Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 34-45.

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ननु परमतपोऽनुष्ठायिनां महादुःखोत्पत्तितो मनः खेदसद्भावात्कथं निर्वाणप्राप्तिरिति वदन्तं प्रत्याह

आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृतः
तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते ।।३४।।

टीकाआत्मा च देहश्च तयोरन्तरज्ञानं भेदज्ञानं तेन जनितश्चासावाह्लादश्च परमप्रसत्तिस्तेन निर्वृतः सुखीभूतः सन् तपसा द्वादशविधेन कृत्वा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि दुष्कर्मणो रौद्रस्य विपाकमनुभवन्नपि न खिद्यते न खेदं गच्छति ।।३४।।

आत्मभान विना अज्ञानी जे तपादि करे छे ते बधो कायक्लेश छे. तेनाथी चैतन्यनी शांतिनुं वेदन नथी. ते खरेखर तप नथी पण ‘ताप’ छेक्लेश छे. तेनाथी मुक्तिनी प्राप्ति कदी थती नथी, परंतु जेनाथी चैतन्यनुं प्रतपन होय, चैतन्यना आनंदनो अनुभव होय ते ज खरुं तप छे. तेनाथी ज निर्वाणनी प्राप्ति थाय छे.

माटे प्रथम भेदज्ञान द्वारा स्वात्मानुं ज अवलंबन करी तेमां ज लीनता करवी ते ज एक निर्वाणप्राप्तिनो उपाय छे. बीजा बधा उपाय जूठा छे, दुःखदायक छे अने संसारनुं कारण छे. ३३.

परम तप करनाराओने महादुःखनी उत्पत्ति थवाथी तथा मनमां खेद थवाथी निर्वाणनी प्राप्ति केम संभवे? एवी शंका करनार प्रति कहे छेः

श्लोक ३४

अन्वयार्थ : (आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृत्तः) आत्मा अने देहना भेद विज्ञानथी उत्पन्न थयेला आह्लादथी जे आनंदित छे ते (तपसा) तपद्वारा (घोरं दुष्कृतं) भयानक दुष्कर्मो (भुंजानः अपि) भोगवतो होवा छतां (न खिद्यते) खेद पामतो नथी.

टीका : आत्मा अने देहते बंनेना अंतरज्ञानभेदज्ञानथी जे आह्लाद अर्थात् परम प्रसन्नता (प्रशान्ति) उत्पन्न थाय छे तेनाथी आनंदित एटले सुखी थईने, बार प्रकारना तपे करी घोर दुष्कर्मने भोगवतो छतां अर्थात् भयानक दुष्कर्मना विपाकने (फलने) अनुभवतो होवा छतां, ते खिन्न थतो नथीखेद पामतो नथी.

आतम-देहविभागथी ऊपज्यो ज्यां आह्लाद,
तपथी दुष्कृत घोरने वेदे पण नहि ताप. ३४.


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भावार्थ : जेने आत्मा अने शरीरनुं भेदज्ञान वर्ते छे, ते चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थई अतीन्द्रिय आनंदमां झूलतो होवाथी तेने सहेजे उपवासादि बार प्रकारनां तप होय छे. तेनाथी तेने मनमां खेद थतो नथी अने तपश्चरणना काळे घोर दुष्कर्मना फलस्वरूप बाह्य रोगादि के उपसर्गादिनां कारणो उपस्थित होवा छतां, तेना आनंदमां बाधा आवती नथी, अर्थात् ते खेदखिन्न थतो नथी.

विशेष

जेम सुवर्ण, अग्निथी तप्त होवा छतां, तेना सुवर्णपणाने छोडतुं नथी, तेम ज्ञानी कर्मना उदयथी तप्त होवा छतां पोताना ज्ञानीपणाने छोडतो नथी.

साधकनी नीचली दशामां सम्यग्द्रष्टिने रोग, उपसर्गादि आवी पडे तो अस्थिरताना कारणे तेने थोडी आकुलता थाय छे अने तेना प्रतिकारनी पण ते इच्छा करे छे, परंतु श्रद्धा ज्ञानमां शरीर प्रत्येना ममत्वभावनो अभाव होई तेने तेनुं स्वामीत्व होतुं नथी. ते तो फक्त तेनो ज्ञाताद्रष्टा रहे छे; तेथी स्वभावद्रष्टिना बळे ते जेम जेम आत्मस्वरूपमां स्थिरता पामे छे, तेम तेम तेने वीतरागता वधती जाय छे अने रागद्वेषादिनो अभाव थतो जाय छे; एटले जेटले अंशे वीतरागता प्रगटे छे तेटले अंशे आकुलतानो अभाव थाय छे एम समजवुं.

स्वरूपमां ठरवुं अने चैतन्यनुं निर्विकल्पपणे प्रतपवुं अर्थात् आत्मानी शुद्ध पर्यायमां वीर्यनुं उग्र प्रतपन ते तपे छे. आवी समजण अने स्वरूपाचरणना कारणे ज्ञानी उदयमां आवेला प्रतिकूळ संयोगोथी खेदखिन्न थतो नथी.

मुनि मनवचनकायनी निश्चल गुप्तिद्वारा आत्मध्यानमां एटला लीन थई जाय छे के तेमनी स्थिर मुद्रा देखी, पशुओ तेमना शरीरने पथ्थर समजी खूजली खंजवाळे छे, छतां तेओ पोताना ध्यानमां निश्चल रहे छे.

माटे अतीन्द्रिय आनंदमां झूलता ज्ञानीओने तपश्चर्यादिनुं कष्ट लागतुं नथी. ३४. १. ज्यम अग्नितप्त सुवर्ण पण निज स्वर्णभाव नहीं तजे,

त्यम कर्मउदये तप्त पण ज्ञानी न ज्ञानीपणुं तजे.(श्री समयसार, गु. आ.गाथा १८४)

२. ‘सहज निश्चयनयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मामां प्रतपन ते तप छे; निज स्वरूपमां अविचल

स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र आ तपथी होय छे.’ (श्री नियमसार, गाथा५१५५नी टीका)

३. ‘सम्यक्प्रकार निरोध मनवचकायआतम ध्यावते,

तिन सुथिर मुद्रा देखि, मृगगण उपल खाज खुजावते’ (छहढाला//4)
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खेदं गच्छतामात्मस्वरूपोपलम्भाभावं दर्शयन्नाह

रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं स तत्त्वं नेतरो जनः ।।३५।।

टीकारागद्वेषादय एव कल्लोलास्तैरलोलमचञ्जलमकलुषं वा यन्मनोजलं मन एव जलं मनोजलं यस्य मनोजलम् यन्मनोजलम् स आत्मा पश्यति आत्मनस्तत्त्वमात्मनः स्वरूपम् स तत्त्वम् स आत्मदर्शी तत्त्वं परमात्मस्वरूपम् नेतरो जनः (रागादिपरिणतः जनः) तत्त्वं न भवति ।।३५।।

खेद पामनाराओने आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो अभाव दर्शावतां कहे छे केः

श्लोक ३५

अन्वयार्थ : (यन्मनोजलम्) जेनुं मनरूपी जल (रागद्वेषादिकल्लोलैः) रागद्वेषादि तरंगोथी (अलोलं) चंचल थतुं नथी, (सः) ते (आत्मनः तत्त्वं) आत्माना यथार्थ स्वरूपने (पश्यति) देखे छेअनुभवे छे. (तत् तत्त्वं) ते आत्मतत्त्वने (इतरः जनः) बीजो माणस रागद्वेषादिथी आकुलित चित्तवाळो माणस (न पश्यति) देखी शकतो नथी.

टीका : रागद्वेषादि जे कल्लोलो (तरंगो) छे, तेनाथी अलोलअचंचलअकलुष जेनुं मनरूपी जल छे [मन ए ज जल ते मनोजल, जेनुं मनोजल छे] ते आत्मा, आत्माना तत्त्वने एटले परमात्मस्वरूपने देखे छे (अनुभवे छे,) अर्थात् [ते तत्त्वने] ते एटले आत्मदर्शी तत्त्वने एटले परमात्मस्वरूपने (अनुभवे छे,) बीजो कोई जन अर्थात् रागादिपरिणत अन्य [अनात्मदर्शी] जन तत्त्वने अनुभवी शकतो नथी.

भावार्थ : जेनुं मन रागद्वेषादि विकल्पोथी आकुलितचलित थतुं नथी ते आत्माना यथार्थ स्वरूपनेपरमात्मस्वरूपने अनुभवे छे; बीजो कोई रागद्वेषादिथी आकुलित अनात्मदर्शी जन तेने अनुभवी शकतो नथी.

जेम तरंगोथी ऊछळता पाणीमां अंदर रहेली वस्तु देखाती नथी, तेम राग द्वेषादिरूप तरंगोथीविकल्पोथी चंचल बनेला मनरूपी जलमां अर्थात् ज्ञानजलमां आत्म तत्त्व देखातुं नथी. निर्विकल्प दशामां ज आत्मदर्शन थाय छे; सविक्ल्प दशामां आत्मानुभव थतो नथी.

रागादिक-कल्लोलथी मन-जळ लोल न थाय,
ते देखे चिद्तत्त्वने, अन्य जने न जणाय. ३५.
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किं पुनस्तत्त्वशब्देनोच्यत इत्याह

अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मनः
धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः ।।३६।।

टीकाअविक्षिप्तं रागाद्यपरिणतं देहादिनाऽऽत्मनोऽभेदाध्यवसायपरिहारेण स्वस्वरूप एव निश्चिलतां गतम् इत्थं भूतं मनः तत्त्वं वास्तवं रूपमात्मनः विक्षिप्तं उक्तविपरीतं

विशेष

वस्तुस्वरूप समजी अतीन्द्रिय आत्मस्वरूपनी सन्मुख थतां रागद्वेषादि विकल्पो स्वयं शान्त थई जाय छे. तेने शमाववा माटे आत्मसन्मुखता सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. उपयोग अंतर्मुख थतां रागद्वेषादिनो अभाव थाय छे, निर्विकल्प दशा प्रगट थाय छे अने परमात्मतत्त्वनो आनंद अनुभवमां आवे छे. ते वखते बहारनी गमे तेवी अनुकूळता के प्रतिकूळता होय तो पण चित्त मलिन थतुं नथी. आवो जीव स्वरूपमां लीन थई अकथ्य आनंदशान्ति अनुभवे छे, परंतु बाह्य पदार्थोमां इष्टअनिष्टनी कल्पना करी जेनुं चित्त रागद्वेषादि कषायोथी आकुलित थाय छे तेने शुद्धात्मानो आनंद आवतो नथी; अर्थात् तेने शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति थती नथी. ३५.

वळी तत्त्व शब्दथी शुं कहेवा मागे छे ते कहे छेः

श्लोक ३६

अन्वयार्थ : (अविक्षिप्तं) अविक्षिप्त (मनः) मन छे ते (आत्मनः तत्त्वं) आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे अने (विक्षिप्तं) विक्षिप्त मन छे ते (आत्मनः भ्रान्तिः) आत्मविभ्रम छे (ततः) तेथी (तम् अविक्षिप्तं) ते अविक्षिप्त मनने (धारयेत्) धारण करवुं अने (विक्षिप्तं) विक्षिप्त मननो (न आश्रयेत्) आश्रय करवो नहि.

टीका : अविक्षिप्त एटले रागादिथी अपरिणतदेहादि साथे आत्माना अभेद (एकरूप)ना अध्यवसाय (मिथ्या अभिप्राय)नो परिहार करीने स्वस्वरूपमां ज निश्चल (स्थिर) थई गएलुं एवुं मन ते आत्मतत्त्व एटले आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे.

विक्षिप्त एटले उपर कह्युं तेनाथी विपरीत (अर्थात् रागादिथी परिणत तथा देह अने

अविक्षिप्त मन तत्त्व निज, भ्रम छे मन विक्षिप्त;
अविक्षिप्त मनने धरो, धरो न मन विक्षिप्त. ३६.


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मनोभ्रान्तिरात्मस्वरूपं न भवति यत एवं तस्मात् धारयेत् किं तत् ? मनः कथम्भूतम् ? अविक्षिप्तम् विक्षिप्तं पुनस्तत् नाश्रयेन्न धारयेत् ।।३६।। आत्माना भेदज्ञानथी रहित) मन ते (आत्म) भ्रान्ति छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी; माटे (तेनेअविक्षिप्त मनने) धारण करवुं. तेने एटले कोने? मनने; केवा (मनने)? अविक्षिप्त (मनने); परंतु ते विक्षिप्त (मनने) धारण करवुं नहितेनो आश्रय करवो नहि.

भावार्थ : जे मन रागद्वेषथी विक्षिप्त थतुं नथीआकुलित थतुं नथी, देहादिमां आत्मबुद्धि करतुं नथी अने आत्मस्वरूपमां निश्चल रहे छे ते आत्मतत्त्व छेआत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे. जे मन रागद्वेषादिकरूपे परिणमे छेतेनाथी विक्षिप्त थाय छे; देह अने आत्माना भेदज्ञानथी रहित छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी ते आत्मभ्रान्ति छे, आत्मानुं निजरूप नथी. माटे अविक्षिप्त मन आत्मतत्त्व होवाथी प्रगट करवा योग्य छे अने विक्षिप्त मन आत्मआत्मतत्त्व नहि होवाथी हेय छेत्यागवा योग्य छे.

ज्यारे ज्ञानस्वरूप भाव मन रागादि विभाव भावोथी छूटी आत्माने, शरीरादि बाह्य पदार्थोथी भिन्न, चैतन्यमय, एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावरूप अनुभव करवा लागे छे तथा तेमां तन्मय थई जाय छे त्यारे ते अविक्षिप्त अर्थात् निर्विकल्प भाव मनने ‘आत्मतत्त्व कहे छे, परंतु ज्यारे तेमां विकल्पो ऊठवा लागे त्यारे ते विक्षिप्त अर्थात् सविकल्प मनने आत्मानुं तत्त्व कहेता नथी. ते आस्रव छे. माटे आत्मार्थीए स्वसन्मुख थईने निर्विकल्प मनने जअविक्षिप्त मनने ज धारण करवुं जोईए. तेनाथी ज आत्मलाभ छे.

विशेष

प्रथम स्वपरनुं भेदज्ञान करी पर पदार्थोमां इष्टअनिष्टपणानी कल्पनानो त्याग करवो, रागद्वेषादिनां कारणो तरफ उपेक्षाबुद्धि करवी अने भावश्रुतज्ञानने अंतर्मुख करवुं. आथी पर पदार्थो संबंधीना संकल्पविकल्पो बधा शमी जशे, मन अविक्षिप्त बनशे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थशे. आवा अविक्षिप्त भाव मनने ज प्रगट करवा आचार्ये उपदेश आप्यो छे, कारण के ते आत्मतत्त्व छे अने ते मोक्षनुं कारण छे.

जे ज्ञाननो उपयोग रागादि विकारोमां तथा पर पदार्थोमां रोकाय छे ते ज्ञान नथी, पण जे ज्ञान ज्ञानमां ज प्रतिष्ठित थाय छे ते ज वास्तविक ज्ञान छेआत्मतत्त्व छे; माटे ते उपादेय छे.

जे उपयोग परमां ज अटकेलो रहेवाथी आत्मसन्मुख वळतो नथी, ते परना वलणवाळुं तत्त्व छे, आत्माना वलणवाळुं तत्त्व नथी, तेनाथी संसार छे, माटे ते हेय छे. ३६.


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कुतः पुनर्मनसो विक्षेपो भवति कुतश्चाविक्षेप इत्याह

अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः
तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ।।३७।।

टीकाशरीरादौ शुचिस्थिरात्मीयादिज्ञानान्यविद्यास्तासामभ्यासः पुनः पुनः प्रवृत्तिस्तेन जनिताः संस्कारा वासनास्तैः कृत्वा अवशं विषयेन्द्रियाधीनमनात्मायत्तमित्यर्थः क्षिप्यते विक्षिप्तं भवति मनः तदेव मनः ज्ञानसंस्कारैरात्मनः शरीरादिभ्यो भेदज्ञानाभ्यासैः स्वतः स्वयमेव तत्त्वे आत्मस्वरूपे अवतिष्ठते ।।३७।।

वळी कया कारणथी मननो विक्षेप थाय छे अने कया कारणे तेनो अविक्षेप थाय छे ते कहे छेः

श्लोक ३७

अन्वयार्थ : (अविद्याभ्याससंस्कारैः) अविद्याना अभ्यासथी उत्पन्न थयेला संस्कारो (मनः) मन (अवशं) अवशपणेस्वाधीन नहि रहेवाथी (क्षिप्यते) विक्षिप्त थाय छे. (तत् एव) ते ज मन (ज्ञानसंस्कारैः) भेदज्ञानना संस्कारो द्वारा (स्वतः) स्वतः (तत्त्वे) आत्मस्वरूपमां (अवतिष्ठते) स्थिर थाय छे.

टीका : शरीर वगेरेने पवित्र, स्थिर अने आत्मीय (पोतानुं) आदि मानवारूप जे अविद्या (अज्ञान) तेनो अभ्यास अर्थात् तेनी वारंवार प्रवृत्ति तेनाथी उत्पन्न थयेला संस्कारो एटले वासनाओते वडे करीने अवशअर्थात् विषयो अने इन्द्रियोने आधीन एटले आत्माने आधीन ते मन विक्षेप पामे छे; एटले विक्षिप्त थाय छे. ते ज मन, ज्ञानसंस्कारो वडे अर्थात् आत्माने शरीरादिथी भिन्न जाणवारूप अभ्यास वडे, स्वतः एटले स्वयं ज तत्त्वमां अर्थात् आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.

भावार्थ : शरीरादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करवी ते अज्ञान छेअविद्या छे. तेना पुनः पुनः प्रवृत्तिरूप अभ्यासथी उत्पन्न थयेला संस्कारोथी मन परवश थईनेपराधीन थईने रागीद्वेषी बनी जाय छेविक्षिप्त थाय छे. आ ज मन भेदज्ञानना संस्कारोथी स्वतः एटले पोतानी मेळे आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.

अज्ञानज संस्कारथी मन विक्षेपित थाय;
ज्ञानज संस्कारे स्वतः तत्त्व विषे स्थिर थाय. ३७.


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शरीर जड छे, अपवित्र छे, अस्थिर छे ने पर छे. तेमां आत्मानी कल्पना करी तेने पवित्र, स्थिर ने पोतानुं मानवुं तथा ज्ञान अने रागने एक मानवा अर्थात् शुभ भावथी लाभ मानवो ते अविद्या छेअज्ञान छे. आ अज्ञानतानेऊंधी मान्यता अने ऊंधा ज्ञानने वारंवार अंदर घूंटवाथी अने तदनुसार आचरण करवाथी वासनारूप संस्कारो उत्पन्न थाय छे. आ संस्कारोथी मन पोताने वशस्वाधीन वर्ततुं नथी, परंतु परवश बने छेअर्थात् विषयो अने इन्द्रियोने आधीन थई क्षुब्ध थाय छेविक्षिप्त थाय छे. आवुंरागद्वेष आकुलित मन बाह्य विषयोमां ज प्रवर्ते छे, ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी.

हुं शरीरादिथी अने रागद्वेषादि विकारोथी भिन्न, पवित्र, स्थिर अने ज्ञायकस्वरूप छुंएवा स्वपरना भेदविज्ञान द्वारा उत्पन्न थयेला ज्ञानसंस्कारोथी ते ज मन स्वयं स्वाधीनपणेपोतानी ज मेळे रागद्वेषादिथी रहित थाय छेअविक्षिप्त थाय छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.

विशेष

शुद्धात्मानी वारंवार भावनाथी ज्ञानना संस्कारो उत्पन्न थाय छे. तेनाथ मन राग द्वेष रहित थई समाधिमां ठरे छे.

‘हुं शुद्धज्ञानस्वरूप परमात्मा छुं; शरीरमनवाणीरूप हुं नथी. हुं तेनाथी भिन्न छुं’एवी वारंवार भावना भाववाथी तेना संस्कारो द्रढ थाय छे अने तेवा संस्कारोथी चैतन्यस्वरूपमां स्थिरता प्राप्त थाय छे.

माटे ज्ञानसंस्कार समाधिनुं कारण छे अने अविद्याना संस्कार असमाधिनुं कारण छे.

ज्ञानसंस्कारो द्वारा जेम जेम स्वरूपमां स्थिरता वधती जाय छे, तेम तेम राग द्वेषादि भावो छूटता जाय छे अने वीतरागता वधती जाय छे. माटे ज्यां सुधी मन (ज्ञाननो उपयोग) बाह्य विषयोथी छूटी आत्मस्वरूपमां स्थिर न थाय त्यां सुधी आत्मतत्त्वनी भावना कर्या ज करवी.

श्री समयसार कलश१३०मां कह्युं छे केः

भावयेद्भेदविज्ञानमिदमछिन्नधारया।
तावद्यावत् पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।१३०।।

१. जुओसमाधितंत्र श्लोक २८२


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चित्तस्य विक्षेपेऽविक्षेपे च फलं दर्शयन्नाह

अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः
नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः ।।३८।।

टीकाअपमानो महत्त्वखंडनं अवज्ञा च स आदिर्येषां मदेर्ष्यामात्सर्यादिनां ते अपमानादयो भवन्ति यस्य चेतसो विक्षेपो रागादिपरिणतिर्भवति यस्य पुनश्चेतसो न क्षेपो विक्षेपो

‘‘आ भेदविज्ञान अछिन्नधाराथीअर्थात् जेमां विच्छेद न पडे एवा अखंड प्रवाहरूपेत्यां सुधी भाववुं, के ज्यां सुधी परभावोथी छूटी ज्ञान ज्ञानमां ज (पोताना स्वरूपमां ज) ठरी जाय.’’

अहीं ज्ञाननुं ज्ञानमां ठरवुं बे प्रकारे जाणवुं. एक तो, मिथ्यात्वनो अभाव थई सम्यग्ज्ञान थाय अने फरी मिथ्यात्व न आवे, त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठर्युं कहेवाय; बीजुं ज्यारे ज्ञान शुद्धोपयोगरूपे स्थिर थई जाय अने फरी अन्य विकाररूपे न परिणमे त्यारे ते ज्ञानमां ठरी गयुं कहेवाय. ज्यां सुधी बन्ने प्रकारे ज्ञान ज्ञानमां न ठरी जाय त्यां सुधी भेदविज्ञान भाव्या करवुं.’’

आ श्लोकमां ‘स्वतः’ शब्द ए सूचवे छे के जीव स्वयं पोताना सम्यक् पुरुषार्थथी पोताना स्वरूपमां स्थिर थाय छे, बीजा कोई कारणे नहि. ३७.

मनना विक्षेपनुं अने अविक्षेपनुं फल बतावी कहे छेः

श्लोक ३८

अन्वयार्थ : (यस्य चेतसः) जेना मनमां (विक्षेपः) विक्षेपरागादि परिणाम थाय छे, (तस्य) तेने (अपमानादयः) अपमानादिक होय छे, पण (यस्य चेतसः) जेना मनमां (क्षेपः न) क्षेपरागादिरूप परिणाम थतां नथी (तस्य) तेने (अपमानादयः न) अपमान तिरस्कारादि होतां नथी.

टीका : जेनुं मन विक्षेप पामे छे अर्थात् रागादिरूपे परिणमे छे, तेने अपमानादि अर्थात् अपमान एटले पोताना महत्त्वनुं खंडनअवज्ञा, मद, इर्ष्या, मात्सर्य, वगेरे थाय १. जुओः श्री समयसार कलश१३०. गु. आवृत्तिमां भावार्थ

अपमानादिक तेहने, जस मनने विक्षेप;
अपमानादि न तेहने, जस मन नहि विक्षेप. ३८.


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नास्ति तस्य नापमानादयो भवन्ति ।।३८।।

अपमानादिनां चापगम उपायमाह छे, परंतु जेना मनमां विक्षेप थतो नथी, तेने अपमानादि थतां नथी.

भावार्थ : जेनुं मन रागद्वेषादि विकारोथी विक्षिप्त थाय छे, तेने ज मान अपमानादिनी लागणी थाय छे, परंतु जेनुं मन रागद्वेषरूपे परिणमतुं नथी तेने अपमानादिनी लागणी उद्भवती नथी. ते मानअपमानमां समभावे वर्ते छे.

मोहरागद्वेषादि विभावोमां वर्ततो जीव ज मानअपमाननी कल्पनाथी दुःखी थाय छे, परंतु जेनुं चित्त रागद्वेषमोहादि विभावोथी रहित थई पोताना ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थाय छे तेने मानअपमाननी कल्पनाओ उत्पन्न थती नथी, कारण के ज्ञानानंदमां लीन थतां कोण बहुमान करे छे कोण अपमान करे छेएवो विकल्प ज ऊठतो नथी. ते ज्ञाताद्रष्टापणे रहे छे.

विशेष

ज्ञानीने शत्रुमित्र प्रत्ये, मानअपमानना प्रसंगे, जीवन के मरणना विषयमां अने संसार के मोक्षमां समभावसमदर्शिता वर्ते छे.

‘‘ज्ञानभावना छोडीने अज्ञानथी जे जीव पर संयोगमां मानअपमाननी बुद्धि करे छे ते अज्ञानी छे. जेने ज्ञानस्वभावनी भावना नथी एवा अज्ञानीने ज बाह्यद्रष्टिथी एकांत मानअपमानरूप परिणमन थाय छे. ज्ञानस्वभावनी भावनामां ज्ञानीने ज्ञाननुं ज परिणमन थाय छे, मानअपमानरूप परिणमन थतुं नथी; जराक रागद्वेषनी वृत्ति थाय, त्यां ते वृत्तिने पण ज्ञानथी भिन्नरूप ज जाणे छे ने ज्ञानस्वभावनी ज भावना वडे ज्ञाननी अधिकतारूपे ज परिणमे छे.’’ ३८.

अपमानादिने दूर करवानो उपायः १. ‘‘शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता,

मानअमाने वर्ते ते ज स्वभाव जो;
जीवित के मरणे नहि न्यूनाधिकता,
भव
मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो......अपूर्व०’’......१०
(श्रीमद् राजचंद्र‘अपूर्व अवसर’)

२. जुओ‘आत्मधर्म’.


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यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विनः
तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ।।३९।।

टीकामोहान्मोहनीयकर्मोदयात् यदा प्रजायेते उत्पद्येते कौ ? रागद्वेषौ कस्य ? तपस्विनः तदैव रागद्वेषोदयकाल एव आत्मानं स्वस्थं बाह्यविषयाद्व्यावृत्तस्वरूपस्थं भावयेत् शाम्यत उपशमं गच्छतः रागद्वेषौ क्षणात् क्षणमात्रेण ।।३९।।

श्लोक ३९

अन्वयार्थ : (यदा) जे समये (तपस्विनः) तपस्वी अन्तरात्माने (मोहात्) मोहवशात् (रागद्वेषौ) राग अने द्वेष (प्रजायेते) उत्पन्न थाय (तदा एव) ते ज समये ते तपस्वीए (स्वस्थं आत्मानं) शुद्धस्वरूपनी (भावयेत्) भावना करवी. एम करवाथी राग द्वेषादि (क्षणात्) क्षणवारमां (शाम्यतः) शान्त थई जाय छे.

टीका : मोहथी एटले मोहनीय कर्मना उदय निमित्ते, ज्यारे पेदा थायउत्पन्न थाय, कोण (बे)? राग अने द्वेष. कोने (उत्पन्न थाय)? तपस्वीने, त्यारे ज अर्थात् रागद्वेषना उदयकाले ज स्वस्थ आत्मानीअर्थात् बाह्य विषयोथी व्यावृत्त थई (पाछो हठी) स्वरूपमां स्थित थयेला आत्मानीभावना करवी. तेम करवाथी रागद्वेष क्षणमांक्षणमात्रमां उपशमे छे एटले शांत थई जाय छे.

भावार्थ : अस्थिरताना कारणे मोहवश ज्यारे अंतरात्माने रागद्वेषादि उत्पन्न थाय त्यारे चित्तने पर पदार्थोथी हठावी स्वसन्मुख वाळी शुद्धात्माने भाववो. तेम करवाथी क्षणवारमां रागद्वेषादि शान्त थई जाय छे.

भेदविज्ञान द्वारा आत्मा अने शरीरादिने भिन्न भिन्न जाणीने शुद्धात्मानी भावना करवी ते ज रागद्वेषादि विकारोने नाश करवानो उपाय छे.

विशेष

सम्यग्द्रष्टि जीवने भूमिकानुसार रागद्वेष थाय छे. पण तेने ते वखते अंतरमां आत्मानुं भेदज्ञान छे. ते बाह्य निमित्तो अने विकारने पोताना आत्मस्वरूपथी भिन्न माने छे. ते माटे तेने आदर नथी. अवशपणेअस्थिरताने लीधे जे रागद्वेष थाय छे तेने ते

योगीजनने मोहथी रागद्वेष जो थाय;
स्वस्थ निजात्मा भाववो, क्षणभरमां शमी जाय. ३९.


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तत्र रागद्वेषयोर्विषयं विपक्षं च दर्शयन्नाह

यत्र काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम्
बुद्धया तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति ।।४०।।

टीकायत्रात्मीये परकीये वा काये शरीरे इन्द्रियविषयसङ्घाते मुनेः प्रेम स्नेहः ततः कायात्प्रच्याव्य व्यावर्त्य देहिनं आत्मानम् कया ? बुद्धया विवेकज्ञानेन पश्चात्तदुत्तमे काये तस्माद् प्रागुक्तकायादुत्तमे चिदानन्दमये काये आत्मस्वरूपे योजयेत् कया कृत्वा ? बुद्धया पोतानुं स्वरूप मानतो नथी. तेने तो पोताना स्वरूप तरफ ज द्रष्टि छे. ते अस्थिरताना राग द्वेषने टाळवा माटे चैतन्यस्वभावनी ज भावना भावे छे.

माटे आचार्य सम्यग्द्रष्टिओने उद्देशी कहे छे केज्यारे चारित्रनी नबळाईथी राग द्वेषादि विकारी वृत्तिओनुं उत्थान थाय, त्यारे आत्मस्वरूपनी भावना करवी. तेनाथी वृत्तिओ शान्त थई जशे. रागद्वेषादिना शमन माटे शुद्धात्मानी भावनाए एक रामबाण उपाय छे. ३९.

हवे रागद्वेषना विषयने तथा विपक्षने दर्शावतां कहे छेः

श्लोक ४०

अन्वयार्थ : (यत्र काये) शरीरमां (मुनेः) मुनिनेअन्तरात्माने (प्रेम) प्रेम होय (ततः) तेनाथी एटले शरीरादिथी (बुद्धया) भेदविज्ञान द्वारा (देहिनम्) आत्माने (प्रच्याव्य) व्यावृत्त करीनेपाछो हठावीने (तदुत्तमे काये) तेनाथी उत्तम चिदानंद कायमांआत्मस्वरूपमां (योजयेत्) लगाववो. एम करवाथी (प्रेम नश्यति) बाह्य शरीर अने इन्द्रियविषयो तरफनो प्रेम (रागनो विकल्प) नाश पामे छे.

टीका : ज्यां पोतानी वा पारकी कायमां एटले शरीरमांअर्थात् इन्द्रियविषयना समूहमां मुनिनो प्रेमस्नेह होय, त्यांथी एटले शरीरथी देहीने एटले आत्माने व्यावृत्त करीनेपाछो वाळीने, शा वडे? बुद्धि वडेविवेकज्ञान वडे, पछी उत्तम कायमांअर्थात् अगाउ कहेली काय करतां उत्तम कायमांचिदानन्दमय कायमां एटले आत्मस्वरूपमां तेने (प्रेमने) जोडवो. शा वडे करीने? बुद्धि वडेअन्तद्रष्टिवडे. पछी शुं थाय छे? प्रेम नाश पामे छे एटले शरीर प्रत्येनो प्रेम रहेतो नथी.

तनमां मुनिने प्रेम जो, त्यांथी करी वियुक्त,
श्रेष्ठ तने जीव जोडवो, थशे प्रेमथी मुक्त. ४०.
१२


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अन्तर्दृष्टया ततः किं भवति ? प्रेम नश्यति कायस्नेहो न भवति ।।४०।।

तस्मिन्नष्टे किं भवतीत्याह

भावार्थ : अन्तरात्माने चारित्र मोहवश बाह्य शरीरादि तथा इन्द्रियोना विषयोमां राग थाय तो भेदविज्ञान द्वारा उपयोगने त्यांथी हठावी शुद्धात्मस्वरूपमां जोडवो. तेम करवाथी शरीरादि प्रत्येनो प्रेम नाश पामे छे.

जेनो उपयोग चैतन्यना आनंदमां लागे छे तेने जगतना बधाय पदार्थो नीरस लागे छे, शरीरादि बाह्य पदार्थो प्रत्येनो उत्साह उडी जाय छे अने ते तरफ ते उदासीन रहे छे.

विशेष

‘‘चैतन्यस्वरूपमां उपयोगने जोडवो ते ज रागद्वेषने टाळवानो उपाय छे. आ सिवाय बाह्य पदार्थो तरफ वलण राखीने रागद्वेष टाळवा मागे तो ते कदी टळी शके नहि. पहेलां तो देहादिथी भिन्न ने रागादिथी पण परमार्थे भिन्नएवा चिदानंदस्वरूपनुं भान कर्युं होय तेने ज तेमां उपयोगनी लीनता थाय, परंतु जे जीव देहादिनी क्रियाने पोतानी मानतो होय के रागथी लाभ मानतो होय, तेनो उपयोग ते देहथी ने रागथी पाछो खसीने चैतन्यमां वळे ज क्यांथी? ज्यां लाभ माने त्यांथी पोताना उपयोगने केम खसेडे? न ज खसेडे.

माटे उपयोगने पोताना चिदानंदस्वरूपमां एकाग्र करवा इच्छनारे प्रथम तो पोताना स्वरूपने देहादिथी ने रागादिथी अत्यंत भिन्न जाणवुं जोईए. जगतना कोई पण बाह्य विषयोमां के ते तरफना रागमां क्यांय स्वप्नेय मारुं सुख के शान्ति नथी, अनंतकाल बहारना भावो कर्या पण मने किंचित् सुख न मळ्युं. जगतमां क्यांय मारुं सुख होय तो ते मारा निज स्वरूपमां ज छे, बीजे क्यांय नथी. माटे हवे हुं बहारनो उपयोग छोडीने मारा स्वरूपमां ज उपयोगने जोडुं छुं. आवा द्रढ निर्णयपूर्वक, धर्मी जीव वारंवार पोताना उपयोगने अंतर स्वरूपमां जोडे छे.

‘‘चैतन्यस्वभावनी महत्ता अने बाह्य इन्द्रियविषयोनी तुच्छता जाणीने पोताना उपयोगने वारंवार चैतन्यभावनामां जोडवाथी पर प्रत्येनो प्रेम नाश पामे छे ने वीतरागी आनंदनो अनुभव थाय छे........’’ ४०.

ते (प्रेम) नाश पामतां शुं थाय छे ते कहे छेः १. आत्मधर्म.


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आत्मविभ्रमजं दुःखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति
नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः ।।४१।।

टीकाआत्मविभ्रमजं आत्मनो विभ्रमोऽनात्मशरीरादावात्मेति ज्ञानं तस्माज्जातं यत् दुःखं तत्प्रशाम्यति कस्मात् ? आत्मज्ञानात् शरीरादिभ्यो भेदेनात्मस्वरूपवेदनात् ननु दुर्धरतपोऽनुष्ठानान्मुक्तिसिद्धेरतस्तद्दुःखोपशमो न भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याहनेत्यादि तत्र आत्मस्वरूपे अयताः अयत्नपराः न निर्वान्ति न निर्वाणं गच्छंति सुखिनो वा न भवन्ति किं कृत्वापि तप्त्वाऽपि किं तत् परमं तपः दुर्द्धरानुष्ठानम् ।।४१।।

श्लोक ४१

अन्वयार्थ : (आत्मविभ्रमजं) आत्माना विभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं (दुःख) दुःख (आत्मज्ञानात्) आत्मज्ञानथी (प्रशाम्यति) शान्त थाय छे. (तत्र) तेमां एटले भेदज्ञान द्वारा आत्मस्वरूपनी प्राप्ति करवामां (अयताः) जे प्रयत्न करता नथी ते (परमं) उत्कृष्ट दुर्द्धर (तपः) तप (कृत्वा अपि) करवा छतां (न निर्वान्ति) निर्वाणने प्राप्त करता नथी.

टीका : आत्मविभ्रमथी उत्पन्न थयेलुंअर्थात् अनात्मरूप शरीर वगेरेमां आत्मबुद्धि ते आत्मविभ्रम, तेनाथी उत्पन्न थयेलुं जे दुःख ते शान्त थाय छे. शानाथी? आत्मज्ञानथी एटले शरीरादिथी भेद करीने आत्मस्वरूपनुं वेदन करवाथी.

दुर्द्धर तपना अनुष्ठान (आचरण)थी तो मुक्तिनी सिद्धि थवाथी ते दुःखनो उपशम थशे नहिएवी आशंका करनारने कहे छेन इत्यादि.....तेमां एटले आत्मस्वरूपने विषे यत्न नहि करनारा निर्वाण पामता नथी अर्थात् सुखी थता नथी. शुं करीने पण?तपीने पण. शुं तपीने? परम तप एटले दुर्द्धर अनुष्ठान. (अर्थात् दुर्द्धर तप तपीने पण तेओ मोक्ष पामता नथी.)

भावार्थ : आत्मभ्रान्तिथी एटले शरीरादिमां आत्मबुद्धि करवाथी जे दुःख उत्पन्न थाय छे ते भेदज्ञानथी नाश पामे छे. भेदविज्ञान द्वारा आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे जे प्रयत्न करता नथी, ते घोर तप करवा छतां मोक्षमार्गनी के निर्वाणनी प्राप्ति करी शकता नथी.

विशेष

शरीरादि अने रागादिमां आत्मबुद्धि करवी ते विभ्रम छेआत्मभ्रान्ति छे. ते दुःखनुं

आत्मभ्रमोद्भव दुःख तो आत्मज्ञानथी जाय;
तत्र यत्न विण, घोर तप तपतां पण न मुकाय. ४१.


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तच्च कुर्वाणो बहिरात्मा अन्तरात्मा च किं करोतीत्याह कारण छे. शरीरादिथी भिन्न आत्मस्वरूपनो अनुभव करवाथीस्वपरनुं भेदज्ञान करवाथी अर्थात् देहादिथी अने शुभभावथी पण भिन्न ज्ञानदर्शन स्वरूप ज हुं छुं, बीजुं कांई मारुं नथीएवा आत्मज्ञानथी आ दुःखरूप भ्रान्ति दूर थाय छे. आवा भेदविज्ञानना प्रयत्न वगर घोर तप करे तो पण जीव साचो धर्म पामतो नथी.

मुक्तिप्राप्ति माटे आत्मज्ञानपूर्वक करेलुं इच्छानिरोधरूप तप ज कार्यकारी छे. आत्मज्ञानथी शून्य तप ते तप नथी. ते तो संसारपरिभ्रमणनुं ज कारण छे. तेनाथी आत्मा कदी पण स्वरूपमां स्थिर थई शकतो नथी अने कर्मबंधनथी छूटी शकतो नथी. तेनी दुःख परंपरा चालु ज रहे छे.

पं. श्री टोडरमल्लजीए कह्युं छे केः

‘‘जिनमतमां एवी परिपाटी छे के पहेलां सम्यक्त्व होय पछी व्रत होय. हवे सम्यक्त्व तो स्वपरनुं श्रद्धान थतां थाय छे तथा ते श्रद्धान द्रव्यानुयोगनो अभ्यास करवाथी थाय छे; माटे प्रथम द्रव्यानुयोग अनुसार श्रद्धान वडे सम्यग्द्रष्टि थाय अने त्यारपछी चरणानुयोग अनुसार व्रतादिक धारण करी व्रती थाय.......’’

मिथ्याद्रष्टि जीव आत्मज्ञान विना करोडो जन्म सुधी तप करीने जेटलां कर्मोनो अभाव करे तेटलां कर्मोनो नाश, ज्ञानी पोताना मनवचनकायनो निरोध करी क्षणवारमां सहज करी दे छे. आत्मज्ञान विना पंच महाव्रत पाळीनेमुनि थईने ते नवमी ग्रैवेयक सुधी देवलोकमां अनंत वार गयो पण जराय सुख न पाम्यो.

अज्ञानी जीवनी क्रिया संसारने माटे सफळ छे ने मोक्षने माटे निष्फळ छे अने ज्ञानीनी जे धर्मक्रिया छे ते संसारने माटे निष्फळ छे अने मोक्षने माटे सफळ छे. ४१.

ते (तपश्चर्या) करनार बहिरात्मा अने अन्तरात्मा शुं करे छे ते कहे छेः १. मोक्षमार्ग प्रकाशक २. पं. श्री दौलतरामजी कृत ‘छहढाला’//5 // /

कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरैं जे,
ज्ञानीके छिनमें, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते;
मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ.......(४
//5)
//
/

३. जुओ. श्री प्रवचनसारगाथा ११६नी टीका.


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शुभं शरीर दिव्यांश्च विषयानभिवांछति
उत्पन्नात्ममतिर्देहे तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ।।४२।।

टीकादेहे उत्पन्नात्ममतिर्बहिरात्मा अभिवांछति अभिलषति किं तत् ? शुभं शरीरं दिव्याश्च उत्तमान् स्वर्गसम्बंधिनो वा विषयान् अन्तरात्मा किं करोतीत्याहतत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् तत्त्वज्ञानी विवेकी अन्तरात्मा ततः शरीरादेः च्युतिं व्यावृत्तिं मुक्तिरूपां अभिवांछति ।।४२।।

श्लोक ४२

अन्वयार्थ : (देहे उत्पन्नात्ममतिः) देहमां जेने आत्मबुद्धि उत्पन्न थई छे एवो बहिरात्मा (तप द्वारा) (शुभ शरीरं) सुन्दर शरीर (दिव्यान् विषयान् च) अने स्वर्गना विषयभोगोनी (अभिवांछति) वांछा करे छे अने (तत्त्वज्ञानी) ज्ञानी अंतरात्मा (ततः) तेनाथी एटले शरीरादि अने विषयभोगोथी (च्युतिम्) छूटवानी भावना करे छे.

टीका : देहमां जेने आत्मबुद्धि उत्पन्न थई छे ते बहिरात्मा वांछा करे छे अभिलाषा करे छे. कोनी (वांछा करे छे)? शुभ (सुंदर) शरीर अने दिव्य एटले उत्तम स्वर्गसंबंधी विषयोनी (दिव्य विषयभोगोनी) अभिलाषा करे छे.

अंतरात्मा शुं करे छे ते कहे छेतत्त्वज्ञानी तेनाथी च्युति वांछे छेअर्थात् तत्त्वज्ञानी एटले विवेकी अन्तरात्मा, तेनाथी एटले शरीरादिथी मुक्तिरूप (छूटकारारूप) च्युतिनी एटले व्यावृत्तिनी वांछा करे छे.

भावार्थ : शरीरादिमां आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा तपादि द्वारा सुंदर शरीर अने स्वर्गीय विषयभोगोनी वांछा करे छे अने भेदज्ञानी अंतरात्मा तो बाह्य शरीरविषयादिनी वांछाथी च्युत थई, एटले तेनाथी व्यावृत्त थई, आत्मस्वरूपमां ठरवा मागे छे.

विशेष

जे अज्ञानी इन्द्रियोना विषयोनी अने स्वर्गनां सुखनी इच्छाथी व्रततपादि आचरे छे, ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे, कारण के तेना अभिप्रायमां शुभ रागना फलस्वरूप विषयोनी ज वांछना छे. तेनां व्रततपादि भोगहेतुए ज छे.

‘‘ते भोगना निमित्तरूप धर्मने ज श्रद्धे छे, तेनी ज प्रतीत करे छे, तेनी ज रुचि करे छे अने तेने ज स्पर्शे छे, परंतु कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नहि.

देहातमधी अभिलषे दिव्य विषय, शुभ काय;
तत्त्वज्ञानी ते सर्वथी इच्छे मुक्ति सदाय. ४२.


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तत्त्वज्ञानीतरयोर्बन्धकत्वाबन्धकत्वे दर्शयन्नाह

परत्राहम्मतिः स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम्
स्वस्मिन्नहम्मतिच्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुधः ।।४३।।

.......‘‘ते कर्मथी छूटवाना निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ (सत्यार्थ) धर्मने नथी श्रद्धतो भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे; तेथी ज ते अभूतार्थ धर्ममां श्रद्धान, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे, परंतु कदापि कर्मथी छूटतो नथी.......’’

ज्ञानी तो शुद्धात्मस्वरूपनी ज भावना करे छे. ते विषयसुखोनी स्वप्ने पण भावना करतो नथी. तेने व्रततपादिनो शुभ राग भूमिकानुसार आवे, पण तेने तेनी वांछना नथी, अभिप्रायमां तेनो निषेध वर्ते छे. जेने रागनी भावना ज न होय तेने रागना फलरूप विषयोनी पण इच्छा केम होय? न ज होय.

‘‘जेम कोईने घणो दंड थतो हतो ते हवे थोडो दंड आपवानो उपाय राखे छे तथा थोडो दंड आपीने हर्ष पण माने छे, परंतु श्रद्धानमां तो दंड आपवो अनिष्ट माने छे; तेम सम्यग्द्रष्टिने पापरूप घणो कषाय थतो हतो, ते हवे पुण्यरूप थोडो कषाय करवानो उपाय राखे छे तथा थोडो कषाय थतां हर्ष पण माने छे, परंतु श्रद्धानमां तो कषायने हेय ज माने छे. वळी जेम कोई कमाणीनुं कारण जाणी व्यापारादिकनो उपाय राखे छे, उपाय बनी आवतां हर्ष पण माने छे, तेम द्रव्यलिंगी मोक्षनुं कारण जाणी प्रशस्त रागनो उपाय राखे छे, उपाय बनी आवतां हर्ष पण माने छे. ए प्रमाणे प्रशस्त रागना उपायमां वा तेना हर्षमां समानता होवा छतां पण सम्यग्द्रष्टिने तो दंड समान तथा मिथ्याद्रष्टिने व्यापार समान श्रद्धान होय छे. माटे ए बंनेना अभिप्रायमां भेद थयो.’’

४२.

तत्त्वज्ञानी (अन्तरात्मा) अने इतर (बहिरात्मा)मां (अनुक्रमे) कर्मनुं अबंधपणुं अने कर्मनुं बंधपणुं दर्शावी कहे छेः १. ते धर्मने श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शन करे,

ते भोगहेतु धर्मने, नहि कर्मक्षयना हेतुने.......(२७५)(श्री समयसार गुज. गा. २७५ अने टीका)

२. मोक्षमार्ग प्रकाशकगु. आवृत्तिपृ. २५२

परमां निजमति नियमथी स्वच्युत थई बंधाय;
निजमां निजमति ज्ञानीजन परच्युत थई मुकाय. ४३.


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टीकापरत्र शरीरादौ अहम्मतिरात्मबुद्धिर्बहिरात्मा स्वस्मादात्मस्वरूपात् च्युतो भ्रष्टः सन् बध्नाति कर्मबन्धनबद्धं करोत्यात्मानं असंशयं यथा भवति तथा नियमेन बध्नातीत्यर्थः स्वस्मिन्नात्मस्वरूपे अहम्मतिः बुद्धोऽन्तरात्मा परस्माच्छरीरादेः च्युत्वा पृथग्भूत्वा मुच्यते सकलकर्मबन्धरहितो भवति ।।४३।।

श्लोक ४३

अन्वयार्थ : (परत्र अहम्मतिः) शरीरादि पर पदार्थोमां जेने आत्मबुद्धि छे ते बहिरात्मा (स्वस्मात्) पोताना आत्मस्वरूपथी (च्युतः) भ्रष्ट थई (असंशयम्) निःसंदेह (बध्नाति) कर्म बांधे छे अने (स्वस्मिन् अहम्मतिः) जेने पोताना आत्मस्वरूपमां आत्मबुद्धि छे ते (बुधः) अन्तरात्मा (परस्मात्) शरीरादि परना संबंधथी (च्युत्वा) च्युत थई (मुच्यते) कर्मबंधनथी मुक्त थाय छे.

टीका : परमां एटले शरीरादिमां अहंबुद्धि आत्मबुद्धि करना बहिरात्मा, स्वथी अर्थात् आत्मस्वरूपथी च्युत (भ्रष्ट) थईने बांधे छेआत्माने कर्मबंधनथी बांधे छे, निःसंशयपणे अर्थात् नियमथी बांधे छेएवो अर्थ छे.

पोतानामां एटले आत्मस्वरूपमां अहंबुद्धिवाळो बुध एटले अंतरात्मा, परथी एटले शरीरादिथी च्युत थईने अर्थात् पृथक् थईने मुक्त थाय छे अर्थात् सर्वकर्मबंधनथी रहित थाय छे.

भावार्थ : बहिरात्मा पोतानुं शुद्धात्मस्वरूप भूलीने शरीरादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करे छे, तेथी तेने ज्ञानावरणादि कर्मनो बंध थाय छे अने अंतरात्मा शरीरादि पर पदार्थो साथेनो संबंध तोडी पोताना चिदानंदस्वरूप साथे आत्मबुद्धिपूर्वक संबंध जोडे छे, तेथी ते कर्मबंधनथी छूटी जाय छे.

विशेष

अज्ञानतावश जीव शरीरादि पर पदार्थोमां अहंबुद्धि, ममकार बुद्धि, कर्ता भोकताबुद्धि आदि करी, रागद्वेष करे छे अने रागद्वेषना निमित्ते तेने कर्मनो बंध थाय छे, बाह्य पदार्थो बंधनुं कारण छे ज नहि. तेमां मिथ्याभ्रान्तिजनित ममत्वभाव ए ज संसारबंधनुं कारण छे. अज्ञानीने पोताना चैतन्यस्वरूपनी असावधानी छे, तेथी तेने पर पदार्थोमां आत्मभ्रान्ति चालु रहे छे अने तेना फलरूपे कर्मबंध पण थया ज करे छे.

ज्ञानीने रागद्वेषादि अने आत्मस्वभावनुं भेदविज्ञान छे, तेथी ते उपयोगमां राग साथे एकता नहि होवाथी ते अबंध छे.


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अत्राहम्मतिर्बहिरात्मनो जाता तत्तेन कथमध्यवसीयते ? यत्र चान्तरात्मनस्तत्तेन कथमित्याशंक्याह

दृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते
इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् ।।४४।।

टीकादृश्यमानं शरीरादिकं किं विशिष्टं ? त्रिलिंङ्गं त्रीणि स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणानि लिङ्गानि यस्य तत् दृश्यमानं त्रिलिंङ्गं सत् मूढो बहिरात्मा इदमात्मतत्त्वं त्रिलिङ्गं मन्यते

‘‘बंधोना स्वभावने अने आत्माना स्वभावने जाणीने बंधो प्रत्ये जे विरक्त थाय छे ते कर्मोथी मुकाय छे.’’

ज्ञानी पोताना स्वरूपमां स्थित छे एटले स्वसमय छे अने पर पदार्थो प्रत्येना रागादि भावोथी मुक्त छे. तेथी तेने कर्मबंध नथी. अज्ञानी आत्मस्वरूपथी च्युत छे अर्थात् पर पदार्थोमां आत्मबुद्धिए स्थित छे एटले पर समय छे अने रागादि भावोथी युक्त छे, तेथी ते कर्मोथी बद्ध छे. ४३.

ज्यां (जे पदार्थोमां) बहिरात्माने आत्मबुद्धि थई तेने ते केवा माने छे? अने अंतरात्मा तेने (पदार्थने) केवा माने छे? तेवी आशंका करी कहे छेः

श्लोक ४४

अन्वयार्थ : (मूढः) अज्ञानी बहिरात्मा, (दृश्यमानं) देखवामां आवता (त्रिलिङ्गं) स्त्रीपुरुषनपुंसकना भेदथी त्रिलिंगरूप शरीरने (इदं अवबुध्यते) आत्म तत्त्व (अर्थात् मारां) माने छे के, ज्यारे (अवबुद्धः) अन्तरात्मा, (इदं) ‘आ आत्म तत्त्व छे ते त्रिलिंगरूप नथी, (तु) पण ते (निष्पन्नं) अनादि संसिद्ध तथा (शब्दवर्जितं इति) नामादि विकल्पोथी रहित छे,’ एम समजे छे.

टीका : द्रश्यमान (देखवामां आवता) शरीरादिकनेकेवा (शरीरादिकने)? त्रिलिंगरूपअर्थात् स्त्रीपुरुषनपुंसक ए त्रण लिंग जेने छे तेवा त्रिलिंगरूप देखाता शरीरादिकने, मूढ एटले बहिरात्मा द्रश्यमान (शरीरादिक) साथे अभेदरूप (एकरूप)नी १. बंधो तणो जाणी स्वभाव, स्वभाव जाणी आत्मनो,

जे बंध मांही विरक्त थाये, कर्ममोक्ष करे अहो! (२९३) (श्री समयसार गु. आवृत्तिगा. २९३)
निज आत्मा त्रण लिंगमय माने जीव विमूढ;
स्वात्मा वचनातीत ने स्वसिद्ध माने बुध. ४४.


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दृश्यमानादभेदाध्यवसायेन यः पुनरवबुद्धोऽन्तरात्मा स इदमात्मतत्त्वमित्येवं मन्यते पुनस्त्रिलिङ्गत्तया तस्याः शरीरधर्मतया आत्मस्वरूपत्वाभावात् कथम्भूतमिदमात्मस्वरूपं निष्पन्नमनादिसंसिद्धम् तथा शब्दवर्जितं विकल्पाभिधानाऽगोचरम् ।।४४।।

ननु यद्यन्तरात्मैवात्मानं प्रतिपद्यते तदा कथं पुमानहं गौरोऽहमित्यादिरूपा तस्य कदाचिदभेदभ्रांतिः स्यात् इति वदन्तं प्रत्याह

जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि
पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोपि गच्छति ।।४५।।

मान्यताने लीधे आ आत्मतत्त्वने त्रिलिंगरूप माने छे;

पण जे ज्ञानी अन्तरात्मा छे, ते ‘आ आत्मतत्त्व छे, ते त्रिलिंगरूपे नथी’ एवुं माने छे, कारण के शरीरधर्मपणाना कारणे तेनो (त्रिलिंगपणानो) आत्मस्वरूपपणामां अभाव छे. आ आत्मस्वरूप केवुं छे? ते निष्पन्न अर्थात् अनादि संसिद्ध छे तथा शब्दवर्जित एटले नामादि विकल्पोथी अगोचर छे.

भावार्थ : बहिरात्माने शरीरादि साथे एकताबुद्धिअभेदबुद्धि होवाथी, स्त्रीपुरुष नपुंसक ए त्रिलिंगरूप शरीर जे द्रष्टिगोचर छे तेने आत्मा माने छे; परंतु अन्तरात्मा माने छे के, ‘‘आ आत्मा तो अनादि संसिद्ध तथा नामादि विकल्पोथी रहित छे. स्त्रीपुरुषादि त्रिलिंग ए शरीरना धर्म छे, अर्थात् पौद्गलिक छे. ते आत्मस्वरूपमां नथी.’’

अज्ञानी जीवने शरीरथी भिन्न आत्मतत्त्वनी प्रतीति नथी; ते स्त्रीपुरुषनपुंसकरूप त्रिलिंगात्मक द्रश्यमान शरीरने ज आत्मा माने छे.

सम्यग्द्रष्टिने वस्तुस्वरूपनुं ज्ञान छे अने शरीरथी भिन्न चैतन्यरूप आत्मतत्त्वनी प्रतीत छे, तेथी ते पोताना आत्माने तद्रूप ज अनुभवे छे, पण तेने त्रिलिंगरूप अनुभवतो नथी, तेने तो ते अनादि सिद्ध तथा निर्विकल्प समजे छे.

ए रीते ज्ञानी अने अज्ञानीनी शरीर संबंधी मान्यता एकबीजाथी विपरीत छे. ४४. जो अन्तरात्मा ज आत्माने अनुभवे छे, तो पछी ‘हुं पुरुष, हुं गोरो’ इत्यादि अभेदरूप भ्रान्ति तेने कदाचित् केम थाय छे? एवुं बोलनार प्रति कहे छेः

यद्यपि आत्म जणाय ने भिन्नपणे वेदाय,
पूर्वभ्रान्ति-संस्कारथी पुनरपि विभ्रम थाय. ४५.
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टीकाआत्मनस्तत्त्वं स्वरूपं जानन्नपि तथा विविक्तं शरीरादिभ्योभिन्नं भावयन्नपि उभयत्राऽपिशब्दः परस्परसमुच्चये भूयोऽपि पुनरपि भ्रान्तिं गच्छति कस्मात् ? पूर्वविभ्रमसंस्कारात् पूर्वविभ्रमो बहिरात्मावस्थाभावी शरीरादौ स्वात्मविपर्यासस्तेन जनितः संस्कारो वासना तस्मात् ।।४५।।

श्लोक ४५

अन्वयार्थ : अन्तरात्मा (आत्मनः तत्त्वं) पोताना आत्मानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप (जानन् अपि) जाणतो होवा छतां, (विविक्तं भावयन् अपि) अने तेने शरीरादिथी भिन्न भाववा छतां (पूर्वविभ्रमसंस्कारात्) पूर्वे एटले बहिरात्मावस्थामां उत्पन्न थयेला भ्रान्तिना संस्कारोने लीधे (भूयः अपि) फरीथी ते (भ्रान्तिं गच्छति) भ्रान्ति पामे छे.

टीका : आत्मानुं तत्त्व एटले स्वरूप जाणवा छतां तथा तेने विविक्त एटले शरीरादिथी भिन्न भावतो होवा छतां [बंने ठेकाणे अपि शब्द परस्पर समुच्चयना अर्थमां छे] फरीथी पणपुनः अपि ते (अन्तरात्मा) भ्रान्ति पामे छे. शाथी (भ्रान्ति पामे छे?) पूर्वविभ्रमना संस्कारथीअर्थात् पूर्वविभ्रम एटले बहिरात्मावस्थामां शरीरादिने विषे पोतानो आत्मा मानवारूप विपर्यास (विभ्रम), तेनाथी थयेलो संस्कारवासना, तेने लीधे (ते फरीथी भ्रान्ति पामे छे.)

भावार्थ : अन्तरात्मा आत्मतत्त्वने देहथी भिन्न जाणे छे तथा तेनी तेवी भावना पण करे छे, तेम छतां पूर्वे एटले बहिरात्मावस्थामां शरीरादिने आत्मा मानवारूप भ्रान्तिथी उत्पन्न थयेला संस्कारने लीधे, तेने सम्यक् श्रद्धा रहेवा छतां, चारित्रदोषरूप भ्रान्ति थाय छे. ते चारित्रदोष केम टाळवो ते हवे पछीना श्लोकमां बतावशे.

आत्मज्ञानी पोताना आत्मानुं यथार्थ स्वरूप जाणे छे अने तेने शरीरादि पर द्रव्योथी भिन्न पण अनुभवे छे, छतां पूर्वना लांबा वखतना संस्कारोनो सर्वथा अभाव नहि होवाथी तेने कोई कोई वखते बाह्य पदार्थोमां अस्थिरताना कारणे भ्रम थई जाय छे.

विशेष

धर्मीने अस्थिरताने लीधे रागद्वेष थई जाय, पण श्रद्धाज्ञानमां तेने तेनुं स्वामीपणुं नथी एकत्वबुद्धि नथी. श्रद्धा ज्ञानना बळथी अने भेदज्ञाननी भावनाथी पूर्वना संस्कारोने नष्ट करवा ते सदा प्रयत्नशील होय छे. जो ते रागद्वेषने श्रद्धा ज्ञानमां भला माने तो ते फरीथी बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि थई जाय.

अविरत सम्यग्द्रष्टिने अंदर ज्ञानचेतनानुं परिणमन छे, छतां अस्थिरताने लीधे