ज्यांसुधी जीवने शरीरमां आत्मबुद्धि रहे छे त्यांसुधी तेने पोताना निराकुल निजानन्दरसनो स्वाद आवतो नथी अने पोतानी अनंतचतुष्टयरूप सम्पत्तिथी अज्ञात रहे छे. ते स्त्री – पुत्र – धन – धान्यादि बाह्य सम्पत्तिओने पोतानी मानी तेना संयोग – वियोगमां हर्ष – विषाद करे छे. तेना फलस्वरूप तेनुं संसार – परिभ्रमण चालु रहे छे. तेथी आचार्य खेद दर्शावतां कहे छे के, ‘‘हाय! आ जगत् मार्युं गयुं! ठगाई गयुं! तेने पोतानुं कांई पण भान रह्युं नहि!’’
‘‘........वळी कोई वखते कोई प्रकारे पोतानी इच्छानुसार परिणमता जोई आ जीव ए शरीर – पुत्रादिकमां अहंकार – ममकार करे छे अने ए ज बुद्धिथी तेने उपजाववानी, वधारवानी तथा रक्षा करवानी चिंतावडे निरंतर व्याकुळ रहे छे, नाना प्रकारनां दुःख वेठीने पण तेमनुं भलुं इच्छे छे......’’१
‘‘.......मिथ्यादर्शन वडे आ जीव कोई वेळा बाह्य सामग्रीनो संयोग थतां तेने पण पोतानी माने छे, पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोडा, मंदिर (मकान) अने नोकर – चाकरादि जे पोतानाथी प्रत्यक्ष भिन्न छे. सदाकाळ पोताने आधीन नथी – एम पोताने जणाय तो पण तेमां ममकार२ करे छे, पुत्रादिकमां ‘‘आ छे ते हुं ज छुं’’ — एवी पण कोई वेळा भ्रमबुद्धि थाय छे. मिथ्यादर्शनथी शरीरादिकनुं स्वरूप पण अन्यथा ज भासे छे.......’’३ १४.
हवे कहेला अर्थनो उपसंहार करीने आत्मामां अन्तरात्मानो अनुप्रवेश दर्शावतां कहे छेः — १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ५३. २. वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः ।
३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ८३.