अन्तरात्मा आत्मन्यात्मबुद्धि कुर्वाणोऽलब्धलाभात्संतुष्ट आत्मीयां बहिरात्मावस्थामनुस्मृत्य विषादं कुर्वन्नाह —
‘‘......आ जीवने पर्यायमां अहंबुद्धि थाय छे, तेथी ते पोताने अने शरीरने एकरूप जाणी प्रवर्ते छे. आ शरीरमां पोताने रुचे एवी इष्ट अवस्था थाय छे तेमां राग करे छे तथा पोताने अणरुचती एवी अनिष्ट अवस्थामां द्वेष करे छे. शरीरनी इष्ट अवस्थाना कारणभूत बाह्य पदार्थोमां राग करे छे तथा तेना घातक पदार्थोमां द्वेष करे छे......कोई बाह्य पदार्थ शरीरनी अवस्थाना कारणरूप नथी, छतां तेमां पण ते रागद्वेष करे छे.’’१
‘‘पोतानो स्वभाव तो द्रष्टा – ज्ञाता छे. हवे पोते केवळ देखवावाळो जाणवावाळो तो रहेतो नथी, पण जे जे पदार्थोने ते देखे – जाणे छे तेमां इष्ट – अनिष्टपणुं माने छे अने तेथी रागीद्वेषी थाय छे. कोईना सद्भावने तथा कोईना अभावने इच्छे छे, पण तेनो सद्भाव के अभाव आ जीवनो कर्यो थतो ज नथी, कारण के कोई द्रव्य कोई अन्य द्रव्यनो कर्ता छे ज नहि,२ पण सर्व द्रव्यो पोतपोताना स्वभावरूप परिणमे छे; मात्र आ जीव व्यर्थ कषायभाव करी व्याकुळ थाय छे.
वळी कदाचित् पोते इच्छे तेम ज पदार्थ परिणमे तो पण ते पोतानो परिणमाव्यो तो परिणम्यो नथी, पण जेम चालता गाडाने धकेली बाळक एम माने के, ‘‘आ गाडाने हुं चलावुं छुं’’ – ए प्रमाणे ते असत्य माने छे.३........
माटे शरीरादि मारां छे अने तेनी क्रिया हुं करी शकुं छुं एवी शरीरमां आत्मबुद्धि ते अज्ञानचेतना छे. तेनो त्याग करी ‘आत्मा ए ज मारो छे’ — एवी आत्मामां आत्मबुद्धिरूप ज्ञायकस्वभावनुं अवलंबन करी अंतरात्मा थवा, आचार्ये अज्ञानी जीवने उपदेश कर्यो छे. १५.
अंतरात्मा आत्मामां आत्मबुद्धि करतो, अलब्ध (पूर्वे नहि प्राप्त थयेला एवा) लाभथी संतोष पामी, पोतानी बहिरात्मावस्थानुं स्मरण करीने विषाद (खेद) करे छे. ते कहे छेः — १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ९२ २. को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,
३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, गु. आवृत्ति – पृ. ९०.