Samadhitantra-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 36.

< Previous Page   Next Page >


Page 55 of 170
PDF/HTML Page 84 of 199

 

६८समाधितंत्र

किं पुनस्तत्त्वशब्देनोच्यत इत्याह
अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मनः
धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः ।।३६।।

टीकाअविक्षिप्तं रागाद्यपरिणतं देहादिनाऽऽत्मनोऽभेदाध्यवसायपरिहारेण स्वस्वरूप एव निश्चिलतां गतम् इत्थं भूतं मनः तत्त्वं वास्तवं रूपमात्मनः विक्षिप्तं उक्तविपरीतं

विशेष

वस्तुस्वरूप समजी अतीन्द्रिय आत्मस्वरूपनी सन्मुख थतां रागद्वेषादि विकल्पो स्वयं शान्त थई जाय छे. तेने शमाववा माटे आत्मसन्मुखता सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. उपयोग अंतर्मुख थतां रागद्वेषादिनो अभाव थाय छे, निर्विकल्प दशा प्रगट थाय छे अने परमात्मतत्त्वनो आनंद अनुभवमां आवे छे. ते वखते बहारनी गमे तेवी अनुकूळता के प्रतिकूळता होय तो पण चित्त मलिन थतुं नथी. आवो जीव स्वरूपमां लीन थई अकथ्य आनंदशान्ति अनुभवे छे, परंतु बाह्य पदार्थोमां इष्टअनिष्टनी कल्पना करी जेनुं चित्त रागद्वेषादि कषायोथी आकुलित थाय छे तेने शुद्धात्मानो आनंद आवतो नथी; अर्थात् तेने शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति थती नथी. ३५.

वळी तत्त्व शब्दथी शुं कहेवा मागे छे ते कहे छेः

श्लोक ३६

अन्वयार्थ : (अविक्षिप्तं) अविक्षिप्त (मनः) मन छे ते (आत्मनः तत्त्वं) आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे अने (विक्षिप्तं) विक्षिप्त मन छे ते (आत्मनः भ्रान्तिः) आत्मविभ्रम छे (ततः) तेथी (तम् अविक्षिप्तं) ते अविक्षिप्त मनने (धारयेत्) धारण करवुं अने (विक्षिप्तं) विक्षिप्त मननो (न आश्रयेत्) आश्रय करवो नहि.

टीका : अविक्षिप्त एटले रागादिथी अपरिणतदेहादि साथे आत्माना अभेद (एकरूप)ना अध्यवसाय (मिथ्या अभिप्राय)नो परिहार करीने स्वस्वरूपमां ज निश्चल (स्थिर) थई गएलुं एवुं मन ते आत्मतत्त्व एटले आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे.

विक्षिप्त एटले उपर कह्युं तेनाथी विपरीत (अर्थात् रागादिथी परिणत तथा देह अने

अविक्षिप्त मन तत्त्व निज, भ्रम छे मन विक्षिप्त;
अविक्षिप्त मनने धरो, धरो न मन विक्षिप्त. ३६.