २) एवुं वचन कह्युं छे, तेथी शास्त्रोमां जेम जीवादि तत्त्व लख्यां छे तेम पोते शीखी ले छे, त्यां ज उपयोग लगावे छे तथा अन्यने उपदेश आपे छे, परंतु पोताने तेनो ‘भाव भासतो’ नथी; अने त्यां तो ते वस्तुना भावनुं ज नाम तत्त्व कह्युं छे, एटले भाव भास्या विना तत्त्वार्थश्रद्धान क्यांथी होय?’’
‘‘वळी कोई वखत शास्त्रानुसार साची वात पण बतावे, परंतु त्यां अंतरंग निर्धाररूप श्रद्धान नथी; तेथी जेम केफी मनुष्य माताने माता पण कहे, तो पण ते शाणो नथी; तेम आने पण सम्यग्द्रष्टि कहेता नथी.’’
‘वळी जेम कोई बीजानी ज वातो करतो होय तेम आत्मानुं कथन करे छे, परंतु ‘ए आत्मा हुं ज छुं’ एवो भाव भासतो नथी. वळी जेम कोई बीजाने बीजाथी भिन्न बतावतो होय तेम आ आत्मा अने शरीरनी भिन्नता प्ररूपे छे, परंतु ‘हुं ए शरीरादिथी भिन्न छुं’ एवो भाव भासतो नथी......’’१
माटे ‘आत्मा शरीरथी भिन्न छे’ एवुं जाणवा छतां, जो तेनुं भाव – भासन न थाय अर्थात् अनुभवमां न आवे तो ते जाणवुं कार्यकारी नथी. ८१.
ते भावनामां प्रवृत्त थई तेणे (अंतरात्माए) शुं करवुं? ते कहे छेः — १. जुओ – मोक्षमार्ग प्रकाशक – गु. आवृत्ति पृ. २३०.
तावन्न मुच्यते यावन्न भेदाभ्यासनिष्ठितः ।। (ज्ञानार्णव)
निष्ठित (परिपक्व) थतो नथी त्यां सुधी ते मुक्ति पामतो नथी.
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तद्भावनायां च प्रवृत्तोऽसौ किं कुर्यादित्याह —
टीका — देहाद्व्यावृत्त्य शरीरात्पृथक्कृत्वा आत्मानं स्वस्वरूपं आत्मनि स्थितं तथैव भावयेत् शरीराद्भेदन दृढतरभेदभावनाप्रकारेण भावयेत् । यथा पुनः स्वप्ने स्वप्नावस्थायां देहे उपलब्धेऽपि तत्र आत्मानं न योजयेत् देहमात्मतया नाध्यवस्येत् ।।८२।।
अन्वयार्थ : — अंतरात्माए (देहात्) देहथी (आत्मानं) आत्माने (व्यावृत्य) पाछो वाळी अर्थात् भिन्न अनुभवीने (आत्मनि) आत्मा विषे (तथा एव) एवी रीते (भावयेत्) तेनी (आत्मानी) भावना करवी (यथा पुनः) के जेथी फरीथी (स्वप्नेऽपि) स्वप्नमां पण (देहे) देहमां (आत्मानं) आत्माने ते (न योजयेत्) योजे नहि, अर्थात् शरीरमां आत्म – बुद्धि करे नहि.
टीका : — देहथी आत्माने व्यावृत्त करीने (भिन्न अनुभवीने) – शरीरथी पृथक् करीने (अनुभवीने) आत्मा विषे स्थित स्वस्वरूपने एवी रीते भाववुं (अनुभववुं) – अर्थात् शरीरथी भेद करीने (भिन्न करीने) द्रढतर भेदभावनाना प्रकारे (एवी रीते) भाववुं के फरीथी स्वप्नमां – स्वप्नावस्थामां – देहनी उपलब्धि (प्राप्ति) थाय तो पण तेमां (देहमां) आत्मानुं जोडाण थाय नहि अर्थात् देहने आत्मस्वरूपे मानवामां आवे नहि.
भावार्थ : — शरीरथी आत्माने भिन्न जाणी अर्थात् आत्माने आत्मारूपे ज जाणी, शरीररूपे नहि जाणी, तेनी एवी द्रढ भावना करवी के स्वप्नमां पण फरीथी देहने आत्मा मानवानो अध्यवसाय थाय नहि.
स्व – परने भिन्न जाणवानुं चिन्ह तो ज्ञान – वैराग्यशक्ति छे. भेद – विज्ञाननी भावनाथी ए वैराग्यभाव एटले रागथी विरुद्ध भाव – पर पदार्थोमां उपेक्षा भाव जो श्रद्धा अने ज्ञानमां पण न होय तो ते भावना कार्यकारी नथी.
‘सम्यग्द्रष्टिने नियमथी ज्ञान अने वैराग्यशक्ति होय छे; कारण के ते (सम्यग्द्रष्टि
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यथा परमौदासीन्यावस्थायां स्वपरविकल्पस्त्याज्यस्तथा व्रतविकल्पोऽपि । यतः —
टीका — अपुण्यमधर्मः अव्रतैर्हिंसादिविकल्पैः परिणतस्य भवति । पुण्यं धर्मो व्रतैः हिंसादिविरतिविकल्पैः परिणतस्य भवति । मोक्षः पुनस्तस्योः पुण्यापुण्ययोर्व्ययो विनाशो मोक्षः । यथैव जीव) स्वरूपनुं ग्रहण अने परनो त्याग करवानी विधि वडे पोताना वस्तुत्वनो (यथार्थ स्वरूपनो) अभ्यास करवा माटे ‘आ स्व छे (अर्थात् आत्मस्वरूप छे) अने आ पर छे’ एवो भेद परमार्थे जाणीने स्वमां रहे छे (टके छे) अने परथी रागना योगथी – सर्व प्रकारे विरमे छे.’’१
भेद – विज्ञाननी द्रढ भावनाथी अन्तरात्मा शरीरादि पर पदार्थो प्रत्ये उपेक्षाभाव सेवे छे. ८२.
जेम परम उदासीन अवस्थामां स्व – परनो विकल्प त्यागवा योग्य छे, तेम व्रतनो विकल्प पण (त्यागवा योग्य छे) कारण केः —
अन्वयार्थ : — (अव्रतैः) हिंसादि पांच अव्रतोथी (अपुण्यम्) अपुण्य थाय छे अने (व्रतैः) अहिंसादि व्रतोथी (पुण्यम्) पुण्य थाय छे. (तयोः) बंनेनो – पुण्य अने पापनो – (व्ययः) नाश ते (मोक्षः) मोक्ष छे; (ततः) तेथी (मोक्षार्थी) मोक्षना अभिलाषी पुरुषे (अव्रतानि इव) अव्रतोनी माफक (व्रतानि अपि) व्रतोनो पण (त्यजेत्) त्याग करवो.
टीका : — अव्रतोथी एटले हिंसादि विकल्पोथी परिणत (जीव)ने अपुण्य – अधर्म थाय छे अने व्रतोथी अर्थात् अहिंसादि विकल्पोथी परिणत (जीव)ने पुण्य – धर्म थाय छे. मोक्ष तो, ते बंनेनो एटले पुण्य अने अपुण्यनो व्यय एटले विनाश ते मोक्ष छे. जेम लोढानी सांकळ (बेडी) बंधनुं कारण छे (एटले तेनाथी बंध थाय छे), तेम सुवर्णनी सांकळ (बेडी) पण (बंधनुं कारण छे); माटे जेम बेउ सांकळना अभावे, व्यवहारमां मुक्ति (छूटकारो) छे, १. श्री समयसार – कलश १३६.
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हि लोहश्रृङ्खला बंधहेतुस्तथा । सुवर्णश्रृङ्खलाऽपि । अतो यथोभयश्रृंङ्खलाभावाद्व्यवहारे मुक्तिस्तथा परमार्थेऽपीति । ततस्तस्मात्मोक्षार्थी अव्रतानीव । इव शब्दो यथाऽर्थः यथाऽव्रतानि त्यजेत्तथा व्रतान्यपि ।।८३।।
कथं तानि त्यजेदिति तेषां त्यागक्रमं दर्शयन्नाह —
टीका — अव्रतानि हिंसादिनि प्रथमतः परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितो भवेत् । पश्चात्तान्यपि त्यजेत् । किं कृत्वा ? समप्राप्य । किं तत् ? परमं पदं परमवीतरागतालक्षणं क्षीणकषायगुणस्थानं । तेम परमार्थमां पण (पुण्य – पापना अभावे मोक्ष छे). तेथी मोक्षना अर्थीए अव्रतोनी जेम [इव शब्द यथाना अर्थमां छे] व्रतोने पण छोडवां.
भावार्थ : — मोक्षमार्गमां हिंसादि पांच अव्रतभावोनी जेम पांच अहिंसादि व्रतभावो पण बाधक छे, कारण के अव्रतभाव ते अशुभ भाव छे, ते पापबंधनुं कारण छे अने व्रतभाव ते शुभ भाव छे, ते पुण्यबंधनुं कारण छे; बंने बंधना कारण छे. पुण्य अने पाप ए बंनेनो नाश थाय त्यारे ज मुक्ति थाय छे. माटे मोक्षार्थीए लोढा अने सोनानी बेडीनी जेम अव्रतभावोनो तेम ज व्रतभावोनो पण त्याग करवो जोईए.१
पुण्य अने पाप – बंने विभाव परिणतिथी उपज्या होवाथी बंने बंधरूप ज छे; बंने संसारनुं कारण होई एकरूप ज छे. माटे मोक्षार्थीए तो ए बंनेनो त्याग करी शुद्धोपयोगनी निरंतर भावना भावी आत्मस्वरूपमां स्थिर थवानो प्रयत्न करवो योग्य छे. ८३.
ते केवी रीते तजवां तेनो त्याग – क्रम दर्शावी कहे छेः —
अन्वयार्थ : — (अव्रतानि) हिंसादिक पांच अव्रतोने (परित्यज्य) छोडीने (व्रतेषु) अहिंसादिक व्रतोमां (परिनिष्ठितः) निष्ठावान रहेवुं – अर्थात् तेनुं द्रढताथी पालन करवुं; पछी (आत्मनः) आत्माना (परमं पदं) परम वीतराग पदने (प्राप्य) प्राप्त करने (तानि अपि) १. जुओ – श्री समयसार – गाथा १४५ थी १५०.
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कस्य तत्पदं ? आत्मनः ।।८४।।
कुतोऽव्रत – व्रतविकल्पपरित्यागे परमपदप्राप्तिरित्याह —
ते व्रतोने (त्यजेत्) त्यजवां.
टीका : — प्रथम हिंसादि अव्रतोनो परित्याग करीने अव्रतोमां परिनिष्ठित थवुं. पछी तेनो पण त्याग करवो. शुं करीने? प्राप्त करीने. शुं (प्राप्त करीने)? परम पदने अर्थात् परम वीतरागतारूप क्षीणकषायगुणस्थान (प्राप्त करीने). कोना ते पदने? आत्माना.
भावार्थ : — अव्रत अशुभ भाव छे तथा व्रत शुभ भाव छे, बंने आस्रवो छे. ते बंने छोडवा योग्य छे तेवी श्रद्धा तो अन्तरात्माने छे, पण ते बंने एकी साथे छोडी शकातां नहि होवाथी ते प्रथम अशुभभावरूप अव्रतोने छोडी शुभभावरूप व्रतोमां अतन्मय भावे वर्ते छे. पछी पुरुषार्थ वधारी वीतराग पदनी प्राप्ति माटे आ शुभभावरूप व्रतोनो पण त्याग करे छे.
ज्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि शुद्धोपयोगरूप न परिणमे, त्यां सुधी तेने अशुभथी बचवा माटे पूजा, भक्ति, व्रत, तप, संयम, शीलादिना शुभ भाव आवे छे, परंतु तेमां तेने हेयबुद्धि वर्ते छे. तेने ते धर्म मानतो नथी.
सम्यक्त्व विना व्रतादिना शुभ विकल्पोने व्यवहारथी चारित्र नाम पण प्राप्त थतुं नथी, अर्थात् मिथ्याद्रष्टिना शुभ विकल्पोने तो व्यवहारथी पण चारित्र कहेता नथी, ते बाल व्रत, तपादि कहेवाय छे. तेवा शुभ विकल्पो संसारनुं कारण छे. मोक्षनुं कारण नथी, छतां कोई तेने मोक्षनुं परंपरा पण कारण माने तो ते तेनी मूलमां भूल छे. ८४.
अव्रत – व्रतना विकल्पनो परित्याग करतां परमपदनी प्राप्ति शी रीते थाय? ते कहे छेः —