Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 58-70.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 7 of 10

 

Page 92 of 170
PDF/HTML Page 121 of 199
single page version

नन्वेवमात्मतत्त्वं स्वयमनुभूय मूढात्मनां किमिति न प्रतिपाद्यते येन तेऽपि तज्जानन्त्विति वदन्तं प्रत्याह

अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा
मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रमः ।।५८।।

टीकामूढात्मानो मां आत्मस्वरूपमज्ञापितमप्रतिपादितं यथा न जानन्ति मूढात्मत्वात् तेनी क्रिया तुं करी शके छे एम माने छेए तारो भ्रम छे. ए भ्रम हवे छोडी दे अने तारा शरीरने सदा अनात्मबुद्धिए जो, एटले के ते पर छे एम जो; ते तुं छे एवी आत्मबुद्धिथी न जो. तारा आत्माने शरीरादिथी निरंतर भिन्न अनुभव करे, बंनेनी एकताबुद्धि छोडी दे. तुं तारा शरीरना संबंधमां जेवी भूल करे छे तेवी ज भूल बीजा जीवोना शरीरना संबंधमां पण करे छे. तुं तेमना शरीरने पण तेमनो आत्मा माने छे. माटे तेमना आत्माने पण तेमना शरीरथी भिन्न जाण. शरीरने शरीर जाण अने आत्माने आत्मा जाण.

‘स्वस्वरूपमां स्थिर थई ज्यां सुधी तुं स्वपरनुं भेदज्ञान करीश नहि त्यां सुधी शरीरादि पर पदार्थो साथे तारी आत्मबुद्धिएकताबुद्धिममत्वबुद्धिकर्ताबुद्धि थया वगर रहेशे नहि अने तारा दुःखनो अंत आवशे नहि. माटे बहिरात्मपणुं छोडी आत्मस्वरूपमां स्थिर था. ए ज सुखनो उपाय छे.’ ५७.

एवी रीते आत्मतत्त्वने स्वयं अनुभवीने मूढ आत्माओने केम समजावता नथी, जेथी तेओ पण ते जाणे? एवुं बोलनार प्रति कहे छेः

श्लोक ५८

अन्वयार्थ :ज्ञानीओ विचारे छे के(यथा) जेम (मूढात्मानः) मूर्ख अज्ञानी जीवो (अज्ञापितं) जाण कराव्या विना (मां) मने एटले मारा आत्मस्वरूपने (न जानन्ति) जाणता नथी, (तथा) तेम (ज्ञापितं) जाण कराव्या छतां पण (न जानन्ति) जाणता नथी (ततः) तेथी (तेषां) तेमनेए मूढ जीवोने(मे ज्ञापनश्रमः) बोध करवानो मारो परिश्रम (वृथा) व्यर्थ छेनिष्फळ छे.

टीका :जेम मूढ आत्माओ मने एटले आत्मस्वरूपने, वगर कह्ये (वगर

मूढात्मा जाणे नहीं वणबोध्ये ज्यम तत्त्व,
बोध्ये पण जाणे नहीं, फोगट बोधन-कष्ट. ५८.


Page 93 of 170
PDF/HTML Page 122 of 199
single page version

तथा ज्ञापितमपि मां ते मूढात्मत्वादेव न जानन्ति ततः तेषां सर्वथा परिज्ञानाभावात् तेषां मूढात्मनां सम्बंधित्वेन वृथा मे ज्ञापनश्रमो विफलो मे प्रतिपादनप्रयासः ।।५८।। समजाव्ये) मूढात्मपणाने लीधे जाणता नथी, तेम कह्यां छतां पण तेओ मने (आत्मस्वरूपने) मूढात्मपणाने लीधे ज जाणता नथी; तेथी तेमने सर्वथा परिज्ञाननो अभाव होवाथी ते मूढात्माओना संबंधमां बोध करवानो (तेमने कहेवानो) मारो श्रम वृथा (व्यर्थ) छे, अर्थात् तेमने ते स्वरूप समजाववानो मारो प्रयास विफल (फोगट) छे.

भावार्थ :आत्मानुभवी ज्ञानी जीव विचारे छे केजेम मूढ जीवो अज्ञानताने लीधे वगर समजाव्ये आत्मस्वरूप जाणता नथी, तेम तेमने आत्मस्वरूप समजाववामां आवे, तोपण तेओ मूढपणाने लीधे समजवाना नथी; तेथी तेमने आत्मस्वरूप समजाववानो प्रयत्न व्यर्थ छे; कारण के तेमनी बाबतमां समजावो के न समजावोबेउ सरखुं छे.

विशेष

ज्ञानीओ मूर्ख जीवोने आत्मस्वरूप समजाववामां उदासीन होय छे, कारण केः

(१) मूर्ख जीवो बहिर्मुख होय छे. तेमनी द्रष्टि बाह्य विषयो तरफ ज होय छे. तेमने आत्मस्वरूप जाणवानी बिलकुल जिज्ञासा के रुचि होती नथी. तेओ सदा विषयोमां ज रत होय छे.

(२) ‘हुं बीजाओने समजावी दउं’ एवी बुद्धि ज्ञानीओने होती नथी, कारण के तेओ जाणे छे के कोई कोईने समजावी शके नहि. तेमने बराबर ख्यालमां छे के दरेक पदार्थ पोतपोतानी मर्यादामां स्वयं परिणमे छे, कोई कोईने आधीन नथी. तेम कोई पदार्थ कोईनो परिणमाव्यो परिणमतो नथी. एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शकतुं नथी एवो विश्वनो अफर नियम छे. तेथी पर संबंधमां तेमने बिलकुल कर्ताबुद्धि नथी.

(३) अस्थिरताने लीधे ज्ञानीने बीजाने समजाववानो कदाच विकल्प ऊठे, पण अभिप्रायमां तेनो निषेध छे, कारण के भाषावर्गणानुं परिणमन विकल्पथी निरपेक्ष छे स्वतंत्र छे. विकल्पना कारणे उपदेश वाणी नीकळे छे एम तेओ कदी मानता नथी.

(४) मारुं स्वरूप तो जाणवुंदेखवुं ते ज छे. ए सिवाय हुं बीजुं कांई न करी शकुं. जो कांई करवानो विकल्प ऊठे तो राग उत्पन्न थाय. वाणीनो तो हुं कदी कर्ता छुं ज नहि अने वास्तवमां विकल्पनो पण कर्ता नथी. १. जुओमोक्षमार्ग प्रकाशकगु. आवृत्ति पृ. ९२; ३०८

श्री समयसारगु. आवृत्तिगा. १०३; ३७२.


Page 94 of 170
PDF/HTML Page 123 of 199
single page version

किंच

यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुनः
ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ।।५९।।

(५) चैतन्यस्वरूप स्वसंवेदनगम्य छे; वाणी के विकल्प द्वारा ते बीजाने समजावी शकाय तेवुं नथी.

माटे ज्ञानी मुख्यतया बीजाओने उपदेश देवानी प्रवृत्तिमां पडता नथी. तेओ तो सदा पोतानुं आत्महित साधवामां ज तत्पर रहे छे. कदाच उपदेशादिनी वृत्ति ऊठे तो तेनी मुख्यता नथी; ते वखते पण तेमने चैतन्यस्वरूपनी ज भावना होय छे.

परोपदेशनी प्रवृत्तिनो विकल्पए शुभ राग छे. ते आत्मस्वरूपनी प्राप्तिमां बाधारूप छे. माटे आ रागना व्यामोहमां पडी ज्ञानी कदी आत्महित भूलता नथी.

‘‘जगतमां जीवो, तेमना कर्म, तेमनी लब्धिओ, वगेरे अनेक प्रकारनां छे. तेथी सर्व जीवो समान विचारना थाय ते बनवुं असंभवित छे. माटे पर जीवोने समजावी देवानी आकुळता करवी योग्य नथी. स्वात्मावलंबनरूप निज हितमां प्रमाद न थाय एम रहेवुं ए ज कर्तव्य छे.’’ ५८.

वळीः

श्लोक ५९

अन्वयार्थ :(यत्) जेने विकल्पाधिरूढ आत्मस्वरूपने अथवा देहादिकने (बोधियितुं) समजाववाने (इच्छामि) हुं इच्छुं छुं (तत्) ते (न अहं) हुं नथी अर्थात् आत्मानुं वास्तविक स्वरूप नथी. (पुनः) वळी (यत्) जे एटले ज्ञानानंदमय स्वयं अनुभवगम्य आत्मस्वरूप (अहं) हुं छुं (तदपि), ते पण (अन्यस्य) बीजाने (ग्राह्यं न) ग्राह्य नथी; (तत्) तेथी (अन्यस्य) बीजाने (किं बोधये) हुं शो बोध करुं? १. छे जीव विधविध, कर्म विधविध, लब्धि छे विधविध, अरे!

ते कारणे निजपरसमय सह वाद परिहर्तव्य छे......(१५६) (श्री नियमसारगुज. गा. १५६)
जे इच्छुं छुं बोधवा, ते तो नहि ‘हुं’तत्त्व;
‘हुं’ छे ग्राह्य न अन्यने, शुं बोधुं हुं व्यर्थ? ५९.
१६


Page 95 of 170
PDF/HTML Page 124 of 199
single page version

टीकायद् विकल्पाधिरूढमात्मस्वरूपं देहादिकं वा बोधयितुं ज्ञापयितुमिच्छामि तन्नाहं तत्स्वरूपं नाहमात्मस्वरूपं परमार्थतो भवामि यदहं पुनः यत्पुनरहं चिदानन्दात्मकं स्वसंवेद्यमात्मस्वरूपं तदपि ग्राह्यं नान्यस्य स्वसंवेदनेन तदनुभूयते इत्यर्थः यत्किमन्यस्य बोधये तत्तस्मात्किं किमर्थं अन्यस्यात्मस्वरूपं बोधयेहम् ।।५९।।

टीका :जेनो, अर्थात् विकल्पाधिरूढ आत्मस्वरूपनो अथवा देहादिकनो हुं बोध कराववा इच्छुं छुंजेने समजाववा इच्छुं छुं, ते (तो) हुं नथी, अर्थात् ते (विकल्पाधिरूढ स्वरूप) हुं नथीपरमार्थे आत्मस्वरूप नथी. वळी जे हुं अर्थात् वळी जे हुं चिदानन्दमय स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप छुं; ते पण बीजाने स्वयंग्राह्य (समजाय तेवुं) नथी (केम के) ते स्वसंवेदनथी अनुभवाय छेएवो अर्थ छे. तो बीजाने हुं शो बोध करुं? अर्थात् तेथी बीजाने हुं शा माटे आत्मस्वरूपनो बोध करुं?

भावार्थ :मूढात्माने आत्मस्वरूपनो बोध आपवो व्यर्थ छे; कारण आपता ज्ञानी कहे छे केः

हुं बीजाओने शब्दो द्वारा आत्मस्वरूप समजाववा इच्छुं, तो विकल्पराग उत्पन्न थाय छे अने राग ते आत्मानुं शुद्ध स्वरूप नथी; अर्थात् शब्दो द्वारा आत्मानुं स्वरूप समजावी शकाय नहि.

वळी जे आत्मानुं वास्तविक शुद्ध स्वरूप छे ते बीजाने शब्दो द्वारा समजाय तेवुं नथी. ते तो केवळ स्वसंवेदनथी ज अनुभवमां आवे तेवुं छे. तेथी बीजाने तेनो बोध करवो व्यर्थ छे.

आत्मस्वरूप स्वसंवेदनगोचर छे. ते शब्दो द्वारा के विकल्प द्वारा बीजाने समजावी शकाय तेवुं नथी अने बीजाओ शब्दादि बाह्य साधनथी ते कदी समजी शके पण नहि. जेम में स्वसंवेदनथी आत्माने अनुभव्यो तेम बीजाओ पण ते स्वसंवेदनथी ज अनुभवी शके. माटे बीजाओने आत्मस्वरूपनो बोध आपवानो विकल्प छोडी स्वरूपमां सावधान रहेवुं ते ज योग्य छे. ५९. १. जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,

कही शक्या नहि पण ते श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्यवाणी ते शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.
(श्रीमद् राजचंद्रकृत ‘अपूर्व अवसर’२०)


Page 96 of 170
PDF/HTML Page 125 of 199
single page version

बोधितेऽपि चान्तस्तत्त्वे बहिरात्मनो न तत्रानुरागः सम्भवति मोहोदयात्तस्य बहिरर्थ एवानुरागादिति दर्शयन्नाह

बहिस्तुष्यति मूढात्मा पिहितज्योतिरन्तरे
तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा बहिर्व्यावृत्तकौतुकः ।।६०।।

टीकाबहिः शरीराद्यर्थे तुष्यति प्रीतिं करोति कोऽसौ ? मूढात्मा कथम्भूतः ? पिहितज्योतिर्मोहाभिभूतज्ञानः क्व ? अन्तरे अन्तस्तत्त्वविषये प्रबुद्धात्मा मोहानभिभूतज्ञानः अन्तस्तुष्यति स्वस्वरूपे प्रीतिं करोति किं विशिष्टः सन् ? बहिर्व्यावृत्तकौतुकः शरीरादौ निवृत्तानुरागः ।।६०।।

आत्मस्वरूपनो बोध आपवा छतां बहिरात्माने तेमां अनुराग संभवतो नथी; मोहना उदयथी तेने बाह्य पदार्थमां ज अनुराग होय छेएम दर्शावतां कहे छेः

श्लोक ६०

अन्वयार्थ :(अन्तरे पिहितज्योतिः) अंतरंगमां जेनी ज्ञानज्योति मोहथी आच्छादित थई गई तेवो (मूढात्मा) बहिरात्मा (बहिः) बाह्यमां एटले शरीरादि पर पदार्थोमां (तुष्यति) संतुष्ट रहे छेअनुराग करे छे; परंतु (प्रबुद्धात्मा) जेने स्वरूपविवेक जागृत थयो छे तेवो अन्तरात्मा (बहिर्व्यावृत्तकौतुकः) बाह्य शरीरादि पदार्थोमां कौतुक (अनुराग) रहित थई (अन्तः) अंतरंग आत्मस्वरूपमां (तुष्यति) संतोष करे छे.

टीका :बाह्यमां एटले शरीरादि पदार्थमां ते संतोष करे छेप्रीति करे छे. कोण ते? मूढात्मा (बहिरात्मा). ते केवो छे? जेनी ज्योति ढंकाई गई छे, अर्थात् मोहथी जेनुं ज्ञान पराभव पाम्युं छे. क्यां? अंतरंगमां एटले अर्न्ततत्त्वना विषयमां. प्रबुद्धात्मा एटले जेनुं ज्ञान मोहथी अभिभूत थयुं नथी (पराभव पाम्युं नथी) तेवो (आत्मस्वरूपमां जागृत) आत्मा, अंतरंगमां संतोष करे छेस्वस्वरूपमां प्रीति करे छे, केवो थईने? बाह्यमां कौतुकरहित थईनेशरीरादिमां अनुरागरहित थईने (आत्मस्वरूपमां प्रीति करे छे).

भावार्थ :ज्ञानीने प्रश्न पूछेलो के, ‘तमे बहिरात्माने आत्मस्वरूपनो बोध केम करता नथी? तेना प्रत्युत्तरमां एम कह्युं केः

अंतर्ज्ञान न जेहने, मूढ बाह्यमां तुष्ट;
कौतुक जस नहि बाह्यमां, बुध अंतःसंतुष्ट. ६०.


Page 97 of 170
PDF/HTML Page 126 of 199
single page version

कुतोऽसौ शरीरादिविषये निवृत्तभूषणमण्डनादिकौतुक इत्याह

न जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्ध्यः
निग्रहानुग्रहधियं तथाप्यत्रैव कुर्वते ।।६१।।

(१) बहिरात्माओ वस्तुस्वरूपथी तद्दन अज्ञात छे. तेओ एटला मूढ छे के तेमने बोध करो के न करो, तेमने माटे बधुं सरखुं छे. (जुओः श्लोक ५८)

(२) आत्मस्वरूप स्वसंवेदनगम्य छे. ते शब्दो द्वारा बीजाने समजावी शकाय नहि अने ते समजे पण नहि, एटले तेमने बोध करवो व्यर्थ छे. (जुओः श्लोक ५९)

(३) आ श्लोक ६०मां कह्युं छेः

अनादि मिथ्यात्वने लीधे बहिरात्माने स्वपरनुं भेदविज्ञान नथी, तेने आत्मस्वरूपनुं भान नथी; तेथी ते शरीरादि बाह्य पदार्थोमां ज आनंद माने छे, तेमां ज अनुराग करे छे, पण आत्मस्वरूपनो महिमा लावी तेमां प्रीति करतो नथी. तेनुं कारण अविद्याना गाढ संस्कारथी तेनुं ज्ञान मूर्च्छाई गयुं छे, आच्छादित थई गयुं छे; ते छे.

अन्तरात्माने विवेकज्योति प्रगट थई छे, तेथी तेने शरीरादि बाह्य पदार्थोमां प्रीति नथी. तेमां तेने क्यांय सुख भासतुं नथी. ते तरफ ते बहु उदासीन रहे छे. ते त्यांथी हठी स्वसन्मुख थई आत्मस्वरूपमां स्थित थवा माटे सदा प्रयत्नशील छे. ज्यां एने आवी ज्ञानदशा वर्तती होय, त्यां बीजाओने बोध देवानुं तेने केम गमे? न ज गमे. ६०.

कया कारणे ते (अन्तरात्मा) शरीरादि विषयमां भूषणमंडनादिमां अनुरागरहित (उदासीन) होय छे? ते कहे छेः

श्लोक ६१

अन्वयार्थ :अन्तरात्मा विचारे छे के(शरीराणि) शरीरो (सुखदुःखानि न जानन्ति) सुख तथा दुःखने जाणतां नथी. (तथापि) तेम छतां (अबुद्ध्यः) मूढ जीवो (अत्र एव) एमां ज एटले ए शरीरोमां ज (निग्रहानुग्रहधियं) निग्रह अने अनुग्रहनी बुद्धि (कुर्वते) करे छे.

तन सुख-दुख जाणे नहीं, तथापि ए तनमांय,
निग्रह ने अनुग्रह तणी बुद्धि अबुधने थाय. ६१.


Page 98 of 170
PDF/HTML Page 127 of 199
single page version

टीकासुखदुःखानि न जानन्ति कानि ? शरीराणि जडत्वात् अबुद्ध्यो बहिरात्मनः तथापि यद्यपि न जानन्ति तथापि अत्रैव शरीरादावेव कुर्वते कां ? निग्रहानुग्रहधियं द्वेषवशादुपवासादिना शरीरादेः कदर्थनाभिप्रायो निग्रहबुद्धिं रागवशात्कटकटिसूत्रादिना भूषणाभिप्रायोऽनुग्रहबुद्धिम् ।।६१।।

टीका :सुख दुःख जाणतां नथी. कोण (जाणतां नथी)? शरीरो जडपणाने लीधे (जाणतां नथी); बुद्धि विनाना बहिरात्माओ, तेम छतां अर्थात् (शरीरो) जाणतां नथी तेम छतां, एमां ज एटले शरीरादिमां ज करे छे. शुं (करे छे)? निग्रहअनुग्रहनी बुद्धि (करे छे)अर्थात् द्वेषने आधीन थई उपवासादि द्वारा शरीरादिने कृश करवानो अभिप्राय ते निग्रहबुद्धि अने रागने आधीन थई कंकण, कटिसूत्रादि वडे (शरीरादिने) भूषित करवानो (शणगारवानो) अभिप्राय ते अनुग्रहबुद्धि (करे छे).

भावार्थ :शरीरो अचेतनजड छे. तेमने सुखदुःख नथी, तेम ज तेमने ज्ञान नथी; तेम छतां बुद्धि विनाना बहिरात्माओ द्वेषवश उपवासादि द्वारा तेमने (शरीरोने) निग्रह करवानी अर्थात् कृश करवानी बुद्धि करे छे अने रागवश तेमने कंकण, कटिसूत्र (कंदोरो) आदि वडे विभूषित करी अनुग्रह (कृपा) करवानी बुद्धि करे छे.

बहिरात्माने देहाध्यास छे एटले देहमां तेने आत्मबुद्धि छे; तेथी तेने शरीरादि विषे निग्रहअनुग्रह बुद्धि रहे छे, परंतु अन्तरात्माने भेदज्ञान वर्ते छे. ते आत्माने शरीरादिथी अत्यंत भिन्न माने छे. तेने तेनी साथे एकताबुद्धि नथी, तेथी तेने शरीरादि विषे रागद्वेष के अनुग्रहनिग्रहबुद्धिनो श्रद्धामां अभाव होय छे. अस्थिरताने लीधे शरीरादि शणगारवानो राग आवे, पण अभिप्रायमां तेनो स्वीकार नथी, तेने ते दोष माने छे, एटले ते शरीरादि पर पदार्थो प्रत्ये उदासीन होय छे.

विशेष

अज्ञानीओ माने छे के शरीराश्रित उपवास, व्रत, नियमादिथी शरीरने कृश करतां इन्द्रियोनो निग्रह थाय छे, विषयोमां तेमनी प्रवृत्ति अटकी जाय छे अने तेथी रागद्वेषादि थतां नथी; पण आ मान्यता भूल भरेली छे, कारण के शरीराश्रित उपवास करवा, पंचाग्नि तप करवुं, मौन राखवुं, ताटक करवुं, अनेक योगआसनो करवां वगेरे पौद्गलिक जड १. जुओः ‘शरीराश्रित उपवासादि माटे ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक’ गु. आवृत्ति पृ. २३५ अने २४५.

(‘‘.....जो देहाश्रित व्रतसंयमने पण पोतानां माने (अर्थात् पोताने तेनो कर्ता माने) तो ते मिथ्याद्रष्टि
छे......’’) पृ. ३४४.


Page 99 of 170
PDF/HTML Page 128 of 199
single page version

यावच्च शरीरादावात्मबुद्ध्या प्रवृत्तिस्तावत्संसारः तदभावान्मुक्तिरिति दर्शयन्नाह

स्वबुद्ध्या यावद्गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम्
संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृत्तिः ।।६२।।

टीकास्वबुद्ध्या आत्मबुद्ध्या यावद् गृहणीयात् किं ? त्रयम् केषाम् ? कायवाक्चेतसां सम्बन्धमिति पाठः तत्र कायवाक्चेतसां त्रयं कर्तृ आत्मनि यावत्सम्बन्धं गृह्णीयत्स्वीकुर्यादित्यर्थः तावत्संसारः एतेषां कायवाक्चेतसां भेदाभ्यासे तु आत्मनः सकाशात् क्रियाओ छे. तेनो संबंध शरीर साथे छे, आत्मा साथे नथी. शरीर जड छे. तेने सुख दुःख होतुं नथी. अज्ञानीने शरीर साथे एकताबुद्धि छे, तेथी ते शरीरनी जे अवस्थाओ थाय छे ते पोतानी (आत्मानी) थई माने छे, ए तेनो भ्रम छे.

वळी अज्ञानी मोहवशात् वस्त्रआभूषणादि द्वारा शरीर उपर अनुग्रह (उपकार) करवानी बुद्धि करे छे, कारण के तेने देहाध्यास छेशरीरमां तेने आत्मबुद्धि छे, एटले तेना प्रत्ये रागना कारणे तेवो अनुग्रह करवा इच्छे छे, परंतु आ पण तेनो भ्रम छे.

माटे शरीर विषे निग्रहअनुग्रहबुद्धि करवी ते अज्ञानता छे. ६१.

ज्यां सुधी शरीरादिमां आत्मबुद्धिथी प्रवृत्ति छे, त्यां सुधी संसार छे. तेना अभावे मुक्ति छे. ते दर्शावतां कहे छेः

श्लोक ६२

अन्वयार्थ :(यावत्) ज्यां सुधी (कायवाक्चेतसां त्रयं) शरीर, वचन अने मन ए त्रणने जीव (स्वबुद्ध्या) आत्मबुद्धिथी (गृह्णीयात्) ग्रहण करे, (तावत्) त्यां सुधी (संसारः) संसार छे, (तु) परंतु (एतेषां) ए मनवचनकायनो (भेदाभ्यासे) आत्माथी भिन्नरूप अभ्यास थतां (निर्वृत्तिः) मुक्ति थाय छे.

टीका :स्वबुद्धिथी एटले आत्मबुद्धिथी ज्यां सुधी ग्रहण करे, शुं (ग्रहण करे)? त्रयने (त्रणने). कोना (त्रयने)? काय, वाणी अने मनना त्रयनेअर्थात् ज्यां सुधी आत्मा विषे कायवाणीमननो संबंध ग्रहण करेस्वीकार करे, एवो अर्थ छेत्यां सुधी संसार छे,

ज्यां लगी मन-वच-कायने आतमरूप मनाय,
त्यां लगी छे संसार ने भेद थकी शिव थाय. ६२.


Page 100 of 170
PDF/HTML Page 129 of 199
single page version

कायवाक्चेतांसि भिन्नानीति भेदाभ्यासे भेदभावनायां तु पुनर्निर्वृत्तिः मुक्तिः ।।६२।। पण ए कायवाणीमनना भेदनो अभ्यास थतां अर्थात् आत्माथी कायवाणीमन भिन्न छे. एवो भेदनो अभ्यास थतां एटले भेदभावना थतां निर्वृत्ति एटले मुक्ति थाय छे.

भावार्थ :ज्यां सुधी जीवने मनवचनकायमां आत्मबुद्धि रहे छे, तेने आत्माना अंग समजे छे एटले के तेनी साथे अभेदबुद्धिएकताबुद्धि करे छे, त्यां सुधी ते संसारमां परिभ्रमण करतो रहे छे, परंतु ज्यारे तेने मनवचनकायमां आत्मबुद्धिनो भ्रम टळी जाय छे, अर्थात् ते त्रणे ‘आत्माथी भिन्न छे’ एवो निश्चयपूर्वक अनुभवनो अभ्यास थाय छे, त्यारे ते संसारना बंधनथी मुक्ति पामे छे.

विशेष

ज्यां शरीरादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि छे त्यां एकताबुद्धि छे. ज्यां एकताबुद्धि होय छे, त्यां कर्ताभोक्ताबुद्धि अवश्य होय छे अने ज्यां कर्ताबुद्धि छे, त्यां संसारना कारणभूत रागादि भाव अनिवार्यपणे होय छे. ए रीते शरीरादि पर पदार्थोमां आत्म बुद्धि ते ज संसारनुं कारण छे अने आत्मा तथा शरीरादिनो भेदविज्ञानपूर्वक द्रढ अभ्यास ते मुक्तिनुं कारण छे.

मनवचनकायनी प्रवृत्ति ए संसारनुं कारण नथी, कारण के ते जडनी क्रिया छे, परंतु तेमां आत्मबुद्धिएकताबुद्धि करवी ते संसारनुं कारण छे. प्रस्तुत श्लोकमां ‘स्वबुद्ध्या’ शब्दथी आ वात सूचित थाय छे.

‘‘कर्मबंध करनारुं कारण नथी, बहु कर्मयोग्य पुद्गलोथी भरेलो लोक, नथी चलन स्वरूप कर्म (अर्थात् कायवचनमननी क्रियारूप योग), नथी अनेक प्रकारनां कारणो के नथी चेतनअचेतननो घात. ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक साथे जे ऐक्य पामे छे ते ज एक (मात्र रागादिक साथे एकपणुं पामवुं ते ज) खरेखर पुरुषोने बंधनुं कारण छे.’’

माटे शरीरादिनी क्रियामां आत्मबुद्धि अर्थात् ते क्रियाओ हुं करुं छुं एवी मान्यता ते संसारनुं कारण छे अने ते क्रियाओमां आत्मबुद्धि अर्थात् कर्ताबुद्धिनो अभाव ते मोक्षनुं कारण छे. ६२. १. जुओश्री समयसार कलश १६४ अने गा. २३७ थी २४१.


Page 101 of 170
PDF/HTML Page 130 of 199
single page version

शरीरदावात्मनो भेदाभ्यासे च शरीरदृढतादौ नात्मनो दृढतादिकं मन्यते इति दर्शयन् धनेत्यादि श्लोकचतुष्टयमाह

घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा
घने स्वदेहेप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः ।।६३।।

‘‘शरीरादिमां आत्मानो भेदाभ्यास थतां, ते (अन्तरात्मा) शरीरनी द्रढतादि थतां आत्मानी द्रढतादिक मानतो नथी,’’ एम बतावी ‘घन’ इत्यादि चार श्लोक कहे छेः

श्लोक ६३

अन्वयार्थ :(यथा) जेवी रीते (घने वस्त्रे) जाडुं वस्त्र पहेरवाथी (बुधः) बुद्धिमान पुरुष (आत्मानं) पोताने एटले पोताना शरीरने (घनं) जाडोपुष्ट (न मन्यते) मानतो नथी, (तथा) तेवी रीते (स्वदेहे अपि घने) पोतानुं शरीर जाडुंपुष्ट थवा छतां, (बुधः) अन्तरात्मा (आत्मानं) आत्माने (घनं न मन्यते) जाडोपुष्ट मानतो नथी.

टीका :घन एटले गाढुं (जाडुं) वस्त्र पहेरवाथी, जेम बुध (डाह्यो पुरुष) पोताने (शरीरने) जाडोपुष्ट मानतो नथी, तेम पोतानुं शरीर जाडुंपुष्ट थवा छतां बुध (अन्तरात्मा) आत्माने जाडोपुष्ट मानतो नथी.

भावार्थ :जेम जाडुं वस्त्र पहेरवाथी, डाह्यो माणस, पोताने जाडो थयेलो मानतो नथी, तेम शरीर जाडुं थतां, आत्मा जाडो थयो, एम अन्तरात्मा कदी मानतो नथी.

जेम शरीर अने वस्त्र भिन्न भिन्न छे, तेम शरीर अने आत्मा पण एकबीजाथी भिन्न छे. आम छतां देहमां आत्मबुद्धिने लीधे अज्ञानी जीव शरीरनी पुष्टिथी आत्मानी पुष्टि माने छे; आ भ्रान्तिथी ते सारा खोराकादिथी शरीरने पुष्ट करवानी बुद्धि करे छे; परंतु ज्ञानी ते बाबतमां उदासीन रहे छे, कारण के ते शरीरनी पुष्टिथी आत्मानी पुष्टि कदी मानतो नथी. तेने शरीर अने आत्माबंनेनुं भेदज्ञान वर्ते छे; तेथी ते सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रथी ज पोताना आत्मानी पुष्टि माने छे. ६३.

स्थूल वस्त्रथी जे रीते स्थूल गणे न शरीर,
पुष्ट देहथी ज्ञानीजन पुष्ट न माने जीव. ६३.


Page 102 of 170
PDF/HTML Page 131 of 199
single page version

टीकाघने निविडावयवे वस्त्रे प्रावृते सति आत्मानं घन दृढावयवं यथा बुधो न मन्यते तथा स्वदेहेऽपि घने दृढे आत्मानं घनं दृढं बुधो न मन्यते ।।६३।।

जीर्णे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न जीर्णं मन्यते तथा
जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्णं मन्यते बुधः ।।६४।।

टीकाजीर्णे पुराणे वस्त्रे प्रावृते यथाऽऽत्मानं बुधो जीर्णे न मन्यते तथा जीर्णें वृद्धे स्वदेहेऽपि स्थितमात्मानं न जीर्णं वृद्धमात्मानं मन्यते बुधः ।।६४।।

श्लोक ६४

अन्वयार्थ :(यथा) जेवी रीते (वस्त्रे जीर्णे) पहेरेलुं वस्त्र जीर्ण थतां (बुधः) बुद्धिमान पुरुष (आत्मानं) पोताने एटले पोताना शरीरने (जीर्ण न मन्यते) जीर्ण मानतो नथी, (तथा) तेवी रीते (स्वदेहे अपि जीर्णे) पोतानुं शरीर जीर्ण थतां पण (बुधः) अन्तरात्मा (आत्मानं) (जीर्ण न मन्यते) जीर्ण मानतो नथी.

टीका :जीर्ण अर्थात् पुराणुं वस्त्र पहेरवा छतां, जेम बुध (डाह्यो माणस) पोताने (पोताना शरीरने) जीर्ण मानतो नथी, तेम पोतानो देह जीर्णवृद्ध थवा छतां, ते अन्तरात्मा (शरीरमां) रहेला आत्माने जीर्णवृद्ध मानतो नथी.

भावार्थ :जेम पहेरेलुं वस्त्र जीर्ण थवा छतां, डाह्यो माणस पोताना शरीरने जीर्ण थयेलुं मानतो नथी, तेम अन्तरात्मा शरीर जीर्ण थतां, पोताना आत्माने जीर्ण मानतो नथी.

जेम वस्त्र अने शरीर भिन्न भिन्न छे, एकना परिणमनथी बीजानुं परिणमन थतुं नथी, तेम शरीर अने आत्मा एकबीजाथी भिन्न होई शरीरना जीर्णरूप परिणमनथी आत्मानुं जीर्णरूप परिणमन थतुं नथी.

विशेष

शरीर जीर्ण होय; रोगग्रस्त होय, छतां जीव आत्महित करी शके छे एम ज्ञानी

जिण्णिं वत्थिं जेम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु
देहिं जिण्णिं णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ।।(२-१७९)
परमात्मप्रकाश, योगीन्दुदेवः
जीर्ण वस्त्रथी जे रीते जीर्ण गणे न शरीर,
जीर्ण देहथी ज्ञानीजन जीर्ण न माने जीव. ६४.
१७


Page 103 of 170
PDF/HTML Page 132 of 199
single page version

नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न नष्टं मन्यते तथा
नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ।।६५।।

टीकाप्रावृत्ते वस्त्रे नष्टे सति आत्मानं यथा नष्टं बुधो न मन्यते तथा स्वदेहेऽपि विनष्टे कुतश्चित्कारणाद्विनाशं गते आत्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ।।६५।। जाणे छे अने माने छे; तेथी शरीरनी प्रतिकूळतामां पण तेनी आत्मप्रवृत्ति चालु ज होय छे.

अज्ञानीने शरीर साथे एकताबुद्धि होवाथी शरीरनी प्रतिकूळतामां ते आत्महित माटे पोताने असमर्थ समजे छे. ते तो एम ज माने छे के शरीर स्वस्थ होयनीरोगी होय तो ज धर्म थाय, जीर्ण के रोगग्रस्त शरीरे धर्म न थाय. ए एनो भ्रम छे. ६४.

श्लोक ६५

अन्वयार्थ :(यथा) जेवी रीते (वस्त्रे नष्टे) वस्त्रनो नाश थतां (बुधः) बुद्धिमान पुरुष (आत्मानं) पोताने एटले पोताना शरीरने (नष्टं न मन्यते) नाश थयेलुं मानतो नथी, (तथा) तेवी रीते (बुधः) अन्तरात्मा (स्वदेहे अपि नष्टे) पोताना देहनो नाश थवा छतां (आत्मानं) (नष्टं न मन्यते) नाश थयेलो मानतो नथी.

टीका :जेम पहेरेलुं वस्त्र नाश पामवा छतां, डाह्यो पुरुष पोतानो (पोताना शरीरनो) नाश मानतो नथी, तेम पोतानो देह नाश पामतां अर्थात् कोई कारणे तेनो विनाश थतां, अन्तरात्मा आत्माने नाश थयेलो मानतो नथी.

भावार्थ :जेम पहेरेलुं वस्त्र नाश पामतां, डाह्यो माणस पोताना शरीरने नाश थयेलुं मानतो नथी, तेम शरीर नाश पामतां अंतरात्मा पोताना आत्माने नाश पामेलो मानतो नथी.

जेम वस्त्र अने शरीर भिन्न भिन्न छे, तेम शरीर अने आत्मा पण एकबीजाथी भिन्न छे.

वत्थु पणट्ठइ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णट्ठु
णट्ठु देहे णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ णट्ठु ।।२-१८०।।परमात्मप्रकाशे. योगीन्दुदेवः
वस्त्रनाशथी जे रीते नष्ट गणे न शरीर,
देहनाशथी ज्ञानीजन नष्ट न माने जीव. ६५.


Page 104 of 170
PDF/HTML Page 133 of 199
single page version

रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा
रक्ते स्वदेहेप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुधः ।।६६।।

शरीर अने आत्मानो संयोग संबंध छे, छतां अज्ञानीने ते बंनेनी एकताबुद्धि होवाथी ते शरीरना वियोगथी (नाशथी) पोताना आत्मानो नाश माने छे अने तेना संयोगथी पोताना आत्मानी उत्पत्ति माने छे. कह्युं छे केः

‘तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश जान.’

मिथ्याद्रष्टि शरीरनी उत्पत्तिने आत्मानो जन्म माने छे अने शरीरना नाशने आत्मानो नाश माने छे.

विशेष

शरीरमां आत्मबुद्धि होवाथी तेने आवी ऊंधी मान्यता होय छे. परना शरीर संबंधी पण तेने आवो ज भ्रम होय छे. स्त्री के पुत्रना शरीरनो नाश थतां, तेना आत्मानो नाश मानी ते दुःखी थाय छे.

‘‘......जेम कोई नवीन वस्त्र पहेरे, केटलोक काळ ते रहे, ते पछी तेने छोडी कोई अन्य नवीन वस्त्र पहेरे, तेम जीव पण नवीन शरीर धारण करे, ते केटलोक काळ धारण करी रहे पछी तेने पण छोडी अन्य नवीन शरीर धारण करे छे. माटे शरीर संबंधनी अपेक्षाए, जन्मादिक छे. जीव पोते जन्मादिक रहित नित्य छे, तो पण मोही जीवने भूत भविष्यनो विचार न होवाथी पर्यायमात्र ज पोतानुं अस्तित्व मानी पर्याय संबंधी कार्योमां ज तत्पर रह्या करे छे.....’’

ज्ञानीने शरीर अने आत्मानुं भेदज्ञान छे, तेथी शरीरना नाश वखते व्याकुल थतो नथी. कदाचित् अस्थिरताने लीधे अल्प व्याकुलता थाय, पण श्रद्धा अने ज्ञानमां ते एवो द्रढ छे के शरीरना नाशथी आत्मानो नाश कदी मानतो नथी अने आकुलतानो स्वामी थतो नथी. ६५.

रत्तें वत्थें जेम बुहु देहु ण मण्णइरत्तु
देहिं रत्तिं णाणि तहँ अप्पुण मण्णइ रत्तु ।। (२-१७८)परमात्मप्रकाश योगीन्दुदेवः

१. जुओश्री दौलतरामजी कृत ‘छहढाला’//५. २.मोक्षमार्ग प्रकाशकगु. आवृत्ति पृ. ४७.

रक्त वस्त्रथी जे रीते रक्त गणे न शरीर,
रक्त देहथी ज्ञानीजन रक्त न माने जीव. ६६.


Page 105 of 170
PDF/HTML Page 134 of 199
single page version

टीकारक्ते वस्त्रे प्रावृते सति आत्मानं यथा बुधो न रक्तं मन्यते तथा स्वदेहेऽपि कुंकुमादिना रक्ते आत्मानं रक्तं न मन्यते बुधः ।।६६।।

एवं शरीरादिभिन्नमात्मानं भावयतोऽन्तरात्मनः शरीरादेः काष्ठादिना तुल्यताप्रतिभासे मुक्तियोग्यता भवतीति दर्शयन्नाह

श्लोक ६६

अन्वयार्थ :(यथा) जेवी रीते (वस्त्रे रक्ते) पहेरेलुं वस्त्र लाल होवा छतां (बुधः) डाह्यो माणस (आत्मानं) पोतानेपोताना शरीरने (रक्तं न मन्यते) लाल मानतो नथी, (तथा) तेवी रीते (स्वदेहे अपि रक्ते) पोतानुं शरीर लाल होवा छतां (बुधः) अन्तरात्मा (आत्मानं) आत्माने (रक्तं न मन्यते) लाल मानतो नथी.

टीका :जेम लाल वस्त्र पहेरवा छतां, डाह्यो पुरुष पोताने (पोताना शरीरने) लाल मानतो नथी, तेम पोतानो देह कुंकुमादिथी लाल थवा छतां अन्तरात्मा आत्माने लाल मानतो नथी.

भावार्थ :जेम पहेरेला लाल वस्त्रथी शरीर लाल थतुं नथी, तेम पोतानुं शरीर कुंकुमादिथी लाल थतां, आत्मा कांई लाल वर्णनो थतो नथी.

जेम लाल वस्त्र अने शरीर भिन्न भिन्न छे, तेम लाल वर्णवाळुं शरीर अने आत्मा पण भिन्न भिन्न छे.

आत्मा रस, वर्ण, गंध अने स्पर्श रहित छे, छतां शरीर साथे एकताबुद्धि होवाने लीधे, अज्ञानी शरीरनो जेवो वर्ण होय तेवा वर्णनो आत्माने (पोताने) पण मानी राग द्वेष करे छे.

ज्ञानीने आत्मस्वरूपनुं भान छे, तेथी तेने शरीरना कोई पण वर्णथी रागद्वेष थतो नथीअर्थात् पोतानुं के परनुं सुंदर वर्णवाळुं शरीर जोईने ते खुश थतो नथी के अणगमता वर्णवाळुं शरीर जोईने नाखुश थतो नथी, ते जाणे छे के रूप, रस, गंधादि पुद्गलना धर्म छे, आत्माना धर्म नथी. आत्मा तो निरंजन, निराकार, अरूपी, अतीन्द्रिय अने स्वसंवेदन गम्य छे. ६६.

ए रीते शरीरादिथी भिन्न आत्मानी भावना करनार अंतरात्माने, शरीरादि काष्ठादि समान प्रतिभासतां, मुक्तिनी योग्यता थाय छेएम बतावीने कहे छेः १. नथी वर्ण जीवने, गंध नहि, नहि स्पर्श, रस जीवने नहीं,

नहि रूप के न शरीर, न संस्थान संहनने नहीं. (५०)
श्री समयसारगु. आवृत्तिगा. ५०


Page 106 of 170
PDF/HTML Page 135 of 199
single page version

यस्य सस्पन्दमाभाति निःस्पन्देन समं जगत्
अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतरः ।।६७।।

टीकायस्मात्मनः सस्पन्दं परिस्पन्दसमन्वितं शरीरादिरूपं जगत् आभाति प्रतिभासते कथम्भूतं ? निःस्पन्देन समं निःसपन्देन काष्ठपाषाणादिना समं तुल्यं कुत स्तेन तत्समं ? अग्रज्ञं जडमचेतनं यतः तथा अक्रियाभोगं क्रियापदार्थपरिस्थितिः भोगः सुखाद्यनुभवः तौ न विद्येते यत्र यस्यैवं तत्प्रतिभासते स किं करोति ? स शमं याति शमं परमवीतरागतां संसारभोगदेहोपरि वा वैराग्यं गच्छति कथम्भूतं शमं ? अक्रियाभोगमित्येतदत्रापि सम्बंधनीयम् क्रिया वाक्कायमनोव्यापारः भोग इन्द्रियप्रणालिकया विषयानुभवनं विषयोत्सवः तौ न विद्येते यत्र

श्लोक ६७

अन्वयार्थ :(यस्य) जेने एटले जे ज्ञानी पुरुषने (सस्पन्दं जगत्) क्रियाओ चेष्टाओ करतुं (शरीरादिरूप) जगत (निःस्पन्देन समं) निःश्चेष्ट काष्ठपाषाणादि समान (अप्रज्ञं) चेतनारहित जड अने (अक्रियाभोगं) क्रिया अने सुखादि अनुभवरूप भोगथी रहित (आभाति) मालूम पडे छे, (सः) ते (अक्रियाभोगं शमं याति) मनवचनकायानी क्रियानी तथा इन्द्रियविषयभोगथी रहित एवा परम वीतरागतारूप शान्तिसुखने पामे छे; (इतरः न) बीजो कोई अर्थात् तेनाथी विलक्षण बहिरात्मा जीव उपरोक्त शान्तिसुखने पामतो नथी.

टीका :जे आत्माने (ज्ञानी आत्माने) सस्पंद एटले परिस्पन्दयुक्त (अनेक क्रियाओ करतुं) शरीरादिरूप जगत् लागे छेप्रतिभासे छे, केवुं (जगत)? निःस्पन्द (निश्चेष्ट) समान, अर्थात् काष्ठपाषाणादि समान एटले तुल्य निःस्पन्द (निश्चेष्ट). शाथी ते समान (भासे छे)? कारण के ते चेतनारहित जडअचेतन छे तथा अक्रियाभोग अर्थात् क्रिया एटले पदार्थोनी परिणति अने भोग एटले सुखादि अनुभवए बंनेनो जेमां अभाव छे, एवुं ते (जगत्) जेने प्रतिभासे छे ते शुं करे छे? ते शांति पामे छे, अर्थात् शम एटले परम वीतरागता अथवा संसार, भोग अने देह उपर वैराग्यतेने पामे छे. केवी शान्ति? अहीं पण तेनी (शमनी) साथे अक्रियाभोगनो संबंध लेवो. क्रिया एटले वाणी, काय अने मननो व्यापार अने भोग एटले इन्द्रियोनी प्रणालिकाथी (इन्द्रियोद्वारा) विषयोनुं अनुभवन एटले विषयोत्सवते बंने जेमां विद्यमान न होय एवी शान्तिने पामे छे. बीजो कोई नहि, अर्थात्

सक्रिय जग जेने दीसे जड अक्रिय अणभोग,
ते ज लहे छे प्रशमने, अन्ये नहि तद्योग. ६७.


Page 107 of 170
PDF/HTML Page 136 of 199
single page version

तमित्थंभूतं शमं स याति नेतरः तद्विलक्षणो बहिरात्मा ।।६७।।

सोप्येवं शरीरादिभिन्नमात्मानं किमिति न प्रतिपद्यत इत्याह

शरीरकंचुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रहः
नात्मानं बुध्यते तस्माद्भ्रमत्यतिचिरं भवे ।।६८।।

टीकाशरीरमेव कंचुकं तेन संवृतः सम्यक् प्रच्छादितो ज्ञानमेव विग्रहः स्वरूपं यस्य तेनाथी विपरीत लक्षणवाळो बहिरात्मा (तेवी शान्ति पामी शकतो नथी.)

भावार्थ :जेने शरीरादिरूप जगत् काष्टपाषाणादि तुल्य अचेतनजड अने निश्चेष्ट भासे छे, अर्थात् परिणमनरूप क्रियाथी अने सुखादि अनुभवरूप भोगथी रहित प्रतिभासे छे, ते एवी परम वीतरागतारूप शान्तिने पामे छे, के जेमां मनवचनकायनी प्रवृत्तिनो तथा इन्द्रियोना विषयभोगनो अभाव होय छे. अज्ञानी बहिरात्मा आवी शान्ति पामतो नथी.

जे समये अन्तरात्मा आत्मस्वरूपनी भावना करतां करतां स्वरूपमां स्थिर थई जाय छे, ते समये तेने आ जडक्रियात्मकप्रवृत्तिमय जगत् तरफनुं लक्ष छूटी जाय छे अने ते परम वीतरागताने प्राप्त थई निर्विकल्प निराकुल आनंद अनुभवे छे. ६७.

ते (बहिरात्मा) पण एवी रीते शरीरादिथी भिन्न आत्माने केम प्राप्त करतो (जाणतो) नथी? ते कहे छेः

श्लोक ६८

अन्वयार्थ :(शरीरकंचुकेन) शरीररूपी कांचळीथी (संवृतज्ञानविग्रहः आत्मा) जेनुं ज्ञानरूपी शरीर ढंकायेलुं छे ते बहिरात्मा (आत्मानं) आत्माना यथार्थ स्वरूपने (न बुध्यते) जाणतो नथी; (तस्मात्) तेथी (अतिचिरं) बहु लांबा काळ सुधी (भवे) संसारमां ते (भ्रमति) भमे छे.

टीका :शरीर ते ज कंचुक (कांचळी)तेनाथी ढंकायेलुं एटले सारी रीते आच्छादित थयेलुं ज्ञानरूपी शरीर अर्थात् स्वरूप जेनुं, [अहीं शरीर सामान्यनुं ग्रहण करवा छतां कार्मण

तनकंचुकथी जेहनुं संवृत ज्ञानशरीर,
ते जाणे नहि आत्मने, भवमां भमे सुचिर. ६८.


Page 108 of 170
PDF/HTML Page 137 of 199
single page version

शरीरसामान्योपादानेऽप्यत्र कार्मणशरीरमेव गृह्यते तस्यैव मुख्यवृत्त्या तदावरकत्वोपपत्तेः इत्थंभूतो बहिरात्मा नात्मानं बुध्यते तस्मादात्मस्वरूपानवबोधाम् अतिचिरं बहुतरकालं भवे संसारे भ्रमति ।।६८।। शरीरनुं ज ग्रहण समजवुं, कारण के तेनी ज मुख्य वृत्तिए तेना आवश्यकपणानी उपपत्ति छे अर्थात् ते आवरणरूप छे.] एवो बहिरात्मा आत्माने जाणतो नथी; तेथी आत्मस्वरूप नहि जाणवाना कारणे ते अति चिरकाळबहु बहु काळ सुधी भवमां एटले संसारमां भमे छे.

भावार्थ :वास्तवमां आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. ज्ञान ज तेनुं शरीर छे, परंतु अनादि काळथी संसारी आत्माने कार्मण शरीर साथे एकपणाना अध्यासथी तेनुं स्वरूप विकृत थई गयुं छे. तेवा बहिरात्माने आत्माना यथार्थस्वरूपनुं ज्ञान नथी, तेथी ते संसारमां चिरकाळ सुधी भम्या करे छे.

अहीं कांचळीनुं द्रष्टांत स्थूलतानी अपेक्षाए छे, कारण के जेवी रीते कांचळी सर्पना उपरना भागमां रहे छे, तेवी रीते कार्मण शरीरनो संबंध आत्मा साथे नथी, परंतु पाणीमां निमक जेम मळी जाय छे, तेम बंनेनो एकक्षेत्रावगाहरूप संबंध छे.

विशेष

आत्मा अने कर्मनो संबंध अनादि काळथी छे, पण ते प्रवाहरूपे छे. ज्यारे अज्ञानवश जीव कर्मना उदयमां जोडाय छे ते ज समये उदयमां आवेलां कर्म खरे छे अने नवां कर्म स्वयं बंधाय छे. एम कर्मसंतति प्रवाहरूपे चालु रहे छे. जो जीव कर्मना उदयमां न जोडाय तो नवां कर्म बंधातां नथी अने जूनां कर्म खरी जाय छे.

ज्यां सुधी जीव पोतानी विपरीत मान्यता टाळतो नथी, त्यां सुधी दर्शनमोहनीय कर्मनो प्रवाह चालु रहे छे अने जीव तेना उदयमां जोडातो रहे छे, अने तेथी संसारमां रखड्या ज करे छे.

‘‘द्रव्य प्रत्ययोनो उदय थतां, शुद्धात्मस्वरूपनी भावनानो त्याग करीने (जीव) ज्यारे रागादिभावे परिणमे छे त्यारे बंध थाय छे, उदयमात्रथी नहि ज. जो उदयमात्रथी बंध थाय तो सर्वदा संसार ज रहे. केवी रीते? संसारीओने सर्वदा ज कर्मोदयनुं विद्यमानपणुं होय छे माटे. तो शुं कर्मोदय बंधनुं कारण नथी थतुं? ना, निर्विकल्प समाधिथी भ्रष्ट १. सर्पनी कांचळी तेना शरीरथी जुदी थवा योग्य न होय त्यां सुधी ते सर्पना शरीर साथे संलग्न (चोंटेली)

रहे छे, तेम अज्ञानी ज्यां सुधी कार्मण शरीर साथे एकता करे छे त्यां सुधी कर्मो साथे बंध चालु
रहे छे; जेम सर्पनी कांचळी तेना शरीर साथे चालु रहे छे तेम.


Page 109 of 170
PDF/HTML Page 138 of 199
single page version

यद्यात्मनः स्वरूपमात्मत्वेन बहिरात्मानो न बुद्ध्यन्ते तदा किमात्मत्वेन ते बुद्धयन्ते इत्याह

प्रविशद्गलतां व्यूहे देहेऽणूनां समाकृतौ
स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्ध्यः ।।६९।।

टीकातं देहामात्मानं प्रपद्यन्ते के ते ? अबुद्धयो बहिरात्मानः कया कृत्वा ? स्थितिभ्रान्त्या क्व ? देहे ? कथम्भूते देहे ? व्यूहे समूहे केषां ? अणूनां परमाणूनां किं विशिष्टानां ? प्रविशद्गलतां अनुप्रविशतां निर्गच्छतां च पुनरपि कथम्भूते ? समाकृतौ समानाकारे सदृशपरापरोत्पादेन आत्मना सहैकक्षेत्रे समानावगाहेन वा इत्थम्भूते देहे या स्थितिभ्रान्तिः स्थित्या थएलाओने मोहसहित कर्मोदय व्यवहारथी निमित्त थाय छे, पण निश्चयथी तो पोतानो रागादि अज्ञान भाव ज अशुद्ध उपादान कारण छे.’’ ६८.

जो बहिरात्माओ आत्मस्वरूपने आत्मपणे न जाणता होय, तो तेओ कोने आत्मपणे जाणे छे? ते कहे छेः

श्लोक ६९

अन्वयार्थ :(अबुद्धयः) अज्ञानी बहिरात्मा जीवो, (प्रविशद् गलतां अणूनां व्यूहे देहे) प्रवेश करता अने बहार नीकळताएवा परमाणुओना समूहरूप देहमां, (समाकृतौ) आत्मा अने शरीरनी आकृतिना समानरूपमां (स्थितिभ्रान्त्या) आत्मा स्थित होवाथीअर्थात् शरीर अने आत्मा एक क्षेत्रमां स्थित होवाथीबंनेने एकरूप समजवानी भ्रान्तिथी (तम्) तेने एटले शरीरने (आत्मानं) आत्मा (प्रतिपद्यते) समजी ले छे.

टीका :तेओ देहने आत्मा समजे छे. कोण तेओ? बुद्धि विनाना बहिरात्माओ. शाथी (एम समजे छे)? स्थितिनी भ्रान्तिथी. शामां? देहमां. केवा देहमां? व्यूहरूप एटले समूहरूप (देहमां). कोना (समूहरूप)? अणुओनापरमाणुओना (समूहरूप). केवा प्रकारना (परमाणुओना)? प्रवेशतागलता अर्थात् प्रवेश करता अने नीकळता (परमाणुओना). वळी केवा (देहमां)? समाकृतएकबीजाना सद्रश उत्पादथी समान आकारवाळा (देहमां)अर्थात् १. जुओश्री समयसार गा. १६४१६५नी श्री जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीका.

अस्थिर अणुनो व्यूह छे सम-आकार शरीर,
स्थितिभ्रमथी मूरख जनो ते ज गणे छे जीव. ६९.


Page 110 of 170
PDF/HTML Page 139 of 199
single page version

कालान्तरावस्थायित्वेन एकक्षेत्रावस्थानेन वा भ्रान्तिर्देहात्मनोरभेदाध्यवसायस्तया ।।६९।।

ततो यथावदात्मस्वरूपप्रतिपत्तिमिच्छन्नात्मानं देहाद्भिन्नं भावयेदित्याह आत्मानी साथे समान अवगाहथी एक क्षेत्रवाळा (देहमां). आवा देहमां जे स्थिति भ्रान्तिस्थितिथी एटले कालान्तरअवस्थायिपणाने लीधे या एक क्षेत्रमां रहेवाना कारणेजे भ्रान्ति अर्थात् देह अने आत्माना अभेदरूप अध्यवसायतेना कारणे (देहने आत्मा माने छे).

भावार्थ :निरंतर प्रवेश करता अने बहार नीकळता पुद्गलपरमाणुओना समूहरूप देहमां समान आकृतिएएक क्षेत्रे आत्मा स्थित होवाथी, देह अने आत्मानी एकपणानी भ्रान्तिने लीधे बहिरात्मा शरीरने ज आत्मा माने छे.

आ शरीर पुद्गल परमाणुओनुं बनेलुं छे, आ परमाणुओ तेना ते कायम रहेता नथी. समये समये अगणित परमाणुओ शरीरनी बहार नीकळे छे अने नवा नवा परमाणुओ शरीरनी अंदर दाखल थाय छे. परमाणुओना नीकळी जवाथी तथा बीजानो प्रवेश थवाथी शरीरनी बाह्य आकृतिमां स्थूल द्रष्टिए कांई फेर लागतो नथी. वळी आत्मा अने शरीरने एकक्षेत्रावगाह संयोग संबंध छे, तेथी बंनेनी समान आकृति होवाथी अज्ञानी जीवने भ्रम थाय छे के ‘आ शरीर ज हुं छुं.’ तेने अभ्यंतर रहेला आत्मतत्त्वनुं ज्ञान ज नथी.

शरीर अने आत्माने दूधपाणीनी जेम एकक्षेत्रावगाह स्थिति छे. शरीर इन्द्रियगम्य छे अने आत्मा अतीन्द्रियगम्य छे. अज्ञानीने इन्द्रियज्ञान होवाथी ते शरीरने ज देखे छे, आत्माने देखतो नथी; तेथी ते शरीरने ज आत्मा मानी एकताबुद्धि करे छे अने शरीर संबंधी रागद्वेष करे छे.

विशेष

‘‘ज्यां सुधी आ आत्माने ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म अने शरीरादि नोकर्ममां ‘आ हुं छुं’ अने हुंमां (आत्मामां) ‘आ कर्मनोकर्म छे’एवी बुद्धि छे, त्यां सुधी आ आत्मा अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) छे.’’

श्लोकमां कर्मना कारणे जीव भ्रममां पडे छे एम कह्युं नथी, पण पोताना अपराधथी ज ते तेवा भ्रममां पडे छे. ६९.

तेथी यथार्थरूपे आत्मस्वरूपने समजवानी इच्छा करनारे आत्माने देहथी भिन्न भाववो. ते कहे छेः १. नोकर्मकर्मे ‘हुं’, हुंमां वळी ‘कर्म’ ने नोकर्म छे,’

ए बुद्धि ज्यां लगी जीवनी, अज्ञानी त्यां लगी ते रहे. (१९)
(श्री समयसारगु. आवृत्तिगा. १९.)
१८


Page 111 of 170
PDF/HTML Page 140 of 199
single page version

गौरः स्थूलः कृशो वाऽहमित्यङ्गे नाविशेषयन्
आत्मानं धारयेन्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम् ।।७०।।

टीकागौरौऽहं स्थूलोऽहं कृशोवाऽहमित्यनेन प्रकारेणाङ्गेन विशेषणेन अविशेषयन् विशिष्टं अकुर्वन्नात्मानं धारयेत् चित्तेऽविचलं भावयेत् नित्यं सर्वदा कथम्भूतं ? केवलज्ञप्तिविग्रहं केवलज्ञानस्वरूपं अथवा केवला रूपादिरहिता ज्ञप्तिरेवोपयोग एव विग्रहः स्वरूपं यस्य ।।७०।।

यश्चैवं विधमात्मानमेकाग्रमनसा भावयेत्तस्यैव मुक्तिर्नान्यस्येत्याह

श्लोक ७०

अन्वयार्थ :(अहं) हुं (गौरः) गोरो छुं, (स्थूलः) जाडो छुं, (वा कृशः) अथवा पातळो (इति) एवी रीते (अंगेन) शरीर साथे (आत्मानं) आत्माने (अविशेषयन्) एकरूप नहि करतां (नित्यं) सदा (आत्मानं) पोताना आत्माने (केवलज्ञप्तिविग्रहम्) केवल ज्ञानरूप शरीरवाळो (धारयेत्) धारवोमानवो.

टीका :हुं गोरो छुं, हुं स्थूल (जाडो) छुं के हुं कृश (पातळो) छुंएवा प्रकारे शरीर वडे आत्माने, विशेषरूपे एटले विशिष्टरूपे नहि मानी (तेने) धारवो अर्थात् चित्तमां तेने नित्यसर्वदा अविचलपणे भाववो. केवा (आत्माने)? केवल ज्ञानविग्रहरूप एटले केवल ज्ञानस्वरूप अर्थात् केवल रूपादिरहित ज्ञप्ति जउपयोग ज जेनुं विग्रह एटले स्वरूप छे तेवा आत्माने (चित्तमां धारवो).

भावार्थ :गोरापणुं, स्थूलपणुं, कृशपणुं वगेरे अवस्थाओ शरीरनी छेपुद्गलनी छे, आत्मानी नथी. आ शरीरनी अवस्थाओ साथे आत्माने एकरूप नहि मानवो अर्थात् ते अवस्थाओने आत्मानुं स्वरूप नहि मानवुं. तेने शरीरथी भिन्न, रूपादिरहित अने केवल ज्ञानस्वरूप ज समजवो अने ते स्वरूपे ज तेनुं निरंतर चित्तमां ध्यान करवुं. ७०.

जे एवा प्रकारना आत्मानी एकाग्र मनथी भावना करे तेने ज मुक्ति होय छे. बीजा कोईने नहिते कहे छेः

हउँ गोरउ हउँ सांभलउ हउँ जि वभिण्णउ वण्णु
हउँ तणु अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मुढउ मण्णु ।।८०।।(श्री परमात्मप्रकाशेयोगीन्द्रदेवः)
हुं गोरो कृश स्थूल ना, ए सौ छे तनभाव,
एम गणो, धारो सदा आत्मा ज्ञानस्वभाव. ७०.