मनोभ्रान्तिरात्मस्वरूपं न भवति । यत एवं तस्मात् धारयेत् । किं तत् ? मनः कथम्भूतम् ?
अविक्षिप्तम् । विक्षिप्तं पुनस्तत् नाश्रयेन्न धारयेत् ।।३६।।
आत्माना भेदज्ञानथी रहित) मन ते (आत्म) भ्रान्ति छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी; माटे (तेने – अविक्षिप्त मनने) धारण करवुं. तेने एटले कोने? मनने; केवा (मनने)? अविक्षिप्त (मनने); परंतु ते विक्षिप्त (मनने) धारण करवुं नहि – तेनो आश्रय करवो नहि.
भावार्थ : जे मन रागद्वेषथी विक्षिप्त थतुं नथी – आकुलित थतुं नथी, देहादिमां आत्मबुद्धि करतुं नथी अने आत्म – स्वरूपमां निश्चल रहे छे ते आत्म – तत्त्व छे – आत्मानुं वास्तविक स्वरूप छे. जे मन रागद्वेषादिकरूपे परिणमे छे – तेनाथी विक्षिप्त थाय छे; देह अने आत्माना भेद – ज्ञानथी रहित छे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी ते आत्म – भ्रान्ति छे, आत्मानुं निजरूप नथी. माटे अविक्षिप्त मन आत्म – तत्त्व होवाथी प्रगट करवा योग्य छे अने विक्षिप्त मन आत्म – आत्मतत्त्व नहि होवाथी हेय छे – त्यागवा योग्य छे.
ज्यारे ज्ञानस्वरूप भाव मन रागादि विभाव भावोथी छूटी आत्माने, शरीरादि बाह्य पदार्थोथी भिन्न, चैतन्यमय, एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावरूप अनुभव करवा लागे छे तथा तेमां तन्मय थई जाय छे त्यारे ते अविक्षिप्त अर्थात् निर्विकल्प भाव मनने ‘आत्म – तत्त्व’ कहे छे, परंतु ज्यारे तेमां विकल्पो ऊठवा लागे त्यारे ते विक्षिप्त अर्थात् सविकल्प मनने आत्मानुं तत्त्व कहेता नथी. ते आस्रव छे. माटे आत्मार्थीए स्वसन्मुख थईने निर्विकल्प मनने ज – अविक्षिप्त मनने ज धारण करवुं जोईए. तेनाथी ज आत्म – लाभ छे.
प्रथम स्व – परनुं भेदज्ञान करी पर पदार्थोमां इष्ट – अनिष्टपणानी कल्पनानो त्याग करवो, राग – द्वेषादिनां कारणो तरफ उपेक्षा – बुद्धि करवी अने भावश्रुतज्ञानने अंतर्मुख करवुं. आथी पर पदार्थो संबंधीना संकल्प – विकल्पो बधा शमी जशे, मन अविक्षिप्त बनशे अने आत्मस्वरूपमां स्थिर थशे. आवा अविक्षिप्त भाव मनने ज प्रगट करवा आचार्ये उपदेश आप्यो छे, कारण के ते आत्म – तत्त्व छे अने ते मोक्षनुं कारण छे.
जे ज्ञाननो उपयोग रागादि विकारोमां तथा पर पदार्थोमां रोकाय छे ते ज्ञान नथी, पण जे ज्ञान ज्ञानमां ज प्रतिष्ठित थाय छे ते ज वास्तविक ज्ञान छे – आत्मतत्त्व छे; माटे ते उपादेय छे.
जे उपयोग परमां ज अटकेलो रहेवाथी आत्म – सन्मुख वळतो नथी, ते परना वलणवाळुं तत्त्व छे, आत्माना वलणवाळुं तत्त्व नथी, तेनाथी संसार छे, माटे ते हेय छे. ३६.