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ननु परमतपोऽनुष्ठायिनां महादुःखोत्पत्तितो मनः खेदसद्भावात्कथं निर्वाणप्राप्तिरिति वदन्तं प्रत्याह –
टीका — आत्मा च देहश्च तयोरन्तरज्ञानं भेदज्ञानं तेन जनितश्चासावाह्लादश्च परमप्रसत्तिस्तेन निर्वृतः सुखीभूतः सन् । तपसा द्वादशविधेन कृत्वा । दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि दुष्कर्मणो रौद्रस्य विपाकमनुभवन्नपि । न खिद्यते न खेदं गच्छति ।।३४।।
आत्मभान विना अज्ञानी जे तपादि करे छे ते बधो काय – क्लेश छे. तेनाथी चैतन्यनी शांतिनुं वेदन नथी. ते खरेखर तप नथी पण ‘ताप’ छे – क्लेश छे. तेनाथी मुक्तिनी प्राप्ति कदी थती नथी, परंतु जेनाथी चैतन्यनुं प्रतपन होय, चैतन्यना आनंदनो अनुभव होय ते ज खरुं तप छे. तेनाथी ज निर्वाणनी प्राप्ति थाय छे.
माटे प्रथम भेद – ज्ञान द्वारा स्वात्मानुं ज अवलंबन करी तेमां ज लीनता करवी ते ज एक निर्वाण – प्राप्तिनो उपाय छे. बीजा बधा उपाय जूठा छे, दुःखदायक छे अने संसारनुं कारण छे. ३३.
परम तप करनाराओने महादुःखनी उत्पत्ति थवाथी तथा मनमां खेद थवाथी निर्वाणनी प्राप्ति केम संभवे? एवी शंका करनार प्रति कहे छेः —
अन्वयार्थ : (आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृत्तः) आत्मा अने देहना भेद – विज्ञानथी उत्पन्न थयेला आह्लादथी जे आनंदित छे ते (तपसा) तपद्वारा (घोरं दुष्कृतं) भयानक दुष्कर्मो (भुंजानः अपि) भोगवतो होवा छतां (न खिद्यते) खेद पामतो नथी.
टीका : आत्मा अने देह – ते बंनेना अंतरज्ञान – भेदज्ञानथी जे आह्लाद अर्थात् परम प्रसन्नता (प्रशान्ति) उत्पन्न थाय छे तेनाथी आनंदित एटले सुखी थईने, बार प्रकारना तपे करी घोर दुष्कर्मने भोगवतो छतां अर्थात् भयानक दुष्कर्मना विपाकने (फलने) अनुभवतो होवा छतां, ते खिन्न थतो नथी – खेद पामतो नथी.
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भावार्थ : जेने आत्मा अने शरीरनुं भेदज्ञान वर्ते छे, ते चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थई अतीन्द्रिय आनंदमां झूलतो होवाथी तेने सहेजे उपवासादि बार प्रकारनां तप होय छे. तेनाथी तेने मनमां खेद थतो नथी अने तपश्चरणना काळे घोर दुष्कर्मना फलस्वरूप बाह्य रोगादि के उपसर्गादिनां कारणो उपस्थित होवा छतां, तेना आनंदमां बाधा आवती नथी, अर्थात् ते खेदखिन्न थतो नथी.
जेम सुवर्ण, अग्निथी तप्त होवा छतां, तेना सुवर्णपणाने छोडतुं नथी, तेम ज्ञानी कर्मना उदयथी तप्त होवा छतां पोताना ज्ञानीपणाने छोडतो नथी.१
साधकनी नीचली दशामां सम्यग्द्रष्टिने रोग, उपसर्गादि आवी पडे तो अस्थिरताना कारणे तेने थोडी आकुलता थाय छे अने तेना प्रतिकारनी पण ते इच्छा करे छे, परंतु श्रद्धा – ज्ञानमां शरीर प्रत्येना ममत्वभावनो अभाव होई तेने तेनुं स्वामीत्व होतुं नथी. ते तो फक्त तेनो ज्ञाता – द्रष्टा रहे छे; तेथी स्वभावद्रष्टिना बळे ते जेम जेम आत्मस्वरूपमां स्थिरता पामे छे, तेम तेम तेने वीतरागता वधती जाय छे अने राग – द्वेषादिनो अभाव थतो जाय छे; एटले जेटले अंशे वीतरागता प्रगटे छे तेटले अंशे आकुलतानो अभाव थाय छे एम समजवुं.
स्वरूपमां ठरवुं अने चैतन्यनुं निर्विकल्पपणे प्रतपवुं अर्थात् आत्मानी शुद्ध पर्यायमां वीर्यनुं उग्र प्रतपन ते तपे छे.२ आवी समजण अने स्वरूपाचरणना कारणे ज्ञानी उदयमां आवेला प्रतिकूळ संयोगोथी खेदखिन्न थतो नथी.
मुनि मन – वचन – कायनी निश्चल गुप्तिद्वारा आत्म – ध्यानमां एटला लीन थई जाय छे के तेमनी स्थिर मुद्रा देखी, पशुओ तेमना शरीरने पथ्थर समजी खूजली खंजवाळे छे, छतां तेओ पोताना ध्यानमां निश्चल रहे छे.३
माटे अतीन्द्रिय आनंदमां झूलता ज्ञानीओने तपश्चर्यादिनुं कष्ट लागतुं नथी. ३४. १. ज्यम अग्नितप्त सुवर्ण पण निज स्वर्णभाव नहीं तजे,
२. ‘सहज निश्चयनयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मामां प्रतपन ते तप छे; निज स्वरूपमां अविचल
३. ‘सम्यक्प्रकार निरोध मन – वच – काय – आतम ध्यावते,
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खेदं गच्छतामात्मस्वरूपोपलम्भाभावं दर्शयन्नाह —
टीका — रागद्वेषादय एव कल्लोलास्तैरलोलमचञ्जलमकलुषं वा । यन्मनोजलं मन एव जलं मनोजलं यस्य मनोजलम् यन्मनोजलम् । स आत्मा । पश्यति । आत्मनस्तत्त्वमात्मनः स्वरूपम् । स तत्त्वम् । स आत्मदर्शी तत्त्वं परमात्मस्वरूपम् । नेतरो जनः (रागादिपरिणतः जनः) तत्त्वं न भवति ।।३५।।
खेद पामनाराओने आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो अभाव दर्शावतां कहे छे केः —
अन्वयार्थ : (यन्मनोजलम्) जेनुं मनरूपी जल (रागद्वेषादिकल्लोलैः) राग – द्वेषादि तरंगोथी (अलोलं) चंचल थतुं नथी, (सः) ते (आत्मनः तत्त्वं) आत्माना यथार्थ स्वरूपने (पश्यति) देखे छे – अनुभवे छे. (तत् तत्त्वं) ते आत्म – तत्त्वने (इतरः जनः) बीजो माणस – राग – द्वेषादिथी आकुलित चित्तवाळो माणस (न पश्यति) देखी शकतो नथी.
टीका : रागद्वेषादि जे कल्लोलो (तरंगो) छे, तेनाथी अलोल – अचंचल – अकलुष जेनुं मनरूपी जल छे [ – मन ए ज जल ते मनोजल, – जेनुं मनोजल छे – ] ते आत्मा, आत्माना तत्त्वने एटले परमात्मस्वरूपने देखे छे (अनुभवे छे,) अर्थात् [ते तत्त्वने] ते एटले आत्मदर्शी तत्त्वने एटले परमात्मस्वरूपने (अनुभवे छे,) बीजो कोई जन अर्थात् रागादिपरिणत अन्य [अनात्मदर्शी] जन तत्त्वने अनुभवी शकतो नथी.
भावार्थ : जेनुं मन रागद्वेषादि विकल्पोथी आकुलित – चलित थतुं नथी ते आत्माना यथार्थ स्वरूपने – परमात्मस्वरूपने अनुभवे छे; बीजो कोई रागद्वेषादिथी आकुलित – अनात्मदर्शी जन तेने अनुभवी शकतो नथी.
जेम तरंगोथी ऊछळता पाणीमां अंदर रहेली वस्तु देखाती नथी, तेम राग – द्वेषादिरूप तरंगोथी – विकल्पोथी चंचल बनेला मनरूपी जलमां अर्थात् ज्ञानजलमां आत्म – तत्त्व देखातुं नथी. निर्विकल्प दशामां ज आत्म – दर्शन थाय छे; सविक्ल्प दशामां आत्मानुभव थतो नथी.
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किं पुनस्तत्त्वशब्देनोच्यत इत्याह –
टीका — अविक्षिप्तं रागाद्यपरिणतं देहादिनाऽऽत्मनोऽभेदाध्यवसायपरिहारेण स्वस्वरूप एव निश्चिलतां गतम् । इत्थं भूतं मनः तत्त्वं वास्तवं रूपमात्मनः । विक्षिप्तं उक्तविपरीतं
वस्तुस्वरूप समजी अतीन्द्रिय आत्मस्वरूपनी सन्मुख थतां रागद्वेषादि विकल्पो स्वयं शान्त थई जाय छे. तेने शमाववा माटे आत्म – सन्मुखता सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. उपयोग अंतर्मुख थतां रागद्वेषादिनो अभाव थाय छे, निर्विकल्प दशा प्रगट थाय छे अने परमात्मतत्त्वनो आनंद अनुभवमां आवे छे. ते वखते बहारनी गमे तेवी अनुकूळता के प्रतिकूळता होय तो पण चित्त मलिन थतुं नथी. आवो जीव स्वरूपमां लीन थई अकथ्य आनंद – शान्ति अनुभवे छे, परंतु बाह्य पदार्थोमां इष्ट – अनिष्टनी कल्पना करी जेनुं चित्त राग – द्वेषादि कषायोथी आकुलित थाय छे तेने शुद्धात्मानो आनंद आवतो नथी; अर्थात् तेने शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति थती नथी. ३५.
वळी तत्त्व शब्दथी शुं कहेवा मागे छे ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : (अविक्षिप्तं) अविक्षिप्त (मनः) मन छे ते (आत्मनः तत्त्वं) आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे अने (विक्षिप्तं) विक्षिप्त मन छे ते (आत्मनः भ्रान्तिः) आत्म – विभ्रम छे (ततः) तेथी (तम् अविक्षिप्तं) ते अविक्षिप्त मनने (धारयेत्) धारण करवुं अने (विक्षिप्तं) विक्षिप्त मननो (न आश्रयेत्) आश्रय करवो नहि.
टीका : अविक्षिप्त एटले रागादिथी अपरिणत – देहादि साथे आत्माना अभेद (एकरूप)ना अध्यवसाय (मिथ्या अभिप्राय)नो परिहार करीने स्व – स्वरूपमां ज निश्चल (स्थिर) थई गएलुं एवुं मन ते आत्म – तत्त्व एटले आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे.
विक्षिप्त एटले उपर कह्युं तेनाथी विपरीत (अर्थात् रागादिथी परिणत तथा देह अने
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मनोभ्रान्तिरात्मस्वरूपं न भवति । यत एवं तस्मात् धारयेत् । किं तत् ? मनः कथम्भूतम् ? अविक्षिप्तम् । विक्षिप्तं पुनस्तत् नाश्रयेन्न धारयेत् ।।३६।। आत्माना भेदज्ञानथी रहित) मन ते (आत्म) भ्रान्ति छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी; माटे (तेने – अविक्षिप्त मनने) धारण करवुं. तेने एटले कोने? मनने; केवा (मनने)? अविक्षिप्त (मनने); परंतु ते विक्षिप्त (मनने) धारण करवुं नहि – तेनो आश्रय करवो नहि.
भावार्थ : जे मन रागद्वेषथी विक्षिप्त थतुं नथी – आकुलित थतुं नथी, देहादिमां आत्मबुद्धि करतुं नथी अने आत्म – स्वरूपमां निश्चल रहे छे ते आत्म – तत्त्व छे – आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे. जे मन रागद्वेषादिकरूपे परिणमे छे – तेनाथी विक्षिप्त थाय छे; देह अने आत्माना भेद – ज्ञानथी रहित छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी ते आत्म – भ्रान्ति छे, आत्मानुं निजरूप नथी. माटे अविक्षिप्त मन आत्म – तत्त्व होवाथी प्रगट करवा योग्य छे अने विक्षिप्त मन आत्म – आत्मतत्त्व नहि होवाथी हेय छे – त्यागवा योग्य छे.
ज्यारे ज्ञानस्वरूप भाव मन रागादि विभाव भावोथी छूटी आत्माने, शरीरादि बाह्य पदार्थोथी भिन्न, चैतन्यमय, एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावरूप अनुभव करवा लागे छे तथा तेमां तन्मय थई जाय छे त्यारे ते अविक्षिप्त अर्थात् निर्विकल्प भाव मनने ‘आत्म – तत्त्व’ कहे छे, परंतु ज्यारे तेमां विकल्पो ऊठवा लागे त्यारे ते विक्षिप्त अर्थात् सविकल्प मनने आत्मानुं तत्त्व कहेता नथी. ते आस्रव छे. माटे आत्मार्थीए स्वसन्मुख थईने निर्विकल्प मनने ज – अविक्षिप्त मनने ज धारण करवुं जोईए. तेनाथी ज आत्म – लाभ छे.
प्रथम स्व – परनुं भेदज्ञान करी पर पदार्थोमां इष्ट – अनिष्टपणानी कल्पनानो त्याग करवो, राग – द्वेषादिनां कारणो तरफ उपेक्षा – बुद्धि करवी अने भावश्रुतज्ञानने अंतर्मुख करवुं. आथी पर पदार्थो संबंधीना संकल्प – विकल्पो बधा शमी जशे, मन अविक्षिप्त बनशे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थशे. आवा अविक्षिप्त भाव मनने ज प्रगट करवा आचार्ये उपदेश आप्यो छे, कारण के ते आत्म – तत्त्व छे अने ते मोक्षनुं कारण छे.
जे ज्ञाननो उपयोग रागादि विकारोमां तथा पर पदार्थोमां रोकाय छे ते ज्ञान नथी, पण जे ज्ञान ज्ञानमां ज प्रतिष्ठित थाय छे ते ज वास्तविक ज्ञान छे – आत्मतत्त्व छे; माटे ते उपादेय छे.
जे उपयोग परमां ज अटकेलो रहेवाथी आत्म – सन्मुख वळतो नथी, ते परना वलणवाळुं तत्त्व छे, आत्माना वलणवाळुं तत्त्व नथी, तेनाथी संसार छे, माटे ते हेय छे. ३६.
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कुतः पुनर्मनसो विक्षेपो भवति कुतश्चाविक्षेप इत्याह —
टीका — शरीरादौ शुचिस्थिरात्मीयादिज्ञानान्यविद्यास्तासामभ्यासः पुनः पुनः प्रवृत्तिस्तेन जनिताः संस्कारा वासनास्तैः कृत्वा । अवशं विषयेन्द्रियाधीनमनात्मायत्तमित्यर्थः । क्षिप्यते विक्षिप्तं भवति मनः । तदेव मनः ज्ञानसंस्कारैरात्मनः शरीरादिभ्यो भेदज्ञानाभ्यासैः । स्वतः स्वयमेव । तत्त्वे आत्मस्वरूपे अवतिष्ठते ।।३७।।
वळी कया कारणथी मननो विक्षेप थाय छे अने कया कारणे तेनो अविक्षेप थाय छे ते कहे छेः —
अन्वयार्थ : (अविद्याभ्याससंस्कारैः) अविद्याना अभ्यासथी उत्पन्न थयेला संस्कारो (मनः) मन (अवशं) अवशपणे – स्वाधीन नहि रहेवाथी (क्षिप्यते) विक्षिप्त थाय छे. (तत् एव) ते ज मन (ज्ञानसंस्कारैः) भेदज्ञानना संस्कारो द्वारा (स्वतः) स्वतः (तत्त्वे) आत्मस्वरूपमां (अवतिष्ठते) स्थिर थाय छे.
टीका : शरीर वगेरेने पवित्र, स्थिर अने आत्मीय (पोतानुं) आदि मानवारूप जे अविद्या (अज्ञान) तेनो अभ्यास अर्थात् तेनी वारंवार प्रवृत्ति तेनाथी उत्पन्न थयेला संस्कारो एटले वासनाओ – ते वडे करीने अवश – अर्थात् विषयो अने इन्द्रियोने आधीन एटले आत्माने आधीन ते मन विक्षेप पामे छे; एटले विक्षिप्त थाय छे. ते ज मन, ज्ञानसंस्कारो वडे अर्थात् आत्माने शरीरादिथी भिन्न जाणवारूप अभ्यास वडे, स्वतः एटले स्वयं ज तत्त्वमां अर्थात् आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.
भावार्थ : शरीरादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करवी ते अज्ञान छे – अविद्या छे. तेना पुनः पुनः प्रवृत्तिरूप अभ्यासथी उत्पन्न थयेला संस्कारोथी मन परवश थईने – पराधीन थईने रागी – द्वेषी बनी जाय छे – विक्षिप्त थाय छे. आ ज मन भेद – ज्ञानना संस्कारोथी स्वतः एटले पोतानी मेळे आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.
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शरीर जड छे, अपवित्र छे, अस्थिर छे ने पर छे. तेमां आत्मानी कल्पना करी तेने पवित्र, स्थिर ने पोतानुं मानवुं तथा ज्ञान अने रागने एक मानवा अर्थात् शुभ भावथी लाभ मानवो ते अविद्या छे – अज्ञान छे. आ अज्ञानताने – ऊंधी मान्यता अने ऊंधा ज्ञानने वारंवार अंदर घूंटवाथी अने तदनुसार आचरण करवाथी वासनारूप संस्कारो उत्पन्न थाय छे. आ संस्कारोथी मन पोताने वश – स्वाधीन वर्ततुं नथी, परंतु परवश बने छे – अर्थात् विषयो अने इन्द्रियोने आधीन थई क्षुब्ध थाय छे – विक्षिप्त थाय छे. आवुं – राग – द्वेष आकुलित मन बाह्य विषयोमां ज प्रवर्ते छे, ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी.
हुं शरीरादिथी अने राग – द्वेषादि विकारोथी भिन्न, पवित्र, स्थिर अने ज्ञायक – स्वरूप छुं – एवा स्वपरना भेदविज्ञान द्वारा उत्पन्न थयेला ज्ञान – संस्कारोथी ते ज मन स्वयं – स्वाधीनपणे – पोतानी ज मेळे राग – द्वेषादिथी रहित थाय छे – अविक्षिप्त थाय छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थाय छे.
शुद्धात्मानी वारंवार भावनाथी ज्ञानना संस्कारो उत्पन्न थाय छे. तेनाथ मन राग – द्वेष रहित थई समाधिमां ठरे छे.
‘हुं शुद्धज्ञानस्वरूप परमात्मा छुं; शरीर – मन – वाणीरूप हुं नथी. हुं तेनाथी भिन्न छुं’ – एवी वारंवार भावना भाववाथी तेना संस्कारो द्रढ थाय छे अने तेवा संस्कारोथी चैतन्यस्वरूपमां स्थिरता प्राप्त थाय छे.१
माटे ज्ञान – संस्कार समाधिनुं कारण छे अने अविद्याना संस्कार असमाधिनुं कारण छे.
ज्ञान – संस्कारो द्वारा जेम जेम स्वरूपमां स्थिरता वधती जाय छे, तेम तेम राग – द्वेषादि भावो छूटता जाय छे अने वीतरागता वधती जाय छे. माटे ज्यां सुधी मन (ज्ञाननो उपयोग) बाह्य विषयोथी छूटी आत्मस्वरूपमां स्थिर न थाय त्यां सुधी आत्म – तत्त्वनी भावना कर्या ज करवी.
श्री समयसार कलश – १३०मां कह्युं छे केः —
तावद्यावत् पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।१३०।।
१. जुओ – समाधितंत्र श्लोक २८२
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चित्तस्य विक्षेपेऽविक्षेपे च फलं दर्शयन्नाह —
टीका — अपमानो महत्त्वखंडनं अवज्ञा च स आदिर्येषां मदेर्ष्यामात्सर्यादिनां ते अपमानादयो भवन्ति । यस्य चेतसो विक्षेपो रागादिपरिणतिर्भवति । यस्य पुनश्चेतसो न क्षेपो विक्षेपो
‘‘आ भेदविज्ञान अछिन्न – धाराथी – अर्थात् जेमां विच्छेद न पडे एवा अखंड प्रवाहरूपे – त्यां सुधी भाववुं, के ज्यां सुधी परभावोथी छूटी ज्ञान ज्ञानमां ज (पोताना स्वरूपमां ज) ठरी जाय.’’
अहीं ज्ञाननुं ज्ञानमां ठरवुं बे प्रकारे जाणवुं. एक तो, मिथ्यात्वनो अभाव थई सम्यग्ज्ञान थाय अने फरी मिथ्यात्व न आवे, त्यारे ज्ञान ज्ञानमां ठर्युं कहेवाय; बीजुं ज्यारे ज्ञान शुद्धोपयोगरूपे स्थिर थई जाय अने फरी अन्य विकाररूपे न परिणमे त्यारे ते ज्ञानमां ठरी गयुं कहेवाय. ज्यां सुधी बन्ने प्रकारे ज्ञान ज्ञानमां न ठरी जाय त्यां सुधी भेदविज्ञान भाव्या करवुं.’’१
आ श्लोकमां ‘स्वतः’ शब्द ए सूचवे छे के जीव स्वयं पोताना सम्यक् पुरुषार्थथी पोताना स्वरूपमां स्थिर थाय छे, बीजा कोई कारणे नहि. ३७.
मनना विक्षेपनुं अने अविक्षेपनुं फल बतावी कहे छेः —
अन्वयार्थ : (यस्य चेतसः) जेना मनमां (विक्षेपः) विक्षेप – रागादि परिणाम थाय छे, (तस्य) तेने (अपमानादयः) अपमानादिक होय छे, पण (यस्य चेतसः) जेना मनमां (क्षेपः न) क्षेप – रागादिरूप परिणाम थतां नथी (तस्य) तेने (अपमानादयः न) अपमान – तिरस्कारादि होतां नथी.
टीका : जेनुं मन विक्षेप पामे छे अर्थात् रागादिरूपे परिणमे छे, तेने अपमानादि – अर्थात् अपमान एटले पोताना महत्त्वनुं खंडन – अवज्ञा, मद, इर्ष्या, मात्सर्य, वगेरे थाय १. जुओः श्री समयसार कलश – १३०. गु. आवृत्तिमां भावार्थ
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नास्ति । तस्य नापमानादयो भवन्ति ।।३८।।
अपमानादिनां चापगम उपायमाह — छे, परंतु जेना मनमां विक्षेप थतो नथी, तेने अपमानादि थतां नथी.
भावार्थ : जेनुं मन राग – द्वेषादि विकारोथी विक्षिप्त थाय छे, तेने ज मान – अपमानादिनी लागणी थाय छे, परंतु जेनुं मन रागद्वेषरूपे परिणमतुं नथी तेने अपमानादिनी लागणी उद्भवती नथी. ते मान – अपमानमां समभावे वर्ते छे.
मोह – राग – द्वेषादि विभावोमां वर्ततो जीव ज मान – अपमाननी कल्पनाथी दुःखी थाय छे, परंतु जेनुं चित्त राग – द्वेष – मोहादि विभावोथी रहित थई पोताना ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थाय छे तेने मान – अपमाननी कल्पनाओ उत्पन्न थती नथी, कारण के ज्ञानानंदमां लीन थतां कोण बहुमान करे छे कोण अपमान करे छे – एवो विकल्प ज ऊठतो नथी. ते ज्ञाता – द्रष्टापणे रहे छे.
ज्ञानीने शत्रु – मित्र प्रत्ये, मान – अपमानना प्रसंगे, जीवन के मरणना विषयमां अने संसार के मोक्षमां समभाव – समदर्शिता वर्ते छे.१
‘‘ज्ञानभावना छोडीने अज्ञानथी जे जीव पर संयोगमां मान – अपमाननी बुद्धि करे छे ते अज्ञानी छे. जेने ज्ञानस्वभावनी भावना नथी एवा अज्ञानीने ज बाह्यद्रष्टिथी एकांत मानअपमानरूप परिणमन थाय छे. ज्ञानस्वभावनी भावनामां ज्ञानीने ज्ञाननुं ज परिणमन थाय छे, मान – अपमानरूप परिणमन थतुं नथी; जराक राग – द्वेषनी वृत्ति थाय, त्यां ते वृत्तिने पण ज्ञानथी भिन्नरूप ज जाणे छे ने ज्ञानस्वभावनी ज भावना वडे ज्ञाननी अधिकतारूपे ज परिणमे छे.’’२ ३८.
अपमानादिने दूर करवानो उपायः — १. ‘‘शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता,
भव – मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो......अपूर्व०’’......१०
२. जुओ – ‘आत्मधर्म’.
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टीका — मोहान्मोहनीयकर्मोदयात् । यदा प्रजायेते उत्पद्येते । कौ ? रागद्वेषौ । कस्य ? तपस्विनः । तदैव रागद्वेषोदयकाल एव । आत्मानं स्वस्थं बाह्यविषयाद्व्यावृत्तस्वरूपस्थं भावयेत् । शाम्यत उपशमं गच्छतः । रागद्वेषौ । क्षणात् क्षणमात्रेण ।।३९।।
अन्वयार्थ : (यदा) जे समये (तपस्विनः) तपस्वी अन्तरात्माने (मोहात्) मोहवशात् (रागद्वेषौ) राग अने द्वेष (प्रजायेते) उत्पन्न थाय (तदा एव) ते ज समये ते तपस्वीए (स्वस्थं आत्मानं) शुद्धस्वरूपनी (भावयेत्) भावना करवी. एम करवाथी राग – द्वेषादि (क्षणात्) क्षणवारमां (शाम्यतः) शान्त थई जाय छे.
टीका : मोहथी एटले मोहनीय कर्मना उदय निमित्ते, ज्यारे पेदा थाय – उत्पन्न थाय, कोण (बे)? राग अने द्वेष. कोने (उत्पन्न थाय)? तपस्वीने, त्यारे ज अर्थात् राग – द्वेषना उदयकाले ज स्वस्थ आत्मानी – अर्थात् बाह्य विषयोथी व्यावृत्त थई (पाछो हठी) स्वरूपमां स्थित थयेला आत्मानी – भावना करवी. तेम करवाथी राग – द्वेष क्षणमां – क्षणमात्रमां उपशमे छे एटले शांत थई जाय छे.
भावार्थ : अस्थिरताना कारणे मोहवश ज्यारे अंतरात्माने राग – द्वेषादि उत्पन्न थाय त्यारे चित्तने पर पदार्थोथी हठावी स्वसन्मुख वाळी शुद्धात्माने भाववो. तेम करवाथी क्षणवारमां राग – द्वेषादि शान्त थई जाय छे.
भेदविज्ञान द्वारा आत्मा अने शरीरादिने भिन्न भिन्न जाणीने शुद्धात्मानी भावना करवी ते ज राग – द्वेषादि विकारोने नाश करवानो उपाय छे.
सम्यग्द्रष्टि जीवने भूमिकानुसार राग – द्वेष थाय छे. पण तेने ते वखते अंतरमां आत्मानुं भेदज्ञान छे. ते बाह्य निमित्तो अने विकारने पोताना आत्मस्वरूपथी भिन्न माने छे. ते माटे तेने आदर नथी. अवशपणे – अस्थिरताने लीधे जे राग – द्वेष थाय छे तेने ते
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तत्र रागद्वेषयोर्विषयं विपक्षं च दर्शयन्नाह —
टीका — यत्रात्मीये परकीये वा काये । शरीरे इन्द्रियविषयसङ्घाते । मुनेः प्रेम स्नेहः । ततः कायात्प्रच्याव्य व्यावर्त्य । देहिनं आत्मानम् । कया ? बुद्धया विवेकज्ञानेन । पश्चात्तदुत्तमे काये तस्माद् प्रागुक्तकायादुत्तमे चिदानन्दमये । काये आत्मस्वरूपे । योजयेत् । कया कृत्वा ? बुद्धया पोतानुं स्वरूप मानतो नथी. तेने तो पोताना स्वरूप तरफ ज द्रष्टि छे. ते अस्थिरताना राग – द्वेषने टाळवा माटे चैतन्यस्वभावनी ज भावना भावे छे.
माटे आचार्य सम्यग्द्रष्टिओने उद्देशी कहे छे के – ज्यारे चारित्रनी नबळाईथी राग – द्वेषादि विकारी वृत्तिओनुं उत्थान थाय, त्यारे आत्मस्वरूपनी भावना करवी. तेनाथी वृत्तिओ शान्त थई जशे. राग – द्वेषादिना शमन माटे शुद्धात्मानी भावना – ए एक रामबाण उपाय छे. ३९.
हवे राग – द्वेषना विषयने तथा विपक्षने दर्शावतां कहे छेः —
अन्वयार्थ : (यत्र काये) शरीरमां (मुनेः) मुनिने – अन्तरात्माने (प्रेम) प्रेम होय (ततः) तेनाथी एटले शरीरादिथी (बुद्धया) भेद – विज्ञान द्वारा (देहिनम्) आत्माने (प्रच्याव्य) व्यावृत्त करीने – पाछो हठावीने (तदुत्तमे काये) तेनाथी उत्तम चिदानंद कायमां – आत्मस्वरूपमां (योजयेत्) लगाववो. एम करवाथी (प्रेम नश्यति) बाह्य शरीर अने इन्द्रिय – विषयो तरफनो प्रेम (रागनो विकल्प) नाश पामे छे.
टीका : ज्यां पोतानी वा पारकी कायमां एटले शरीरमां – अर्थात् इन्द्रिय – विषयना समूहमां मुनिनो प्रेम – स्नेह होय, त्यांथी एटले शरीरथी देहीने एटले आत्माने व्यावृत्त करीने – पाछो वाळीने, – शा वडे? बुद्धि वडे – विवेकज्ञान वडे, पछी उत्तम कायमां – अर्थात् अगाउ कहेली काय करतां उत्तम कायमां – चिदानन्दमय कायमां एटले आत्म – स्वरूपमां तेने (प्रेमने) जोडवो. शा वडे करीने? बुद्धि वडे – अन्तद्रष्टिवडे. पछी शुं थाय छे? प्रेम नाश पामे छे एटले शरीर प्रत्येनो प्रेम रहेतो नथी.
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अन्तर्दृष्टया । ततः किं भवति ? प्रेम नश्यति कायस्नेहो न भवति ।।४०।।
तस्मिन्नष्टे किं भवतीत्याह —
भावार्थ : अन्तरात्माने चारित्र मोहवश बाह्य शरीरादि तथा इन्द्रियोना विषयोमां राग थाय तो भेदविज्ञान द्वारा उपयोगने त्यांथी हठावी शुद्धात्मस्वरूपमां जोडवो. तेम करवाथी शरीरादि प्रत्येनो प्रेम नाश पामे छे.
जेनो उपयोग चैतन्यना आनंदमां लागे छे तेने जगतना बधाय पदार्थो नीरस लागे छे, शरीरादि बाह्य पदार्थो प्रत्येनो उत्साह उडी जाय छे अने ते तरफ ते उदासीन रहे छे.
‘‘चैतन्यस्वरूपमां उपयोगने जोडवो ते ज राग – द्वेषने टाळवानो उपाय छे. आ सिवाय बाह्य पदार्थो तरफ वलण राखीने राग – द्वेष टाळवा मागे तो ते कदी टळी शके नहि. पहेलां तो देहादिथी भिन्न ने रागादिथी पण परमार्थे भिन्न – एवा चिदानंदस्वरूपनुं भान कर्युं होय तेने ज तेमां उपयोगनी लीनता थाय, परंतु जे जीव देहादिनी क्रियाने पोतानी मानतो होय के रागथी लाभ मानतो होय, तेनो उपयोग ते देहथी ने रागथी पाछो खसीने चैतन्यमां वळे ज क्यांथी? ज्यां लाभ माने त्यांथी पोताना उपयोगने केम खसेडे? न ज खसेडे.
माटे उपयोगने पोताना चिदानंदस्वरूपमां एकाग्र करवा इच्छनारे प्रथम तो पोताना स्वरूपने देहादिथी ने रागादिथी अत्यंत भिन्न जाणवुं जोईए. जगतना कोई पण बाह्य विषयोमां के ते तरफना रागमां क्यांय स्वप्नेय मारुं सुख के शान्ति नथी, अनंतकाल बहारना भावो कर्या पण मने किंचित् सुख न मळ्युं. जगतमां क्यांय मारुं सुख होय तो ते मारा निज स्वरूपमां ज छे, बीजे क्यांय नथी. माटे हवे हुं बहारनो उपयोग छोडीने मारा स्वरूपमां ज उपयोगने जोडुं छुं. आवा द्रढ निर्णयपूर्वक, धर्मी जीव वारंवार पोताना उपयोगने अंतर स्वरूपमां जोडे छे.
‘‘चैतन्य – स्वभावनी महत्ता अने बाह्य इन्द्रिय – विषयोनी तुच्छता जाणीने पोताना उपयोगने वारंवार चैतन्य – भावनामां जोडवाथी पर प्रत्येनो प्रेम नाश पामे छे ने वीतरागी आनंदनो अनुभव थाय छे........’’१ ४०.
ते (प्रेम) नाश पामतां शुं थाय छे ते कहे छेः — १. आत्मधर्म.
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टीका — आत्मविभ्रमजं आत्मनो विभ्रमोऽनात्मशरीरादावात्मेति ज्ञानं । तस्माज्जातं यत् दुःखं तत्प्रशाम्यति । कस्मात् ? आत्मज्ञानात् शरीरादिभ्यो भेदेनात्मस्वरूपवेदनात् । ननु दुर्धरतपोऽनुष्ठानान्मुक्तिसिद्धेरतस्तद्दुःखोपशमो न भविष्यतीति वदन्तं प्रत्याह – नेत्यादि । तत्र आत्मस्वरूपे अयताः अयत्नपराः । न निर्वान्ति न निर्वाणं गच्छंति सुखिनो वा न भवन्ति । किं कृत्वापि तप्त्वाऽपि । किं तत् । परमं तपः दुर्द्धरानुष्ठानम् ।।४१।।
अन्वयार्थ : (आत्मविभ्रमजं) आत्माना विभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं (दुःख) दुःख (आत्मज्ञानात्) आत्मज्ञानथी (प्रशाम्यति) शान्त थाय छे. (तत्र) तेमां एटले भेदज्ञान द्वारा आत्मस्वरूपनी प्राप्ति करवामां (अयताः) जे प्रयत्न करता नथी ते (परमं) उत्कृष्ट दुर्द्धर (तपः) तप (कृत्वा अपि) करवा छतां (न निर्वान्ति) निर्वाणने प्राप्त करता नथी.
टीका : आत्मविभ्रमथी उत्पन्न थयेलुं – अर्थात् अनात्मरूप शरीर वगेरेमां आत्मबुद्धि ते आत्मविभ्रम, तेनाथी उत्पन्न थयेलुं जे दुःख ते शान्त थाय छे. शानाथी? आत्मज्ञानथी – एटले शरीरादिथी भेद करीने आत्मस्वरूपनुं वेदन करवाथी.
दुर्द्धर तपना अनुष्ठान (आचरण)थी तो मुक्तिनी सिद्धि थवाथी ते दुःखनो उपशम थशे नहि – एवी आशंका करनारने कहे छे – न इत्यादि.....तेमां एटले आत्मस्वरूपने विषे यत्न नहि करनारा निर्वाण पामता नथी अर्थात् सुखी थता नथी. शुं करीने पण? – तपीने पण. शुं तपीने? परम तप एटले दुर्द्धर अनुष्ठान. (अर्थात् दुर्द्धर तप तपीने पण तेओ मोक्ष पामता नथी.)
भावार्थ : आत्मभ्रान्तिथी एटले शरीरादिमां आत्मबुद्धि करवाथी जे दुःख उत्पन्न थाय छे ते भेदज्ञानथी नाश पामे छे. भेदविज्ञान द्वारा आत्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे जे प्रयत्न करता नथी, ते घोर तप करवा छतां मोक्षमार्गनी के निर्वाणनी प्राप्ति करी शकता नथी.
शरीरादि अने रागादिमां आत्मबुद्धि करवी ते विभ्रम छे – आत्मभ्रान्ति छे. ते दुःखनुं
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तच्च कुर्वाणो बहिरात्मा अन्तरात्मा च किं करोतीत्याह — कारण छे. शरीरादिथी भिन्न आत्मस्वरूपनो अनुभव करवाथी – स्वपरनुं भेदज्ञान करवाथी अर्थात् देहादिथी अने शुभभावथी पण भिन्न ज्ञान – दर्शन स्वरूप ज हुं छुं, बीजुं कांई मारुं नथी – एवा आत्मज्ञानथी आ दुःखरूप भ्रान्ति दूर थाय छे. आवा भेदविज्ञानना प्रयत्न वगर घोर तप करे तो पण जीव साचो धर्म पामतो नथी.
मुक्ति – प्राप्ति माटे आत्मज्ञानपूर्वक करेलुं इच्छानिरोधरूप तप ज कार्यकारी छे. आत्मज्ञानथी शून्य तप ते तप नथी. ते तो संसार – परिभ्रमणनुं ज कारण छे. तेनाथी आत्मा कदी पण स्वरूपमां स्थिर थई शकतो नथी अने कर्मबंधनथी छूटी शकतो नथी. तेनी दुःख – परंपरा चालु ज रहे छे.
पं. श्री टोडरमल्लजीए कह्युं छे केः —
‘‘जिनमतमां एवी परिपाटी छे के पहेलां सम्यक्त्व होय पछी व्रत होय. हवे सम्यक्त्व तो स्वपरनुं श्रद्धान थतां थाय छे तथा ते श्रद्धान द्रव्यानुयोगनो अभ्यास करवाथी थाय छे; माटे प्रथम द्रव्यानुयोग अनुसार श्रद्धान वडे सम्यग्द्रष्टि थाय अने त्यारपछी चरणानुयोग अनुसार व्रतादिक धारण करी व्रती थाय.......’’१
मिथ्याद्रष्टि जीव आत्मज्ञान विना करोडो जन्म सुधी तप करीने जेटलां कर्मोनो अभाव करे तेटलां कर्मोनो नाश, ज्ञानी पोताना मन – वचन – कायनो निरोध करी क्षणवारमां सहज करी दे छे. आत्मज्ञान विना पंच महाव्रत पाळीने – मुनि थईने ते नवमी ग्रैवेयक सुधी देवलोकमां अनंत वार गयो पण जराय सुख न पाम्यो.२
अज्ञानी जीवनी क्रिया संसारने माटे सफळ छे ने मोक्षने माटे निष्फळ छे अने ज्ञानीनी जे धर्मक्रिया छे ते संसारने माटे निष्फळ छे अने मोक्षने माटे सफळ छे.३ ४१.
ते (तपश्चर्या) करनार बहिरात्मा अने अन्तरात्मा शुं करे छे ते कहे छेः — १. मोक्षमार्ग प्रकाशक – २. पं. श्री दौलतरामजी कृत ‘छहढाला’ – ४//5 // /
ज्ञानीके छिनमें, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते;
मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ.......(४//5)
//
/
३. जुओ. श्री प्रवचनसार – गाथा ११६नी टीका.
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टीका — देहे उत्पन्नात्ममतिर्बहिरात्मा । अभिवांछति अभिलषति । किं तत् ? शुभं शरीरं । दिव्याश्च उत्तमान् स्वर्गसम्बंधिनो वा विषयान् । अन्तरात्मा किं करोतीत्याह – तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् । तत्त्वज्ञानी विवेकी अन्तरात्मा । ततः शरीरादेः । च्युतिं व्यावृत्तिं मुक्तिरूपां अभिवांछति ।।४२।।
अन्वयार्थ : (देहे उत्पन्नात्ममतिः) देहमां जेने आत्मबुद्धि उत्पन्न थई छे एवो बहिरात्मा (तप द्वारा) (शुभ शरीरं) सुन्दर शरीर (दिव्यान् विषयान् च) अने स्वर्गना विषयभोगोनी (अभिवांछति) वांछा करे छे अने (तत्त्वज्ञानी) ज्ञानी अंतरात्मा (ततः) तेनाथी एटले शरीरादि अने विषय – भोगोथी (च्युतिम्) छूटवानी भावना करे छे.
टीका : देहमां जेने आत्मबुद्धि उत्पन्न थई छे ते बहिरात्मा वांछा करे छे – अभिलाषा करे छे. कोनी (वांछा करे छे)? शुभ (सुंदर) शरीर अने दिव्य एटले उत्तम स्वर्गसंबंधी विषयोनी (दिव्य विषय – भोगोनी) अभिलाषा करे छे.
अंतरात्मा शुं करे छे ते कहे छे – तत्त्वज्ञानी तेनाथी च्युति वांछे छे – अर्थात् तत्त्वज्ञानी एटले विवेकी अन्तरात्मा, तेनाथी एटले शरीरादिथी मुक्तिरूप (छूटकारारूप) च्युतिनी एटले व्यावृत्तिनी वांछा करे छे.
भावार्थ : शरीरादिमां आत्मबुद्धि करनार बहिरात्मा तपादि द्वारा सुंदर शरीर अने स्वर्गीय विषय – भोगोनी वांछा करे छे अने भेदज्ञानी अंतरात्मा तो बाह्य शरीर – विषयादिनी वांछाथी च्युत थई, एटले तेनाथी व्यावृत्त थई, आत्मस्वरूपमां ठरवा मागे छे.
जे अज्ञानी इन्द्रियोना विषयोनी अने स्वर्गनां सुखनी इच्छाथी व्रत – तपादि आचरे छे, ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे, कारण के तेना अभिप्रायमां शुभ रागना फलस्वरूप विषयोनी ज वांछना छे. तेनां व्रत – तपादि भोगहेतुए ज छे.
‘‘ते भोगना निमित्तरूप धर्मने ज श्रद्धे छे, तेनी ज प्रतीत करे छे, तेनी ज रुचि करे छे अने तेने ज स्पर्शे छे, परंतु कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नहि.
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तत्त्वज्ञानीतरयोर्बन्धकत्वाबन्धकत्वे दर्शयन्नाह —
.......‘‘ते कर्मथी छूटवाना निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ (सत्यार्थ) धर्मने नथी श्रद्धतो भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे; तेथी ज ते अभूतार्थ धर्ममां श्रद्धान, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोग – मात्रने पामे छे, परंतु कदापि कर्मथी छूटतो नथी.......’’१
ज्ञानी तो शुद्धात्मस्वरूपनी ज भावना करे छे. ते विषय – सुखोनी स्वप्ने पण भावना करतो नथी. तेने व्रत – तपादिनो शुभ राग भूमिकानुसार आवे, पण तेने तेनी वांछना नथी, अभिप्रायमां तेनो निषेध वर्ते छे. जेने रागनी भावना ज न होय तेने रागना फलरूप विषयोनी पण इच्छा केम होय? न ज होय.
‘‘जेम कोईने घणो दंड थतो हतो ते हवे थोडो दंड आपवानो उपाय राखे छे तथा थोडो दंड आपीने हर्ष पण माने छे, परंतु श्रद्धानमां तो दंड आपवो अनिष्ट माने छे; तेम सम्यग्द्रष्टिने पापरूप घणो कषाय थतो हतो, ते हवे पुण्यरूप थोडो कषाय करवानो उपाय राखे छे तथा थोडो कषाय थतां हर्ष पण माने छे, परंतु श्रद्धानमां तो कषायने हेय ज माने छे. वळी जेम कोई कमाणीनुं कारण जाणी व्यापारादिकनो उपाय राखे छे, उपाय बनी आवतां हर्ष पण माने छे, तेम द्रव्यलिंगी मोक्षनुं कारण जाणी प्रशस्त रागनो उपाय राखे छे, उपाय बनी आवतां हर्ष पण माने छे. ए प्रमाणे प्रशस्त रागना उपायमां वा तेना हर्षमां समानता होवा छतां पण सम्यग्द्रष्टिने तो दंड समान तथा मिथ्याद्रष्टिने व्यापार समान श्रद्धान होय छे. माटे ए बंनेना अभिप्रायमां भेद थयो.’’
तत्त्वज्ञानी (अन्तरात्मा) अने इतर (बहिरात्मा)मां (अनुक्रमे) कर्मनुं अबंधपणुं अने कर्मनुं बंधपणुं दर्शावी कहे छेः — १. ते धर्मने श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शन करे,
२. मोक्षमार्ग प्रकाशक – गु. आवृत्ति – पृ. २५२
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टीका – परत्र शरीरादौ अहम्मतिरात्मबुद्धिर्बहिरात्मा । स्वस्मादात्मस्वरूपात् । च्युतो भ्रष्टः सन् । बध्नाति कर्मबन्धनबद्धं करोत्यात्मानं । असंशयं यथा भवति तथा नियमेन बध्नातीत्यर्थः । स्वस्मिन्नात्मस्वरूपे अहम्मतिः बुद्धोऽन्तरात्मा । परस्माच्छरीरादेः । च्युत्वा पृथग्भूत्वा । मुच्यते सकलकर्मबन्धरहितो भवति ।।४३।।
अन्वयार्थ : (परत्र अहम्मतिः) शरीरादि पर पदार्थोमां जेने आत्मबुद्धि छे ते बहिरात्मा (स्वस्मात्) पोताना आत्मस्वरूपथी (च्युतः) भ्रष्ट थई (असंशयम्) निःसंदेह (बध्नाति) कर्म बांधे छे अने (स्वस्मिन् अहम्मतिः) जेने पोताना आत्मस्वरूपमां आत्मबुद्धि छे ते (बुधः) अन्तरात्मा (परस्मात्) शरीरादि परना संबंधथी (च्युत्वा) च्युत थई (मुच्यते) कर्मबंधनथी मुक्त थाय छे.
टीका : परमां एटले शरीरादिमां अहंबुद्धि आत्मबुद्धि करना बहिरात्मा, स्वथी अर्थात् आत्मस्वरूपथी च्युत (भ्रष्ट) थईने बांधे छे – आत्माने कर्मबंधनथी बांधे छे, निःसंशयपणे अर्थात् नियमथी बांधे छे – एवो अर्थ छे.
पोतानामां एटले आत्मस्वरूपमां अहंबुद्धिवाळो बुध एटले अंतरात्मा, परथी एटले शरीरादिथी च्युत थईने अर्थात् पृथक् थईने मुक्त थाय छे अर्थात् सर्वकर्मबंधनथी रहित थाय छे.
भावार्थ : बहिरात्मा पोतानुं शुद्धात्मस्वरूप भूलीने शरीरादि पर पदार्थोमां आत्मबुद्धि करे छे, तेथी तेने ज्ञानावरणादि कर्मनो बंध थाय छे अने अंतरात्मा शरीरादि पर पदार्थो साथेनो संबंध तोडी पोताना चिदानंदस्वरूप साथे आत्मबुद्धिपूर्वक संबंध जोडे छे, तेथी ते कर्मबंधनथी छूटी जाय छे.
अज्ञानतावश जीव शरीरादि पर पदार्थोमां अहंबुद्धि, ममकार बुद्धि, कर्ता – भोकताबुद्धि आदि करी, राग – द्वेष करे छे अने राग – द्वेषना निमित्ते तेने कर्मनो बंध थाय छे, बाह्य पदार्थो बंधनुं कारण छे ज नहि. तेमां मिथ्या – भ्रान्तिजनित ममत्वभाव ए ज संसार – बंधनुं कारण छे. अज्ञानीने पोताना चैतन्यस्वरूपनी असावधानी छे, तेथी तेने पर पदार्थोमां आत्म – भ्रान्ति चालु रहे छे अने तेना फलरूपे कर्मबंध पण थया ज करे छे.
ज्ञानीने राग – द्वेषादि अने आत्मस्वभावनुं भेद – विज्ञान छे, तेथी ते उपयोगमां राग साथे एकता नहि होवाथी ते अबंध छे.
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अत्राहम्मतिर्बहिरात्मनो जाता तत्तेन कथमध्यवसीयते ? यत्र चान्तरात्मनस्तत्तेन कथमित्याशंक्याह —
टीका — दृश्यमानं शरीरादिकं । किं विशिष्टं ? त्रिलिंङ्गं त्रीणि स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणानि लिङ्गानि यस्य तत् दृश्यमानं त्रिलिंङ्गं सत् । मूढो बहिरात्मा । इदमात्मतत्त्वं त्रिलिङ्गं मन्यते
‘‘बंधोना स्वभावने अने आत्माना स्वभावने जाणीने बंधो प्रत्ये जे विरक्त थाय छे ते कर्मोथी मुकाय छे.’’१
ज्ञानी पोताना स्वरूपमां स्थित छे एटले स्वसमय छे अने पर पदार्थो प्रत्येना रागादि भावोथी मुक्त छे. तेथी तेने कर्म – बंध नथी. अज्ञानी आत्मस्वरूपथी च्युत छे अर्थात् पर पदार्थोमां आत्मबुद्धिए स्थित छे एटले पर समय छे अने रागादि भावोथी युक्त छे, तेथी ते कर्मोथी बद्ध छे. ४३.
ज्यां (जे पदार्थोमां) बहिरात्माने आत्मबुद्धि थई तेने ते केवा माने छे? अने अंतरात्मा तेने (पदार्थने) केवा माने छे? तेवी आशंका करी कहे छेः —
अन्वयार्थ : (मूढः) अज्ञानी बहिरात्मा, (दृश्यमानं) देखवामां आवता (त्रिलिङ्गं) स्त्री – पुरुष – नपुंसकना भेदथी त्रिलिंगरूप शरीरने (इदं अवबुध्यते) आत्म तत्त्व (अर्थात् मारां) माने छे के, ज्यारे (अवबुद्धः) अन्तरात्मा, (इदं) ‘आ आत्म तत्त्व छे ते त्रिलिंगरूप नथी, (तु) पण ते (निष्पन्नं) अनादि संसिद्ध तथा (शब्दवर्जितं इति) नामादि विकल्पोथी रहित छे,’ एम समजे छे.
टीका : द्रश्यमान (देखवामां आवता) शरीरादिकने – केवा (शरीरादिकने)? त्रिलिंगरूप – अर्थात् स्त्री – पुरुष – नपुंसक ए त्रण लिंग जेने छे तेवा त्रिलिंगरूप देखाता शरीरादिकने, मूढ एटले बहिरात्मा द्रश्यमान (शरीरादिक) साथे अभेदरूप (एकरूप)नी १. बंधो तणो जाणी स्वभाव, स्वभाव जाणी आत्मनो,
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दृश्यमानादभेदाध्यवसायेन । यः पुनरवबुद्धोऽन्तरात्मा स इदमात्मतत्त्वमित्येवं मन्यते । न पुनस्त्रिलिङ्गत्तया । तस्याः शरीरधर्मतया आत्मस्वरूपत्वाभावात् । कथम्भूतमिदमात्मस्वरूपं निष्पन्नमनादिसंसिद्धम् तथा शब्दवर्जितं विकल्पाभिधानाऽगोचरम् ।।४४।।
ननु यद्यन्तरात्मैवात्मानं प्रतिपद्यते तदा कथं पुमानहं गौरोऽहमित्यादिरूपा तस्य कदाचिदभेदभ्रांतिः स्यात् इति वदन्तं प्रत्याह —
मान्यताने लीधे आ आत्म – तत्त्वने त्रिलिंगरूप माने छे;
पण जे ज्ञानी अन्तरात्मा छे, ते ‘आ आत्म – तत्त्व छे, ते त्रिलिंगरूपे नथी’ एवुं माने छे, कारण के शरीरधर्मपणाना कारणे तेनो (त्रिलिंगपणानो) आत्मस्वरूपपणामां अभाव छे. आ आत्मस्वरूप केवुं छे? ते निष्पन्न अर्थात् अनादि संसिद्ध छे तथा शब्दवर्जित एटले नामादि विकल्पोथी अगोचर छे.
भावार्थ : बहिरात्माने शरीरादि साथे एकताबुद्धि – अभेदबुद्धि होवाथी, स्त्री – पुरुष – नपुंसक ए त्रिलिंगरूप शरीर जे द्रष्टिगोचर छे तेने आत्मा माने छे; परंतु अन्तरात्मा माने छे के, ‘‘आ आत्मा तो अनादि संसिद्ध तथा नामादि विकल्पोथी रहित छे. स्त्री – पुरुषादि त्रिलिंग ए शरीरना धर्म छे, अर्थात् पौद्गलिक छे. ते आत्मस्वरूपमां नथी.’’
अज्ञानी जीवने शरीरथी भिन्न आत्म – तत्त्वनी प्रतीति नथी; ते स्त्री – पुरुष – नपुंसकरूप त्रिलिंगात्मक द्रश्यमान शरीरने ज आत्मा माने छे.
सम्यग्द्रष्टिने वस्तुस्वरूपनुं ज्ञान छे अने शरीरथी भिन्न चैतन्यरूप आत्म – तत्त्वनी प्रतीत छे, तेथी ते पोताना आत्माने तद्रूप ज अनुभवे छे, पण तेने त्रिलिंगरूप अनुभवतो नथी, तेने तो ते अनादि सिद्ध तथा निर्विकल्प समजे छे.
ए रीते ज्ञानी अने अज्ञानीनी शरीर संबंधी मान्यता एकबीजाथी विपरीत छे. ४४. जो अन्तरात्मा ज आत्माने अनुभवे छे, तो पछी ‘हुं पुरुष, हुं गोरो’ इत्यादि अभेदरूप भ्रान्ति तेने कदाचित् केम थाय छे? एवुं बोलनार प्रति कहे छेः —
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टीका — आत्मनस्तत्त्वं स्वरूपं जानन्नपि । तथा विविक्तं शरीरादिभ्योभिन्नं भावयन्नपि उभयत्राऽपिशब्दः परस्परसमुच्चये । भूयोऽपि पुनरपि । भ्रान्तिं गच्छति । कस्मात् ? पूर्वविभ्रमसंस्कारात् पूर्वविभ्रमो बहिरात्मावस्थाभावी शरीरादौ स्वात्मविपर्यासस्तेन जनितः संस्कारो वासना तस्मात् ।।४५।।
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा (आत्मनः तत्त्वं) पोताना आत्मानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप (जानन् अपि) जाणतो होवा छतां, (विविक्तं भावयन् अपि) अने तेने शरीरादिथी भिन्न भाववा छतां (पूर्वविभ्रमसंस्कारात्) पूर्वे एटले बहिरात्मावस्थामां उत्पन्न थयेला भ्रान्तिना संस्कारोने लीधे (भूयः अपि) फरीथी ते (भ्रान्तिं गच्छति) भ्रान्ति पामे छे.
टीका : आत्मानुं तत्त्व एटले स्वरूप जाणवा छतां तथा तेने विविक्त एटले शरीरादिथी भिन्न भावतो होवा छतां [बंने ठेकाणे अपि शब्द परस्पर समुच्चयना अर्थमां छे] फरीथी पण – पुनः अपि ते (अन्तरात्मा) भ्रान्ति पामे छे. शाथी (भ्रान्ति पामे छे?) पूर्वविभ्रमना संस्कारथी – अर्थात् पूर्वविभ्रम एटले बहिरात्मावस्थामां शरीरादिने विषे पोतानो आत्मा मानवारूप विपर्यास (विभ्रम), तेनाथी थयेलो संस्कार – वासना, तेने लीधे (ते फरीथी भ्रान्ति पामे छे.)
भावार्थ : अन्तरात्मा आत्म – तत्त्वने देहथी भिन्न जाणे छे तथा तेनी तेवी भावना पण करे छे, तेम छतां पूर्वे एटले बहिरात्मावस्थामां शरीरादिने आत्मा मानवारूप भ्रान्तिथी उत्पन्न थयेला संस्कारने लीधे, तेने सम्यक् श्रद्धा रहेवा छतां, चारित्रदोषरूप भ्रान्ति थाय छे. ते चारित्रदोष केम टाळवो ते हवे पछीना श्लोकमां बतावशे.
आत्मज्ञानी पोताना आत्मानुं यथार्थ स्वरूप जाणे छे अने तेने शरीरादि पर द्रव्योथी भिन्न पण अनुभवे छे, छतां पूर्वना लांबा वखतना संस्कारोनो सर्वथा अभाव नहि होवाथी तेने कोई कोई वखते बाह्य पदार्थोमां अस्थिरताना कारणे भ्रम थई जाय छे.
धर्मीने अस्थिरताने लीधे राग – द्वेष थई जाय, पण श्रद्धा – ज्ञानमां तेने तेनुं स्वामीपणुं नथी एकत्वबुद्धि नथी. श्रद्धा ज्ञानना बळथी अने भेद – ज्ञाननी भावनाथी पूर्वना संस्कारोने नष्ट करवा ते सदा प्रयत्नशील होय छे. जो ते राग – द्वेषने श्रद्धा ज्ञानमां भला माने तो ते फरीथी बहिरात्मा मिथ्याद्रष्टि थई जाय.
अविरत सम्यग्द्रष्टिने अंदर ज्ञानचेतनानुं परिणमन छे, छतां अस्थिरताने लीधे