Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 264-278 ; 47 shaktis of atma quote; 1,2,3,4,5,6,7,8,9,10,11,12,13,14,15,16,17,18,19,20,21,22,23,24,25,26,27,28,29,30,31,32,33,34,35,36,37,38,39,40,41,42,43,44,45,46,47.

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स्वसंवेदनसिद्धत्वात्ः तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानन्तधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया द्रष्टया क्रमाक्रमप्रवृत्तं तदविनाभूतं अनन्तधर्मजातं यद्यावल्लक्ष्यते तत्तावत्समस्तमेवैकः खल्वात्मा एतदर्थमेवात्रास्य ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ननु क्रमाक्रमप्रवृत्तानन्तधर्ममयस्यात्मनः कथं ज्ञानमात्रत्वम् ? परस्परव्यतिरिक्तानन्तधर्मसमुदाय- परिणतैकज्ञप्तिमात्रभावरूपेण स्वयमेव भवनात् अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावान्तःपातिन्योऽनन्ताः

(उत्तरः) प्रसिद्धत्व अने *प्रसाध्यमानत्वने लीधे लक्षण अने लक्ष्यनो विभाग करवामां आव्यो छे. ज्ञान प्रसिद्ध छे, कारण के ज्ञानमात्रने स्वसंवेदनथी सिद्धपणुं छे (अर्थात् ज्ञान सर्व प्राणीओने स्वसंवेदनरूप अनुभवमां आवे छे); ते प्रसिद्ध एवा ज्ञान वडे प्रसाध्यमान, तद् - अविनाभूत (ज्ञाननी साथे अविनाभावी संबंधवाळा) अनंत धर्मोना समुदायरूप मूर्ति आत्मा छे. (ज्ञान प्रसिद्ध छे; अने ज्ञान साथे जेमनो अविनाभावी संबंध छे एवा अनंत धर्मोना समुदायस्वरूप आत्मा ते ज्ञान वडे प्रसाध्यमान छे.) माटे ज्ञानमात्रमां अचलितपणे स्थापेली द्रष्टि वडे, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्ततो, तद् - अविनाभूत (ज्ञाननी साथे अविनाभावी संबंधवाळो) अनंतधर्मसमूह जे कांई जेवडो लक्षित थाय छे, ते सघळोय खरेखर एक आत्मा छे.

आ कारणे ज अहीं आत्मानो ज्ञानमात्रपणे व्यपदेश छे. (प्रश्नः) जेमां क्रम अने अक्रमे प्रवर्तता अनंत धर्मो छे एवा आत्माने ज्ञानमात्रपणुं कई रीते छे?

(उत्तरः) परस्पर भिन्न एवा अनंत धर्मोना समुदायरूपे परिणत एक ज्ञप्तिमात्र भावरूपे पोते ज होवाथी (अर्थात् परस्पर भिन्न एवा अनंत धर्मोना समुदायरूपे परिणमेली जे एक जाणनक्रिया ते जाणनक्रियामात्र भावरूपे पोते ज होवाथी) आत्माने ज्ञानमात्रपणुं छे. माटे ज तेने ज्ञानमात्र एक भावनी अंतःपातिनी (ज्ञानमात्र एक भावनी अंदर पडनारी अर्थात् ज्ञानमात्र एक भावनी अंदर आवी जती) अनंत शक्तिओ ऊछळे छे. (आत्माना जेटला धर्मो छे ते बधायने, लक्षणभेदे भेद होवा छतां, प्रदेशभेद नथी; आत्माना एक परिणाममां बधाय धर्मोनुं परिणमन रहेलुं छे. तेथी आत्माना एक ज्ञानमात्र भावनी अंदर अनंत शक्तिओ रहेली छे. माटे ज्ञानमात्र भावमांज्ञानमात्र भावस्वरूप आत्मामांअनंत शक्तिओ ऊछळे छे.) तेमांनी केटलीक शक्तिओ नीचे प्रमाणे छेःआत्मद्रव्यने कारणभूत एवा चैतन्यमात्र भावनुं धारण जेनुं लक्षण अर्थात् स्वरूप छे एवी जीवत्वशक्ति. (आत्मद्रव्यने

* प्रसाध्यमान = प्रसिद्ध करवामां आवतुं होय ते. (ज्ञान प्रसिद्ध छे अने आत्मा प्रसाध्यमान छे.)


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शक्तयः उत्प्लवन्ते आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा जीवत्वशक्तिः १ अजडत्वात्मिका चितिशक्तिः २ अनाकारोपयोगमयी द्रशिशक्तिः ३ साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः ४ अनाकुलत्वलक्षणा सुखशक्तिः ५ स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्य- शक्तिः ६ अखण्डितप्रतापस्वातन्त्र्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशक्तिः ७ सर्वभावव्यापकैक- भावरूपा विभुत्वशक्तिः ८ विश्वविश्वसामान्यभावपरिणतात्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्तिः ९ विश्वविश्वविशेषभावपरिणतात्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्तिः १० नीरूपात्मप्रदेशप्रकाशमान- लोकालोकाकारमेचकोपयोगलक्षणा स्वच्छत्वशक्तिः ११ स्वयम्प्रकाशमानविशदस्व- संवित्तिमयी प्रकाशशक्तिः १२ क्षेत्रकालानवच्छिन्नचिद्विलासात्मिका असङ्कुचितविकाशत्व-


कारणभूत एवा चैतन्यमात्रभावरूपी भावप्राणनुं धारण करवुं जेनुं लक्षण छे एवी जीवत्व नामनी शक्ति ज्ञानमात्र भावमांआत्मामांऊछळे छे.) १. अजडत्व- स्वरूप चितिशक्ति. (अजडत्व अर्थात् चेतनत्व जेनुं स्वरूप छे एवी चितिशक्ति.) २. अनाकार उपयोगमयी द्रशिशक्ति. (जेमां ज्ञेयरूप आकार अर्थात् विशेष नथी एवा दर्शनोपयोगमयीसत्तामात्र पदार्थमां उपयुक्त थवामयीद्रशिशक्ति अर्थात् दर्शन- क्रियारूप शक्ति.) ३. साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति. (जे ज्ञेय पदार्थोना विशेषोरूप आकारोमां उपयुक्त थाय छे एवी ज्ञानोपयोगमयी ज्ञानशक्ति.) ४. अनाकुळता जेनुं लक्षण अर्थात् स्वरूप छे एवी सुखशक्ति. ५. स्वरूपनी (आत्मस्वरूपनी) रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति. ६. जेनो प्रताप अखंडित छे अर्थात् कोईथी खंडित करी शकातो नथी एवा स्वातंत्र्यथी (स्वाधीनताथी) शोभायमानपणुं जेनुं लक्षण छे एवी प्रभुत्वशक्ति. ७. सर्व भावोमां व्यापक एवा एक भावरूप विभुत्वशक्ति. (जेम के, ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोमां व्यापे छे.) ८. समस्त विश्वना सामान्य भावने देखवारूपे (अर्थात् सर्व पदार्थोना समूहरूप लोकालोकने सत्तामात्र ग्रहवारूपे) परिणमता एवा आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति. ९. समस्त विश्वना विशेष भावोने जाणवारूपे परिणमता एवा आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञ- त्वशक्ति. १०. अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां प्रकाशमान लोकालोकना आकारोथी मेचक (अर्थात् अनेक - आकाररूप) एवो उपयोग जेनुं लक्षण छे एवी स्वच्छत्वशक्ति. (जेम दर्पणनी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना पर्यायमां घटपटादि प्रकाशे छे, तेम आत्मानी स्वच्छत्व- शक्तिथी तेना उपयोगमां लोकालोकना आकारो प्रकाशे छे.) ११. स्वयं प्रकाशमान विशद (स्पष्ट) एवा स्वसंवेदनमयी (स्वानुभवमयी) प्रकाशशक्ति. १२. क्षेत्र अने काळथी अमर्यादित एवा चिद्दविलासस्वरूप (चैतन्यना विलासस्वरूप) असंकुचितविकासत्व-


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शक्तिः १३ अन्याक्रियमाणान्याकारकैकद्रव्यात्मिका अकार्यकारणत्वशक्तिः १४ परात्म- निमित्तकज्ञेयज्ञानाकारग्रहणग्राहणस्वभावरूपा परिणम्यपरिणामकत्वशक्तिः १५ अन्यूनाति- रिक्तस्वरूपनियतत्वरूपा त्यागोपादानशून्यत्वशक्तिः १६ षट्स्थानपतितवृद्धिहानि- परिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्तिः १७ क्रमाक्रमवृत्त- वृत्तित्वलक्षणा उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्तिः १८ द्रव्यस्वभावभूतध्रौव्यव्ययोत्पादालिङ्गितसद्रश- विसद्रशरूपैकास्तित्वमात्रमयी परिणामशक्तिः १९ कर्मबन्धव्यपगमव्यञ्जितसहजस्पर्शादि- शून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्तिः २० सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्तपरिणाम-


शक्ति. १३. जे अन्यथी करातुं नथी अने अन्यने करतुं नथी एवा एक द्रव्यस्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति. (जे अन्यनुं कार्य नथी अने अन्यनुं कारण नथी एवुं जे एक द्रव्य ते - स्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति.) १४. पर अने पोते जेमनां निमित्त छे एवा ज्ञेयाकारो तथा ज्ञानाकारोने ग्रहण करवाना अने ग्रहण कराववाना स्वभावरूप परिणम्य- परिणामकत्वशक्ति. (पर जेमनां कारण छे एवा ज्ञेयाकारोने ग्रहण करवाना अने पोते जेमनुं कारण छे एवा ज्ञानाकारोने ग्रहण कराववाना स्वभावरूप परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति.) १५. जे घटतुं - वधतुं नथी एवा स्वरूपमां नियतत्वरूप (निश्चितपणे जेमनुं तेम रहेवारूप) त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति. १६. षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूपे परिणमतो, स्वरूप - प्रतिष्ठत्वना कारणरूप (वस्तुने स्वरूपमां रहेवानाकारणरूप) एवो जे विशिष्ट (खास) गुण ते - स्वरूप अगुरुलघुत्वशक्ति. [आ षट्-स्थानपतित वृद्धिहानिनुं स्वरूप ‘गोम्मटसार’ शास्त्रमांथी जाणवुं. अविभागपरिच्छेदोनी संख्यारूप षट्स्थानोमां पडतीसमावेश पामतीवस्तुस्वभावनी वृद्धिहानि जेनाथी (जे गुणथी) थाय छे अने जे (गुण) वस्तुने स्वरूपमां टकवानुं कारण छे एवो कोई गुण आत्मामां छे; तेने अगुरुलघुत्वगुण कहेवामां आवे छे. आवी अगुरुलघुत्वशक्ति पण आत्मामां छे.] १७. क्रमवृत्तिरूप अने अक्रमवृत्तिरूप वर्तन जेनुं लक्षण छे एवी उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्ति. (क्रमवृत्तिरूप पर्याय उत्पादव्ययरूप छे अने अक्रमवृत्तिरूप गुण ध्रुवत्वरूप छे.) १८. द्रव्यना स्वभावभूत ध्रौव्य - व्यय - उत्पादथी आलिंगित (स्पर्शित), सद्रश अने विसद्रश जेनुं रूप छे एवा एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति. १९. कर्मबंधना अभावथी व्यक्त करवामां आवता, सहज, स्पर्शादिशून्य (स्पर्श, रस, गंध अने वर्णथी रहित) एवा आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति. २०. समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा जे परिणामो ते परिणामोना करणना *उपरमस्वरूप (ते परिणामोना करवानी निवृत्तिस्वरूप) अकर्तृत्वशक्ति.

* उपरम = अटकवुं ते; निवृत्ति; अंत; अभाव.


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करणोपरमात्मिका अकर्तृत्वशक्तिः २१ सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्तपरिणामानुभवो- परमात्मिका अभोक्तृत्वशक्तिः २२ सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रदेशनैष्पन्द्यरूपा निष्क्रियत्व- शक्तिः २३ आसंसारसंहरणविस्तरणलक्षितकिञ्चिदूनचरमशरीरपरिमाणावस्थितलोकाकाश- सम्मितात्मावयवत्वलक्षणा नियतप्रदेशत्वशक्तिः २४ सर्वशरीरैकस्वरूपात्मिका स्वधर्म- व्यापकत्वशक्तिः २५ स्वपरसमानासमानसमानासमानत्रिविधभावधारणात्मिका साधारणा- साधारणसाधारणासाधारणधर्मत्वशक्तिः २६ विलक्षणानन्तस्वभावभावितैकभावलक्षणा अनन्त- धर्मत्वशक्तिः २७ तदतद्रूपमयत्वलक्षणा विरुद्धधर्मत्वशक्तिः २८ तद्रूपभवनरूपा तत्त्व- शक्तिः २९ अतद्रूपभवनरूपा अतत्त्वशक्तिः ३० अनेकपर्यायव्यापकैकद्रव्यमयत्वरूपा एकत्व- (जे शक्तिथी आत्मा ज्ञातापणा सिवायना, कर्मथी करवामां आवता परिणामोनो कर्ता थतो नथी, एवी अकर्तृत्व नामनी एक शक्ति आत्मामां छे.) २१. समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा परिणामोना अनुभवना (


भोगवटाना) उपरमस्वरूप अभोक्तृत्वशक्ति. २२. समस्त कर्मना उपरमथी प्रवर्तती आत्मप्रदेशोनी निष्पंदतास्वरूप (अकंपतास्वरूप) निष्क्रियत्वशक्ति. (सकळ कर्मनो अभाव थाय त्यारे प्रदेशोनुं कंपन मटी जाय छे माटे निष्क्रियत्वशक्ति पण आत्मामां छे.) २३. जे अनादि संसारथी मांडीने संकोचविस्तारथी लक्षित छे अने जे चरम शरीरना परिमाणथी कांईक ऊणा परिमाणे अवस्थित थाय छे एवुं लोकाकाशना माप जेटला मापवाळुं आत्म - अवयवपणुं जेनुं लक्षण छे एवी नियतप्रदेशत्वशक्ति. (आत्माना लोकपरिमाण असंख्य प्रदेशो नियत ज छे. ते प्रदेशो संसार-अवस्थामां संकोचविस्तार पामे छे अने मोक्ष - अवस्थामां चरम शरीर करतां कांईक ओछा परिमाणे स्थित रहे छे.) २४. सर्व शरीरोमां एकस्वरूपात्मक एवी स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति. (शरीरना धर्मरूप न थतां पोताना धर्मोमां व्यापवारूप शक्ति ते स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति.) २५. स्व - परना समान, असमान अने समानासमान एवा त्रण प्रकारना भावोना धारणस्वरूप साधारण - असाधारण - साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति. २६. विलक्षण (परस्पर भिन्न लक्षणोवाळा) अनंत स्वभावोथी भावित एवो एक भाव जेनुं लक्षण छे एवी अनंत-धर्मत्वशक्ति. २७. तद्रूपमयपणुं अने अतद्रूपमयपणुं जेनुं लक्षण छे एवी विरुद्धधर्मत्वशक्ति. २८. तद्रूप भवनरूप एवी तत्त्वशक्ति. (तत्स्वरूप होवारूप अथवा तत्स्वरूप परिणमनरूप एवी तत्त्वशक्ति आत्मामां छे. आ शक्तिथी चेतन चेतनपणे रहे छेपरिणमे छे.) २९. अतद्रूप भवनरूप एवी अतत्त्वशक्ति. (तत्स्वरूप न होवारूप अथवा तत्स्वरूपे नहि परिणमवारूप अतत्त्वशक्ति आत्मामां छे. आ शक्तिथी चेतन जडरूप थतो नथी.) ३०. अनेक पर्यायोमां


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शक्तिः ३१ एकद्रव्यव्याप्यानेकपर्यायमयत्वरूपा अनेकत्वशक्तिः ३२ भूतावस्थत्वरूपा भाव- शक्तिः ३३ शून्यावस्थत्वरूपा अभावशक्तिः ३४ भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्तिः ३५ अभवत्पर्यायोदयरूपा अभावभावशक्तिः ३६ भवत्पर्यायभवनरूपा भावभावशक्तिः ३७ अभवत्पर्यायाभवनरूपा अभावाभावशक्तिः ३८ कारकानुगतक्रियानिष्क्रान्तभवनमात्रमयी भावशक्तिः ३९ कारकानुगतभवत्तारूपभावमयी क्रियाशक्तिः ४० प्राप्यमाणसिद्धरूप- भावमयी कर्मशक्तिः ४१ भवत्तारूपसिद्धरूपभावभावकत्वमयी कर्तृशक्तिः ४२ भवद्भाव- भवनसाधकतमत्वमयी करणशक्तिः ४३ स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी सम्प्रदानशक्तिः ४४ उत्पादव्ययालिङ्गितभावापायनिरपायध्रुवत्वमयी अपादानशक्तिः ४५ भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्तिः ४६ स्वभावमात्रस्वस्वामित्वमयी सम्बन्धशक्तिः ४७


व्यापक एवा एकद्रव्यमयपणारूप एकत्वशक्ति. ३१. एक द्रव्यथी व्याप्य (व्यपावायोग्य) जे अनेक पर्यायो ते - मयपणारूप अनेकत्वशक्ति. ३२. विद्यमान-अवस्थावाळापणारूप भावशक्ति. (अमुक अवस्था जेमां विद्यमान होय एवापणारूप भावशक्ति.) ३३. शून्य (अविद्यमान) अवस्थावाळापणारूप अभावशक्ति. (अमुक अवस्था जेमां अविद्यमान होय एवापणारूप अभावशक्ति.) ३४. भवता (वर्तता, थता, परिणमता) पर्यायना व्ययरूप भावाभावशक्ति. ३५. नहि भवता (नहि वर्तता) पर्यायना उदयरूप अभावभावशक्ति. ३६. भवता (वर्तता) पर्यायना भवनरूप (वर्तवारूप, परिणमवारूप) भावभावशक्ति. ३७. नहि भवता (नहि वर्तता) पर्यायना अभवनरूप (नहि वर्तवारूप) अभावाभावशक्ति. ३८. (कर्ता, कर्म आदि) कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित भवनमात्रमयी (होवामात्रमयी, थवामात्रमयी) भावशक्ति. ३९. कारको अनुसार थवापणारूप (परिणमवापणारूप) जे भाव ते - मयी क्रियाशक्ति. ४०. प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते - मयी कर्मशक्ति. ४१. थवापणारूप अने सिद्धरूप भावना भावकपणामयी कर्तृशक्ति. ४२. भवता (वर्तता, थता) भावना भवनना (थवाना) साधकतमपणामयी (उत्कृष्ट साधकपणामयी, उग्र साधनपणामयी) करणशक्ति. ४३. पोताथी देवामां आवतो जे भाव तेना उपेयपणामयी (तेने मेळववाना योग्यपणामय, तेने लेवाना पात्रपणामय) संप्रदानशक्ति. ४४. उत्पादव्ययथी आलिंगित भावनो अपाय (हानि, नाश) थवाथी हानि नहि पामता एवा ध्रुवपणामयी अपादानशक्ति. ४५. भाव्यमान (अर्थात् भाववामां आवता) भावना आधारपणामयी अधिकरणशक्ति. ४६. स्वभावमात्र स्व - स्वामित्वमयी संबंधशक्ति. (पोतानो भाव पोतानुं स्व अने पोते तेनो स्वामीएवा संबंधमयी संबंधशक्ति.) ४७.


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(वसन्ततिलका)
इत्याद्यनेकनिजशक्तिसुनिर्भरोऽपि
यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः
एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं
तद्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु
।।२६४।।
(वसन्ततिलका)
नैकान्तसङ्गतद्रशा स्वयमेव वस्तु-
तत्त्वव्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः
स्याद्वादशुद्धिमधिकामधिगम्य सन्तो
ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलङ्घयन्तः
।।२६५।।

‘इत्यादिक अनेक शक्तिओथी युक्त आत्मा छे तोपण ते ज्ञानमात्रपणाने छोडतो नथी’एवा अर्थनुं कळशरूप काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[इत्यादि - अनेक - निज - शक्ति - सुनिर्भरः अपि] इत्यादि (पूर्वे कहेली ४७ शक्तिओ वगेरे वगेरे) अनेक निज शक्तिओथी सारी रीते भरेलो होवा छतां [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति] जे भाव ज्ञानमात्रमयपणाने छोडतो नथी, [तद्] एवुं ते, [एवं क्रम - अक्रम - विवर्ति - विवर्त - चित्रम्] पूर्वोक्त प्रकारे क्रमरूपे अने अक्रमरूपे वर्तता विवर्तथी (रूपांतरथी, परिणमनथी) अनेक प्रकारनुं, [द्रव्यपर्ययमयं] द्रव्यपर्यायमय [चिद्] चैतन्य (अर्थात् एवो ते चैतन्यभावआत्मा) [इह] आ लोकमां [वस्तु अस्ति] वस्तु छे.

भावार्थःकोई एम समजशे के आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो तेथी ते एकस्वरूप ज हशे. परंतु एम नथी. वस्तुनुं स्वरूप द्रव्यपर्यायमय छे. चैतन्य पण वस्तु छे, द्रव्यपर्यायमय छे. ते चैतन्य अर्थात् आत्मा अनंत शक्तिओथी भरेलो छे अने क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारना परिणामना विकारोना समूहरूप अनेकाकार थाय छे तोपण ज्ञाननेके जे असाधारण भाव छे तेनेछोडतो नथी, तेनी सर्व अवस्थाओपरिणामोपर्यायो ज्ञानमय ज छे. २६४.

‘आ अनेकस्वरूपअनेकांतमयवस्तुने जेओ जाणे छे, श्रद्धे छे अने अनुभवे छे, तेओ ज्ञानस्वरूप थाय छे’एवा आशयनुं, स्याद्वादनुं फळ बतावतुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[इति वस्तु - तत्त्व - व्यवस्थितिम् नैकान्त - सङ्गत - द्रशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः] आवी (अनेकांतात्मक) वस्तुतत्त्वनी व्यवस्थितिने अनेकांत - संगत (अनेकांत साथे सुसंगत, अनेकांत


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अथास्योपायोपेयभावश्चिन्त्यते

आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव; तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः, यत्सिद्धं रूपं स उपेयः अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात् संसरतः सुनिश्चल- परिगृहीतव्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरम्परया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यान्त- र्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा परमप्रकर्षमकरिकाधिरूढ-


साथे मेळवाळी) द्रष्टि वडे स्वयमेव देखता थका, [स्याद्वाद - शुद्धिम् अधिकाम् अधिगम्य] स्याद्वादनी अत्यंत शुद्धिने जाणीने, [जिन - नीतिम् अलङ्घयन्तः] जिननीतिने (जिनेश्वरदेवना मार्गने) नहि उल्लंघता थका, [सन्तः ज्ञानीभवन्ति] सत्पुरुषो ज्ञानस्वरूप थाय छे.

भावार्थःजे सत्पुरुषो अनेकांत साथे सुसंगत द्रष्टि वडे अनेकांतमय वस्तुस्थितिने देखे छे, तेओ ए रीते स्याद्वादनी शुद्धिने पामीनेजाणीने, जिनदेवना मार्गने स्याद्वादन्यायनेनहि उल्लंघता थका, ज्ञानस्वरूप थाय छे. २६५.

(आ रीते स्याद्वाद विषे कहीने, हवे आचार्यदेव उपाय - उपेयभाव विषे थोडुं कहे छेः)

हवे आनो (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनो *उपाय - उपेयभाव विचारवामां आवे छे (अर्थात् आत्मवस्तु ज्ञानमात्र होवा छतां तेने उपायपणुं अने उपेयपणुं बन्ने कई रीते घटे छे ते विचारवामां आवे छे)ः

आत्मवस्तुने ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां पण तेने उपाय - उपेयभाव (उपाय-उपेयपणुं) छे ज; कारण के ते एक होवा छतां +पोते साधक रूपे अने सिद्ध रूपे एम बन्ने रूपे परिणमे छे. तेमां जे साधक रूप छे ते उपाय छे अने जे सिद्ध रूप छे ते उपेय छे. माटे, अनादि काळथी मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र वडे (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र वडे) स्वरूपथी च्युत होवाने लीधे संसारमां भ्रमण करतां, सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहारसम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्रना पाकना प्रकर्षनी परंपरा वडे अनुक्रमे स्वरूपमां आरोहण कराववामां आवता आ आत्माने, अंतर्मग्न जे निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेदो ते - पणा वडे पोते साधक रूपे

* उपेय एटले पामवायोग्य, अने उपाय एटले पामवायोग्य जेनाथी पमाय ते. आत्मानुं शुद्ध (सर्व कर्म रहित) स्वरूप अथवा मोक्ष ते उपेय छे अने मोक्षमार्ग ते उपाय छे.

+आत्मा परिणामी छे अने साधकपणुं तथा सिद्धपणुं ए बन्ने तेना परिणाम छे.


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रत्नत्रयातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानं ज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति एवमुभयत्रापि ज्ञानमात्रस्यानन्यतया नित्यमस्खलितैकवस्तुनो निष्कम्पपरिग्रहणात् तत्क्षण एव मुमुक्षूणामासंसारादलब्धभूमिकानामपि भवति भूमिकालाभः ततस्तत्र नित्यदुर्ललितास्ते स्वत एव क्रमाक्रमप्रवृत्तानेकान्तमूर्तयः साधकभावसम्भवपरमप्रकर्षकोटिसिद्धिभावभाजनं भवन्ति ये तु नेमामन्तर्नीतानेकान्त- ज्ञानमात्रैकभावरूपां भूमिमुपलभन्ते ते नित्यमज्ञानिनो भवन्तो ज्ञानमात्रभावस्य स्वरूपेणाभवनं


परिणमतुं, तथा परम प्रकर्षनी हदने पामेला रत्नत्रयनी अतिशयताथी प्रवर्तेलो जे सकळ कर्मनो क्षय तेनाथी प्रज्वलित (देदीप्यमान) थयेलो जे अस्खलित विमळ स्वभावभाव ते - पणा वडे पोते सिद्ध रूपे परिणमतुं एवुं एक ज ज्ञानमात्र उपाय - उपेयभाव साधे छे.

(भावार्थःआ आत्मा अनादि काळथी मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रने लीधे संसारमां भमे छे. ते सुनिश्चळपणे ग्रहण करेलां व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी वृद्धिनी परंपरा वडे अनुक्रमे स्वरूपनो अनुभव ज्यारथी करे त्यारथी ज्ञान साधक रूपे परिणमे छे, कारण के ज्ञानमां निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेदो अंतर्भूत छे. निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी शरूआतथी मांडीने, स्वरूप - अनुभवनी वृद्धि करतां करतां ज्यां सुधी निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पूर्णता न थाय, त्यां सुधी ज्ञाननुं साधक रूपे परिणमन छे. ज्यारे निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पूर्णताथी समस्त कर्मनो नाश थाय अर्थात् साक्षात् मोक्ष थाय त्यारे ज्ञान सिद्ध रूपे परिणमे छे, कारण के तेनो अस्खलित निर्मळ स्वभावभाव प्रगट देदीप्यमान थयो छे. आ रीते साधक रूपे अने सिद्ध रूपेबन्ने रूपे परिणमतुं एक ज ज्ञान आत्मवस्तुने उपाय - उपेयपणुं साधे छे.)

आ रीते बन्नेमां (उपायमां तेम ज उपेयमां) ज्ञानमात्रनुं अनन्यपणुं छे अर्थात् अन्यपणुं नथी; माटे सदाय अस्खलित एक वस्तुनुं (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनुं) निष्कंप ग्रहण करवाथी, मुमुक्षुओने के जेमने अनादि संसारथी भूमिकानी प्राप्ति न थई होय तेमने पण, तत्क्षण ज भूमिकानी प्राप्ति थाय छे; पछी तेमां ज नित्य मस्ती करता ते मुमुक्षुओके जेओ पोताथी ज, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनेक अंतनी (अनेक धर्मनी) मूर्तिओ छे तेओ साधकभावथी उत्पन्न थती परम प्रकर्षनी *कोटिरूप सिद्धिभावनुं भाजन थाय छे. परंतु जेमां अनेक अंत अर्थात् धर्म गर्भित छे एवा एक ज्ञानमात्र भावरूप आ भूमिने जेओ प्राप्त करता नथी, तेओ सदा अज्ञानी वर्तता थका, ज्ञानमात्र भावनुं स्वरूपथी अभवन अने पररूपथी भवन देखता (श्रद्धता) थका, जाणता थका अने आचरता थका, मिथ्याद्रष्टि, मिथ्याज्ञानी अने

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* कोटि = अंतिमता; उत्कृष्टता; ऊंचामां ऊंचुं बिंदु; हद.


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पररूपेण भवनं पश्यन्तो जानन्तोऽनुचरन्तश्च मिथ्याद्रष्टयो मिथ्याज्ञानिनो मिथ्याचारित्राश्च भवन्तोऽत्यन्तमुपायोपेयभ्रष्टा विभ्रमन्त्येव

(वसन्ततिलका)
ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां
भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः
ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धा
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति
।।२६६।।
(वसन्ततिलका)
स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः
ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री-
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः
।।२६७।।

मिथ्याचारित्री वर्तता थका, उपाय - उपेयभावथी अत्यंत भ्रष्ट वर्तता थका संसारमां परिभ्रमण ज करे छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[ये] जे पुरुषो, [कथम् अपि अपनीत - मोहाः] कोई पण प्रकारे जेमनो मोह दूर थयो छे एवा थया थका, [ज्ञानमात्र - निज - भावमयीम् अकम्पां भूमिं] ज्ञानमात्र निजभावमय अकंप भूमिकानो (अर्थात् ज्ञानमात्र जे पोतानो भाव ते - मय निश्चळ भूमिकानो) [श्रयन्ति] आश्रय करे छे, [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति] तेओ साधकपणाने पामीने सिद्ध थाय छे; [तु] परंतु [मूढाः] जेओ मूढ (मोही, अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि) छे, तेओ [अमूम् अनुपलभ्य] आ भूमिकाने नहि पामीने [परिभ्रमन्ति] संसारमां परिभ्रमण करे छे.

भावार्थःजे भव्य पुरुषो, गुरुना उपदेशथी अथवा स्वयमेव काळलब्धिने पामी मिथ्यात्वथी रहित थईने, ज्ञानमात्र एवा पोताना स्वरूपने पामे छे, तेनो आश्रय करे छे, तेओ साधक थया थका सिद्ध थाय छे; परंतु जेओ ज्ञानमात्र एवा पोताने पामता नथी, तेओ संसारमां रखडे छे. २६६.

आ भूमिकानो आश्रय करनार जीव केवो होय ते हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[यः] जे पुरुष [स्याद्वाद - कौशल - सुनिश्चल - संयमाभ्यां] स्याद्वादमां प्रवीणता


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(वसन्ततिलका)
चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहासः
शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः
आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूप-
स्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा
।।२६८।।

तथा (रागादिक अशुद्ध परिणतिना त्यागरूप) सुनिश्चळ संयमए बन्ने वडे [इह उपयुक्तः] पोतामां उपयुक्त रहेतो थको (अर्थात् पोताना ज्ञानस्वरूप आत्मामां उपयोगने जोडतो थको) [अहः अहः स्वम् भावयति] प्रतिदिन पोताने भावे छे (निरंतर पोताना आत्मानी भावना करे छे), [सः एकः] ते ज एक (पुरुष), [ज्ञान - क्रिया - नय - परस्पर - तीव्र - मैत्री - पात्रीकृतः] ज्ञाननय अने क्रियानयनी परस्पर तीव्र मैत्रीना पात्ररूप थयेलो, [इमाम् भूमिम् श्रयति] आ (ज्ञानमात्र निजभावमय) भूमिकानो आश्रय करे छे.

भावार्थःजे ज्ञाननयने ज ग्रहीने क्रियानयने छोडे छे, ते प्रमादी अने स्वच्छंदी पुरुषने आ भूमिकानी प्राप्ति थई नथी. जे क्रियानयने ज ग्रहीने ज्ञाननयने जाणतो नथी, ते (व्रत - समिति - गुप्तिरूप) शुभ कर्मथी संतुष्ट पुरुषने पण आ निष्कर्म भूमिकानी प्राप्ति थई नथी. जे पुरुष अनेकांतमय आत्माने जाणे छे (अनुभवे छे) तथा सुनिश्चळ संयममां वर्ते छे (रागादिक अशुद्ध परिणतिनो त्याग करे छे), ए रीते जेणे ज्ञाननय अने क्रियानयनी परस्पर तीव्र मैत्री साधी छे, ते ज पुरुष आ ज्ञानमात्र निजभावमयी भूमिकानो आश्रय करनार छे.

ज्ञाननय अने क्रियानयना ग्रहण - त्यागनुं स्वरूप अने फळ ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ शास्त्रना अंतमां कह्युं छे, त्यांथी जाणवुं. २६७.

आम जे पुरुष आ भूमिकानो आश्रय करे छे, ते ज अनंत चतुष्टयमय आत्माने पामे छेएवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[तस्य एव] (पूर्वोक्त रीते जे पुरुष आ भूमिकानो आश्रय करे छे) तेने ज, [चित् - पिण्ड - चण्डिम - विलासि - विकास - हासः] चैतन्यपिंडनो निरर्गळ विलसतो जे विकास ते - रूप जेनुं खीलवुं छे (अर्थात् चैतन्यपुंजनो जे अत्यंत विकास थवो ते ज जेनुं खीली नीकळवुं छे), [शुद्ध - प्रकाश - भर - निर्भर - सुप्रभातः] शुद्ध प्रकाशनी अतिशयताने लीधे जे सुप्रभात समान छे, [आनन्द - सुस्थित - सदा - अस्खलित - एक - रूपः] आनंदमां सुस्थित एवुं जेनुं सदा अस्खलित एक रूप छे [च] अने [अचल - अर्चिः] अचळ जेनी ज्योत छे एवो [अयम् आत्मा उदयति] आ आत्मा उदय पामे छे.


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(वसन्ततिलका)
स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशे
शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति
किं बन्धमोक्षपथपातिभिरन्यभावै-
र्नित्योदयः परमयं स्फु रतु स्वभावः
।।२६९।।
(वसन्ततिलका)
चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा
सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमानः
तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेक-
मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि
।।२७०।।

भावार्थःअहीं ‘चित्पिण्ड’ इत्यादि विशेषणथी अनंतदर्शननुं प्रगट थवुं बताव्युं छे, ‘शुद्धप्रकाश’ इत्यादि विशेषणथी अनंत ज्ञाननुं प्रगट थवुं बताव्युं छे, ‘आनन्दसुस्थित’ इत्यादि विशेषणथी अनंत सुखनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे अने ‘अचलार्चि’ विशेषणथी अनंत वीर्यनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे. पूर्वोक्त भूमिनो आश्रय करवाथी ज आवा आत्मानो उदय थाय छे. २६८.

एवो ज आत्मस्वभाव अमने प्रगट हो एम हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[स्याद्वाद - दीपित - लसत् - महसि] स्याद्वाद वडे प्रदीप्त करवामां आवेलुं लसलसतुं (झगझगाट करतुं) जेनुं तेज छे अने [शुद्ध - स्वभाव - महिमनि] जेमां शुद्धस्वभावरूप महिमा छे एवो [प्रकाशे उदिते मयि इति] आ प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) ज्यां मारामां उदय पाम्यो छे, त्यां [बन्ध - मोक्ष - पथ - पातिभिः अन्य - भावैः किम्] बंध - मोक्षना मार्गमां पडनारा अन्य भावोथी मारे शुं प्रयोजन छे? [नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फु रतु] नित्य जेनो उदय रहे छे एवो केवळ आ (अनंत चतुष्टयरूप) स्वभाव ज मने स्फुरायमान हो.

भावार्थःस्याद्वादथी यथार्थ आत्मज्ञान थया पछी एनुं फळ पूर्ण आत्मानुं प्रगट थवुं ते छे. माटे मोक्षनो इच्छक पुरुष ए ज प्रार्थना करे छे केमारो पूर्णस्वभाव आत्मा मने प्रगट थाओ; बंधमोक्षमार्गमां पडता अन्य भावोनुं मारे शुं काम छे? २६९.

‘जोके नयो वडे आत्मा सधाय छे तोपण जो नयो पर ज द्रष्टि रहे तो नयोमां तो परस्पर विरोध पण छे, माटे हुं नयोने अविरोध करीने अर्थात् नयोनो विरोध मटाडीने आत्माने अनुभवुं छुं’एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[चित्र - आत्मशक्ति - समुदायमयः अयम् आत्मा] अनेक प्रकारनी निज


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न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रो भावोऽस्मि

(शालिनी)
योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन्
ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः
।।२७१।।

शक्तिओना समुदायमय आ आत्मा [नय - ईक्षण - खण्डयमानः] नयोनी द्रष्टिथी खंडखंडरूप करवामां आवतां [सद्यः] तत्काळ [प्रणश्यति] नाश पामे छे; [तस्मात्] माटे हुं एम अनुभवुं छुं के[अनिराकृत - खण्डम् अखण्डम्] जेमांथी खंडोने *निराकृत करवामां आव्या नथी छतां जे अखंड छे, [एकम्] एक छे, [एकान्तशान्तम्] एकांत शांत छे (अर्थात् जेमां कर्मना उदयनो लेश पण नथी एवा अत्यंत शांत भावमय छे) अने [अचलम्] अचळ छे (अर्थात् कर्मना उदयथी चळाव्युं चळतुं नथी) एवुं [चिद् महः अहम् अस्मि] चैतन्यमात्र तेज हुं छुं.

भावार्थःआत्मामां अनेक शक्तिओ छे अने एक एक शक्तिनो ग्राहक एक एक नय छे; माटे जो नयोनी एकांत द्रष्टिथी जोवामां आवे तो आत्माना खंड खंड थईने तेनो नाश थई जाय. आम होवाथी स्याद्वादी, नयोनो विरोध मटाडीने चैतन्यमात्र वस्तुने अनेकशक्ति- समूहरूप, सामान्यविशेषस्वरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभवे छे. एवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे, एमां विरोध नथी. २७०.

हवे, ज्ञानी अखंड आत्मानो आवो अनुभव करे छे एम आचार्यदेव गद्यमां कहे छेः

(ज्ञानी शुद्धनयनुं आलंबन लई एम अनुभवे छे के) हुं मने अर्थात् मारा शुद्धात्मस्वरूपने नथी द्रव्यथी खंडतो (खंडित करतो), नथी क्षेत्रथी खंडतो, नथी काळथी खंडतो, नथी भावथी खंडतो; सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव छुं.

भावार्थःशुद्धनयथी जोवामां आवे तो शुद्ध चैतन्यमात्र भावमां द्रव्य - क्षेत्र - काळ - भावथी कांई पण भेद देखातो नथी. माटे ज्ञानी अभेदज्ञानस्वरूप अनुभवमां भेद करतो नथी.

ज्ञानमात्र भाव पोते ज ज्ञान छे, पोते ज पोतानुं ज्ञेय छे अने पोते ज पोतानो ज्ञाता छेएवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मिः सः ज्ञेय - ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः]

* निराकृत = बहिष्कृत; दूर; रदबातल; नाकबूल.


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(पृथ्वी)
क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं
क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम
तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः
परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फु रत्
।।२७२।।

जे आ ज्ञानमात्र भाव हुं छुं ते ज्ञेयोना ज्ञानमात्र ज न जाणवो; [ज्ञेय - ज्ञान-कल्लोल - वल्गन्] (परंतु) ज्ञेयोना आकारे थता ज्ञानना कल्लोलोरूपे परिणमतो ते, [ज्ञान - ज्ञेय - ज्ञातृमत् - वस्तुमात्रः ज्ञेयः] ज्ञान - ज्ञेय - ज्ञातामय वस्तुमात्र जाणवो (अर्थात् पोते ज ज्ञान, पोते ज ज्ञेय अने पोते ज ज्ञाताएम ज्ञान - ज्ञेय - ज्ञातारूप त्रणे भावो सहित वस्तुमात्र जाणवो).

भावार्थःज्ञानमात्र भाव जाणनक्रियारूप होवाथी ज्ञानस्वरूप छे. वळी ते पोते ज नीचे प्रमाणे ज्ञेयरूप छे. बाह्य ज्ञेयो ज्ञानथी जुदां छे, ज्ञानमां पेसतां नथी; ज्ञेयोना आकारनी झळक ज्ञानमां आवतां ज्ञान ज्ञेयाकाररूप देखाय छे परंतु ए ज्ञानना ज कल्लोलो (तरंगो) छे. ते ज्ञानकल्लोलो ज ज्ञान वडे जणाय छे. आ रीते पोते ज पोताथी जणावायोग्य होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञेयरूप छे. वळी पोते ज पोतानो जाणनार होवाथी ज्ञानमात्र भाव ज ज्ञाता छे. आ प्रमाणे ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय अने ज्ञाताए त्रणे भावोयुक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु छे. ‘आवो ज्ञानमात्र भाव हुं छुं’ एम अनुभव करनार पुरुष अनुभवे छे. २७१.

आत्मा मेचक, अमेचक इत्यादि अनेक प्रकारे देखाय छे तोपण यथार्थ ज्ञानी निर्मळ ज्ञानने भूलतो नथीएवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः(ज्ञानी कहे छेः) [मम तत्त्वं सहजम् एव] मारा तत्त्वनो एवो स्वभाव ज छे के [क्वचित् मेचकं लसति] कोई वार तो ते (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार, अशुद्ध) देखाय छे, [क्वचित् मेचक-अमेचकं] कोई वार मेचक - अमेचक (बन्नेरूप) देखाय छे [पुनः क्वचित् अमेचकं] अने वळी कोई वार अमेचक (एकाकार, शुद्ध) देखाय छे; [तथापि] तोपण [परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फु रत् तत्] परस्पर सुसंहत (सुमिलित, सुग्रथित, सारी रीते गूंथायेली) प्रगट शक्तिओना समूहरूपे स्फुरायमान ते आत्मतत्त्व [अमल-मेधसां मनः] निर्मळ बुद्धिवाळाओना मनने [न विमोहयति] विमोहित करतुं नथी (भ्रमित करतुं नथी, मूंझवतुं नथी).

भावार्थःआत्मतत्त्व अनेक शक्तिओवाळुं होवाथी कोई अवस्थामां कर्मना उदयना


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(पृथ्वी)
इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकता-
मितः क्षणविभङ्गुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात्
इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजै-
रहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम्
।।२७३।।

निमित्तथी अनेकाकार अनुभवाय छे, कोई अवस्थामां शुद्ध एकाकार अनुभवाय छे अने कोई अवस्थामां शुद्धाशुद्ध अनुभवाय छे; तोपण यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादना बळथी भ्रमित थतो नथी, जेवुं छे तेवुं ज माने छे, ज्ञानमात्रथी च्युत थतो नथी. २७२.

आत्मानो अनेकांतस्वरूप (अनेक धर्मस्वरूप) वैभव अद्भुत (आश्चर्यकारक) छे एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम्] अहो! आत्मानो ते आ सहज अद्भुत वैभव छे के[इतः अनेकतां गतम्] एक तरफथी जोतां ते अनेकताने पामेलो छे अने [इतः सदा अपि एकताम् दधत्] एक तरफथी जोतां सदाय एकताने धारण करे छे, [इतः क्षणविभङ्गुरम्] एक तरफथी जोतां क्षणभंगुर छे अने [इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम्] एक तरफथी जोतां सदाय तेनो उदय होवाथी ध्रुव छे, [इतः परम - विस्तृतम्] एक तरफथी जोतां परम विस्तृत छे अने [इतः निजैः प्रदेशैः धृतम्] एक तरफथी जोतां पोताना प्रदेशोथी ज धारण करी रखायेलो छे.

भावार्थःपर्यायद्रष्टिथी जोतां आत्मा अनेकरूप देखाय छे अने द्रव्यद्रष्टिथी जोतां एकरूप देखाय छे; क्रमभावी पर्यायद्रष्टिथी जोतां क्षणभंगुर देखाय छे अने सहभावी गुणद्रष्टिथी जोतां ध्रुव देखाय छे; ज्ञाननी अपेक्षावाळी सर्वगत द्रष्टिथी जोतां परम विस्तारने पामेलो देखाय छे अने प्रदेशोनी अपेक्षावाळी द्रष्टिथी जोतां पोताना प्रदेशोमां ज व्यापेलो देखाय छे. आवो द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मवाळो वस्तुनो स्वभाव छे. ते (स्वभाव) अज्ञानीओना ज्ञानमां आश्चर्य उपजावे छे के आ तो असंभवित जेवी वात छे! ज्ञानीओने जोके वस्तुस्वभावमां आश्चर्य नथी तोपण तेमने पूर्वे कदी नहोतो थयो एवो अद्भुत परम आनंद थाय छे, अने तेथी आश्चर्य पण थाय छे. २७३.

फरी आ ज अर्थनुं काव्य कहे छेः


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(पृथ्वी)
कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः
जगत्त्रितयमेकतः स्फु रति चिच्चकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः
।।२७४।।
(मालिनी)
जयति सहजतेजःपुञ्जमज्जत्त्रिलोकी-
स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः
स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भः
प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः
।।२७५।।

श्लोकार्थः[एकतः कषाय - कलिः स्खलति] एक तरफथी जोतां कषायोनो क्लेश देखाय छे अने [एकतः शान्तिः अस्ति] एक तरफथी जोतां शान्ति (कषायोना अभावरूप शांत भाव) छे; [एकतः भव - उपहतिः] एक तरफथी जोतां भवनी (संसार संबंधी) पीडा देखाय छे अने [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति] एक तरफथी जोतां (संसारना अभावरूप) मुक्ति पण स्पर्शे छे; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फु रति] एक तरफथी जोतां त्रण लोक स्फुरायमान छे (प्रकाशे छे, देखाय छे) अने [एकतः चित् चकास्ति] एक तरफथी जोतां केवळ एक चैतन्य ज शोभे छे. [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव - महिमा विजयते] (आवो) आत्मानो अद्भुतथी पण अद्भुत स्वभावमहिमा जयवंत वर्ते छे (कोईथी बाधित थतो नथी).

भावार्थःअहीं पण २७३मा काव्यना भावार्थ प्रमाणे जाणवुं. आत्मानो अनेकांतमय स्वभाव सांभळीने अन्यवादीने भारे आश्चर्य थाय छे. तेने आ वातमां विरुद्धता भासे छे. ते आवा अनेकांतमय स्वभावनी वातने पोताना चित्तमां समावीजीरवी शकतो नथी. जो कदाचित् तेने श्रद्धा थाय तोपण प्रथम अवस्थामां तेने बहु अद्भुतता लागे छे के ‘अहो आ जिनवचनो महा उपकारी छे, वस्तुना यथार्थ स्वरूपने जणावनारां छे; में अनादि काळ आवा यथार्थ स्वरूपना ज्ञान विना खोयो!’आम आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करे छे. २७४.

हवे टीकाकार आचार्यदेव अंतमंगळने अर्थे आ चित्चमत्कारने ज सर्वोत्कृष्ट कहे छेः

श्लोकार्थः[सहज - तेजःपुञ्ज - मज्जत् - त्रिलोकी - स्खलत् - अखिल - विकल्पः अपि एकः एव स्वरूपः] सहज (पोताना स्वभावरूप) तेजःपुंजमां त्रण लोकना पदार्थो मग्न थता होवाथी जेमां अनेक भेदो थता देखाय छे तोपण जेनुं एक ज स्वरूप छे (अर्थात् केवळज्ञानमां सर्व पदार्थो


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(मालिनी)
अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्म-
न्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम्
उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्ता-
ज्ज्वलतु विमलपूर्णं निःसपत्नस्वभावम्
।।२७६।।

झळकता होवाथी जे अनेक ज्ञेयाकाररूप देखाय छे तोपण चैतन्यरूप ज्ञानाकारनी द्रष्टिमां जे एकस्वरूप ज छे), [स्व - रस - विसर-पूर्ण - अच्छिन्न - तत्त्व - उपलम्भः] जेमां निज रसना फेलावथी पूर्ण अछिन्न तत्त्व - उपलब्धि छे (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मनो अभाव थयो होवाथी जेमां स्वरूप - अनुभवननो अभाव थतो नथी) अने [प्रसभ - नियमित - अर्चिः] अत्यंत नियमित जेनी ज्योत छे (अर्थात् अनंत वीर्यथी जे निष्कंप रहे छे) [एषः चित् - चमत्कारः जयति] एवो आ (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्ते छे (कोईथी बाधित न करी शकाय एम सर्वोत्कृष्टपणे वर्ते छे).

(अहीं ‘चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्ते छे’ एम कहेवामां जे चैतन्यचमत्कारनुं सर्वोत्कृष्टपणे वर्तवुं बताव्युं, ते ज मंगळ छे.) २७५.

हवेना काव्यमां टीकाकार आचार्यदेव पूर्वोक्त आत्माने आशीर्वाद आपे छे अने साथे साथे पोतानुं नाम पण प्रगट करे छेः

श्लोकार्थः[अविचलित - चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत - निमग्नं धारयत्] जे अचळ - चेतनास्वरूप आत्मामां आत्माने पोताथी ज अनवरतपणे (निरंतर) निमग्न राखे छे (अर्थात् प्राप्त करेला स्वभावने कदी छोडती नथी), [ध्वस्त - मोहम्] जेणे मोहनो (अज्ञान -अंधकारनो) नाश कर्यो छे, [निःसपत्नस्वभावम्] जेनो स्वभाव निःसपत्न (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मो विनानो) छे, [विमल - पूर्णं] जे निर्मळ छे अने जे पूर्ण छे एवी [एतत् उदितम् अमृतचन्द्र - ज्योतिः] आ उदय पामेली अमृतचंद्रज्योति (अमृतमय चंद्रमा समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [समन्तात् ज्वलतु] सर्व तरफथी जाज्वल्यमान रहो.

भावार्थःजेनुं मरण नथी तथा जेनाथी अन्यनुं मरण नथी ते अमृत छे; वळी जे अत्यंत स्वादिष्ट (मीठुं) होय तेने लोको रूढिथी अमृत कहे छे. अहीं ज्ञाननेआत्माने अमृतचंद्रज्योति (अर्थात् अमृतमय चंद्रमा समान ज्योति) कहेल छे, ते लुप्तोपमा अलंकारथी कह्युं जाणवुं; कारण के ‘अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः’नो समास करतां ‘वत्’नो लोप थई ‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ थाय छे.

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(शार्दूलविक्रीडित)
यस्माद्दवैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं
रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः
भुञ्जाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं
तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किञ्चिन्न किञ्चित्किल
।।२७७।।

(‘वत्’ शब्द न मूकतां अमृतचंद्ररूप ज्योति एवो अर्थ करीए तो भेदरूपक अलंकार थाय छे. ‘अमृतचंद्रज्योति’ एवुं ज आत्मानुं नाम कहीए तो अभेदरूपक अलंकार थाय छे.)

आत्माने अमृतमय चंद्रमा समान कह्यो होवा छतां, अहीं कहेलां विशेषणो वडे आत्माने चंद्रमा साथे व्यतिरेक पण छे; कारण के‘ध्वस्तमोह’ विशेषण अज्ञान-अंधकारनुं दूर थवुं जणावे छे, ‘विमलपूर्ण’ विशेषण लांछनरहितपणुं तथा पूर्णपणुं बतावे छे, ‘निःसपत्नस्वभाव’ विशेषण राहुबिंबथी तथा वादळां आदिथी आच्छादित न थवानुं जणावे छे, ‘समंतात् ज्वलतु’ कह्युं छे ते सर्व क्षेत्रे तथा सर्व काळे प्रकाश करवानुं जणावे छे; चंद्रमा आवो नथी.

आ काव्यमां टीकाकार आचार्यदेवे ‘अमृतचंद्र’ एवुं पोतानुं नाम पण जणाव्युं छे. समास पलटीने अर्थ करतां ‘अमृतचंद्र’ना अने ‘अमृतचंद्रज्योति’ना अनेक अर्थो थाय छे ते यथासंभव जाणवा. २७६.

हवे श्रीमान अमृतचंद्र आचार्यदेव बे काव्यो कहीने आ समयसारशास्त्रनी आत्मख्याति नामनी टीका पूर्ण करे छे.

‘अज्ञानदशामां आत्मा स्वरूपने भूलीने रागद्वेषमां वर्ततो हतो, परद्रव्यनी क्रियानो कर्ता थतो हतो, क्रियाना फळनो भोक्ता थतो हतो,इत्यादि भावो करतो हतो; परंतु हवे ज्ञानदशामां ते भावो कांई ज नथी एम अनुभवाय छे.’आवा अर्थनुं काव्य प्रथम कहे छेः

श्लोकार्थः[यस्मात्] जेनाथी (अर्थात् जे परसंयोगरूप बंधपर्यायजनित अज्ञानथी) [पुरा] प्रथम [स्व - परयोः द्वैतम् अभूत्] पोतानुं अने परनुं द्वैत थयुं (अर्थात् पोताना अने परना भेळसेळपणारूप भाव थयो), [यतः अत्र अन्तरं भूतं] द्वैतपणुं थतां जेनाथी स्वरूपमां अंतर पड्युं (अर्थात् बंधपर्याय ज पोतारूप जणायो), [यतः राग - द्वेष - परिग्रहे सति] स्वरूपमां अंतर पडतां जेनाथी रागद्वेषनुं ग्रहण थयुं, [क्रिया - कारकैः जातं] रागद्वेषनुं ग्रहण थतां जेनाथी क्रियानां कारको उत्पन्न थयां (अर्थात् क्रियानो अने कर्ता - कर्म आदि कारकोनो भेद पड्यो), [यतः च


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(उपजाति)
स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वै-
र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः
स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः
।।२७८।।

अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना] कारको उत्पन्न थतां जेनाथी अनुभूति क्रियाना समस्त फळने भोगवती थकी खिन्न थई (खेद पामी), [तत् विज्ञान - घन - ओघ - मग्नम्] ते अज्ञान हवे विज्ञानघनना ओघमां मग्न थयुं (अर्थात् ज्ञानरूपे परिणम्युं) [अधुना किल किञ्चित् न किञ्चित्] तेथी हवे ते बधुं खरेखर कांई ज नथी.

भावार्थःपरसंयोगथी ज्ञान ज अज्ञानरूपे परिणम्युं हतुं, अज्ञान कांई जुदी वस्तु नहोती; माटे हवे ज्यां ते ज्ञानरूपे परिणम्युं त्यां ते (अज्ञान) कांई ज न रह्युं, अज्ञानना निमित्ते राग, द्वेष, क्रियानुं कर्तापणुं, क्रियाना फळनुं (सुखदुःखनुं) भोक्तापणुं इत्यादि भावो थता हता ते पण विलय पाम्या; एक ज्ञान ज रही गयुं. माटे हवे आत्मा स्व - परना त्रणकाळवर्ती भावोने ज्ञाता - द्रष्टा थईने जाण्या - देख्या ज करो. २७७.

‘पूर्वोक्त रीते ज्ञानदशामां परनी क्रिया पोतानी नहि भासती होवाथी, आ समयसारनी व्याख्या करवानी क्रिया पण मारी नथी, शब्दोनी छे’एवा अर्थनुं, समयसारनी व्याख्या करवाना अभिमानरूप कषायना त्यागने सूचवनारुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[स्व - शक्ति - संसूचित - वस्तु - तत्त्वैः शब्दैः] पोतानी शक्तिथी जेमणे वस्तुनुं तत्त्व (यथार्थ स्वरूप) सारी रीते कह्युं छे एवा शब्दोए [इयं समयस्य व्याख्या] आ समयनी व्याख्या (आत्मवस्तुनुं व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रनी टीका) [कृता] करी छे; [स्वरूप - गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः] स्वरूपगुप्त (अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमां गुप्त) अमृतचंद्रसूरिनुं [किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति] (तेमां) कांई ज कर्तव्य नथी.

भावार्थःशब्दो छे ते तो पुद्गल छे. तेओ पुरुषना निमित्तथी वर्ण - पद - वाक्यरूपे परिणमे छे; तेथी तेमनामां वस्तुना स्वरूपने कहेवानी शक्ति स्वयमेव छे, कारण के शब्दनो अने अर्थनो वाच्यवाचक संबंध छे. आ रीते द्रव्यश्रुतनी रचना शब्दोए करी छे ए वात ज यथार्थ छे. आत्मा तो अमूर्तिक छे, ज्ञानस्वरूप छे, तेथी ते मूर्तिक पुद्गलनी रचना केम करी शके? माटे ज आचार्यदेवे कह्युं छे के ‘आ समयप्राभृतनी टीका शब्दोए करी छे, हुं तो स्वरूपमां लीन छुं, मारुं कर्तव्य तेमां (टीका करवामां) कांई ज नथी.’ आ कथन


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इति श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृता समयसारव्याख्या आत्मख्यातिः समाप्ता आचार्यदेवनी निर्मानता पण बतावे छे. हवे जो निमित्तनैमित्तिक व्यवहारथी कहीए तो एम पण कहेवाय छे ज के अमुक कार्य अमुक पुरुषे कर्युं. आ न्याये आ आत्मख्याति नामनी टीका पण अमृतचंद्राचार्यकृत छे ज. तेथी तेने वांचनारा तथा सांभळनाराओए तेमनो उपकार मानवो पण युक्त छे; कारण के तेने वांचवा तथा सांभळवाथी पारमार्थिक आत्मानुं स्वरूप जणाय छे, तेनुं श्रद्धान तथा आचरण थाय छे, मिथ्या ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण दूर थाय छे अने परंपराए मोक्षनी प्राप्ति थाय छे. मुमुक्षुओए आनो निरंतर अभ्यास करवायोग्य छे. २७८.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीका समाप्त थई.

(हवे पं० जयचंद्रजी भाषाटीका पूर्ण करे छेः)

कुंदकुंदमुनि कियो गाथाबंध प्राकृत है प्राभृतसमय शुद्ध आतम दिखावनूं,
सुधाचंद्रसूरि करी संस्कृत टीकावर आत्मख्याति नाम यथातथ्य भावनूं;
देशकी वचनिकामें लिखि जयचंद्र पढै संक्षेप अर्थ अल्पबुद्धिकूं पावनूं,
पढो सुनो मन लाय शुद्ध आतमा लखाय ज्ञानरूप गहौ चिदानंद दरसावनूं. १.
समयसार अविकारका, वर्णन कर्ण सुनंत;
द्रव्य-भाव - नोकर्म तजि, आतमतत्त्व लखंत. २.

आ प्रमाणे आ समयप्राभृत (अथवा समयसार) नामना शास्त्रनी आत्मख्याति नामनी संस्कृत टीकानी देशभाषामय वचनिका लखी छे. तेमां संस्कृत टीकानो अर्थ लख्यो छे अने अति संक्षिप्त भावार्थ लख्यो छे, विस्तार कर्यो नथी. संस्कृत टीकामां न्यायथी सिद्ध थयेला प्रयोगो छे. तेमनो विस्तार करवामां आवे तो अनुमानप्रमाणनां पांच अंगोपूर्वकप्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय अने निगमनपूर्वकस्पष्टताथी व्याख्यान लखतां ग्रंथ बहु वधी जाय; तेथी आयु, बुद्धि, बळ अने स्थिरतानी अल्पताने लीधे, जेटलुं बनी शक्युं तेटलुं, संक्षेपथी प्रयोजनमात्र लख्युं छे. ते वांचीने भव्य जीवो पदार्थने समजजो. कोई अर्थमां हीनाधिकता होय तो बुद्धिमानो मूळ ग्रंथमांथी जेम होय तेम यथार्थ समजी लेजो. आ ग्रंथना गुरु - संप्रदायनो (गुरुपरंपरागत उपदेशनो) व्युच्छेद थई गयो छे, माटे जेटलो बनी शके तेटलो (यथाशक्ति) अभ्यास थई शके छे. तोपण जेओ स्याद्वादमय जिनमतनी आज्ञा माने छे,


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तेमने विपरीत श्रद्धान थतुं नथी. क्यांक अर्थनुं अन्यथा समजवुं पण थई जाय तो विशेष बुद्धिमाननुं निमित्त मळ्ये यथार्थ थई जाय छे. जिनमतनी श्रद्धावाळाओ हठग्राही होता नथी.

हवे अंतमंगळने अर्थे पंच परमेष्ठीने नमस्कार करी शास्त्र समाप्त करीए छीएः

मंगल श्री अरहंत घातिया कर्म निवारे,
मंगल सिद्ध महंत कर्म आठों परजारे;
आचारज उवज्झाय मुनि मंगलमय सारे,
दीक्षा शिक्षा देय भव्यजीवनिकूं तारे;
अठवीस मूलगुण धार जे सर्वसाधु अणगार हैं,
मैं नमुं पंचगुरुचरणकूं मंगल हेतु करार हैं. १.
जैपुर नगरमांहि तेरापंथ शैली बडी
बडे बडे गुनी जहां पढै ग्रंथ सार है,
जयचंद्र नाम मैं हूं तिनिमें अभ्यास किछू
कियो बुद्धिसारु धर्मरागतें विचार है;
समयसार ग्रंथ ताकी देशके वचनरूप
भाषा करी पढो सुनूं करो निरधार है,
आपापर भेद जानि हेय त्यागि उपादेय
गहो शुद्ध आतमकूं, यहै बात सार है. २.
संवत्सर विक्रम तणूं, अष्टादश शत और;
चौसठि कातिक वदि दशै, पूरण ग्रंथ सुठौर. ३.

आम श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत समयप्राभृत नामना प्राकृतगाथाबद्ध परमागमनी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी संस्कृत टीका अनुसार पंडित जयचंद्रजीकृत संक्षेपभावार्थमात्र देशभाषामय वचनिकाना आधारे श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवाद समाप्त थयो.

समाप्त