Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 15.

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समाधितंत्र३५
इदानीमुक्तमर्थमुपसंहृत्यात्मन्यन्तरात्मनोऽनुप्रवेशं दर्शयन्नाह
मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः
त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः ।।१५।।

ज्यांसुधी जीवने शरीरमां आत्मबुद्धि रहे छे त्यांसुधी तेने पोताना निराकुल निजानन्दरसनो स्वाद आवतो नथी अने पोतानी अनंतचतुष्टयरूप सम्पत्तिथी अज्ञात रहे छे. ते स्त्रीपुत्रधनधान्यादि बाह्य सम्पत्तिओने पोतानी मानी तेना संयोगवियोगमां हर्षविषाद करे छे. तेना फलस्वरूप तेनुं संसारपरिभ्रमण चालु रहे छे. तेथी आचार्य खेद दर्शावतां कहे छे के, ‘‘हाय! आ जगत् मार्युं गयुं! ठगाई गयुं! तेने पोतानुं कांई पण भान रह्युं नहि!’’

विशेष

‘‘........वळी कोई वखते कोई प्रकारे पोतानी इच्छानुसार परिणमता जोई आ जीव ए शरीरपुत्रादिकमां अहंकारममकार करे छे अने ए ज बुद्धिथी तेने उपजाववानी, वधारवानी तथा रक्षा करवानी चिंतावडे निरंतर व्याकुळ रहे छे, नाना प्रकारनां दुःख वेठीने पण तेमनुं भलुं इच्छे छे......’’

‘‘.......मिथ्यादर्शन वडे आ जीव कोई वेळा बाह्य सामग्रीनो संयोग थतां तेने पण पोतानी माने छे, पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोडा, मंदिर (मकान) अने नोकरचाकरादि जे पोतानाथी प्रत्यक्ष भिन्न छे. सदाकाळ पोताने आधीन नथीएम पोताने जणाय तो पण तेमां ममकार करे छे, पुत्रादिकमां ‘‘आ छे ते हुं ज छुं’’एवी पण कोई वेळा भ्रमबुद्धि थाय छे. मिथ्यादर्शनथी शरीरादिकनुं स्वरूप पण अन्यथा ज भासे छे.......’’ १४.

हवे कहेला अर्थनो उपसंहार करीने आत्मामां अन्तरात्मानो अनुप्रवेश दर्शावतां कहे छेः १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ५३. २. वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः

सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ।।।। (इष्टोपदेश)

३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्तिपृ. ८३.

भवदुःखोनुं मूळ छे देहातमधी जेह;
छोडी, रुद्धेन्द्रिय बनी, अंतरमांही प्रवेश. १५.