Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 35.

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समाधितंत्र६७
खेदं गच्छतामात्मस्वरूपोपलम्भाभावं दर्शयन्नाह
रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं स तत्त्वं नेतरो जनः ।।३५।।

टीकारागद्वेषादय एव कल्लोलास्तैरलोलमचञ्जलमकलुषं वा यन्मनोजलं मन एव जलं मनोजलं यस्य मनोजलम् यन्मनोजलम् स आत्मा पश्यति आत्मनस्तत्त्वमात्मनः स्वरूपम् स तत्त्वम् स आत्मदर्शी तत्त्वं परमात्मस्वरूपम् नेतरो जनः (रागादिपरिणतः जनः) तत्त्वं न भवति ।।३५।।

खेद पामनाराओने आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो अभाव दर्शावतां कहे छे केः

श्लोक ३५

अन्वयार्थ : (यन्मनोजलम्) जेनुं मनरूपी जल (रागद्वेषादिकल्लोलैः) रागद्वेषादि तरंगोथी (अलोलं) चंचल थतुं नथी, (सः) ते (आत्मनः तत्त्वं) आत्माना यथार्थ स्वरूपने (पश्यति) देखे छेअनुभवे छे. (तत् तत्त्वं) ते आत्मतत्त्वने (इतरः जनः) बीजो माणस रागद्वेषादिथी आकुलित चित्तवाळो माणस (न पश्यति) देखी शकतो नथी.

टीका : रागद्वेषादि जे कल्लोलो (तरंगो) छे, तेनाथी अलोलअचंचलअकलुष जेनुं मनरूपी जल छे [मन ए ज जल ते मनोजल, जेनुं मनोजल छे] ते आत्मा, आत्माना तत्त्वने एटले परमात्मस्वरूपने देखे छे (अनुभवे छे,) अर्थात् [ते तत्त्वने] ते एटले आत्मदर्शी तत्त्वने एटले परमात्मस्वरूपने (अनुभवे छे,) बीजो कोई जन अर्थात् रागादिपरिणत अन्य [अनात्मदर्शी] जन तत्त्वने अनुभवी शकतो नथी.

भावार्थ : जेनुं मन रागद्वेषादि विकल्पोथी आकुलितचलित थतुं नथी ते आत्माना यथार्थ स्वरूपनेपरमात्मस्वरूपने अनुभवे छे; बीजो कोई रागद्वेषादिथी आकुलित अनात्मदर्शी जन तेने अनुभवी शकतो नथी.

जेम तरंगोथी ऊछळता पाणीमां अंदर रहेली वस्तु देखाती नथी, तेम राग द्वेषादिरूप तरंगोथीविकल्पोथी चंचल बनेला मनरूपी जलमां अर्थात् ज्ञानजलमां आत्म तत्त्व देखातुं नथी. निर्विकल्प दशामां ज आत्मदर्शन थाय छे; सविक्ल्प दशामां आत्मानुभव थतो नथी.

रागादिक-कल्लोलथी मन-जळ लोल न थाय,
ते देखे चिद्तत्त्वने, अन्य जने न जणाय. ३५.
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