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विजृम्भमाणचिदेकरसनिर्भरस्वभावसुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानन्दशब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्व- लक्षणं सौख्यं स्वयमेव भविष्यतीति ।
भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परमब्रह्ममां सर्व उद्यमथी स्थित थशे, ते आत्मा, साक्षात् तत्क्षण प्रगट थता एक चैतन्यरसथी भरेला स्वभावमां सुस्थित अने निराकुळ ( – आकुळता विनानुं) होवाने लीधे जे (सौख्य) ‘परमानंद’ शब्दथी वाच्य छे, उत्तम छे अने अनाकुळता - लक्षणवाळुं छे एवा सौख्यस्वरूप पोते ज थई जशे.
भावार्थः — आ शास्त्रनुं नाम समयप्राभृत छे. समय एटले पदार्थ, अथवा समय एटले आत्मा. तेनुं कहेनारुं आ शास्त्र छे. वळी आत्मा तो समस्त पदार्थोनो प्रकाशक छे. आवा विश्वप्रकाशक आत्माने कहेतुं होवाथी आ समयप्राभृत शब्दब्रह्म समान छे; कारण के जे समस्त पदार्थोनुं कहेनार होय तेने शब्दब्रह्म कहेवामां आवे छे. द्वादशांगशास्त्र शब्दब्रह्म छे अने आ समयप्राभृतशास्त्रने पण शब्दब्रह्मनी उपमा छे. आ शब्दब्रह्म (अर्थात् समयप्राभृतशास्त्र) परब्रह्मने (अर्थात् शुद्ध परमात्माने) साक्षात् देखाडे छे. जे आ शास्त्रने भणीने तेना यथार्थ अर्थमां ठरशे, ते परब्रह्मने पामशे; अने तेथी, जेने ‘परमानंद’ कहेवामां आवे छे एवा उत्तम, स्वात्मिक, स्वाधीन, बाधारहित, अविनाशी सुखने पामशे. माटे हे भव्य जीवो! तमे पोताना कल्याणने अर्थे आनो अभ्यास करो, आनुं श्रवण करो, निरंतर आनुं ज स्मरण अने ध्यान राखो, के जेथी अविनाशी सुखनी प्राप्ति थाय. आवो श्री गुरुओनो उपदेश छे.
हवे आ सर्वविशुद्धज्ञानना अधिकारनी पूर्णतानो कळशरूप श्लोक कहे छेः —
श्लोकार्थः — [इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम्] आ रीते आ आत्मानुं तत्त्व (अर्थात् परमार्थभूत स्वरूप) ज्ञानमात्र नक्की थयुं — [अखण्डम्] के जे (आत्मानुं) ज्ञानमात्र तत्त्व अखंड छे (अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोथी अने प्रतिपक्षी कर्मोथी जोके खंड खंड देखाय छे तोपण ज्ञानमात्रमां खंड नथी), [एकम्] एक छे (अर्थात् अखंड होवाथी एकरूप छे), [अचलं] अचळ छे (अर्थात् ज्ञानरूपथी चळतुं नथी — ज्ञेयरूप थतुं नथी), [स्वसंवेद्यम्] स्वसंवेद्य छे (अर्थात् पोताथी ज पोते जणाय छे), [अबाधितम्] अने अबाधित छे (अर्थात् कोई खोटी युक्तिथी बाधा पामतुं नथी).
भावार्थः — अहीं आत्मानुं निज स्वरूप ज्ञान ज कह्युं छे तेनुं कारण आ प्रमाणे
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इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यामात्मख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपकः नवमोऽङ्कः ।।
छेः — आत्मामां अनंत धर्मो छे; परंतु तेमां केटलाक तो साधारण छे, तेथी तेओ अतिव्याप्तिवाळा छे, तेमनाथी आत्माने ओळखी शकाय नहि; वळी केटलाक (धर्मो) पर्यायाश्रित छे — कोई अवस्थामां होय छे अने कोई अवस्थामां नथी होता, तेथी तेओ अव्याप्तिवाळा छे, तेमनाथी पण आत्मा ओळखी शकाय नहि. चेतनता जोके आत्मानुं (अतिव्याप्ति अने अव्याप्तिथी रहित) लक्षण छे, तोपण ते शक्तिमात्र छे, अद्रष्ट छे; तेनी व्यक्ति दर्शन अने ज्ञान छे. ते दर्शन अने ज्ञानमां पण ज्ञान साकार छे, प्रगट अनुभवगोचर छे; तेथी तेना द्वारा ज आत्मा ओळखी शकाय छे. माटे अहीं आ ज्ञानने ज प्रधान करीने आत्मानुं तत्त्व कह्युं छे.
अहीं एम न समजवुं के ‘आत्माने ज्ञानमात्र तत्त्ववाळो कह्यो छे तेथी एटलो ज परमार्थ छे अने अन्य धर्मो जूठा छे, आत्मामां नथी’; आवो सर्वथा एकांत करवाथी तो मिथ्याद्रष्टिपणुं थाय छे, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धनो अने वेदांतनो मत आवे छे; माटे आवो एकांत बाधासहित छे. आवा एकांत अभिप्रायथी कोई मुनिव्रत पण पाळे अने आत्मानुं – ज्ञानमात्रनुं – ध्यान पण करे, तोपण मिथ्यात्व कपाय नहि; मंद कषायोने लीधे स्वर्ग पामे तो पामो, मोक्षनुं साधन तो थतुं नथी. माटे स्याद्वादथी यथार्थ समजवुं. २४६.
मूरत अमूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि ते भी ज्ञानरूप नाहीं न्यारे न अभावको;
यहै जानि ज्ञानी जीव आपकुं भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको,
कर्म - कर्मफलरूप चेतनाकूं दूरि टारि ज्ञानचेतना अभ्यास करे शुद्ध भावको.
आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां सर्वविशुद्धज्ञाननो प्ररूपक नवमो अंक समाप्त थयो.
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(अहीं सुधीमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनी ४१५ गाथाओनुं व्याख्यान टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे कर्युं अने ते व्याख्यानमां कळशरूपे तथा सूचनिकारूपे २४६ काव्यो कह्यां. हवे टीकाकार आचार्यदेवे विचार्युं के — आ शास्त्रमां ज्ञानने प्रधान करीने ज्ञानमात्र आत्मा कहेता आव्या छीए; तेथी कोई तर्क करशे के ‘जैनमत तो स्याद्वाद छे; तो पछी आत्माने ज्ञानमात्र कहेवाथी शुं एकांत आवी जतो नथी? अर्थात् स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी? वळी एक ज ज्ञानमां उपायतत्त्व अने उपेयतत्त्व — ए बन्ने कई रीते घटे छे?’ आम तर्क कोईने थशे. माटे आवा तर्कनुं निराकरण करवाने टीकाकार आचार्यदेव हवे परिशिष्टरूपे थोडुं कहे छे. तेमां प्रथम श्लोक कहे छेः — )
श्लोकार्थः — [अत्र] अहीं [स्याद्वाद - शुद्धि - अर्थं] स्याद्वादनी शुद्धिने अर्थे [वस्तु - तत्त्व -
अने उपेयपणुं कई रीते घटे छे ते बताववा) उपाय - उपेय भाव [मनाक् भूयः अपि] जरा फरीने पण [चिन्त्यते] विचारवामां आवे छे.
भावार्थः — वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक - धर्मस्वरूप होवाथी ते स्याद्वादथी ज साधी शकाय छे. ए रीते स्याद्वादनी शुद्धता ( – प्रमाणिकता, सत्यता, निर्दोषता, निर्मळता, अद्वितीयता) सिद्ध करवा माटे आ परिशिष्टमां वस्तुनुं स्वरूप विचारवामां आवे छे. (तेमां एम पण बताववामां आवशे के आ शास्त्रमां आत्माने ज्ञानमात्र कह्यो होवा छतां स्याद्वाद साथे विरोध आवतो नथी.) वळी बीजुं, एक ज ज्ञानमां साधकपणुं तथा साध्यपणुं कई रीते बनी शके ते समजाववा ज्ञाननो उपाय - उपेयभाव अर्थात् साधकसाध्यभाव पण आ परिशिष्टमां विचारवामां आवे छे. २४७.
(हवे प्रथम आचार्यदेव वस्तुस्वरूपना विचार द्वारा स्याद्वादने सिद्ध करे छेः — )
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स्याद्वादो हि समस्तवस्तुतत्त्वसाधकमेकमस्खलितं शासनमर्हत्सर्वज्ञस्य । स तु सर्वमनेकान्तात्मकमित्यनुशास्ति, सर्वस्यापि वस्तुनोऽनेकान्तस्वभावत्वात् । अत्र त्वात्मवस्तुनि ज्ञानमात्रतया अनुशास्यमानेऽपि न तत्परिकोपः, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्त- त्वात् । तत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः । तत्स्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात्, बहिरुन्मिषदनन्तज्ञेयतापन्नस्वरूपाति- रिक्तपररूपेणातत्त्वात्, सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात्, अविभागैक- द्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायैरनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेन
स्याद्वाद समस्त वस्तुओना स्वरूपने साधनारुं, अर्हत् सर्वज्ञनुं एक अस्खलित ( – निर्बाध) शासन छे. ते (स्याद्वाद) ‘बधुं अनेकांतात्मक छे’ एम उपदेशे छे, कारण के समस्त वस्तु अनेकांत - स्वभाववाळी छे. (‘सर्व वस्तुओ अनेकांतस्वरूप छे’ एम जे स्याद्वाद कहे छे ते असत्यार्थ कल्पनाथी कहेतो नथी, परंतु जेवो वस्तुनो अनेकांत स्वभाव छे तेवो ज कहे छे.)
अहीं आत्मा नामनी वस्तुने ज्ञानमात्रपणे उपदेशवामां आवतां छतां पण स्याद्वादनो कोप नथी; कारण के ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने स्वयमेव अनेकांतपणुं छे. त्यां (अनेकांतनुं एवुं स्वरूप छे के), जे (वस्तु) तत् छे ते ज अतत् छे, जे (वस्तु) एक छे ते ज अनेक छे, जे सत् छे ते ज असत् छे, जे नित्य छे ते ज अनित्य छे — एम एक वस्तुमां वस्तुपणानी निपजावनारी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं ते अनेकांत छे. माटे पोतानी आत्मवस्तुने पण, ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां, तत् - अतत्पणुं, एक - अनेकपणुं, सत् - असत्पणुं अने नित्य - अनित्यपणुं प्रकाशे ज छे; कारण के — तेने (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने) अंतरंगमां चकचकाट प्रकाशता ज्ञानस्वरूप वडे तत्पणुं छे, अने बहार प्रगट थता, अनंत, ज्ञेयपणाने पामेला, स्वरूपथी भिन्न एवा पर रूप वडे ( – ज्ञानस्वरूपथी भिन्न एवा परद्रव्यना रूप वडे – ) अतत्पणुं छे (अर्थात् ते - रूपे ज्ञान नथी); सहभूत ( – साथे) प्रवर्तता अने क्रमे प्रवर्तता अनंत चैतन्य - अंशोना समुदायरूप अविभाग द्रव्य वडे एकपणुं छे, अने अविभाग एक द्रव्यथी व्याप्त, सहभूत प्रवर्तता अने क्रमे प्रवर्तता अनंत चैतन्य - अंशोरूप ( – चैतन्यना अनंत अंशोरूप) पर्यायो वडे अनेकपणुं छे; पोताना द्रव्य - क्षेत्र - काळ-भावरूपे होवानी शक्तिरूप जे स्वभाव ते स्वभाववानपणा वडे (अर्थात् एवा स्वभाववाळी होवाथी) सत्पणुं छे, अने
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सत्त्वात्, परद्रव्यक्षेत्रकालभावाभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेनाऽसत्त्वात्, अनादिनिधनाविभागैक- वृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात्, क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्, तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव । ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽपि आत्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तः प्रकाशते, तर्हि किमर्थमर्हद्भिस्तत्साधनत्वेनाऽनुशास्यतेऽनेकान्तः ? अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्धयर्थमिति ब्रूमः । न खल्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्म- वस्त्वेव प्रसिध्यति । तथाहि — इह हि स्वभावत एव बहुभावनिर्भरे विश्वे सर्वभावानां
स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निषेद्धुमशक्यत्वात् समस्तमेव वस्तु स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्ति- भ्यामुभयभावाध्यासितमेव । तत्र यदायं ज्ञानमात्रो भावः शेषभावैः सह स्वरसभरप्रवृत्तज्ञातृज्ञेय- सम्बन्धतयाऽनादिज्ञेयपरिणमनात् ज्ञानतत्त्वं पररूपेण प्रतिपद्याज्ञानी भूत्वा नाशमुपैति, तदा
परना द्रव्य-क्षेत्र - काळ - भावरूपे नहि होवानी शक्तिरूप जे स्वभाव ते स्वभाववानपणा वडे असत्पणुं छे; अनादिनिधन अविभाग एक वृत्तिरूपे परिणतपणा वडे नित्यपणुं छे, अने क्रमे प्रवर्तता, एक समयनी मर्यादावाळा अनेक वृत्ति - अंशोरूपे परिणतपणा वडे अनित्यपणुं छे. (आ रीते ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने पण, तत् - अतत्पणुं वगेरे बब्बे विरुद्ध शक्तिओ स्वयमेव प्रकाशती होवाथी, अनेकांत स्वयमेव प्रकाशे ज छे.)
(प्रश्न – ) जो आत्मवस्तुने, ज्ञानमात्रपणुं होवा छतां, स्वयमेव अनेकांत प्रकाशे छे, तो पछी अर्हंत भगवंतो तेना साधन तरीके अनेकांतने ( – स्याद्वादने) शा माटे उपदेशे छे? (उत्तर – ) अज्ञानीओने ज्ञानमात्र आत्मवस्तुनी प्रसिद्धि करवा माटे उपदेशे छे एम अमे कहीए छीए. खरेखर अनेकांत ( – स्याद्वाद) विना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ज प्रसिद्ध थई शकती नथी. ते नीचे प्रमाणे समजाववामां आवे छेः —
स्वभावथी ज बहु भावोथी भरेला आ विश्वमां सर्व भावोनुं स्वभावथी अद्वैत होवा छतां, द्वैतनो निषेध करवो अशक्य होवाथी समस्त वस्तु स्वरूपमां प्रवृत्ति अने पररूपथी व्यावृत्ति वडे बन्ने भावोथी अध्यासित छे (अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूपमां प्रवर्तती होवाथी अने पररूपथी भिन्न रहेती होवाथी दरेक वस्तुमां बन्ने भावो रहेला छे). त्यां, ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव ( – आत्मा), शेष (बाकीना) भावो साथे निज रसना भारथी प्रवर्तेला ज्ञाता - ज्ञेयना संबंधने लीधे अने अनादि काळथी ज्ञेयोना परिणमनने लीधे ज्ञानतत्त्वने पररूपे मानीने (अर्थात् ज्ञेयरूपे अंगीकार करीने) अज्ञानी थयो थको नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्व - रूपथी ( – ज्ञानरूपथी) तत्पणुं प्रकाशीने (अर्थात् ज्ञान ज्ञानपणे ज छे
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स्वरूपेण तत्त्वं द्योतयित्वा ज्ञातृत्वेन परिणमनाज्ज्ञानी कुर्वन्ननेकान्त एव तमुद्गमयति १ । यदा
तु सर्वं वै खल्विदमात्मेति अज्ञानतत्त्वं स्वरूपेण प्रतिपद्य विश्वोपादानेनात्मानं नाशयति, तदा पररूपेणातत्त्वं द्योतयित्वा विश्वाद्भिन्नं ज्ञानं दर्शयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति २ । यदानेकज्ञेयाकारैः खण्डितसकलैकज्ञानाकारो नाशमुपैति, तदा द्रव्येणैकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ३ । यदा त्वेकज्ञानाकारोपादानायानेकज्ञेयाकार-
त्यागेनात्मानं नाशयति, तदा पर्यायैरनेकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ४ ।
यदा ज्ञायमानपरद्रव्यपरिणमनाद् ज्ञातृद्रव्यं परद्रव्यत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वद्रव्येण सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ५ । यदा तु सर्वद्रव्याणि अहमेवेति परद्रव्यं ज्ञातृद्रव्यत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परद्रव्येणासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं
एम प्रगट करीने), ज्ञातापणे परिणमनने लीधे ज्ञानी करतो थको अनेकांत ज ( – स्याद्वाद ज) तेने उद्धारे छे — नाश थवा देतो नथी. १. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव ‘खरेखर आ बधुं आत्मा छे’ एम अज्ञानतत्त्वने स्व - रूपे (ज्ञानरूपे) मानीने — अंगीकार करीने विश्वना ग्रहण वडे पोतानो नाश करे छे ( – सर्व जगतने पोतारूप मानीने तेनुं ग्रहण करीने जगतथी भिन्न एवा पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) पररूपथी अतत्पणुं प्रकाशीने (अर्थात् ज्ञान परपणे नथी एम प्रगट करीने) विश्वथी भिन्न ज्ञानने देखाडतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो ( – ज्ञानमात्र भावनो) नाश करवा देतो नथी. २. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव अनेक ज्ञेयाकारो वडे ( – ज्ञेयोना आकारो वडे) पोतानो सकळ ( – आखो, अखंड) एक ज्ञान-आकार खंडित ( – खंडखंडरूप) थयो मानीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) द्रव्यथी एकपणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे — नाश पामवा देतो नथी. ३. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव एक ज्ञान - आकारनुं ग्रहण करवा माटे अनेक ज्ञेयाकारोना त्याग वडे पोतानो नाश करे छे (अर्थात् ज्ञानमां जे अनेक ज्ञेयोना आकार आवे छे तेमनो त्याग करीने पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) पर्यायोथी अनेकपणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी. ४. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव, जाणवामां आवतां एवां परद्रव्योना परिणमनने लीधे ज्ञातृद्रव्यने परद्रव्यपणे मानीने — अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वद्रव्यथी सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे — नाश पामवा देतो नथी. ५. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव ‘सर्व द्रव्यो हुं ज छुं (अर्थात् सर्व द्रव्यो आत्मा ज छे)’ एम परद्रव्यने ज्ञातृद्रव्यपणे मानीने — अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परद्रव्यथी असत्पणुं प्रकाशतो थको (अर्थात् परद्रव्यरूपे आत्मा नथी एम प्रगट करतो थको) अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा
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न ददाति ६ । यदा परक्षेत्रगतज्ञेयार्थपरिणमनात् परक्षेत्रेण ज्ञानं सत् प्रतिपद्य
नाशमुपैति, तदा स्वक्षेत्रेणास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ७ । यदा तु स्वक्षेत्रे
भवनाय परक्षेत्रगतज्ञेयाकारत्यागेन ज्ञानं तुच्छीकुर्वन्नात्मानं नाशयति, तदा स्वक्षेत्र एव ज्ञानस्य परक्षेत्रगतज्ञेयाकारपरिणमनस्वभावत्वात्परक्षेत्रेण नास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ८ । यदा पूर्वालम्बितार्थविनाशकाले ज्ञानस्यासत्त्वं प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वकालेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ९ । यदा त्वर्थालम्बन-
काल एव ज्ञानस्य सत्त्वं प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परकालेनासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १० । यदा ज्ञायमानपरभावपरिणमनात् ज्ञायकभावं परभावत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वभावेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ११ । यदा
देतो नथी. ६. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव परक्षेत्रगत ( – परक्षेत्रे रहेला) ज्ञेय पदार्थोना परिणमनने लीधे परक्षेत्रथी ज्ञानने सत् मानीने — अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वक्षेत्रथी अस्तित्व प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे — नाश पामवा देतो नथी. ७. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रे होवाने ( – रहेवाने, परिणमवाने) माटे, परक्षेत्रगत ज्ञेयोना आकारोना त्याग वडे (अर्थात् ज्ञानमां जे परक्षेत्रे रहेल ज्ञेयोना आकार आवे छे तेमनो त्याग करीने) ज्ञानने तुच्छ करतो थको पोतानो नाश करे छे, त्यारे स्वक्षेत्रे रहीने ज परक्षेत्रगत ज्ञेयोना आकारोरूपे परिणमवानो ज्ञाननो स्वभाव होवाथी (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परक्षेत्रथी नास्तित्व प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी. ८. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव पूर्वालंबित पदार्थोना विनाशकाळे ( – पूर्वे जेमनुं आलंबन कर्युं हतुं एवा ज्ञेय पदार्थोना विनाश वखते) ज्ञाननुं असत्पणुं मानीने — अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्वकाळथी ( – ज्ञानना काळथी) सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे – नाश पामवा देतो नथी. ९. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव पदार्थोना आलंबनकाळे ज ( – मात्र ज्ञेय पदार्थोने जाणवा वखते ज) ज्ञाननुं सत्पणुं मानीने — अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परकाळथी ( – ज्ञेयना काळथी) असत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी. १०. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव, जाणवामां आवता एवा परभावोना परिणमनने लीधे ज्ञायकस्वभावने परभावपणे मानीने — अंगीकार करीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) स्व - भावथी सत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे — नाश पामवा देतो नथी. ११. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव ‘सर्व भावो हुं ज छुं’ एम परभावने
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तु सर्वे भावा अहमेवेति परभावं ज्ञायकभावत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परभावेना- सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १२ । यदाऽनित्यज्ञानविशेषैः खण्डितनित्यज्ञानसामान्यो नाशमुपैति, तदा ज्ञानसामान्यरूपेण नित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति १३ । यदा तु नित्यज्ञानसामान्योपादानायानित्यज्ञानविशेषत्यागेनात्मानं नाशयति, तदा ज्ञानविशेषरूपेणानित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १४ ।
भवन्ति चात्र श्लोकाः —
विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति ।
र्दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्णं समुन्मज्जति ।।२४८।।
ज्ञायकभावपणे मानीने — अंगीकार करीने पोतानो नाश करे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) परभावथी असत्पणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी. १२. ज्यारे आ ज्ञानमात्र भाव अनित्य ज्ञानविशेषो वडे पोतानुं नित्य ज्ञानसामान्य खंडित थयुं मानीने नाश पामे छे, त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) ज्ञानसामान्यरूपथी नित्यपणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने जिवाडे छे — नाश पामवा देतो नथी. १३. वळी ज्यारे ते ज्ञानमात्र भाव नित्य ज्ञानसामान्यनुं ग्रहण करवा माटे अनित्य ज्ञानविशेषोना त्याग वडे पोतानो नाश करे छे (अर्थात् ज्ञानना विशेषोनो त्याग करीने पोताने नष्ट करे छे), त्यारे (ते ज्ञानमात्र भावनुं) ज्ञानविशेषरूपथी अनित्यपणुं प्रकाशतो थको अनेकांत ज तेने पोतानो नाश करवा देतो नथी.१४.
(अहीं तत्-अतत्ना २ भंग, एक-अनेकना २ भंग, सत्-असत्ना द्रव्य - क्षेत्र - काळ - भावथी एम बताव्युं के — एकांतथी ज्ञानमात्र आत्मानो अभाव थाय छे अने अनेकांतथी आत्मा जीवतो रहे छे; अर्थात् एकांतथी आत्मा जे स्वरूपे छे ते स्वरूपे समजातो नथी, स्वरूपमां परिणमतो नथी, अने अनेकांतथी ते वास्तविक स्वरूपे समजाय छे, स्वरूपमां परिणमे छे.)
अहीं नीचे प्रमाणे (१४ भंगोना कळशरूपे) १४ काव्यो पण कहेवामां आवे छेः —
(प्रथम, पहेला भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [बाह्य - अर्थैः परिपीतम्] बाह्य पदार्थो वडे समस्तपणे पी जवामां आवेलुं,
८ भंग, अने नित्य - अनित्यना २ भंग — एम बधा मळीने १४ भंग थया. आ चौद भंगोमां
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र्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ।।२४९।।
[उज्झित - निज - प्रव्यक्ति - रिक्तीभवत्] पोतानी व्यक्तिने ( – प्रगटताने) छोडी देवाथी खाली ( – शून्य) थई गयेलुं, [परितः पररूपे एव विश्रान्तं] समस्तपणे पररूपमां ज विश्रांत (अर्थात् पररूप उपर ज आधार राखतुं) एवुं [पशोः ज्ञानं] पशुनुं ज्ञान ( – तिर्यंच जेवा एकांतवादीनुं ज्ञान) [सीदति] नाश पामे छे; [स्याद्वादिनः तत् पुनः] अने स्याद्वादीनुं ज्ञान तो, [‘यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत्’ इति] ‘जे तत् छे ते स्वरूपथी तत् छे (अर्थात् दरेक तत्त्वने – वस्तुने स्वरूपथी तत्पणुं छे)’ एवी मान्यताने लीधे, [दूर - उन्मग्न - घन - स्वभाव - भरतः] अत्यंत प्रगट थयेला ज्ञानघनरूप स्वभावना भारथी, [पूर्णं समुन्मज्जति] संपूर्ण उदित ( – प्रगट) थाय छे.
भावार्थः — कोई सर्वथा एकांती तो एम माने छे के — घटज्ञान घटना आधारे ज थाय छे माटे ज्ञान सर्व प्रकारे ज्ञेयो पर ज आधार राखे छे. आवुं माननार एकांतवादीना ज्ञानने तो ज्ञेयो पी गयां, ज्ञान पोते कांई न रह्युं. स्याद्वादी तो एम माने छे के — ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप ज ( – ज्ञानस्वरूप ज) छे, ज्ञेयाकार थवा छतां ज्ञानपणाने छोडतुं नथी. आवी यथार्थ अनेकांत समजणने लीधे स्याद्वादीने ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा) प्रगट प्रकाशे छे.
आ प्रमाणे स्वरूपथी तत्पणानो भंग कह्यो. २४८.
(हवे बीजा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [‘विश्वं ज्ञानम्’ इति प्रतर्क्य] ‘विश्व ज्ञान छे (अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थो आत्मा छे)’ एम विचारीने [सकलं स्वतत्त्व – आशया द्रष्टवा] ७सर्वने ( – समस्त विश्वने) निजतत्त्वनी आशाथी देखीने [विश्वमयः भूत्वा] विश्वमय ( – समस्त ज्ञेयपदार्थमय) थईने, [पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते] ढोरनी माफक स्वच्छंदपणे चेष्टा करे छे — वर्ते छे; [पुनः] अने [स्याद्वाददर्शी] स्याद्वाददर्शी तो ( – स्याद्वादनो देखनार तो), [‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत्’ इति] ‘जे तत् छे ते पररूपथी तत् नथी (अर्थात् दरेक तत्त्वने स्वरूपथी तत्पणुं होवा छतां पररूपथी अतत्पणुं छे)’ एम मानतो होवाथी, [विश्वात् भिन्नम् अविश्व - विश्वघटितं] विश्वथी भिन्न एवा अने विश्वथी ( – विश्वना निमित्तथी)
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ज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुटयन्पशुर्नश्यति ।
न्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२५०।।
रचायेलुं होवा छतां विश्वरूप नहि एवा (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओना आकारे थवा छतां समस्त ज्ञेयवस्तुथी भिन्न एवा) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्] पोताना निजतत्त्वने स्पर्शे छे — अनुभवे छे.
भावार्थः — एकांतवादी एम माने छे के — विश्व ( – समस्त वस्तुओ) ज्ञानरूप अर्थात् पोतारूप छे. आ रीते पोताने अने विश्वने अभिन्न मानीने, पोताने विश्वमय मानीने, एकांतवादी, ढोरनी जेम हेय-उपादेयना विवेक विना सर्वत्र स्वच्छंदपणे प्रवर्ते छे. स्याद्वादी तो एम माने छे के — जे वस्तु पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, ते ज वस्तु परना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे; माटे ज्ञान पोताना स्वरूपथी तत्स्वरूप छे, परंतु पर ज्ञेयोना स्वरूपथी अतत्स्वरूप छे अर्थात् पर ज्ञेयोना आकारे थवा छतां तेमनाथी भिन्न छे.
आ प्रमाणे पररूपथी अतत्पणानो भंग कह्यो. २४९.
(हवे त्रीजा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [बाह्य - अर्थ-ग्रहण - स्वभाव - भरतः] बाह्य पदार्थोने ग्रहण करवाना (ज्ञानना) स्वभावनी अतिशयताने लीधे, [विष्वग् - विचित्र - उल्लसत् - ज्ञेयाकार - विशीर्ण - शक्तिः] चारे तरफ (सर्वत्र) प्रगट थता अनेक प्रकारना ज्ञेयाकारोथी जेनी शक्ति विशीर्ण थई गई छे एवो थईने (अर्थात् अनेक ज्ञेयोना आकारो ज्ञानमां जणातां ज्ञाननी शक्तिने छिन्नभिन्न – खंडखंडरूप – थई जती मानीने) [अभितः त्रुटयन्] समस्तपणे तूटी जतो थको (अर्थात् खंडखंडरूप – अनेकरूप – थई जतो थको) [नश्यति] नाश पामे छे; [अनेकान्तवित्] अने अनेकांतनो जाणनार तो, [सदा अपि उदितया एक - द्रव्यतया] सदाय उदित ( – प्रकाशमान) एकद्रव्यपणाने लीधे [भेदभ्रमं ध्वंसयन्] भेदना भ्रमने नष्ट करतो थको (अर्थात् ज्ञेयोना भेदे ज्ञानमां सर्वथा भेद पडी जाय छे एवा भ्रमनो नाश करतो थको), [एकम् अबाधित - अनुभवनं ज्ञानम्] जे एक छे ( – सर्वथा अनेक नथी) अने जेनुं अनुभवन निर्बाध छे एवा ज्ञानने [पश्यति] देखे छे — अनुभवे छे.
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न्नेकाकारचिकीर्षया स्फु टमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति ।
पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२५१।।
भावार्थः — ज्ञान छे ते ज्ञेयोना आकारे परिणमवाथी अनेक देखाय छे, तेथी सर्वथा एकांतवादी ते ज्ञानने सर्वथा अनेक – खंडखंडरूप – देखतो थको ज्ञानमय एवा पोतानो नाश करे छे; अने स्याद्वादी तो ज्ञानने, ज्ञेयाकार थवा छतां, सदा उदयमान द्रव्यपणा वडे एक देखे छे.
आ प्रमाणे एकपणानो भंग कह्यो. २५०. (हवे चोथा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ज्ञेयाकारकलङ्क - मेचक - चिति प्रक्षालनं कल्पयन्] ज्ञेयाकारोरूपी कलंकथी (अनेकाकाररूप) मलिन एवा चेतनमां प्रक्षालन कल्पतो थको (अर्थात् चेतननी अनेकाकाररूप मलिनताने धोई नाखवानुं कल्पतो थको), [एकाकार - चिकीर्षया स्फु टम् अपि ज्ञानं न इच्छति] एकाकार करवानी इच्छाथी ज्ञानने — जोके ते ज्ञान अनेकाकारपणे प्रगट छे तोपण — इच्छतो नथी (अर्थात् ज्ञानने सर्वथा एकाकार मानीने ज्ञाननो अभाव करे छे); [अनेकान्तवित्] अने अनेकांतनो जाणनार तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन्] पर्यायोथी ज्ञाननी अनेकता जाणतो (अनुभवतो) थको, [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानं] विचित्र छतां अविचित्रताने प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप छतां एकरूप) एवा ज्ञानने [स्वतःक्षालितं] स्वतःक्षालित (स्वयमेव धोयेलुं – शुद्ध) [पश्यति] अनुभवे छे.
भावार्थः — एकांतवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानने मलिन जाणी, तेने धोईने — तेमांथी ज्ञेयाकारो दूर करीने, ज्ञानने ज्ञेयाकारो रहित एक - आकाररूप करवा इच्छतो थको, ज्ञाननो नाश करे छे; अने अनेकांती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावने जाणतो होवाथी, ज्ञानने स्वरूपथी ज अनेकाकारपणुं माने छे.
आ प्रमाणे अनेकपणानो भंग कह्यो. २५१. (हवे पांचमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
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स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुर्नश्यति ।
स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति ।।२५२।।
स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति ।
जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत् ।।२५३।।
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [प्रत्यक्ष-आलिखित - स्फु ट - स्थिर - परद्रव्य - अस्तिता - वञ्चितः] प्रत्यक्ष *आलिखित एवां प्रगट ( – स्थूल) अने स्थिर ( – निश्चळ) परद्रव्योना अस्तित्वथी ठगायो थको, [स्वद्रव्य-अनवलोकनेन परितः शून्यः] स्वद्रव्यने ( – आत्मद्रव्यना अस्तित्वने) नहि देखतो होवाथी समस्तपणे शून्य थयो थको [नश्यति] नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो, [स्वद्रव्य - अस्तितया निपुणं निरूप्य] आत्माने स्वद्रव्यरूपे अस्तिपणे निपुण रीते अवलोकतो होवाथी, [सद्यः समुन्मज्जता विशुद्ध - बोध - महसा पूर्णः भवन्] तत्काळ प्रगट थता विशुद्ध ज्ञानप्रकाश वडे पूर्ण थतो थको [जीवति] जीवे छे — नाश पामतो नथी.
भावार्थः — एकांती बाह्य परद्रव्यने प्रत्यक्ष देखी तेनुं अस्तित्व माने छे, परंतु पोताना आत्मद्रव्यने इंद्रियप्रत्यक्ष नहि देखतो होवाथी तेने शून्य मानी आत्मानो नाश करे छे. स्याद्वादी तो ज्ञानरूपी तेजथी पोताना आत्मानुं स्वद्रव्यथी अस्तित्व अवलोकतो होवाथी जीवे छे — पोतानो नाश करतो नथी.
आ प्रमाणे स्वद्रव्य - अपेक्षाथी अस्तित्वनो ( – सत्पणानो) भंग कह्यो. २५२.
(हवे छठ्ठा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [दुर्वासनावासितः] दुर्वासनाथी ( – कुनयनी वासनाथी) वासित थयो थको, [पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य] आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, [स्वद्रव्य - भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति] (परद्रव्योमां) स्वद्रव्यना भ्रमथी
* आलिखित = आळेखायेलां; चित्रित; स्पर्शातां; जणातां.
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सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः ।
स्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन् ।।२५४।।
परद्रव्योमां विश्राम करे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो, [समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्] समस्त वस्तुओमां परद्रव्यस्वरूपे नास्तित्व जाणतो थको, [निर्मल - शुद्ध - बोध - महिमा] जेनो शुद्ध- ज्ञानमहिमा निर्मळ छे एवो वर्ततो थको, [स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत्] स्वद्रव्यनो ज आश्रय करे छे.
भावार्थः — एकांतवादी आत्माने सर्वद्रव्यमय मानीने, आत्मामां जे परद्रव्य - अपेक्षाए नास्तित्व छे तेनो लोप करे छे; अने स्याद्वादी तो सर्व पदार्थोमां परद्रव्य - अपेक्षाए नास्तित्व मानीने निज द्रव्यमां रमे छे.
आ प्रमाणे परद्रव्य - अपेक्षाथी नास्तित्वनो ( – असत्पणानो) भंग कह्यो. २५३.
(हवे सातमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [भिन्न - क्षेत्र - निषण्ण - बोध्य - नियत - व्यापार - निष्ठः] भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेयपदार्थोमां जे ज्ञेयज्ञायकसंबंधरूप निश्चित व्यापार तेमां प्रवर्ततो थको, [पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन्] आत्माने समस्तपणे बहार (परक्षेत्रमां) पडतो देखीने ( – स्वक्षेत्रथी आत्मानुं अस्तित्व नहि मानीने) [सदा सीदति एव] सदा नाश पामे छे; [स्याद्वादवेदी पुनः] अने स्याद्वादनो जाणनार तो, [स्वक्षेत्र - अस्तितया निरुद्ध - रभसः] स्वक्षेत्रथी अस्तिपणाने लीधे जेनो वेग रोकायेलो छे एवो थयो थको (अर्थात् स्वक्षेत्रमां वर्ततो थको), [आत्म - निखात - बोध्य - नियत - व्यापार - शक्तिः भवन्] आत्मामां ज आकाररूप थयेलां ज्ञेयोमां निश्चित व्यापारनी शक्तिवाळो थईने, [तिष्ठति] टके छे — जीवे छे ( — नष्ट थतो नथी).
भावार्थः — एकांतवादी भिन्न क्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोने जाणवाना कार्यमां प्रवर्ततां आत्माने बहार पडतो ज मानीने, (स्वक्षेत्रथी अस्तित्व नहि मानीने,) पोताने नष्ट करे छे; अने स्याद्वादी तो, ‘परक्षेत्रमां रहेलां ज्ञेयोने जाणतां पोताना क्षेत्रमां रहेलो आत्मा स्वक्षेत्रथी अस्तित्व धारे छे’ एम मानतो थको टकी रहे छे — नाश पामतो नथी.
आ प्रमाणे स्वक्षेत्रथी अस्तित्वनो भंग कह्यो. २५४. (हवे आठमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
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तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन् ।
त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान् ।।२५५।।
सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः ।
पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ।।२५६।।
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विध - परक्षेत्र - स्थित - अर्थ - उज्झनात्] स्वक्षेत्रमां रहेवा माटे जुदा जुदा परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोने छोडवाथी, [अर्थैः सह चिद् - आकारान् वमन्] ज्ञेय पदार्थोनी साथे चैतन्यना आकारोने पण वमी नाखतो थको (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोना निमित्ते चैतन्यमां जे आकारो थाय छे तेमने पण छोडी देतो थको) [तुच्छीभूय] तुच्छ थईने [प्रणश्यति] नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन्] स्वक्षेत्रमां रहेतो, [परक्षेत्रे नास्तितां विदन्] परक्षेत्रमां पोतानुं नास्तित्व जाणतो थको, [त्यक्त - अर्थः अपि] (परक्षेत्रमां रहेला) ज्ञेय पदार्थोने छोडतां छतां [परान् आकारकर्षी] ते पर पदार्थोमांथी चैतन्यना आकारोने खेंचतो होवाथी (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोना निमित्ते थता चैतन्यना आकारोने छोडतो नहि होवाथी) [तुच्छताम् अनुभवति न] तुच्छता पामतो नथी.
भावार्थः — ‘परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोना आकारे चैतन्यना आकारो थाय छे तेमने जो हुं पोताना करीश तो स्वक्षेत्रमां ज रहेवाने बदले परक्षेत्रमां पण व्यापी जईश’ एम मानीने अज्ञानी एकांतवादी परक्षेत्रमां रहेला ज्ञेय पदार्थोनी साथे साथे चैतन्यना आकारोने पण छोडी दे छे; ए रीते पोते चैतन्यना आकारो रहित तुच्छ थाय छे, नाश पामे छे. स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमां रहेतो, परक्षेत्रमां पोतानी नास्तिता जाणतो थको, ज्ञेय पदार्थोने छोडतां छतां चैतन्यना आकारोने छोडतो नथी; माटे ते तुच्छ थतो नथी, नाश पामतो नथी.
आ प्रमाणे परक्षेत्रनी अपेक्षाथी नास्तित्वनो भंग कह्यो. २५५. (हवे नवमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [पूर्व - आलम्बित - बोध्यनाश - समये
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र्ज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति ।
स्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुञ्जीभवन् ।।२५७।।
ज्ञानस्य नाशं विदन्] पूर्वालंबित ज्ञेय पदार्थोना नाश समये ज्ञाननो पण नाश जाणतो थको, [न किञ्चन अपि कलयन्] ए रीते ज्ञानने कांई पण (वस्तु) नहि जाणतो थको (अर्थात् ज्ञानवस्तुनुं अस्तित्व ज नहि मानतो थको), [अत्यन्ततुच्छः] अत्यंत तुच्छ थयो थको [सीदति एव] नाश पामे छे; [स्याद्वादवेदी पुनः] अने स्याद्वादनो जाणनार तो [अस्य निज - कालतः अस्तित्वं कलयन्] आत्मानुं निज काळथी अस्तित्व जाणतो थको, [बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि] बाह्य वस्तुओ वारंवार थईने नाश पामतां छतां पण, [पूर्णः तिष्ठति] पोते पूर्ण रहे छे.
भावार्थः — पहेलां जे ज्ञेय पदार्थो जाण्या हता ते उत्तर काळमां नाश पामी गया; तेमने देखी एकांतवादी पोताना ज्ञाननो पण नाश मानी अज्ञानी थयो थको आत्मानो नाश करे छे. स्याद्वादी तो, ज्ञेय पदार्थो नष्ट थतां पण, पोतानुं अस्तित्व पोताना काळथी ज मानतो थको नष्ट थतो नथी.
आ प्रमाणे स्वकाळ - अपेक्षाथी अस्तित्वनो भंग कह्यो. २५६.
(हवे दसमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [अर्थ - आलम्बन - काले एव ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन्] ज्ञेय पदार्थोना आलंबन काळे ज ज्ञाननुं अस्तित्व जाणतो थको, [बहिः - ज्ञेय - आलम्बन - लालसेन मनसा भ्राम्यन्] बाह्य ज्ञेयोना आलंबननी लालसावाळा चित्तथी (बहार) भमतो थको [नश्यति] नाश पामे छे; [स्याद्वादवेदी पुनः] अने स्याद्वादनो जाणनार तो [पर - कालतः अस्य नास्तित्वं कलयन्] परकाळथी आत्मानुं नास्तित्व जाणतो थको, [आत्म - निखात - नित्य - सहज - ज्ञान - एक - पुञ्जीभवन्] आत्मामां द्रढपणे रहेला नित्य सहज ज्ञानना एक पुंजरूप वर्ततो थको [तिष्ठति] टके छे — नष्ट थतो नथी.
भावार्थः — एकांती ज्ञेयोना आलंबनकाळे ज ज्ञाननुं सत्पणुं जाणे छे तेथी ज्ञेयोना आलंबनमां मनने जोडी बहार भमतो थको नष्ट थाय छे. स्याद्वादी तो पर ज्ञेयोना काळथी पोतानुं नास्तित्व जाणे छे, पोताना ज काळथी पोतानुं अस्तित्व जाणे छे; तेथी ज्ञेयोथी जुदा एवा ज्ञानना पुंजरूप वर्ततो थको नष्ट थतो नथी.
आ प्रमाणे परकाळ - अपेक्षाए नास्तित्वनो भंग कह्यो. २५७.
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नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः
सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन्
स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ।।२५८।।
सर्वत्राप्यनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति ।
दारूढः परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः ।।२५९।।
(हवे अगियारमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [परभाव - भाव-कलनात्] परभावोना *भवनने ज जाणतो होवाथी, (ए रीते परभावोथी ज पोतानुं अस्तित्व मानतो होवाथी,) [नित्यं बहिः-वस्तुषु विश्रान्तः] सदाय बाह्य वस्तुओमां विश्राम करतो थको, [स्वभाव - महिमनि एकान्त - निश्चेतनः] (पोताना) स्वभावना महिमामां अत्यंत निश्चेतन (जड) वर्ततो थको, [नश्यति एव] नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [नियत - स्वभाव - भवन - ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्तः भवन्] (पोताना) नियत स्वभावना भवनस्वरूप ज्ञानने लीधे सर्वथी ( – सर्व परभावोथी) भिन्न वर्ततो थको, [सहज - स्पष्टीकृत - प्रत्ययः] जेणे सहज स्वभावनुं प्रतीतिरूप जाणपणुं स्पष्ट – प्रत्यक्ष – अनुभवरूप कर्युं छे एवो थयो थको, [नाशम् एति न] नाश पामतो नथी.
भावार्थः — एकांतवादी परभावोथी ज पोतानुं सत्पणुं मानतो होवाथी बाह्य वस्तुओमां विश्राम करतो थको आत्मानो नाश करे छे; अने स्याद्वादी तो, ज्ञानभाव ज्ञेयाकार थवा छतां ज्ञानभावनुं स्वभावथी अस्तित्व जाणतो थको, आत्मानो नाश करतो नथी.
आ प्रमाणे स्व - भावनी (पोताना भावनी) अपेक्षाथी अस्तित्वनो भंग कह्यो. २५८.
(हवे बारमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [सर्व - भाव - भवनं आत्मनि अध्यास्य
* भवन = अस्तित्व; परिणमन.
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निर्ज्ञानात्क्षणभङ्गसङ्गपतितः प्रायः पशुर्नश्यति ।
टङ्कोत्कीर्णघनस्वभावमहिम ज्ञानं भवन् जीवति ।।२६०।।
शुद्ध - स्वभाव - च्युतः] सर्व भावोरूप भवननो आत्मामां अध्यास करीने (अर्थात् सर्व ज्ञेय पदार्थोना भावोरूपे आत्मा छे एम मानीने) शुद्ध स्वभावथी च्युत थयो थको, [अनिवारितः सर्वत्र अपि स्वैरं गतभयः क्रीडति] कोई परभावने बाकी राख्या विना सर्व परभावोमां स्वच्छंदताथी निर्भयपणे (निःशंकपणे) क्रीडा करे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः] पोताना स्वभावमां अत्यंत आरूढ थयो थको, [परभाव - भाव - विरह - व्यालोक - निष्कम्पितः] परभावोरूप भवनना अभावनी द्रष्टिने लीधे (अर्थात् आत्मा परद्रव्योना भावोरूपे नथी — एम देखतो होवाथी) निष्कंप वर्ततो थको, [विशुद्धः एव लसति] शुद्ध ज विराजे छे.
भावार्थः — एकांतवादी सर्व परभावोने पोतारूप जाणीने पोताना शुद्ध स्वभावथी च्युत थयो थको सर्वत्र (सर्व परभावोमां) स्वेच्छाचारीपणे निःशंक रीते वर्ते छे; अने स्याद्वादी तो, परभावोने जाणतां छतां, पोताना शुद्ध ज्ञानस्वभावने सर्व परभावोथी भिन्न अनुभवतो थको शोभे छे.
आ प्रमाणे परभाव - अपेक्षाथी नास्तित्वनो भंग कह्यो. २५९.
(हवे तेरमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [प्रादुर्भाव - विराम - मुद्रित - वहत् - ज्ञान - अंश - नाना - आत्मना निर्ज्ञानात्] उत्पाद - व्ययथी लक्षित एवा जे वहेता ( – परिणमता) ज्ञानना अंशो ते - रूप अनेकात्मकपणा वडे ज (आत्मानो) निर्णय अर्थात् ज्ञान करतो थको, [क्षणभङ्ग - सङ्ग - पतितः] *क्षणभंगना संगमां पडेलो, [प्रायः नश्यति] बाहुल्यपणे नाश पामे छे; [स्याद्वादी तु] अने स्याद्वादी तो [चिद् - आत्मना चिद् - वस्तु नित्य - उदितं परिमृशन्] चैतन्यात्मकपणा वडे चैतन्यवस्तुने नित्य - उदित अनुभवतो थको, [टङ्कोत्कीर्ण - घन - स्वभाव - महिम ज्ञानं भवन्] टंकोत्कीर्णघनस्वभाव ( – टंकोत्कीर्णपिंडरूप स्वभाव) जेनो महिमा छे एवा ज्ञानरूप वर्ततो, [जीवति] जीवे छे.
भावार्थः — एकांतवादी ज्ञेयोना आकार अनुसार ज्ञानने ऊपजतुं - विणसतुं देखीने,
* क्षणभंग = क्षणे क्षणे थतो नाश; क्षणभंगुरता; अनित्यता.
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वाञ्छत्युच्छलदच्छचित्परिणतेर्भिन्नं पशुः किञ्चन ।
स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात् ।।२६१।।
अनित्य पर्यायो द्वारा आत्माने सर्वथा अनित्य मानतो थको, पोताने नष्ट करे छे; अने स्याद्वादी तो, जोके ज्ञान ज्ञेयो अनुसार ऊपजे - विणसे छे तोपण, चैतन्यभावनो नित्य उदय अनुभवतो थको जीवे छे — नाश पामतो नथी.
आ प्रमाणे नित्यत्वनो भंग कह्यो. २६०. (हवे चौदमा भंगना कळशरूपे काव्य कहेवामां आवे छेः — )
श्लोकार्थः — [पशुः] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [टङ्कोत्कीर्ण - विशुद्धबोध - विसर - आकार - आत्म - तत्त्व - आशया] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानना फेलावरूप एक-आकार (सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्वनी आशाथी, [उच्छलत् - अच्छ - चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन वाञ्छति] ऊछळती निर्मळ चैतन्यपरिणतिथी जुदुं कांईक (आत्मतत्त्वने) इच्छे छे (परंतु एवुं कोई आत्मतत्त्व छे नहि); [स्याद्वादी] अने स्याद्वादी तो, [चिद् - वस्तु - वृत्ति - क्रमात् तद् - अनित्यतां परिमृशन्] चैतन्यवस्तुनी वृत्तिना ( – परिणतिना, पर्यायना) क्रम द्वारा तेनी अनित्यताने अनुभवतो थको, [नित्यम् ज्ञानं अनित्यतापरिगमे अपि उज्ज्वलम् आसादयति] नित्य एवा ज्ञानने अनित्यताथी व्याप्त छतां उज्ज्वळ ( – निर्मळ) माने छे — अनुभवे छे.
भावार्थः — एकांतवादी ज्ञानने सर्वथा एकाकार – नित्य प्राप्त करवानी वांछाथी, ऊपजती - विणसती चैतन्यपरिणतिथी जुदुं कांईक ज्ञानने इच्छे छे; परंतु परिणाम सिवाय जुदो कोई परिणामी तो होतो नथी. स्याद्वादी तो एम माने छे के — जोके द्रव्ये ज्ञान नित्य छे तोपण क्रमशः ऊपजती - विणसती चैतन्यपरिणतिना क्रमने लीधे ज्ञान अनित्य पण छे; एवो ज वस्तुस्वभाव छे.
आ प्रमाणे अनित्यत्वनो भंग कह्यो. २६१. ‘पूर्वोक्त रीते अनेकांत, अज्ञानथी मूढ थयेला जीवोने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करी दे छे — समजावी दे छे’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः —
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श्लोकार्थः — [इति] आ रीते [अनेकान्तः] अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद [अज्ञान - विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन्] अज्ञानमूढ प्राणीओने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करतो [स्वयमेव अनुभूयते] स्वयमेव अनुभवाय छे.
भावार्थः — ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकांतमय छे. परंतु अनादि काळथी प्राणीओ पोतानी मेळे अथवा तो एकांतवादनो उपदेश सांभळीने ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व संबंधी अनेक प्रकारे पक्षपात करी ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वनो नाश करे छे. तेमने (अज्ञानी जीवोने) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वनुं अनेकांतस्वरूपपणुं प्रगट करे छे — समजावे छे. जो पोताना आत्मा तरफ देखी अनुभव करी जोवामां आवे तो (स्याद्वादना उपदेश अनुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु आपोआप अनेक धर्मोवाळी प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे. माटे हे प्रवीण पुरुषो! तमे ज्ञानने तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, पोताना द्रव्य - क्षेत्र - काळ - भावथी सत्स्वरूप, परना द्रव्य - क्षेत्र - काळ - भावथी असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करी प्रतीतिमां लावो. ए ज सम्यग्ज्ञान छे. सर्वथा एकांत मानवुं ते मिथ्याज्ञान छे. २६२.
‘पूर्वोक्त रीते वस्तुनुं स्वरूप अनेकांतमय होवाथी अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध थयो’ एवा अर्थनुं काव्य हवे कहेवामां आवे छेः —
श्लोकार्थः — [एवं] आ रीते [अनेकान्तः] अनेकांत — [जैनम् अलङ्घयं शासनम्] के जे जिनदेवनुं अलंघ्य (कोईथी तोडी न शकाय एवुं) शासन छे ते — [तत्त्व - व्यवस्थित्या] वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी व्यवस्थिति (व्यवस्था) वडे [स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन्] पोते पोताने स्थापित करतो थको [व्यवस्थितः] स्थित थयो — निश्चित ठर्यो — सिद्ध थयो.
भावार्थः — अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद, जेवुं वस्तुनुं स्वरूप छे तेवुं ज स्थापन करतो थको, आपोआप सिद्ध थयो. ते अनेकांत ज निर्बाध जिनमत छे अने यथार्थ वस्तुस्थितिनो कहेनार छे. कांई कोईए असत् कल्पनाथी वचनमात्र प्रलाप कर्यो नथी. माटे हे निपुण पुरुषो!
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नन्वनेकान्तमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षणप्रसिद्धया
लक्ष्यप्रसिद्धयर्थम् । आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं, तदसाधारणगुणत्वात् । तेन ज्ञानप्रसिद्धया
तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धिः । ननु किमनया लक्षणप्रसिद्धया, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम् ।
नाप्रसिद्धलक्षणस्य लक्ष्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्धलक्षणस्यैव तत्प्रसिद्धेः । ननु किं तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिद्धया
ततो भिन्नं प्रसिध्यति ? न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्यं, ज्ञानात्मनोर्द्रव्यत्वेनाभेदात् । तर्हि किं कृतो
लक्ष्यलक्षणविभागः ? प्रसिद्धप्रसाध्यमानत्वात् कृतः । प्रसिद्धं हि ज्ञानं, ज्ञानमात्रस्य
सारी रीते विचार करी प्रत्यक्ष अनुमान - प्रमाणथी अनुभव करी जुओ. २६३.
(आचार्यदेव अनेकांतने हजु विशेष चर्चे छेः — )
(प्रश्नः – ) आत्मा अनेकांतमय होवा छतां पण अहीं तेनो ज्ञानमात्रपणे केम कहेवामां आवे छे? ज्ञानमात्र कहेवाथी तो अन्य धर्मोनो निषेध समजाय छे.)
(उत्तरः – ) लक्षणनी प्रसिद्धि वडे लक्ष्यनी प्रसिद्धि करवा माटे आत्मानो ज्ञानमात्रपणे व्यपदेश करवामां आवे छे. आत्मानुं ज्ञान लक्षण छे, कारण के ज्ञान आत्मानो असाधारण गुण छे ( – अन्य द्रव्योमां ज्ञानगुण नथी). माटे ज्ञाननी प्रसिद्धि वडे तेना लक्ष्यनी – आत्मानी – प्रसिद्धि थाय छे.
(प्रश्नः – ) ए लक्षणनी प्रसिद्धिथी शुं प्रयोजन छे? मात्र लक्ष्य ज प्रसाध्य अर्थात् प्रसिद्ध करवायोग्य छे. (माटे लक्षणने प्रसिद्ध कर्या विना मात्र लक्ष्यने ज — आत्माने ज — प्रसिद्ध केम करता नथी?)
(उत्तरः – ) जेने लक्षण अप्रसिद्ध होय तेने (अर्थात् जे लक्षणने जाणतो नथी एवा अज्ञानी जनने) लक्ष्यनी प्रसिद्धि थती नथी. जेने लक्षण प्रसिद्ध थाय तेने ज लक्ष्यनी प्रसिद्धि थाय छे. (माटे अज्ञानीने पहेलां लक्षण बतावीए त्यारे ते लक्ष्यने ग्रहण करी शके छे.)
(प्रश्नः – ) कयुं ते लक्ष्य छे के जे ज्ञाननी प्रसिद्धि वडे तेनाथी ( – ज्ञानथी) भिन्न प्रसिद्ध थाय छे?
(उत्तरः – ) ज्ञानथी भिन्न लक्ष्य नथी, कारण के ज्ञान अने आत्माने द्रव्यपणे अभेद छे.
(प्रश्नः – ) तो पछी लक्षण अने लक्ष्यनो विभाग शा माटे करवामां आव्यो?
*व्यपदेश करवामां आवे छे? (आत्मा अनंत धर्मोवाळो होवा छतां तेने ज्ञानमात्रपणे केम
* व्यपदेश = कथन; नाम.