Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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६६समाधितंत्र

भावार्थ : जेने आत्मा अने शरीरनुं भेदज्ञान वर्ते छे, ते चैतन्यस्वरूपमां एकाग्र थई अतीन्द्रिय आनंदमां झूलतो होवाथी तेने सहेजे उपवासादि बार प्रकारनां तप होय छे. तेनाथी तेने मनमां खेद थतो नथी अने तपश्चरणना काळे घोर दुष्कर्मना फलस्वरूप बाह्य रोगादि के उपसर्गादिनां कारणो उपस्थित होवा छतां, तेना आनंदमां बाधा आवती नथी, अर्थात् ते खेदखिन्न थतो नथी.

विशेष

जेम सुवर्ण, अग्निथी तप्त होवा छतां, तेना सुवर्णपणाने छोडतुं नथी, तेम ज्ञानी कर्मना उदयथी तप्त होवा छतां पोताना ज्ञानीपणाने छोडतो नथी.

साधकनी नीचली दशामां सम्यग्द्रष्टिने रोग, उपसर्गादि आवी पडे तो अस्थिरताना कारणे तेने थोडी आकुलता थाय छे अने तेना प्रतिकारनी पण ते इच्छा करे छे, परंतु श्रद्धा ज्ञानमां शरीर प्रत्येना ममत्वभावनो अभाव होई तेने तेनुं स्वामीत्व होतुं नथी. ते तो फक्त तेनो ज्ञाताद्रष्टा रहे छे; तेथी स्वभावद्रष्टिना बळे ते जेम जेम आत्मस्वरूपमां स्थिरता पामे छे, तेम तेम तेने वीतरागता वधती जाय छे अने रागद्वेषादिनो अभाव थतो जाय छे; एटले जेटले अंशे वीतरागता प्रगटे छे तेटले अंशे आकुलतानो अभाव थाय छे एम समजवुं.

स्वरूपमां ठरवुं अने चैतन्यनुं निर्विकल्पपणे प्रतपवुं अर्थात् आत्मानी शुद्ध पर्यायमां वीर्यनुं उग्र प्रतपन ते तपे छे. आवी समजण अने स्वरूपाचरणना कारणे ज्ञानी उदयमां आवेला प्रतिकूळ संयोगोथी खेदखिन्न थतो नथी.

मुनि मनवचनकायनी निश्चल गुप्तिद्वारा आत्मध्यानमां एटला लीन थई जाय छे के तेमनी स्थिर मुद्रा देखी, पशुओ तेमना शरीरने पथ्थर समजी खूजली खंजवाळे छे, छतां तेओ पोताना ध्यानमां निश्चल रहे छे.

माटे अतीन्द्रिय आनंदमां झूलता ज्ञानीओने तपश्चर्यादिनुं कष्ट लागतुं नथी. ३४. १. ज्यम अग्नितप्त सुवर्ण पण निज स्वर्णभाव नहीं तजे,

त्यम कर्मउदये तप्त पण ज्ञानी न ज्ञानीपणुं तजे.(श्री समयसार, गु. आ.गाथा १८४)

२. ‘सहज निश्चयनयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मामां प्रतपन ते तप छे; निज स्वरूपमां अविचल

स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र आ तपथी होय छे.’ (श्री नियमसार, गाथा५१५५नी टीका)

३. ‘सम्यक्प्रकार निरोध मनवचकायआतम ध्यावते,

तिन सुथिर मुद्रा देखि, मृगगण उपल खाज खुजावते’ (छहढाला//4)
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