Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 46-57 ; Samadhitantra Gathas 51 to 75.

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भूयो भ्रान्तिं गतोऽसौ कथं तां त्यजेदित्याह

अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ।।४६।।

टीकाइदं शरीरादिकं दृश्यमिन्द्रियैः प्रतीयमानं अचेतनं जडं रोषतोषादिकं कृतं न जानातीत्यर्थः यच्चेतनमात्मस्वरूपं तददृश्यमिन्द्रियग्राह्यं न भवति ततः यतो रोषतोषविषयं दृश्यं शरीरादिकमचेतनं चेतनं स्वात्मस्वरूपमदृश्यत्वात्तद्विषयमेव न भवति ततः क्व रुष्यामि क्व रागद्वेष थई जाय छे, तेथी तेने ज्ञानचेतना साथे कदाचित् कर्मचेतना अने कर्मफलचेतनानो पण सद्भाव मानवामां आव्यो छे, पण ते कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनानो ज्ञाताद्रष्टा रहे छे. वास्तवमां ते बंने चेतनाओ ज्ञानचेतना ज छे.

अंतरात्माने पूर्वना संस्कारोने लीधे नीचेनी भूमिकामां जे भ्रान्ति थाय छे ते मिथ्यात्वजनित नथी, परंतु अस्थिरताजनित छे; तेथी तेने रागद्वेष थवा छतां तेना सम्यक्त्वमां कांई दोष आवतो नथी. ४५.

फरीथी भ्रान्ति पामेलो ते (अन्तरात्मा) तेने (भ्रान्तिने) केवी रीते छोडे ते कहे छेः

श्लोक ४६

अन्वयार्थ : (इदं दृश्यं) आ शरीरादि द्रश्य पदार्थ (अचेतनं) चेतनारहितजड छे अने जे (चेतनं) चैतन्यस्वरूप आत्मा छे ते (अदृश्यं) इन्द्रियोद्वारा देखाय तेवो नथी; (ततः) तेथी (क्व रुष्यामि) हुं कोना उपर रोष करुं? अने (क्व तुष्यामि) कोना उपर राजी थाउं? (अतः अहं मध्यस्थः भवामि) एटला माटे हुं मध्यस्थ थाउं छुंएम अन्तरात्मा विचारे छे.

टीका : आ एटले शरीरादिक, जे द्रश्य एटले इन्द्रियोद्वारा देखावा योग्य छे प्रतीतिमां आववा योग्य छे, ते अचेतनजड छे; ते करेला रोषतोषादिकने जाणतुं नथी एवो अर्थ छे. जे चेतनस्वात्मस्वरूप छे, ते अद्रश्य छे एटले इन्द्रियोद्वारा ग्राह्य नथी; तेथी हुं कोना उपर रोष करुं? अने कोना उपर तोष करुं? कारण के द्रश्य शरीरादिक अचेतन १. जुओश्री पंचाध्यायीउत्तरार्द्ध गु. आवृत्तिगाथा २०५, २७६, ४१९

द्रश्यमान आ जड बधां, चेतन छे नहि द्रष्ट;
रोष करुं क्यां? तोष क्यां? धरुं भाव मध्यस्थ. ४६.


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तुष्याम्यहं अतः यतो रोषतोषयोः कश्चिदपि विषयो न घटते अतः मध्यस्थ उदासीनोऽहं भवामि ।।४६।।

इदानीं मूढत्मनोऽन्तरात्मनश्च त्यागोपादानविषयं प्रदर्शयन्नाह

त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित्
नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मनः ।।४७।।

छे अने चेतनआत्मस्वरूप अद्रश्य छे, माटे हुं मध्यस्थउदासीन थाउं छुं, कारण के रोष तोषनो विषय कोईपण घटतो नथी.

भावार्थ : पूर्वना चारित्र संबंधी भ्रान्तिरूप संस्कारो जागृत थाय छे त्यारे अंतरात्मा समाधानरूपे विचारे छे के, ‘‘शरीरादिक पदार्थो जे द्रष्टिगोचर छे ते अचेतन छेजड छे; तेना उपर हुं रागद्वेष करुं तो ते व्यर्थ छे. आत्मा जे चेतन छे, रागद्वेषभावने जाणी शके छे, ते तो अद्रश्य छेद्रष्टिगोचर नथी, तेथी ते पण मारा रागद्वेषनो विषय बनी शकतो नथी; माटे कोईना उपर रागद्वेष नहि करतां, सर्व बाह्य पदार्थोथी उदासीन थई मध्यस्थ (वीतरागी) भाव धारण करवो योग्य छे, अर्थात् पर प्रत्ये उदासीनता सेवी, तेना केवळ ज्ञाताद्रष्टा रही, आत्मतत्त्वने ज ज्ञाननो विषय बनाववो अने तेमां ज स्थिर थवुं ते उचित छे.’’

ज्ञानीने अल्प रागद्वेष थाय पण भेदज्ञानना बळे ते उपर प्रमाणे अंदर समाधान करी पोताना ज्ञानना विषयने तुरत पलटी नाखे छे अने ज्ञानानंदस्वरूपने ज ज्ञाननो विषय बनावे छे. तेनी वारंवार भावना भावतां रागद्वेषनी वृत्ति स्वयं क्रमे क्रमे टळी जाय छे. ४६.

हवे बहिरात्मा अने अन्तरात्माना त्यागग्रहणना विषयने स्पष्ट करतां कहे छेः

श्लोक ४७

अन्वयार्थ : (मूढः) मूर्ख बहिरात्मा (बहिः) बाह्य पदार्थोनो (त्यागादाने करोति) त्याग अने ग्रहण करे छे, (आत्मवित्) आत्माना स्वरूपने जाणनार अन्तरात्मा (अध्यात्मं

मूढ बहिर त्यागे-ग्रहे, ज्ञानी अंतरमांय;
निष्ठितात्मने ग्रहण के त्याग न अंतर्बाह्य. ४७.


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टीकामूढो बहिरात्मा त्यागोपादाने करोति क्व ? बहिर्बाह्ये हि वस्तुनि द्वेषोदयादभिलाषाभावान्मूढात्मा त्यागं करोति रागोदयात्तत्राभिलाषोत्पत्तेरुपादामिति आत्मवित् अन्तरात्मा पुनरध्यात्मनि स्वात्मरूप एव त्यागोपादाने करोति तत्र हि त्यागोरागद्वेषादेरन्तर्जल्पविकल्पादेर्वा स्वीकारश्चिदानन्दादेः यस्तु निष्ठितात्मा कृतकृत्यात्मा तस्य अन्तर्बहिर्वा नोपादानं तथा न त्यागोऽन्तर्बहिर्वा ।।४७।। त्यागादाने करोति) अंतरंग रागद्वेषनो त्याग अने सम्यक्रत्नत्रयरूप आत्मस्वरूपनुं ग्रहण करे छे, परंतु (निष्ठितात्मनः) शुद्धस्वरूपमां स्थित आत्माने (अन्तः बहिः) अंतरंग अने बहिरंग कोईपण पदार्थनो (न त्यागः) न तो त्याग होय छे अने (न उपादानं) न तो ग्रहण होय छे.

टीका : मूढ बहिरात्मा त्यागग्रहण करे छे, शामां (करे छे)? बहारमां एटले बाह्य वस्तुमां; द्वेषना उदयने लीधे अभिलाषाना अभावना कारणे मूढात्मा (बहिरात्मा) तेनो (बाह्य वस्तुनो) त्याग करे छे अने रागनो उदय थतां तेनी अभिलाषानी उत्पत्तिना कारणे तेनुं (बाह्य वस्तुनुं) ग्रहण करे छे; परंतु आत्मविद् एटले अन्तरात्मा आत्मामां ज अर्थात् आत्मस्वरूप विशे ज त्याग ग्रहण करे छे. त्यां त्याग तो रागद्वेषादिनो के अन्तर्जल्परूप विकल्पादिनो अने स्वीकार (ग्रहण) चिदानंदादिनो होय छे.

जे निष्ठितात्मा अर्थात् कृतकृत्य आत्मा छे तेने अन्तरात्मा के बाह्यमां (कांई) ग्रहण नथी तथा अंतरमां के बाह्यमां (कांई) त्याग नथी.

भावार्थ : बहिरात्मा, जे पदार्थ इष्ट लागे छे तेने ग्रहण करवा इच्छे छे अने जे पदार्थ अनिष्ट लागे छे तेनो त्याग करवा इच्छे छे. वास्तवमां कोई ज्ञानी के अज्ञानी बाह्य पदार्थोना ग्रहणत्याग करी शकतो ज नथी, छतां बहिरात्मा तेना ग्रहणत्याग करवानुं माने छे, ए तेनी मूढता छे.

अंतरात्मा आत्मस्वरूपमां ज ग्रहणत्याग करे छे, अर्थात् ते बाह्य पदार्थोथी चित्तवृत्ति हठावी स्वसन्मुख थई पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं ग्रहण करे छे; तेम करतां राग द्वेषादिनो के विकल्पादिनो स्वयं त्याग थई जाय छे. रागादिनी अनुत्पत्ति ते ज त्याग छे.

शुद्धस्वरूपमां स्थित आत्मा (निष्ठितात्मा) कृतकृत्य होवाथी तेने बाह्य या अंतरंग कोई पण विषयमां ग्रहणत्यागनी प्रवृत्ति होती नथी. ते तो पोताना चिदानंदस्वरूपमां सदा स्थिर रहे छे. १. जुओश्री समयसार, गु. आवृत्ति गाथा ४०६ अने ‘समाधितंत्र’ श्लोक २०नो ‘विशेष’ पृ. ३८


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अन्तस्त्यागोपादाने वा कुर्वाणोऽन्तरात्मा कथं कुर्यादित्याह

युञ्जीत मनसाऽऽत्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत्
मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम् ।।४८।।

टीकाआत्मानं युञ्जीत सम्बद्धं कुर्यात् केन सह ? मनसा मानसज्ञानेन

विशेष

बहिरात्माने अंदरना चैतन्यतत्त्वनुं ज्ञान नथी. तेने स्वपरनुं भेदज्ञान नथी; जे बाह्य पदार्थो देखे छे तेनी साथे एकताबुद्धि करे छे. तेमां इष्टअनिष्टनी कल्पना करी राग द्वेषभावथी तेनां ग्रहणत्याग करवा झंखे छे, परंतु बाह्य पदार्थोनां ग्रहणत्याग तेने आधीन नथी. ते पदार्थो तो पोताना कारणे आवे छे अने जाय छे. ऊंधी मान्यताने लीधे तेनां बाह्य ग्रहणत्याग रागद्वेषगर्भित छे. तेना अभिप्रायमां आत्मस्वभावनो त्याग अने विभाव तथा परभावोनुं ग्रहण छे.

अंतरात्माने अभिप्रायमांमान्यतामां पर पदार्थोनां ग्रहणत्याग ज नथी. अस्थिरताने लीधे थोडी रागद्वेषनी वृत्ति ऊठे, पण तेने तेनी साथे एकता नथीस्वामीपणुं नथी. आ वृत्ति पण, आत्मस्वरूपनुं ग्रहण थतांतेमां स्थिर थतां, स्वयं शमी जाय छे नष्ट थाय छे. ४७.

अंतरमां त्यागग्रहण करनार अन्तरात्मा केवी रीते करे ते कहे छेः

श्लोक ४८

अन्वयार्थ : अंतरात्मा (आत्मानं) आत्माने (मनसा) भावमन साथे (युञ्जीत) योजे (जोडे) अने (वाक्कायाभ्याम्) वचन अने कायाथी (वियोजयेत्) अलग करे (तु) अने (वाक्काययोजितम्) वाणी अने कायाथी योजायेला (व्यवहार) व्यवहारने (मनसा) भावमनथी (त्यजेत्) तजे अर्थात् तेमां मन लगावे नहि.

टीका : (ते अन्तरात्मा) आत्माने योजे एटले संबंध करे, कोनी साथे? मन साथे एटले मानसज्ञान (भावमन) साथे, ‘मन ते आत्मा छे’ एवो अभेदरूप अध्यवसाय (मान्यता) करे,

जोडे मन सह आत्मने, वच-तनथी करी मुक्त,
वच-तनकृत व्यवहारने छोडे मनथी सुज्ञ. ४८.


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चित्तमात्मेत्यभेदेनाध्यवसेदित्यर्थः वाक्कायाभ्यां तु पुनर्वियोजयेत् पृथक्कुर्यात् वाक्काययोरात्माभेदाध्यवसायं न कुर्यादित्यर्थः एतच्च कुर्वाणो व्यवहारं तु प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावलक्षणं प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपं वा वाक्काययोजितं वाक्कायाभ्यां योजितं सम्पादितं केन सह ? मनसा सह मनस्यारोपितं व्यवहारं मनसा त्यजेत् चित्तेन न चिन्तयेत् ।।४८।। एवो अर्थ छेअने वाणी तथा कायथी तेने (आत्माने) वियुक्त करेपृथक् करे, अर्थात् वाणी अने कायामां आत्मानो अभेदरूप अध्यवसाय करे नहिएवो अर्थ छे; अने तेम करनार, वाक् काययोजित अर्थात् वाणीकायद्वारा योजित अर्थात् सम्पादित ‘प्रतिपाद्य’ प्रतिपादकभावरूप (शिष्टगुरु संबंधरूप) प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप व्यवहारने, कोनी साथे (योजित)? मन साथे अर्थात् मनमां आरोपित व्यवहारने, मनथी तजे अर्थात् मनमां चिंतवे नहि.

भावार्थ : अंतरात्मा भावमनने वाणी अने देहनी क्रिया तरफथी (प्रवृत्तिथी) वियुक्त करीनेअलग करीने आत्मस्वरूपमां लगाडे अर्थात् तेनी साथे अभेद करेतल्लीन करे अने वाणी तथा कायद्वारा योजित प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप व्यवहारने मनमांथी तजे अर्थात् तेनो विचार छोडी दे.

विशेष

वाणीकायनी प्रवृत्ति ते जडनी क्रिया छे, आत्मा ते करी शकतो नथी. अन्तरात्माने भेदज्ञान छे, तेथी ते पोताना उपयोगने वाणीकायनी क्रिया तरफथी हठावी पोताना आत्मस्वरूपमां रोके छे.

ज्यां सुधी जीव वचनकायथी क्रिया साथे एकताबुद्धि करेतेने आत्मानी क्रिया समजे, त्यां सुधी तेनो उपयोग त्यांथी छूटी स्वसन्मुख वळे नहि अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय नहि.

उपयोगद्वारा स्वनुं ग्रहण करवामां ज समस्त परद्रव्योनो अने परभावोनो स्वयं त्याग थई जाय छे.

नीचली भूमिकामां ज्ञानीनो उपयोग कदाचित् अस्थिरताने लीधे वाणी कायनी क्रियाद्वारा पर साथेना व्यवहारमां जोडाय छे, पण तेमां तेने कर्तृत्वबुद्धिनो अभाव छे अभिप्रायमां तेनो निषेध छे. जेम रोगीने कडवी दवा प्रत्ये अरुचि होय छे, तेम तेने ते प्रत्ये उदासीनता होय छे; तेथी ज्ञानीनो उपयोग शरीरादिनी क्रियामां जोडायेलो देखाय, छतां ते नहि जोडायेला समान छे.

शरीरवाणीनी क्रिया विषे एकता बुद्धिनोआत्मबुद्धिनो त्याग अने शुद्धात्मस्वरूपनुं ग्रहण ते अंतरात्मानां अंतरंग त्याग ग्रहण छे.


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ननु पुत्रकलत्रादिना सह वाक्कयव्यवहारे तु सुखोत्पत्तिः प्रतीयते कथं तत्त्यागो युक्त इत्याह

जगद्देहात्मदृष्टिना विश्वास्यं रम्यमेव च
स्वात्मन्येवात्मदृष्टिनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः ।।४९।।

टीकादेहात्मदृष्टिनां बहिरात्मनां जगत् पुत्रकलत्रादिप्राणिगणो विश्वास्यमवञ्चकं रम्यमेव च रमणीयमेव प्रतिभाति स्वात्मन्येव स्वस्वरूपे एवात्मदृष्टिनां अन्तरात्मनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः ? न क्वापि पुत्रकलत्रादौ तेषां विश्वासो रतिर्वा प्रतिभातीत्यर्थः ।।४९।।

अहीं व्यवहारना त्यागनो आचार्ये निर्देश कर्यो छे. ते एम सूचवे छे के आत्मकार्य माटे व्यवहार आश्रय करवा योग्य नथी. ४८.

पुत्रस्त्री आदि साथेना वाणीकायना व्यवहारमां तो सुखनी उत्पत्तिनी प्राप्ति थाय छे, तो तेनो (व्यवहारनो) त्याग केवी रीते योग्य छे? ते कहे छेः

श्लोक ४९

अन्वयार्थ : (देहात्मदृष्टिनां) देहमां आत्मबुद्धि राखनार मिथ्याद्रष्टि बहिरात्माओने (जगत्) स्त्रीपुत्रमित्रादिना समूहरूप जगत् (विश्वास्यं) विश्वास करवा योग्य (च) अने (रम्यं एव) रमणीय ज भासे छे. परंतु (स्वात्मनि एवात्मदृष्टिनां) पोताना आत्मामां ज आत्मद्रष्टि राखनार सम्यग्द्रष्टि अंतरात्माने (क्व विश्वासः) स्त्रीपुत्रादिरूप जगत्मां केम विश्वास होई शके? (वा) अथवा (क्व रतिः) केम रति होई शके? कदी पण नहि.

टीका : देहमां आत्मद्रष्टिवाळा बहिरात्माओने पुत्रभार्यादि प्राणीसमूहरूप जगत् विश्वास करवा योग्य अर्थात् अवंचक (नहि ठगनारुं) तथा रम्य ज एटले रमणीय ज प्रतिभासे छे.

स्वात्मामां ज एटले स्वस्वरूपमां ज आत्मद्रष्टिवाळा अन्तरात्माओने विश्वास क्यां के रति क्यां? तेमने पुत्रस्त्री आदिमां क्यांय पण विश्वास के रति प्रतिभासती नथीएवो अर्थ छे.

देहातमधी जगतमां करे रति विश्वास;
निजमां आतमद्रष्टिने क्यम रति? क्यम विश्वास? ४९.


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नन्वेवमाहारादावप्यन्तरात्मनः कथं प्रवृत्तिः स्यादित्याह

आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्
कुर्यादर्थवशात्किंचिद्वाक्कायाभ्यामतत्परः ।।५०।।

भावार्थ : जेने देहमां आत्मबुद्धि छे तेने स्त्रीपुत्रमित्रादिरूप जगत् ज विश्वासयोग्य अने रम्यसुखदायक लागे छे अने तेथी ते तेमनी साथे वाणी कायनो व्यवहार करवानो विकल्प करे छे.

ज्ञानीने स्त्रीपुत्रादि बाह्य पदार्थोमां आत्मबुद्धि नथी, तेमां तेने वास्तविक सुख भासतुं नथी अने ते विश्वासयोग्य तथा रमणीय लागता नथी, तेथी तेने तेमनी साथे वचन व्यवहार अने शरीरव्यवहारनो, अभिप्रायमां, त्याग वर्ते छे. आत्मा ज तेने विश्वास करवा योग्य अने रम्य जणाय छे अने तेमां ज वास्तविक सुख भासे छे. तेथी ते जगतना पदार्थोमां सुख होवानो विश्वास केम करे? न ज करे.

विशेष

अज्ञानी बाह्य पदार्थोना संयोगमां सुख मानी तेनो विश्वास करे छे, पण ते संयोगो पलटतां या तेनो वियोग थतां तेना कल्पेला सुखनो अंत आवे छे. ए रीते बाह्य संयोगोना विश्वासे ते छेतरायठगाय छे. वास्तवमां अनुकूळ के प्रतिकूळ लागता संयोगोमां क्यांय सुख नथी, छतां तेमां सुख मानी ठगाई जाय छे.

ज्ञानीने पोतानो आत्मा ज इष्ट छेवहालो छे. तेने जगतजगतना पदार्थो वहाला सुखरूप लागता नथी. समकिती चक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य अने हजारो राणीओ वगेरेनो संयोग होय छे, पण तेमां तेने सुख माटे स्वप्नेय विश्वास नथी. तेने तो पोताना चैतन्यात्मानो ज विश्वास छे अने तेमां ज सुख भासे छे. तेने ‘जगत इष्ट नहि आत्मथी.’ ४९.

एवी रीते होय तो आहारादिमां पण अन्तरात्मानी प्रवृत्ति केम थाय? ते कहे छेः

श्लोक ५०

अन्वयार्थ : अन्तरात्मा (आत्मज्ञानात् परं) आत्मज्ञानथी भिन्न (कार्यं) कोई कार्यने

आत्मज्ञान वण कार्य कंई मनमां चिर नहि होय;
कारणवश कंई पण करे त्यां बुध तत्पर नो’य. ५०.
१४


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टीकाचिरं बहुतरं कालं बुद्धौ न धारयेत् किं तत् ? कार्य कथम्भूतम् ? परमन्यत् कस्मात् ? आत्मज्ञानात् आत्मज्ञानलक्षणमेव कार्यं बुद्धौ चिरं धारयेदित्यर्थः परमपिकिञ्चिद् भोजनव्याख्यानादिकं वाक्कायाभ्यां कुर्यात् कस्मात् ? अर्थवशात् स्वपरोपकारलक्षणप्रयोजनवशात् किं विशिष्टः ? अतत्परस्तदनासक्तः ।।५०।। (चिरं) लांबा समय सुधी (बुद्धौ) पोतानी बुद्धिमां (न धारयेत्) धारण करे नहि. जो (अर्थवशात्) प्रयोजनवशात् (वाक्कायाभ्याम्) वचनकायथी (किंचित् कुर्यात्) कंईपण करवानो विकल्प करे तो ते (अतत्परः) अनासक्त थई करे.

टीका : चिरकाळ सुधी एटले बहु लांबाकाळ सुधी बुद्धिमां धारण न करे. शुं ते? कार्य. केवुं (कार्य)? पर एटले अन्य. कोनाथी (अन्य)? आत्मज्ञानथी (अन्य). आत्मज्ञानरूप कार्यने ज बुद्धिमां लांबा वखत सुधी धारी राखे एवो अर्थ छे, परंतु बीजुं किंचित् अर्थात् भोजनव्याख्यानादिकरूप कार्यने वचनकायद्वारा करे. शाथी? प्रयोजनवश अर्थात् स्वपरना उपकाररूप प्रयोजनवश (करे). केवा थईने (ते करे)? अतत्पर थईने अर्थात् तेमां अनासक्त थईने करे.

भावार्थ : ज्ञानी पोताना भावमनने (उपयोगने) आत्मज्ञानना कार्यमां ज रोके छे; आत्मज्ञानथी कोई अन्य व्यवहारिक कार्यमां लांबा वखत सुधी रोकतो नथी. कदाच प्रयोजनवशात् अर्थात् स्वपरना उपकारार्थे अस्थिरताने लीधे वचनकाय द्वारा आहार उपदेशादि कार्य करवानो विकल्प आवे, तो तेमां तेने अतन्मयभाव वर्ते छे.

विशेष

धर्मीने आत्मसंवेदन ए ज मुख्य कार्य छे. तेमां ज ते पोताना उपयोगने लगावे छे. कदाच लांबो समय स्वरूपमां स्थिर न रही शके अने प्रयोजनवशात् आहारउपदेशादिनो विकल्प आवे, तो ते कार्य अनासक्ति भावे (अतन्मय भावे) थाय छे. ते करवाने तेने मनमां उत्साह नथीभावना नथी. कार्यने अंगे शरीरवाणीनी जे क्रिया थाय छे तेमां तेने एकता बुद्धि के कर्ताबुद्धि तो नथी ज, पण ते क्रिया करवाना विकल्पने पण ते भलो मानतो नथी. विकल्पने तोडी स्वरूपमां स्थिर थई हुं शुद्धात्माने क्यारे अनुभवुं, एवी तेने निरंतर भावना होय छे, आ भावनाना बळथी तेनो उपयोग बहारनी क्रियामां लांबो वखत टकतो नथी, त्यांथी हठी तुरत स्व तरफ वळे छे.

ज्ञानीने नीचली भूमिकामां अस्थिरताने लीधे राग होय छे अने वचनकायनी क्रिया प्रत्ये लक्ष जाय छे, पण पोताना ज्ञानस्वभावने भूले तेवी तेनामां आसक्ति होती नथी.


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कुतः पुनरात्मज्ञानमेव बुद्धौ धारयेन्नशरीरादिकमित्याह

यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रियः
अन्तः पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् ।।५१।।

टीकायच्छरीरादिकमिन्द्रियैः पश्यामि तन्मे नास्ति मदीयं रूपं तन्न भवति तर्हि किं तव रुपम् ? तदस्तु ज्योतिरुत्तमं ज्योतिर्ज्ञानमुत्तममतीन्द्रियम् तथा सानन्दं

ज्ञानीने बाह्य वचनकायनी प्रवृत्ति होवा छतां, तेने अंतरंगमां द्रढ मान्यता छे केः

‘‘हुं देहमनवाणी नथी, हुं तेमनो कर्ता नथी, तेमनो करावनार नथी के अनुमोदनार नथी......हुं कर्ता विना पण तेओ खरेखर कराय छे; माटे तेमना कर्तापणानो पक्षपात छोडी हुं आ अत्यंत मध्यस्थ छुं.’’

सम्यग्द्रष्टि गृहस्थने ज्ञानचेतनानुं निरंतर परिणमन होय छे, तेथी ते खावापीवामां, पांच इन्द्रियोना विषयो भोगववामां, व्यापारमां लडाई वगेरे संसारना कार्योमां, बाह्यद्रष्टिए रोकायेला लागे, छतां बधी बाह्य प्रवृत्तिमां ते जलकमलवत् न्याये रहे छे. ५०.

अनासक्त (अंतरात्मा) आत्मज्ञानने ज बुद्धिमां धारण करे, शरीरादिकने नहि, एम केम बने? ते कहे छेः

श्लोक ५१

अन्वयार्थ : (यत्) जे एटले शरीरादि बाह्य पदार्थ (इन्द्रियैः) इन्द्रियोद्वारा (पश्यामि) हुं देखुं छुं (तत्) ते (मे न अस्ति) मारा नथीमारुं स्वरूप नथी, पण (नियतेन्द्रियः) भाव इन्द्रियोने बाह्य विषयोथी रोकी (यत्) जे (उत्तमं) उत्कृष्ट अतीन्द्रिय (सानन्दं ज्योति) आनंदमय ज्ञानज्योतिने (अन्तः) अंतरंगमां (पश्यामि) हुं देखुं छुंतेनो अनुभव करुं छुं, (तत् मे) ते मारुं वास्तविक स्वरूप (अस्तु) हो!

टीका : जे एटले शरीरादिने हुं इन्द्रियोथी जोउं छुं, ते मारुं नथी अर्थात् ते मारुं स्वरूप नथी. तो तारुं रूप शुं? ते उत्तम ज्योति होज्योति एटले ज्ञान अने उत्तम एटले १. जुओश्री प्रवचनसारगु. आवृत्तिगाथा १६० अने टीका.

इन्द्रिद्रश्य ते मुज नहीं, इन्द्रिय करी निरुद्ध,
अंतर जोतां सौख्यमय श्रेष्ठ ज्योति मुज रूप. ५१.


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परमप्रसत्तिसमुद्भूतसुखसमन्वितम् एवं विधिं ज्योतिरत्नः पश्यामि स्वसंवेदनेनानुभवामि यत्तन्मे स्वरूपमस्तु भवतु किं विशिष्टः पश्यामि ? नियतेन्द्रियो नियन्त्रितेन्द्रियः ।।५१।।

ननु सानन्दं ज्योतिर्यद्यात्मनोरूपं स्यात्तदेन्द्रियनिरोधं कृत्वा तदनुभवतः कथं दुःखं स्यादित्याह अतीन्द्रिय तथा आनंदमय एटले परम प्रसन्नता (प्रशांति)थी उत्पन्न थयेला सुखथी युक्त (छे) एवा प्रकारनी जे ज्योतिने (ज्ञानप्रकाशने) अंतरंगमां हुं जोउं छुंस्वसंवेदनथी हुं अनुभवुं छुं, ते मारुं स्वरूप अस्तुहो. हुं केवो थईने जोउं छुं? इन्द्रियोने संयमित करीने (बाह्य विषयोथी इन्द्रियोने रोकीने अने पोते स्वाधीन थईने अर्थात् इन्द्रियोने काबुमां राखीने (हुं जोउं छुं).

भावार्थ : अन्तरात्मा विचारे छे केः

‘इन्द्रियो द्वारा जे शरीरादि बाह्य पदार्थो देखाय छे ते हुं नथी. ते मारुं स्वरूप नथी. मारुं स्वरूप तो परम उत्तम अतीन्द्रिय आनंदमय ज्ञानज्योति छे. ज्यारे हुं भाव इन्द्रियोने नियन्त्रित करीने अर्थात् बाह्य विषयोथी हठावीने अंतर्मुख थाउं छुं, त्यारे हुं ज्ञानस्वरूप आत्माने जोई शकुं छुंस्वसंवेदनथी अनुभवी शकुं छुं.’

विशेष

जे इन्द्रियो द्वारा देखाय छे ते आत्मानुं स्वरूप नथी. ते तो जडनुंपुद्गलनुं स्वरूप छे. ते आत्मा नथी, अनात्मा छे. आत्मा अनात्माना भेदविज्ञान द्वारा ज्ञानी, शरीरादिक पर पदार्थो प्रत्ये उपेक्षा करी, उपयोगने त्यांथी हठावी स्वसन्मुख करे छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थतां ते अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव करे छे.

ज्ञानीने आत्मस्वरूपनुं भान होवाथी ते आत्मविषयमां ज रमवानी भावना करे छे; बाह्य विषयोमां विचरवानुं पसंद करतो नथी.

माटे अंतरात्माने शरीरादि बाह्य पदार्थोमां अनासक्ति होय छे. ते ज्ञानस्वरूप आत्मानो ज अनुभव करे छे. ५१.

जो आनंदमय ज्योति (ज्ञान) ते आत्मानुं स्वरूप होय, तो इन्द्रियोनो निरोध करीने तेनो अनुभव करनारने दुःख केवी रीते होई शके? ते कहे छेः


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सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दुःखमथात्मनि
बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मनः ।।५२।।

टीकाबहिर्बाह्यविषये सुखं भवति कस्य ? आरब्धयोगस्य प्रथममात्मस्वरूपभावनोद्यतस्य अथ आह आत्मनि आत्मस्वरूपे दुःखं तस्य भवति भावितात्मनो यथावद्विदितात्मस्वरूपे कृताभ्यासस्य बहिरेव बाह्यविषयेष्वेवाऽसुखं भवति अथ आह सौख्यं अध्यात्मं तस्याध्यात्मस्वरूप एव भवति ।।५२।।

श्लोक ५२

अन्वयार्थ :(आरब्धयोगस्य) योगनो अभ्यास शरू करनारने (बहिः) बाह्य विषयोमां (सुखं) सुख लागे छे, (अथ) अने (आत्मनि) आत्मस्वरूपने विषे (दुःखं) दुःख प्रतीत थाय (भावितात्मनः) आत्मस्वरूपने यथार्थपणे जाणनारनेसारा अभ्यासीने (बहिः एव) बाह्य पदार्थोमां ज (असुखं) दुःख थाय छे अने (अध्यात्मं) आत्मस्वरूपमां (सौख्यम्) सुखनो अनुभव थाय छे.

टीका :बहार एटले बाह्य विषयमां सुख लागे छे. कोने? योगनो आरंभ करनारने अर्थात् प्रथम वार आत्मस्वरूपनी भावनाना अभ्यासीने, अने कहे छेआत्मामां एटले आत्मस्वरूपमां (तेनी भावनामां) दुःख (मुश्केली) लागे छे, पण भावितात्मने एटले यथावत् जाणेला आत्मस्वरूपना (तेनी भावनाना) अभ्यासीने, बाह्यमां ज एटले बाह्य विषयोमां ज असुख (दुःख) भासे छे; अने कहे छेआत्मामां एटले तेना अध्यात्मस्वरूपमां ज (तेनी भावनामां ज) सुख लागे छे.

भावार्थ :योगनो एटले आत्मस्वरूपनो प्रथम वार अनुभव करवानो आरंभ करनारने बाह्य विषयोमां सुख जेवुं लागे छे अने आत्मस्वरूपनी भावनाना अभ्यासमां दुःख जेवुं जणाय छे, परंतु ज्यारे तेनी परिपक्व अभ्यासथी आत्मस्वरूपनुं यथार्थपणे ज्ञान थाय छे त्यारे तेने बाह्य विषयो असुखरूप प्रतीत थाय छे अने आत्मस्वरूपमां ज सुख प्रतिभासे छे.

योगनो अभ्यास शरू करनारने, पूर्वना संस्कारने लीधे, बाह्य विषयो तरफनुं वलण जलदी छूटतुं नथी अने तेथी तेने आत्मस्वरूपमां रमवुं मुश्केल लागे छे.

प्रारंभे सुख बाह्यमां, दुख भासे निजमांय;
भावितात्मने दुख बर्हि, सुख निजआतममांय. ५२.


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तद्भावना चेत्थं कुर्यादित्याह

तद्ब्रूयात्तत्परान्पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत्
येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ।।५३।।

टीकातत् आत्मस्वरूपं ब्रूयात् परं प्रति प्रतिपादयेत् तदात्मस्वरूपं परान् विदितात्मस्वरूपान् पृच्छेत् तथा तदात्मस्वरूपं इच्छेत् परमार्थतः सन् मन्येत् तत्परो भवेत्

आत्मभावनानो अभ्यास ज्यारे तेने परिपक्व थाय छे अने ते स्वरूपमां स्थिर थाय छे, त्यारे तेने अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे. हवे तेने बाह्य विषयो बधा नीरस लागे छे; तेने ते उपरथी रुचि ऊठी जाय छे अने आत्मस्वरूपमां ज विहरवुं गमे छे.

माटे श्री अमृतचंद्राचार्य पण जिज्ञासु जीवने उद्देशीने कहे छेः

‘‘हे भाई! तुं कोई पण रीते महा कष्टे अथवा मरीने पण तत्त्वोनो कौतूहली था अने शरीरादिक मूर्त द्रव्योनो एक मुहूर्त (बे घडी) पाडोशी थई, तेमनाथी भिन्न एवा तारा आत्मानो अनुभव कर; तारा आत्माना चैतन्यविलासने देखतां ज आ शरीरादिक मूर्तिक पुद्गलो द्रव्यो साथे एकपणानो तारो मोह छूटी जशे.’’ ५२.

ते भावना आ रीते करवीते कहे छेः

श्लोक ५३

अन्वयार्थ :(तत् ब्रूयात्) ते एटले आत्मस्वरूपनी वात करवी, (तत् परान् पृच्छेत्) ते संबंधी आत्मानुभवी पुरुषोने पूछवुं, (तत् इच्छेत्) तेनी इच्छा करवीतेनी प्राप्तिने पोतानुं इष्ट बनाववुं अने (तत्परः भवेत्) तेमां एटले आत्मस्वरूपनी भावनामां तत्परसावधान रहेवुं, (येन) जेथी (अविद्यामयं रूपं) अज्ञानमय बहिरात्मरूपनो (त्यक्त्वा) त्याग करीने (विद्यामयं व्रजेत्) ज्ञानमयरूपनी एटले परमात्मस्वरूपनी प्राप्ति कराय.

टीका :ते आत्मस्वरूप कहेवुं एटले बीजाने समजाववुं; बीजाओने एटले जेमणे आत्मस्वरूप जाण्युं होय तेमने ते आत्मस्वरूप पूछवुं तथा ते आत्मस्वरूपनी इच्छा करवी अर्थात् परमार्थस्वरूपे तेने मानवुं, तेमां तत्पर रहेवुं अर्थात् आत्मस्वरूपनी भावनानो आदर १. जुओः श्री समयसारकलश २३

तत्पर थई ते इच्छवुं, कथन-पृच्छना ए ज;
जेथी अविद्या नष्ट थई, प्रगटे विद्यातेज. ५३.


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आत्मस्वरूपभावनादरपरो भवेत् येनात्मस्वरूपेणेत्थं भावितेन अविद्यामयं स्वरूपं बहिरात्मस्वरूपम् त्यक्त्वा विद्यामयं रूपं व्रजेत् ।।५३।। करवो; जेथी, एटले आवी रीते आत्मस्वरूपनी भावना करवाथी, अविद्यामय स्वरूपनो एटले बहिरात्मस्वरूपनो त्याग करीने विद्यामय रूप एटले के परमात्मस्वरूप प्राप्त कराय.

भावार्थ :आत्मस्वरूपनी भावना केवी रीते करवी? ते प्रश्नना उत्तरमां आचार्य आत्मार्थीने उद्देशीने कहे छे केः

आत्मस्वरूप बीजाओने समजाववुं, जेमणे आत्मस्वरूप जाण्युं छे तेमने तेना ज विषे पूछी ते जाणवुं, तेनी ज इच्छा राखवी अर्थात् तेने एकने ज परमार्थ सत्य मानवुं अने आत्मस्वरूपनी भावनामां ज निरंतर लाग्या रहेवुं. आम करवाथी बहिरात्मस्वरूपनो अविद्यामय स्वरूपनो नाश थशे. परमात्मस्वरूपनी एटले ज्ञानमय स्वरूपनी प्राप्ति थशे.

विशेष

(१) आत्मा संबंधी ज वात कर, संसार संबंधी कांई पण वात न कर. तेम करवाथी बहारमां भमतो तारो उपयोग तत्त्वनिर्णय तरफ वळशे.

(२) आत्मा संबंधी वधु ज्ञान माटे विशेष ज्ञानीओने पूछ; तेथी आत्मा संबंधी तारी श्रद्धा स्पष्ट थईने द्रढ थशे अने ज्ञान निर्मळ थशे.

(३) आत्मप्राप्तिनी ज भावना कर, बीजा कोई पर पदार्थनी के इन्द्रियविषयना सुखनी इच्छा न कर; एम करवाथी बाह्य इन्द्रियसुखनी पाछळ थती निरर्थक आकुळता मटी जशे.

(४) आत्मस्वरूपनी भावनामां ज निरंतर अभिरत बन. आवी रीते ज्ञानमां, श्रद्धामां अने आचारमां एक आत्माने ज विषय बनाव; बीजा कोई बाह्य पदार्थने तारा ज्ञाननो विषय न बनाव. श्रीमद् राजचन्द्रे कह्युं छे केः

‘काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मनरोग.’

आत्मा ज एक प्रयोजनभूत वस्तु छे. तेनी प्राप्ति ज करवा योग्य छे. ते सिवाय अन्य पदार्थोनो विचार मनना रोग समान छे.

एवी रीते समजीने धगश अने उत्साहपूर्वक जो तुं आत्मभावना करीश, तो अविद्यानोअज्ञानतानो नाश थशे अने आत्मस्वरूपनी प्राप्ति थशे. १. जुओश्रीमद् राजचंद्रकृत ‘आत्मसिद्धि’.


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ननु वाक्यायव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽसम्भवात् तद्ब्रूयादित्याद्ययुक्तमिति वदन्तं प्रत्याह

शरीरे वाचि चात्मानं सन्धत्ते वाक्शरीरयोः
भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषांनिबुध्यते ।।५४।।

‘‘ते ज्ञानस्वभावरूप ज्योति अविद्यानोअज्ञाननो नाश करनार छे तथा महान उत्कृष्ट अने ज्ञानमय छे; माटे मुमुक्षुओए तेना विषयमां ज पूछवुं, तेनी प्राप्तिनी अभिलाषा करवी तथा तेनो अनुभव करवो.’’

वळी श्री अमितगति आचार्यकृत ‘योगसार’मां कह्युं छे केः

‘‘जे पुरुष विद्वान छे तेने ते आत्मपदार्थनुं निश्चल मनथी अध्ययन करवुं योग्य छे; ते ध्यान करवा योग्य, आराधना करवा योग्य, पूछवा योग्य, सांभळवा योग्य, अभ्यास योग्य, उपार्जन करवा योग्य, जाणवा योग्य, कहेवा योग्य, प्रार्थना योग्य, शिक्षायोग्य, देखवा योग्य अने स्पर्शवा योग्य छे, कारण के तेम करवाथी आत्मा सदा स्थिरपणाने पामे छे.’’ ५३

वाणीशरीरथी भिन्न आत्मानो असंभव होवाथी तेने विषे बोलवुं (पृच्छा करवी) इत्यादि योग्य नथीएम बोलनार प्रति कहे छेः

श्लोक ५४

अन्वयार्थ :(वाक्शरीरयोः भ्रान्तः) वचन अने शरीरमां जेने आत्मभ्रान्ति छे तेवो बहिरात्मा, (वाचि शरीरे च) वचन अने शरीरमां (आत्मानं संधत्ते) आत्मानुं आरोपण करे छे अर्थात् वचन अने शरीरने आत्मा माने छे; (पुनः) परंतु (अभ्रान्तः) वचन अने १. जुओइष्टोपदेशश्लोक ४९

अविद्याभिदूरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत्
तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद् दृष्टव्यं मुमुक्षुभिः ।।४९।।

२. अध्येतव्यं स्तिमितमनसा ध्येयमाराधनीयं

पृच्छयं श्रव्यं भवति विदुषाभ्यस्यमावर्जनीयम्
वेद्यं गद्यं किमपि तदिह प्रार्थनीयं विनेयं,
दृश्यं स्पृश्यं प्रभवति यतः सर्वदात्मस्थिरत्वम्
।।४९।। [श्री अमितगति आचार्यकृत योगसारश्लोक ४९]
वच-काये जीव मानतो, वच-तनमां जे भ्रान्त;
तत्त्व पृथक् छे तेमनुंजाणे जीव निर्भ्रान्त. ५४.


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टीकासन्धत्ते आरोपयति कं आत्मानम् क्व ? शरीरे वाचि च कोऽसौ मूढः ? वाक्शरीरयोर्भ्रान्तो वागात्मा शरीरमात्मेत्येव विपर्यस्तो बहिरात्मा तयोरभ्रान्तो यथावत्स्वरूपरिच्छेदकोऽन्तरात्मा पुनः एतेषां वाक्शरीरमात्मानं तत्त्वं स्वरूपं पृथक् परस्परभिन्नं निबुद्धयते निश्चिनोति ।।५४।। कायमां आत्मभ्रान्ति नहि करनार अन्तरात्मा (एषां तत्त्वं) तेमना (आत्मा अने वाणी कायना) स्वरूपने (पृथक्) एकबीजाथी भिन्न (निबुध्यते) जाणे छे.

टीका :संधान करे छे एटले आरोपे छे. कोने? आत्माने. शामां? शरीर अने वाणीमां. ते मूढ कोण छे? वाणी अने शरीरमां भ्रान्तिवाळो अर्थात् वाणी ते आत्मा, शरीर ते आत्मा एवी विपरीत मान्यतावाळो बहिरात्मा छे; परंतु ते बन्नेमां जेने भ्रान्ति नथी अर्थात् (ते बंनेना) स्वरूपने यथार्थपणे जाणे छे ते अन्तरात्मा, तेमना एटले वाणी, शरीर अने आत्माना तत्त्वने एटले स्वरूपने पृथक् एटले एकबीजाथी भिन्न जाणे छे नक्की करे छे.

भावार्थ :वास्तवमां शरीर अने वाणी ए पुद्गलनी रचना छे, ते मूर्तिकजड छे अने आत्मस्वरूपथी विपरीत लक्षणवाळां छे, छतां अज्ञानी बहिरात्मा तेमां आत्मबुद्धि करे छे, तेने आत्मा माने छे. ए एनो भ्रम छे. आ भ्रान्तिने लीधे ते शरीरादिकनी ज भावना करे छे, आत्मानी भावना करतो नथी.

ज्ञानी अंतरात्माने जड शरीरादिक अने चेतन आत्माना स्वरूपनुं यथार्थ भेदज्ञान छे. ते आत्माने शरीरादिकथी भिन्न जाणे छे. तेने शरीरादिकमां आत्मपणानी भ्रान्ति नथी. ते शरीरने शरीर अने आत्माने आत्मा ज समजे छे, एकनो बीजामां मेलाप करतो नथी. तेने आत्माना अलग अस्तित्वनुं भान छे; तेथी ते निरंतर आत्मानी ज भावना करे छे.

विशेष

‘देहादि पर पदार्थ छे ते पर ज छे. तेने पोताना मानवाथी दुःख थाय छे, किन्तु आत्मा आत्मा ज छे अर्थात् आत्मा पदार्थ पोतानो छे, ते कदाचित् पण देहादिरूप थई शकशे नहि. तेना आश्रये ज सुखनी प्राप्ति थाय छे. माटे महापुरुषो तेने माटे ज उद्यमशील होय छे.’

‘हुं एक छुं, शुद्ध छुं, अरूपी ज्ञानदर्शनमय छुं, बीजुं कंईएक परमाणुमात्र पण मारुं नथी, एम ज्ञानी विचारे छे.’ १. जुओइष्टोपदेश४५. २. ‘‘हुं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदर्शनमय खरे;

कंई अन्य ते मारुं जरी, परमाणुमात्र नथी अरे.’’ (३८) जुओश्री समयसार गु. आवृत्ति
१५


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एवमवबुद्ध्यमानो मूढात्मा येषु विषयेष्वासक्तचित्तो न तेषु मध्ये किञ्चित्तस्योपकारकमस्तीत्याह

न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत्क्षेमङ्करमात्मनः
तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ।।५५।।

टीकाइन्द्रियार्थेषु पंचेन्द्रियविषयेषु मध्ये न तत्किञ्चिदस्ति यत् क्षेमङ्करमुपकारम् कस्य ? आत्मनः तथापि यद्यपि क्षेमङ्करं किञ्चिन्नास्ति रमते रतिं करोति कोऽसौ ? बालो बहिरात्मा तत्रैव इन्द्रियार्थेष्वेव कस्मात् ? अज्ञानभावनात् मिथ्यात्वसंस्कारवशात् अज्ञानं भाव्यते जन्यते येनासावज्ञानभावनो मिथ्यात्वसंस्कारस्तस्मात् ।।५५।।

आवी रीते ज्ञानी भेदज्ञान करी पर पदार्थोथी उदासीन थाय छे अने आत्माने तेनाथी पृथक् समजी आत्मस्वरूपनी भावना भावे छे. ५४.

आवी रीते (आत्मस्वरूप) नहि जाणनार बहिरात्मा, जे विषयोमां तेनुं चित्त आसक्त होय छे, तेमां (ते विषयोमां) कोईपण (विषय) तेने उपकारक नथी. ते कहे छेः

श्लोक ५५

अन्वयार्थ :(इन्द्रियार्थेषु) पांच इन्द्रियोना विषयोमां (तत्) एवो कोई पदार्थ (न अस्ति) नथी (यत्) जे (आत्मनः) आत्माने (क्षेमंकर) हितकारीलाभकारी होय; (तथापि) तेम छतां (बालः) अज्ञानी बहिरात्मा (अज्ञानभावनात्) मिथ्यात्वना संस्कारने लीधे (तत्र एव) तेमां ज एटले ते इन्द्रियोना विषयोमां ज (रमते) रमे छेआसक्त थाय छे.

टीका :इन्द्रियोना पदार्थोमां एटले पांचे इन्द्रियोना विषयो मध्ये एवुं कांई पण नथी ए क्षेमंकर (सुखकर) अर्थात् उपकारक होय. कोने? आत्माने; तेम छतां अर्थात् जो के कंई सुखकर नथी छतां (तेमां) रमे छेरति करे छे. कोण ते? बाल (अज्ञानी) अर्थात् बहिरात्मा तेमां ज एटले इन्द्रियोना विषयोमां ज (रमे छे), शाथी? (रमे छे)? अज्ञान भावनाथी अर्थात् मिथ्यात्वना संस्कारवश (रमे छे), जेनाथी अज्ञान जन्मेपेदा थाय ते अज्ञानभावने एटले मिथ्यात्वना संस्कारतेनाथी (इन्द्रियोना विषयोमां रमे छे).

इन्द्रियविषये जीवने कांई न क्षेमस्वरूप;
छतां अविद्याभावथी रमण करे त्यां मूढ. ५५.


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भावार्थ :इन्द्रियोना विषयोमां एवो कोई पण विषय नथी के जे आत्माने हितकारी होय, तेम छतां अज्ञानी बहिरात्मा, अनादिकाळना अविद्याना संस्कारने लीधे, तेमां रति करे छेआसक्त रहे छे.

इन्द्रियविषयोनुं सुख ते सुख नथी. वास्तवमां ते दुःख छे, कारण के ते पराधीन छे, आकुळतावाळुं छे, अस्थिर छे, क्षणभंगुर छे, विच्छिन्न छे, परिणामे दुःसह छे अने बंधनुं कारण छे; तेम छतां अनादि मिथ्यात्वना संस्कारवश अज्ञानी तेनी रुचि करे छे अने तेनी प्राप्ति माटे चिंता करी रातदिन तेनी पाछळ लाग्यो रहे छे.

विशेष

विषयो हितकारी के सुखदायी नथी. तेओ ‘अकिंचित्कर’ छे. ‘‘संसारमां के मोक्षमां आत्मा पोतानी मेळे ज सुखरूप परिणमे छे; तेमां विषयो ‘अकिंचित्कर’ छे अर्थात् कांई करता नथी. अज्ञानीओ विषयोने सुखनां कारण मानीने नकामा तेमने अवलंबे छे.’’

‘‘जेमने विषयोमां रति छे, तेमने दुःख स्वाभाविक जाणो; कारण के जो दुःख (तेमनो) स्वभाव न होय तो विषयार्थे व्यापार न होय.’’

‘‘अज्ञानी बाह्य इन्द्रियोना विषयोमां सुख माने छे, तेना ग्रहणनी निरंतर इच्छाथी सदा आकुलव्याकुल रहे छे. आ आकुळतानुं दुःख तेने केटलीक वखत एटलुं असह्य लागे छे के विषय ग्रहण करवाना प्रयत्नमां कदाच मृत्युने भेटवुं पडे तो पण तेनी दरकार करतो नथी. ए बतावे छे के मृत्युना दुःख करतां आकुळतानुं दुःख वधारे छे.’’

ए रीते इन्द्रियोना विषयोमां वास्तविक सुख नहि होवा छतां, अनादि अविद्याना संस्कारने लीधे अज्ञानी तेमां रत रहे छे. ५५. १. जुओश्री प्रवचनसार गाथा७६ अने टीकाभावार्थ (गु. आवृत्ति)

परयुक्त, बाधासहित, खंडित, बंधकारण, विषम छे;
जे इन्द्रियोथी लब्ध ते सुख ए रीते दुःख ज खरे. (७६)

२. श्री प्रवचनसारगा. ६नो भावार्थ. ३. विषयो विषे रति जेमने, दुःख छे स्वभाविक तेमने;

जो ते न होय स्वभाव व्यापार तो नहि विषयो विषे. (६४)
(श्री प्रवचनसार गु. आवृत्तिगाथा ६४)

४. जुओः मोक्षमार्ग प्रकाशकगु. आवृत्ति पृ. ५१.


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तथा अनादिमिथ्यात्वसंस्कारे सत्येवम्भूता बहिरात्मनो भवन्तीत्याह

चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः कुयोनिषु
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति ।।५६।।

टीकाचिरमनादिकालं मूढात्मानो बहिरात्मानः सुषुप्ता अतीव जडतां गताः केषु ? कुयोनिषु नित्यनिगोदादिचतुरशीतिलक्षयोनिष्वधिकरणभूतेषु कस्मिन् सति ते सुषुप्ताः ? तमसि अनादिमिथ्यात्वसंस्कारे सति एवम्भूतास्ते यदि संज्ञिषूत्पद्य कदाचिद्दैववशाद् बुध्यन्ते तदा ममाहमिति जाग्रति ? केषु ? अनात्मीयात्मभूतेषुअनात्मीयेषु परमार्थतोऽनात्मीयभूतेषु पुत्रकलत्रादिषु ममैते इति

अनादि मिथ्यात्वना संस्कारने लीधे आवा (प्रकारना) बहिरात्माओ थाय छेते कहे छेः

श्लोक ५६

अन्वयार्थ :(मूढात्मनः) मूर्ख अज्ञानी जीवो (तमसि) मिथ्यात्वरूपी अंधकारवश (चिरं) अनादि काळथी (कुयोनिषु) नित्य निगोदादि कुयोनिओमां (सुषुप्ताः) सुषुप्त अवस्थामां एटले मूर्छित अवस्थामां पडी रह्या छे. जो कदाचित् तेओ पंचेन्द्रिय संज्ञी थाय तो (अनात्मीयात्मभूतेषु) ‘अनात्मीयभूत’मां एटले वास्तवमां जे पोतानां नथी तेवां स्त्रीपुत्र वगेरेमां (मम) ‘ए मारां छे’, अने ‘अनात्मभूत’मां एटले शरीरादिमां (अहं) हुं छुं-हुं ए रूप छुं’ (इति जाग्रति) एवो अध्यवसाय करे छे.

टीका :चिरकालथीअनादि काळथी मूढात्माओ एटले बहिरात्माओ सूई रह्या छे अर्थात् अति जडताने प्राप्त थया छे. क्यां (सूई रह्या छे)? कुयोनिओमां अर्थात् नित्य निगोदादि चोराशी लक्ष योनिस्थानोमां शुं थतां ते तेमां सूता छे? अंधकार अर्थात् अनादि मिथ्यात्वना संस्कार (ने वश) थतां (सूता छे). एवा थयेला (सूतेला) ते (बहिरात्माओ) जो संज्ञी (जीवोमां) उत्पन्न थई कदाचित् एटले दैववशात् जागृत थाय, तो तेओ ‘मारुं हुं’ एवो अध्यवसाय करे छे. शामां? अनात्मीयभूतमां अने अनात्मभूतमांअर्थात् अनात्मीयमां एटले वास्तवमां अनात्मीयभूत अर्थात् पोतानां नथी तेवा पुत्रस्त्री आदिमां ‘ए मारां छे’ एवुं माने छे एटले एवो अध्यवसाय करे छे, अने अनात्मभूत जे शरीरादि

मूढ कुयोनिमहीं सूता तमोग्रस्त चिरकाळ;
जागी तन-भार्यादिमां करे ‘हुं-मुज’ अध्यास. ५६.


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जाग्रति अध्यवस्यन्ति अनात्मभूतेषु शरीरादिषु अहमेवैते इति जाग्रति अध्यवस्यन्ति ।।५६।।

ततो बहिरात्मसवरूपं परित्यज्य स्वपरशरीरमित्थं पश्येदित्याह तेमां ‘ते हुं ज छुं’ एवो अध्यवसाय करे छेएवी ऊंधी मान्यता करे छे.

भावार्थ :अनादिकाळथी आ अज्ञानी जीव, मिथ्यात्वना संस्कारवश नित्य निगोदादि निंद्य पर्यायोमांचोराशी लक्ष योनिस्थानोमांज्ञाननी अत्यंत हीनदशामां अर्थात् जडवत् मूर्छित अवस्थामां पडी रह्यो छे. कदाचित् जो ते संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय प्राप्त करे अने थोडी ज्ञानशक्ति जागृत थाय, तो ते अनादि अविद्याना संस्कारने लीधे, स्त्रीपुत्र मित्रादि जे पोताथी प्रत्यक्ष भिन्न छे अर्थात् ‘अनात्मीय’ छे तेमां ‘आ मारां’ एवी ममकारबुद्धि करे छे अने शरीरादि जे पोतानुं स्वरूप नथी, जे ‘अनात्म’ अर्थात् जड छे, तेमां ‘आ हुं छुं’ एवी आत्मबुद्धि करे छे.

विशेष

शरीर, शुभाशुभ रागादि भावकर्म अने ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मनो आत्मा साथे संयोग संबंध छे. वास्तवमां ते बधां आत्माथी भिन्न छेआत्मस्वरूप नथी; माटे तेओ ‘अनात्मभूत’ छे; छतां अज्ञानी तेने पोतानां माने छे.

स्त्रीपुत्रमित्रादिनो आत्मा साथे प्रत्यक्ष भिन्न संयोग संबंध छे. वास्तवमां तेओ जीवनां पोतानां नथी; तेथी तेओ ‘अनात्मीयभूत’ छे.

अज्ञानी, आ अनात्मभूत अने अनात्मीयभूत पदार्थोमां ममकारबुद्धि अने आत्मबुद्धि करी पोताना चैतन्यस्वरूपने भूली अनादिकाळथी भवभ्रमण करी रह्यो छे. भवभ्रमणनुं मूल कारण जीवनो मिथ्यात्वभाव ज छे.

‘‘जे आत्मा ए रीते जीव अने पुद्गलना (पोतपोताना) निश्चित चेतनत्व अने अचेतनत्व स्वभाव वडे स्वपरनो विभाग देखतो नथी. ते ज आत्मा ‘आ हुं छुं आ मारुं छे’ एम मोहथी परद्रव्यमां पोतापणानुं अध्यवसान करे छे; बीजो नहि.....’’५६.

तेथी बहिरात्मस्वरूपनो त्याग करी स्वपरना शरीरने आवी रीते जोवुंते कहे छेः १. परने स्वने नहि जाणतो, ए रीत पामी स्वभावने,

ते ‘आ हुं, आ मुज’ एम अध्यवसान मोह थकी करे.....(१८३)
(श्री प्रवचनसारगु. आवृत्ति, गाथा १८३नी टीका जुओ)


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पश्येन्निरंतरं देहमात्मनोऽनात्मचेतसः
अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्त्वे व्यवस्थितः ।।५७।।

टीकाआत्मनो देहमात्मसम्बन्धिशरीरं अनात्मचेतसा इदं ममात्मा न भवतीति बुद्ध्या अन्तरात्मा पश्येत् निरन्तरं सर्वदा तथा अन्येषां देहं परेषामात्मा न भवतीति बुद्ध्या पश्येत् किं विशिष्टः ? आत्मतत्त्वे व्यवस्थितः आत्मस्वरूपनिष्ठः ।।५७।।

श्लोक ५७

अन्वयार्थ :ज्ञानीए (आत्मतत्त्वे) आत्मस्वरूपमां (व्यवस्थितः) स्थित थई (आत्मनः देहं) पोताना शरीरने (अनात्मचेतसा) ‘आ मारो आत्मा नथी’ एवी बुद्धिथी (निरंतरं पश्येत्) निरंतर जोवुंअनुभववुं अने (अन्येषां) बीजा जीवोना शरीरने पण (अपरात्मधिया) ‘आ बीजानो आत्मा नथी’ एवी बुद्धिथी (पश्येत्) सदा अवलोकवुं.

टीका :पोताना शरीरने एटले आत्मा साथे संबंध राखनार शरीरने, अनात्मबुद्धिए अर्थात् ‘आ मारो आत्मा नथी’ एवी बुद्धिए अन्तरात्माए निरंतरसर्वदा देखवुं (अनुभववुं) तथा बीजाओना देहने, ‘ए परनो आत्मा नथी’ एवी बुद्धिए जोवुं. केवा थईने (तेम करवुं)? आत्मतत्त्वमां, व्यवस्थित थईने एटले आत्मस्वरूपमां स्थित थईने (तेम करवुं).

भावार्थ :ज्ञानीए आत्मस्वरूपमां स्थित थईने पोताना शरीरने अनात्मबुद्धिए निरंतर जोवुंअनुभववुं अर्थात् ‘आ शरीर ते मारो आत्मा नथी’ एवी भेदबुद्धिथी सदा जाणवुं. बीजाना शरीरने पण तेवी भेदबुद्धिथी देखवुंअर्थात् बीजानुं शरीर ते तेनो आत्मा नथी एम भेदबुद्धिए सदा देखवुं.

विशेष

आचार्य उपदेशरूपे कहे छेः

‘हे जीव, तुं अनादिथी शरीरादि बाह्य पदार्थोमां आत्मबुद्धि करी संसारमां रखडी दुःखी थयो, पण हवे सुखी थवुं होय तो देहमां आत्मबुद्धिनो त्याग करी आत्मस्वरूपमां स्थिर था, अर्थात् बहिरात्मपणुं छोडी दई हवे अन्तरात्मा बन. तारो आत्मा चैतन्यस्वरूप छे अने तारुं शरीर तो अचेतन छे. ए तारुं स्वरूप नथी, छतां तुं तेने तारो आत्मा माने छे अने

आत्मतत्त्वमां स्थित थई नित्य देखवुं एम,
मुज तन ते मुज आत्म नहि, पर तननुं पण तेम. ५७.