Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 235-245 ; Gatha: 405-415.

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वर्णो ज्ञानं न भवति यस्माद्वर्णो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं वर्णं जिना ब्रुवन्ति ।।३९३।।
गन्धो ज्ञान न भवति यस्माद्गन्धो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं गन्धं जिना ब्रुवन्ति ।।३९४।।
न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना ब्रुवन्ति ।।३९५।।
स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्शं जिना ब्रुवन्ति ।।३९६।।
कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना ब्रुवन्ति ।।३९७।।
धर्मो ज्ञानं न भवति यस्माद्धर्मो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्मं जिना ब्रुवन्ति ।।३९८।।

के [रूपं किञ्चित् न जानाति] रूप कांई जाणतुं नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [रूपम् अन्यत्] रूप अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [वर्णः ज्ञानं न भवति] वर्ण ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [वर्णः किञ्चित् न जानाति] वर्ण कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [वर्णम् अन्यम्] वर्ण अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [गन्धः ज्ञानं न भवति] गंध ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [गन्धः किञ्चित् न जानाति] गंध कांई जाणती नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [गन्धम् अन्यम्] गंध अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [रसः तु ज्ञानं न भवति] रस ज्ञान नथी [यस्मात् तु] कारण के [रसः किञ्चित् न जानाति] रस कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे [रसं च अन्यं] अने रस अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [स्पर्शः ज्ञानं न भवति] स्पर्श ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [स्पर्शः किञ्चित् न जानाति] स्पर्श कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [स्पर्शं अन्यं] स्पर्श अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [कर्म ज्ञानं न भवति] कर्म ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [कर्म किञ्चित् न जानाति] कर्म कांई जाणतुं नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [कर्म अन्यत्] कर्म अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [धर्मः ज्ञानं न भवति] धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण


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ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्मं जिना ब्रुवन्ति ।।३९९।।
कालो ज्ञानं न भवति यस्मात्कालो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं कालं जिना ब्रुवन्ति ।।४००।।
आकाशमपि न ज्ञानं यस्मादाकाशं न जानाति किञ्चित्
तस्मादाकाशमन्यदन्यज्ज्ञानं जिना ब्रुवन्ति ।।४०१।।
नाध्यवसानं ज्ञानमध्यवसानमचेतनं यस्मात्
तस्मादन्यज्ज्ञानमध्यवसानं तथान्यत् ।।४०२।।
यस्माज्जानाति नित्यं तस्माज्जीवस्तु ज्ञायको ज्ञानी
ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं ज्ञातव्यम् ।।४०३।।

के [धर्मः किञ्चित् न जानाति] धर्म कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [धर्मं अन्यं] धर्म अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [अधर्मः ज्ञानं न भवति] अधर्म (अर्थात् अधर्मास्तिकाय) ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [अधर्मः किञ्चित् न जानाति] अधर्म कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [अधर्मं अन्यम्] अधर्म अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [कालः ज्ञानं न भवति] काळ ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [कालः किञ्चित् न जानाति] काळ कांई जाणतो नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [कालं अन्यं] काळ अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [आकाशम् अपि ज्ञानं न] आकाश पण ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [आकाशं किञ्चित् न जानाति] आकाश कांई जाणतुं नथी, [तस्मात्] माटे [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञान अन्य छे, [आकाशम् अन्यत्] आकाश अन्य छे[जिनाः ब्रुवन्ति] एम जिनदेवो कहे छे. [अध्यवसानं ज्ञानम् न] अध्यवसान ज्ञान नथी [यस्मात्] कारण के [अध्यवसानम् अचेतनं] अध्यवसान अचेतन छे, [तस्मात्] माटे [ज्ञानम् अन्यत्] ज्ञान अन्य छे [तथा अध्यवसानं अन्यत्] तथा अध्यवसान अन्य छे (एम जिनदेवो कहे छे).

[यस्मात्] कारण के [नित्यं जानाति] (जीव) निरंतर जाणे छे [तस्मात्] माटे [ज्ञायकः जीवः तु] ज्ञायक एवो जीव [ज्ञानी] ज्ञानी (ज्ञानवाळो, ज्ञानस्वरूप) छे, [ज्ञानं च] अने ज्ञान [ज्ञायकात् अव्यतिरिक्तं] ज्ञायकथी अव्यतिरिक्त छे (अभिन्न छे, जुदुं नथी) [ज्ञातव्यम्] एम जाणवुं.


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ज्ञानं सम्यग्द्रष्टिं तु संयमं सूत्रमङ्गपूर्वगतम्
धर्माधर्मं च तथा प्रव्रज्यामभ्युपयान्ति बुधाः ।।४०४।।

न श्रुतं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानश्रुतयोर्व्यतिरेकः न शब्दो ज्ञानम- चेतनत्वात्, ततो ज्ञानशब्दयोर्व्यतिरेकः न रूपं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानरूपयोर्व्यतिरेकः न वर्णो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानवर्णयोर्व्यतिरेकः न गन्धो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानगन्धयोर्व्यतिरेकः न रसो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानरसयोर्व्यतिरेकः न स्पर्शो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानस्पर्शयोर्व्यतिरेकः न कर्म ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानकर्मणोर्व्यतिरेकः न धर्मो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानधर्मयोर्व्यतिरेकः नाधर्मो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाधर्मयोर्व्यतिरेकः न कालो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानकालयोर्व्यतिरेकः नाकाशं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाकाशयोर्व्यतिरेकः नाध्यवसानं

[बुधाः] बुध पुरुषो (अर्थात् ज्ञानी जनो) [ज्ञानं] ज्ञानने ज [सम्यग्द्रष्टिं तु] सम्यग्द्रष्टि, [संयमं] (ज्ञानने ज) संयम, [अङ्गपूर्वगतम् सूत्रम्] अंगपूर्वगत सूत्र, [धर्माधर्मं च] धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) [तथा प्रव्रज्याम्] तथा दीक्षा [अभ्युपयान्ति] माने छे.

टीकाःश्रुत (अर्थात् वचनात्मक द्रव्यश्रुत) ज्ञान नथी, कारण के श्रुत अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने श्रुतने व्यतिरेक (अर्थात् भिन्नता) छे. शब्द ज्ञान नथी, कारण के शब्द (पुद्गलद्रव्यनो पर्याय छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने शब्दने व्यतिरेक (अर्थात् भेद) छे. रूप ज्ञान नथी, कारण के रूप (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने रूपने व्यतिरेक छे (अर्थात् बन्ने जुदां छे). वर्ण ज्ञान नथी, कारण के वर्ण (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने वर्णने व्यतिरेक छे (अर्थात् ज्ञान अन्य छे, वर्ण अन्य छे). गंध ज्ञान नथी, कारण के गंध (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने गंधने व्यतिरेक (भेद, भिन्नता) छे. रस ज्ञान नथी, कारण के रस (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने रसने व्यतिरेक छे. स्पर्श ज्ञान नथी, कारण के स्पर्श (पुद्गलद्रव्यनो गुण छे,) अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने स्पर्शने व्यतिरेक छे. कर्म ज्ञान नथी, कारण के कर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने कर्मने व्यतिरेक छे. धर्म (धर्मद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के धर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने धर्मने व्यतिरेक छे. अधर्म (अधर्मद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के अधर्म अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने अधर्मने व्यतिरेक छे. काळ (काळद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के काळ अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने काळने


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ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाध्यवसानयोर्व्यतिरेकः इत्येवं ज्ञानस्य सर्वैरेव परद्रव्यैः सह व्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः अथ जीव एवैको ज्ञानं, चेतनत्वात्; ततो ज्ञानजीवयोरेवाव्यतिरेकः न च जीवस्य स्वयं ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि शङ्कनीयः एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्द्रष्टिः, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवाङ्गपूर्वरूपं सूत्रं, ज्ञानमेव धर्माधर्मौ, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः अथैवं सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावा- व्यतिरेकेण वा अतिव्याप्तिमव्याप्तिं च परिहरमाणमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसमयमुद्वम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापद्य दर्शनज्ञानचारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावं हानोपादानशून्यं साक्षात्समय-


व्यतिरेक छे. आकाश (आकाशद्रव्य) ज्ञान नथी, कारण के आकाश अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने आकाशने व्यतिरेक छे. अध्यवसान ज्ञान नथी, कारण के अध्यवसान अचेतन छे; माटे ज्ञानने अने (कर्मना उदयनी प्रवृत्तिरूप) अध्यवसानने व्यतिरेक छे. आम आ रीते ज्ञाननो समस्त परद्रव्यो साथे व्यतिरेक निश्चयसाधित देखवो (अर्थात् निश्चय वडे सिद्ध थयेलो समजवोअनुभववो).

हवे, जीव ज एक ज्ञान छे, कारण के जीव चेतन छे; माटे ज्ञानने अने जीवने ज अव्यतिरेक (अभिन्नता) छे. वळी ज्ञाननो जीवनी साथे व्यतिरेक जरा पण शंकनीय नथी (अर्थात् ज्ञाननी जीवथी भिन्नता हशे एम जराय शंका करवायोग्य नथी), कारण के जीव पोते ज ज्ञान छे. आ प्रमाणे (ज्ञान जीवथी अभिन्न) होवाथी, ज्ञान ज सम्यग्द्रष्टि छे, ज्ञान ज संयम छे, ज्ञान ज अंगपूर्वरूप सूत्र छे, ज्ञान ज धर्म - अधर्म (अर्थात् पुण्य - पाप) छे, ज्ञान ज प्रव्रज्या (दीक्षा, निश्चयचारित्र) छेएम ज्ञाननो जीवपर्यायोनी साथे पण अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखवो (अर्थात् निश्चय वडे सिद्ध थयेलो समजवोअनुभववो).

हवे, ए प्रमाणे सर्व परद्रव्यो साथे व्यतिरेक वडे अने सर्व दर्शनादि जीवस्वभावो साथे अव्यतिरेक वडे अतिव्याप्तिने अने अव्याप्तिने दूर करतुं थकुं, अनादि विभ्रम जेनुं मूळ छे एवा धर्म - अधर्मरूप (पुण्य - पापरूप, शुभ - अशुभरूप) परसमयने दूर करीने, पोते ज प्रव्रज्यारूपने पामीने (अर्थात् पोते ज निश्चयचारित्ररूप दीक्षापणाने पामीने), दर्शन - ज्ञान - चारित्रमां स्थितिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने, मोक्षमार्गने पोतामां ज परिणत करीने, जेणे संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावने प्राप्त कर्यो छे एवुं, त्याग - ग्रहणथी रहित, साक्षात् समयसारभूत, परमार्थरूप शुद्धज्ञान एक अवस्थित (निश्चळ रहेलुं) देखवुं (अर्थात्


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सारभूतं परमार्थरूपं शुद्धं ज्ञानमेकमवस्थितं द्रष्टव्यम् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनथी अनुभववुं).

भावार्थःअहीं ज्ञानने सर्व परद्रव्योथी भिन्न अने पोताना पर्यायोथी अभिन्न बताव्युं, तेथी अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति नामना जे लक्षणना दोषो ते दूर थया. आत्मानुं लक्षण उपयोग छे, अने उपयोगमां ज्ञान प्रधान छे; ते (ज्ञान) अन्य अचेतन द्रव्योमां नथी तेथी ते अतिव्याप्तिवाळुं नथी, अने पोतानी सर्व अवस्थाओमां छे तेथी अव्याप्तिवाळुं नथी. आ रीते ज्ञानलक्षण कहेवाथी अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति दोषो आवता नथी.

अहीं ज्ञानने ज प्रधान करीने आत्मानो अधिकार छे, कारण के ज्ञानलक्षणथी ज आत्मा सर्व परद्रव्योथी भिन्न अनुभवगोचर थाय छे. जोके आत्मामां अनंत धर्मो छे, तोपण तेमांना केटलाक तो छद्मस्थने अनुभवगोचर ज नथी; ते धर्मोने कहेवाथी छद्मस्थ ज्ञानी आत्माने कई रीते ओळखे? वळी केटलाक धर्मो अनुभवगोचर छे, परंतु तेमांना केटलाक तोअस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि तोअन्य द्रव्यो साथे साधारण अर्थात् समान छे माटे तेमने कहेवाथी जुदो आत्मा जाणी शकाय नहि, अने केटलाक (धर्मो) परद्रव्योना निमित्तथी थयेला छे तेमने कहेवाथी परमार्थभूत आत्मानुं शुद्ध स्वरूप केवी रीते जणाय? माटे ज्ञानने कहेवाथी ज छद्मस्थ ज्ञानी आत्माने ओळखी शके छे.

अहीं ज्ञानने आत्मानुं लक्षण कह्युं छे एटलुं ज नहि, पण ज्ञानने ज आत्मा ज कह्यो छे; कारण के अभेदविवक्षामां गुणगुणीनो अभेद होवाथी, ज्ञान छे ते ज आत्मा छे. अभेदविवक्षामां ज्ञान कहो के आत्मा कहोकांई विरोध नथी; माटे अहीं ज्ञान कहेवाथी आत्मा ज समजवो.

टीकामां छेवटे एम कहेवामां आव्युं केजे, पोतामां अनादि अज्ञानथी थती शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयनी प्रवृत्तिने दूर करीने, सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रमां प्रवृत्तिरूप स्वसमयने प्राप्त करीने, एवा स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमां पोताने परिणमावीने, संपूर्णविज्ञानघनस्वभावने पाम्युं छे, अने जेमां कांई त्याग - ग्रहण नथी, एवा साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चळ रहेला, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानने (पूर्ण आत्मद्रव्यने) देखवुं. त्यां ‘देखवुं’ त्रण प्रकारे समजवुं. शुद्धनयनुं ज्ञान करीने पूर्ण ज्ञाननुं श्रद्धान करवुं ते पहेला प्रकारनुं देखवुं छे. ते अविरत आदि अवस्थामां पण होय छे. ज्ञान - श्रद्धान थया पछी बाह्य सर्व परिग्रहनो त्याग करी तेनो (पूर्ण ज्ञाननो) अभ्यास करवो, उपयोगने ज्ञानमां ज थंभाववो, जेवुं शुद्धनयथी पोताना स्वरूपने सिद्ध समान जाण्युं - श्रद्ध्युं हतुं तेवुं


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(शार्दूलविक्रीडित)
अन्येभ्यो व्यतिरिक्त मात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुता-
मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम्
मध्याद्यन्तविभागमुक्त सहजस्फारप्रभाभासुरः
शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति
।।२३५।।

ज ध्यानमां लईने चित्तने एकाग्रस्थिर करवुं, फरी फरी तेनो ज अभ्यास करवो, ते बीजा प्रकारनुं देखवुं छे. आ देखवुं अप्रमत्त दशामां होय छे. ज्यां सुधी एवा अभ्यासथी केवळज्ञान न ऊपजे त्यां सुधी ते अभ्यास निरंतर रहे. आ, देखवानो बीजो प्रकार थयो. अहीं सुधी तो पूर्ण ज्ञाननुं शुद्धनयना आश्रये परोक्ष देखवुं छे. केवळज्ञान ऊपजे त्यारे साक्षात

् देखवुं थाय छे ते त्रीजा प्रकारनुं देखवुं छे. ते स्थितिमां ज्ञान सर्व विभावोथी रहित थयुं थकुं सर्वनुं देखनार - जाणनार छे, तेथी आ त्रीजा प्रकारनुं देखवुं ते पूर्ण ज्ञाननुं प्रत्यक्ष देखवुं छे.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[अन्येभ्यः व्यतिरिक्त म्] अन्य द्रव्योथी भिन्न, [आत्म-नियतं] पोतामां ज नियत, [पृथक् - वस्तुताम् बिभ्रत्] पृथक् वस्तुपणाने धारतुं (वस्तुनुं स्वरूप सामान्यविशेषात्मक होवाथी पोते पण सामान्यविशेषात्मकपणाने धारण करतुं), [आदान - उज्झन-शून्यम्] ग्रहण - त्याग रहित, [एतत् अमलं ज्ञानं] आ अमल (रागादिक मळथी रहित) ज्ञान [तथा - अवस्थितम् यथा] एवी रीते अवस्थित (निश्चळ रहेलुं) अनुभवाय छे के जेवी रीते [मध्य - आदि - अन्त - विभाग - मुक्त - सहज-स्फार - प्रभा - भासुरः अस्य शुद्ध - ज्ञान - घनः महिमा] आदि-मध्य - अंतरूप विभागोथी रहित एवी सहज फेलायेली प्रभा वडे देदीप्यमान एवो एनो शुद्धज्ञानघनरूप महिमा [नित्य - उदितः तिष्ठति] नित्य - उदित रहे (शुद्ध ज्ञानना पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे).

भावार्थःज्ञाननुं पूर्ण रूप सर्वने जाणवुं ते छे. ते ज्यारे प्रगट थाय छे त्यारे सर्व विशेषणो सहित प्रगट थाय छे; तेथी तेना महिमाने कोई बगाडी शकतुं नथी, सदा उदयमान रहे छे. २३५.

‘आवा ज्ञानस्वरूप आत्मानुं आत्मामां धारण करवुं ते ज ग्रहवायोग्य सर्व ग्रह्युं अने त्यागवायोग्य सर्व त्याग्युं’एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः


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(उपजाति)
उन्मुक्त मुन्मोच्यमशेषतस्तत्
तथात्तमादेयमशेषतस्तत्
यदात्मनः संहृतसर्वशक्ते :
पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह
।।२३६।।
(अनुष्टुभ्)
व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्
कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शङ्कयते ।।२३७।।
अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं
आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु ।।४०५।।

श्लोकार्थः[संहृत - सर्व - शक्ते : पूर्णस्य आत्मनः] जेणे सर्व शक्तिओ समेटी छे (पोतामां लीन करी छे) एवा पूर्ण आत्मानुं [आत्मनि इह] आत्मामां [यत् सन्धारणम्] धारण करवुं [तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्त म्] ते ज छोडवायोग्य बधुं छोड्युं [तथा] अने [आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम्] ग्रहवायोग्य बधुं ग्रह्युं.

भावार्थःपूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तिओना समूहरूप जे आत्मा तेने आत्मामां धारण करी राखवो ते ज, त्यागवायोग्य जे कांई हतुं ते बधुंय त्याग्युं अने ग्रहण करवायोग्य जे कांई हतुं ते बधुंय ग्रहण कर्युं. ए ज कृतकृत्यपणुं छे. २३६.

‘आवा ज्ञानने देह ज नथी’एवा अर्थनो, आगळनी गाथानी सूचनारूप श्लोक हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम्] आम (पूर्वोक्त रीते) ज्ञान परद्रव्यथी जुदुं अवस्थित (निश्चळ रहेलुं) छे; [तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य देहः शङ्कयते] ते (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्म - नोकर्मरूप आहार करनारुं) केम होय के जेथी तेने देहनी शंका कराय? (ज्ञानने देह होई शके ज नहि, कारण के तेने कर्म - नोकर्मरूप आहार ज नथी.) २३७.

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः

एम आतमा जेनो अमूर्तिक ते नथी आ’रक खरे,
पुद्गलमयी छे आ’र तेथी आ’र तो मूर्तिक खरे. ४०५.

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ण वि सक्कदि घेत्तुं जं ण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं
सो को वि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि ।।४०६।।
तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि
णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं ।।४०७।।
आत्मा यस्यामूर्तो न खलु स आहारको भवत्येवम्
आहारः खलु मूर्तो यस्मात्स पुद्गलमयस्तु ।।४०५।।
नापि शक्यते ग्रहीतुं यत् न विमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यम्
स कोऽपि च तस्य गुणः प्रायोगिको वैस्रसो वाऽपि ।।४०६।।
तस्मात्तु यो विशुद्धश्चेतयिता स नैव गृह्णाति किञ्चित्
नैव विमुञ्चति किञ्चिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययोः ।।४०७।।
जे द्रव्य छे पर तेहने न ग्रही, न छोडी शकाय छे,
एवो ज तेनो गुण को प्रायोगी ने वैस्रसिक छे. ४०६.
तेथी खरे जे शुद्ध आत्मा ते नहीं कंई पण ग्रहे,
छोडे नहीं वळी कांई पण जीव ने अजीव द्रव्यो विषे. ४०७.

गाथार्थः[एवम्] ए रीते [यस्य आत्मा] जेनो आत्मा [अमूर्तः] अमूर्तिक छे [सः खलु] ते खरेखर [आहारकः न भवति] आहारक नथी; [आहारः खलु] आहार तो [मूर्तः] मूर्तिक छे [यस्मात्] कारण के [सः तु पुद्गलमयः] ते पुद्गलमय छे.

[यत् परद्रव्यम्] जे परद्रव्य छे [न अपि शक्यते ग्रहीतुं यत्] ते ग्रही शकातुं नथी [न विमोक्तुं यत् च] तथा छोडी शकातुं नथी, [सः कः अपि च] एवो ज कोई [तस्य] तेनो (आत्मानो) [प्रायोगिकः वा अपि वैस्रसः गुणः] प्रायोगिक तेम ज वैस्रसिक गुण छे.

[तस्मात् तु] माटे [यः विशुद्धः चेतयिता] जे विशुद्ध आत्मा छे [सः] ते [जीवाजीवयोः द्रव्ययोः] जीव अने अजीव द्रव्योमां (परद्रव्योमां) [किञ्चित् न एव गृह्णाति] कांई पण ग्रहतो नथी [किञ्चित् अपि न एव विमुञ्चति] तथा कांई पण छोडतो नथी.

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ज्ञानं हि परद्रव्यं किञ्चिदपि न गृह्णाति न मुञ्चति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैस्रसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः ततो ज्ञानं नाहारकं भवति अतो ज्ञानस्य देहो न शङ्कनीयः

(अनुष्टुभ्)
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते
ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम् ।।२३८।।

टीकाःज्ञान परद्रव्यने कांई पण (जरा पण) ग्रहतुं नथी तथा छोडतुं नथी, कारण के प्रायोगिक (अर्थात् पर निमित्तथी थयेला) गुणना सामर्थ्यथी तेम ज वैस्रसिक (अर्थात् स्वाभाविक) गुणना सामर्थ्यथी ज्ञान वडे परद्रव्यनुं ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक्य छे. वळी, (कर्म - नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञाननोअमूर्तिक आत्मद्रव्यनोआहार नथी, कारण के ते मूर्तिक पुद्गलद्रव्य छे; (अमूर्तिकने मूर्तिक आहार होय नहि). तेथी ज्ञान आहारक नथी. माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी.

(अहीं ‘ज्ञान’ कहेवाथी ‘आत्मा’ समजवो; कारण के, अभेद विवक्षाथी लक्षणमां ज लक्ष्यनो व्यवहार कराय छे. आ न्याये टीकाकार आचार्यदेव आत्माने ज्ञान ज कहेता आव्या छे.)

भावार्थःज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक छे अने आहार तो कर्म - नोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक छे; तेथी परमार्थे आत्माने पुद्गलमय आहार नथी. वळी आत्मानो एवो ज स्वभाव छे के ते परद्रव्यने तो ग्रहतो ज नथी;स्वभावरूप परिणमो के विभावरूप परिणमो, पोताना ज परिणामनां ग्रहणत्याग छे, परद्रव्यनां ग्रहणत्याग तो जरा पण नथी.

आ रीते आत्माने आहार नहि होवाथी तेने देह ज नथी. आत्माने देह ज नहि होवाथी, पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (वेष, भेख, बाह्य चिह्न) मोक्षनुं कारण नथीएवा अर्थनुं, आगळनी गाथाओनी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते] आम शुद्ध ज्ञानने देह ज नथी; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न] तेथी ज्ञाताने देहमय लिंग मोक्षनुं कारण नथी. २३८.


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पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि
घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति ।।४०८।।
ण दु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा
लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंति ।।४०९।।
पाषण्डिलिङ्गानि वा गृहिलिङ्गानि वा बहुप्रकाराणि
गृहीत्वा वदन्ति मूढा लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति ।।४०८।।
न तु भवति मोक्षमार्गो लिङ्गं यद्देहनिर्ममा अर्हन्तः
लिङ्गं मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ।।४०९।।

केचिद्द्रव्यलिङ्गमज्ञानेन मोक्षमार्गं मन्यमानाः सन्तो मोहेन द्रव्यलिङ्गमेवोपाददते तदनुपपन्नम्; सर्वेषामेव भगवतामर्हद्देवानां, शुद्धज्ञानमयत्वे सति द्रव्यलिङ्गाश्रयभूत-

हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः

बहुविधनां मुनिलिंगने अथवा गृहस्थीलिंगने
ग्रहीने कहे छे मूढजन ‘आ लिंग मुक्तिमार्ग छे’. ४०८.
पण लिंग मुक्तिमार्ग नहि, अर्हंत निर्मम देहमां
बस लिंग छोडी ज्ञान ने चारित्र, दर्शन सेवता. ४०९.

गाथार्थः[बहुप्रकाराणि] बहु प्रकारनां [पाषण्डिलिङ्गानि वा] मुनिलिंगोने [गृहिलिङ्गानि वा] अथवा गृहीलिंगोने [गृहीत्वा] ग्रहण करीने [मूढाः] मूढ (अज्ञानी) जनो [वदन्ति] एम कहे छे के ‘[इदं लिङ्गम्] आ (बाह्य) लिंग [मोक्षमार्गः इति] मोक्षमार्ग छे’.

[तु] परंतु [लिङ्गम्] लिंग [मोक्षमार्गः न भवति] मोक्षमार्ग नथी; [यत्] कारण के [अर्हन्तः] अर्हंतदेवो [देहनिर्ममाः] देह प्रत्ये निर्मम वर्तता थका [लिङ्गम् मुक्त्वा] लिंगने छोडीने [दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते] दर्शन - ज्ञान - चारित्रने ज सेवे छे.

टीकाःकेटलाक लोको अज्ञानथी द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग मानता थका मोहथी द्रव्यलिंगने ज ग्रहण करे छे. ते (द्रव्यलिंगने मोक्षमार्ग मानीने ग्रहण करवुं ते) अनुपपन्न अर्थात् अयुक्त छे; कारण के बधाय भगवान अर्हंतदेवोने, शुद्धज्ञानमयपणुं होवाने लीधे


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शरीरममकारत्यागात्, तदाश्रितद्रव्यलिङ्गत्यागेन दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षमार्गत्वेनोपासनस्य दर्शनात्

अथैतदेव साधयति
ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि
दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति ।।४१०।।
नाप्येष मोक्षमार्गः पाषण्डिगृहिमयानि लिङ्गानि
दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गं जिना ब्रुवन्ति ।।४१०।।

न खलु द्रव्यलिङ्गं मोक्षमार्गः, शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात् दर्शनज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्गः, आत्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात्


द्रव्यलिंगने आश्रयभूत शरीरना ममकारनो त्याग होवाथी, शरीराश्रित द्रव्यलिंगना त्याग वडे दर्शनज्ञानचारित्रनी मोक्षमार्गपणे उपासना जोवामां आवे छे (अर्थात् तेओ शरीराश्रित द्रव्यलिंगनो त्याग करीने दर्शनज्ञानचारित्रने मोक्षमार्ग तरीके सेवता जोवामां आवे छे).

भावार्थःजो देहमय द्रव्यलिंग मोक्षनुं कारण होत तो अर्हंतदेव वगेरे देहनुं ममत्व छोडी दर्शनज्ञानचारित्रने शा माटे सेवत? द्रव्यलिंगथी ज मोक्षने पामत! माटे ए नक्की थयुं केदेहमय लिंग मोक्षमार्ग नथी, परमार्थे दर्शनज्ञानचारित्ररूप आत्मा ज मोक्षनो मार्ग छे.

हवे ए ज सिद्ध करे छे (अर्थात् द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग नथी, दर्शन - ज्ञान-चारित्र ज मोक्षमार्ग छेएम सिद्ध करे छे)ः

मुनिलिंग ने गृहीलिंगए लिंगो न मुक्तिमार्ग छे;
चारित्र - दर्शन - ज्ञानने बस मोक्षमार्ग जिनो कहे. ४१०.

गाथार्थः[पाषण्डिगृहिमयानि लिङ्गानि] मुनिनां अने गृहस्थनां लिंगो [एषः] [मोक्षमार्गः न अपि] मोक्षमार्ग नथी; [दर्शनज्ञानचारित्राणि] दर्शन - ज्ञान-चारित्रने [जिनाः] जिनदेवो [मोक्षमार्गं ब्रुवन्ति] मोक्षमार्ग कहे छे.

टीकाःद्रव्यलिंग खरेखर मोक्षमार्ग नथी, कारण के ते (द्रव्यलिंग) शरीराश्रित होवाथी परद्रव्य छे. दर्शन - ज्ञान - चारित्र ज मोक्षमार्ग छे, कारण के तेओ आत्माश्रित होवाथी स्वद्रव्य छे.


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यत एवम्
तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिदे
दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे ।।४११।।
तस्मात् जहित्वा लिङ्गानि सागारैरनगारकैर्वा गृहीतानि
दर्शनज्ञानचारित्रे आत्मानं युंक्ष्व मोक्षपथे ।।४११।।

यतो द्रव्यलिङ्गं न मोक्षमार्गः, ततः समस्तमपि द्रव्यलिङ्गं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव, मोक्षमार्गत्वात्, आत्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः

भावार्थःमोक्ष छे ते सर्व कर्मना अभावरूप आत्मपरिणाम (आत्माना परिणाम) छे, माटे तेनुं कारण पण आत्माना परिणाम ज होवुं जोईए. दर्शन - ज्ञान - चारित्र आत्माना परिणाम छे; माटे निश्चयथी ते ज मोक्षनो मार्ग छे.

लिंग छे ते देहमय छे; देह छे ते पुद्गलद्रव्यमय छे; माटे आत्माने देह मोक्षनो मार्ग नथी. परमार्थे अन्य द्रव्यने अन्य द्रव्य कांई करतुं नथी ए नियम छे.

जो आम छे (अर्थात् जो द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी अने दर्शनज्ञानचारित्र ज मोक्षमार्ग छे) तो आम (नीचे प्रमाणे) करवुंएम हवे उपदेश करे छेः

तेथी तजी सागार के अणगार - धारित लिंगने,
चारित्र - दर्शन - ज्ञानमां तुं जोड रे! निज आत्मने. ४११.

गाथार्थः[तस्मात्] माटे [सागारैः] सागारो वडे (गृहस्थो वडे) [अनगारकैः वा] अथवा अणगारो वडे (मुनिओ वडे) [गृहीतानि] ग्रहायेलां [लिङ्गानि] लिंगोने [जहित्वा] छोडीने, [दर्शनज्ञानचारित्रे] दर्शनज्ञानचारित्रमां[मोक्षपथे] के जे मोक्षमार्ग छे तेमां[आत्मानं युंक्ष्व] तुं आत्माने जोड.

टीकाःकारण के द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नथी, तेथी समस्त द्रव्यलिंगने छोडीने दर्शनज्ञानचारित्रमां ज, ते (दर्शनज्ञानचारित्र) मोक्षमार्ग होवाथी, आत्माने जोडवायोग्य छे एम सूत्रनी अनुमति छे.

भावार्थःअहीं द्रव्यलिंगने छोडी आत्माने दर्शनज्ञानचारित्रमां जोडवानुं वचन छे ते सामान्य परमार्थ वचन छे. कोई समजशे के मुनि - श्रावकनां व्रतो छोडाववानो उपदेश छे. परंतु एम नथी. जेओ केवळ द्रव्यलिंगने ज मोक्षमार्ग जाणी भेख धारण करे छे, तेमने द्रव्यलिंगनो


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(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः
एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ।।२३९।।
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ।।४१२।।
मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व
तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु ।।४१२।।

आसंसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव स्वप्रज्ञादोषेणावतिष्ठमानमपि, स्वप्रज्ञागुणेनैव ततो पक्ष छोडाववा उपदेश कर्यो छे केभेखमात्रथी (वेशमात्रथी, बाह्यव्रतमात्रथी) मोक्ष नथी, परमार्थ मोक्षमार्ग तो आत्माना परिणाम जे दर्शन - ज्ञान - चारित्र ते ज छे. व्यवहार आचारसूत्रमां कह्या अनुसार जे मुनि-श्रावकनां बाह्य व्रतो छे, तेओ व्यवहारथी निश्चयमोक्षमार्गनां साधक छे; ते व्रतोने अहीं छोडाव्यां नथी, परंतु एम कह्युं छे के ते व्रतोनुं पण ममत्व छोडी परमार्थ मोक्षमार्गमां जोडावाथी मोक्ष थाय छे, केवळ भेखमात्रथीव्रतमात्रथी मोक्ष नथी.

हवे आ ज अर्थने द्रढ करती आगळनी गाथानी सूचनारूपे श्लोक कहे छेः

श्लोकार्थः[आत्मनः तत्त्वम् दर्शन - ज्ञान - चारित्र - त्रय - आत्मा] आत्मानुं तत्त्व दर्शन- ज्ञानचारित्रत्रयात्मक छे (अर्थात् आत्मानुं यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान ने चारित्रना त्रिकस्वरूप छे); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः] तेथी मोक्षना इच्छक पुरुषे (आ दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ज सदा सेववायोग्य छे. २३९.

हवे आ ज उपदेश गाथा द्वारा करे छेः

तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या, अनुभव तेहने;
तेमां ज नित्य विहार कर, नहि विहर परद्रव्यो विषे. ४१२.

गाथार्थः(हे भव्य!) [मोक्षपथे] तुं मोक्षमार्गमां [आत्मानं स्थापय] पोताना आत्माने स्थाप, [तं च एव ध्यायस्व] तेनुं ज ध्यान कर, [तं चेतयस्व] तेने ज चेतअनुभव अने [तत्र एव नित्यं विहर] तेमां ज निरंतर विहार कर; [अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः] अन्य द्रव्योमां विहार न कर.

टीकाः(हे भव्य!) पोते अर्थात् पोतानो आत्मा अनादि संसारथी मांडीने पोतानी प्रज्ञाना (बुद्धिना) दोषथी परद्रव्यमांरागद्वेषादिमां निरंतर स्थित रहेलो होवा छतां, पोतानी


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व्यावर्त्य दर्शनज्ञानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापयातिनिश्चलमात्मानं; तथा समस्तचिन्तान्तर- निरोधेनात्यन्तमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व; तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व; तथा द्रव्यस्वभाववशतः प्रतिक्षण- विजृम्भमाणपरिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव विहर; तथा ज्ञानरूप- मेकमेवाचलितमवलम्बमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि मा विहार्षीः

(शार्दूलविक्रीडित)
एको मोक्षपथो य एष नियतो द्रग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मक-
स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति
तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन्
सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति
।।२४०।।

प्रज्ञाना गुण वडे ज तेमांथी पाछो वाळीने तेने अति निश्चळपणे दर्शन - ज्ञान - चारित्रमां निरंतर स्थाप; तथा समस्त अन्य चिंताना निरोध वडे अत्यंत एकाग्र थईने दर्शन - ज्ञान - चारित्रने ज ध्या; तथा समस्त कर्मचेतना अने कर्मफळचेतनाना त्याग वडे शुद्धज्ञानचेतनामय थईने दर्शन - ज्ञान - चारित्रने ज चेतअनुभव; तथा द्रव्यना स्वभावना वशे (पोताने) जे क्षणे क्षणे परिणामो ऊपजे छे ते - पणा वडे (अर्थात् परिणामीपणा वडे) तन्मय परिणामवाळो (दर्शन - ज्ञानचारित्रमय परिणामवाळो) थईने दर्शन - ज्ञान - चारित्रमां ज विहर; तथा ज्ञानरूपने एकने ज अचळपणे अवलंबतो थको, जेओ ज्ञेयरूप होवाथी उपाधिस्वरूप छे एवां सर्व तरफथी फेलातां समस्त परद्रव्योमां जरा पण न विहर.

भावार्थःपरमार्थरूप आत्माना परिणाम दर्शन - ज्ञान - चारित्र छे; ते ज मोक्षमार्ग छे. तेमां ज (दर्शनज्ञानचारित्रमां ज) आत्माने स्थापवो, तेनुं ज ध्यान करवुं, तेनो ज अनुभव करवो अने तेमां ज विहरवुंप्रवर्तवुं, अन्य द्रव्योमां न प्रवर्तवुं. अहीं परमार्थे ए ज उपदेश छे केनिश्चय मोक्षमार्गनुं सेवन करवुं, केवळ व्यवहारमां ज मूढ न रहेवुं.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[द्रग् - ज्ञप्ति - वृत्ति - आत्मकः यः एषः एकः नियतः मोक्षपथः] दर्शन- ज्ञानचारित्रस्वरूप जे आ एक नियत मोक्षमार्ग छे. [तत्र एव यः स्थितिम् एति] तेमां ज जे पुरुष स्थिति पामे छे अर्थात् स्थित रहे छे, [तम् अनिशं ध्यायेत्] तेने ज निरंतर ध्यावे छे,


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(शार्दूलविक्रीडित)
ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना
लिङ्गे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः
नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभा-
प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते
।।२४१।।

[तं चेतति] तेने ज चेतेअनुभवे छे, [च द्रव्यान्तराणि अस्पृशन् तस्मिन् एव निरन्तरं विहरति] अने अन्य द्रव्योने नहि स्पर्शतो थको तेमां ज निरंतर विहार करे छे, [सः नित्य - उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति] ते पुरुष, जेनो उदय नित्य रहे छे एवा समयना सारने (अर्थात् परमात्माना रूपने) थोडा काळमां ज अवश्य पामे छेअनुभवे छे.

भावार्थःनिश्चयमोक्षमार्गना सेवनथी थोडा ज काळमां मोक्षनी प्राप्ति थाय ए नियम छे. २४०.

‘जेओ द्रव्यलिंगने ज मोक्षमार्ग मानी तेमां ममत्व राखे छे, तेमणे समयसारने अर्थात् शुद्ध आत्माने जाण्यो नथी’एम हवेनी गाथामां कहेशे; तेनी सूचनानुं काव्य प्रथम कहे छेः

श्लोकार्थः[ये तु एनं परिहृत्य संवृति - पथ - प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिङ्गे ममतां वहन्ति] जे पुरुषो आ पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गने छोडीने व्यवहारमोक्षमार्गमां स्थापेला पोताना आत्मा वडे द्रव्यमय लिंगमां ममता करे छे (अर्थात् एम माने छे के आ द्रव्यलिंग ज अमने मोक्ष पमाडशे), [ते तत्त्व - अवबोध - च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति] ते पुरुषो तत्त्वना यथार्थ ज्ञानथी रहित वर्तता थका हजु सुधी समयना सारने (अर्थात् शुद्ध आत्माने) देखताअनुभवता नथी. केवो छे ते समयसार अर्थात् शुद्ध आत्मा? [नित्य - उद्योतम् ] नित्य प्रकाशमान छे (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी थईने जेना उदयनो नाश करी शकतुं नथी), [अखण्डम्] अखंड छे (अर्थात् जेमां अन्य ज्ञेय आदिना निमित्ते खंड थता नथी), [एकम्] एक छे (अर्थात् पर्यायोथी अनेक अवस्थारूप थवा छतां जे एकरूपपणाने छोडतो नथी), [अतुल - आलोकं] अतुल (उपमारहित) जेनो प्रकाश छे (कारण के ज्ञानप्रकाशने सूर्यादिकना प्रकाशनी उपमा आपी शकाती नथी), [स्वभाव - प्रभा - प्राग्भारं] स्वभावप्रभानो पुंज छे (अर्थात् चैतन्यप्रकाशना समूहरूप छे), [अमलं] अमल छे (अर्थात् रागादि - विकाररूपी मळथी रहित छे).

(आ रीते, जेओ द्रव्यलिंगमां ममत्व करे छे तेमने निश्चय - कारणसमयसारनो अनुभव नथी; तो पछी तेमने कार्यसमयसारनी प्राप्ति क्यांथी थाय?) २४१.


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पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु
कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं ।।४१३।।
पाषण्डिलिङ्गेषु वा गृहिलिङ्गेषु वा बहुप्रकारेषु
कुर्वन्ति ये ममत्वं तैर्न ज्ञातः समयसारः ।।४१३।।

ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिङ्गममकारेण मिथ्याहङ्कारं कुर्वन्ति, तेऽनादिरूढव्यवहारमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न पश्यन्ति

हवे आ अर्थनी गाथा कहे छेः

बहुविधनां मुनिलिंगमां अथवा गृहीलिंगो विषे
ममता करे, तेणे नथी जाण्यो ‘समयना सार’ने. ४१३.

गाथार्थः[ये] जेओ [बहुप्रकारेषु] बहु प्रकारनां [पाषण्डिलिङ्गेषु वा] मुनिलिंगोमां [गृहिलिङ्गेषु वा] अथवा गृहस्थलिंगोमां [ममत्वं कुर्वन्ति] ममता करे छे (अर्थात् आ द्रव्यलिंग ज मोक्षनुं देनार छे एम माने छे), [तैः समयसारः न ज्ञातः] तेमणे समयसारने नथी जाण्यो.

टीकाःजेओ खरेखर ‘हुं श्रमण छुं, हुं श्रमणोपासक (श्रावक) छुं’ एम द्रव्यलिंगमां ममकार वडे मिथ्या अहंकार करे छे, तेओ अनादिरूढ (अनादि काळथी चाल्या आवेला) व्यवहारमां मूढ (मोही) वर्तता थका, प्रौढ विवेकवाळा निश्चय (निश्चयनय) पर अनारूढ वर्तता थका, परमार्थसत्य (जे परमार्थे सत्यार्थ छे एवा) भगवान समयसारने देखताअनुभवता नथी.

भावार्थःअनादि काळनो परद्रव्यना संयोगथी थयेलो जे व्यवहार तेमां ज जे पुरुषो मूढ अर्थात् मोहित छे, तेओ एम माने छे के ‘आ बाह्य महाव्रतादिरूप भेख छे ते ज अमने मोक्ष प्राप्त करावशे’, परंतु जेनाथी भेदज्ञान थाय छे एवा निश्चयने तेओ जाणता नथी. आवा पुुरुषो सत्यार्थ, परमात्मरूप, शुद्धज्ञानमय समयसारने देखता नथी.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः

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१. अनारूढ = नहि आरूढ; नहि चडेला.


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(वियोगिनी)
व्यवहारविमूढद्रष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः
तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम् ।।२४२।।
(स्वागता)
द्रव्यलिङ्गममकारमीलितै-
द्रर्श्यते समयसार एव न
द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतो
ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः
।।२४३।।

श्लोकार्थः[व्यवहार - विमूढ - द्रष्टयः जनाः परमार्थं नो कलयन्ति] व्यवहारमां ज जेमनी द्रष्टि (बुद्धि) मोहित छे एवा पुरुषो परमार्थने जाणता नथी, [इह तुष - बोध - विमुग्ध - बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम्] जेम जगतमां तुषना ज्ञानमां ज जेमनी बुद्धि मोहित छे (मोह पामी छे) एवा पुरुषो तुषने ज जाणे छे, तंडुलने जाणता नथी.

भावार्थःजेओ फोतरांमां मुग्ध थई रह्या छे, फोतरांने ज कूट्या करे छे, तेमणे तंडुलने जाण्या ज नथी; तेवी रीते जेओ द्रव्यलिंग आदि व्यवहारमां मुग्ध थई रह्या छे (अर्थात् शरीरादिनी क्रियामां ममत्व कर्या करे छे), तेमणे शुद्धात्म-अनुभवनरूप परमार्थने जाण्यो ज नथी; अर्थात् एवा जीवो शरीरादि परद्रव्यने ज आत्मा जाणे छे, परमार्थ आत्मानुं स्वरूप तेओ जाणता ज नथी. २४२.

हवे आगळनी गाथानी सूचनारूपे काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[द्रव्यलिङ्ग - ममकार - मीलितैः समयसारः एव न द्रश्यते] जेओ द्रव्यलिंगमां ममकार वडे अंधविवेकरहित छे, तेओ समयसारने ज देखता नथी; [यत् इह द्रव्यलिङ्गम् किल अन्यतः] कारण के आ जगतमां द्रव्यलिंग तो खरेखर अन्यद्रव्यथी थाय छे, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः] आ ज्ञान ज एक पोताथी (आत्मद्रव्यथी) थाय छे.

भावार्थःजेओ द्रव्यलिंगमां ममत्व वडे अंध छे तेमने शुद्धात्मद्रव्यनो अनुभव ज नथी, कारण के तेओ व्यवहारने ज परमार्थ मानता होवाथी परद्रव्यने ज आत्मद्रव्य माने छे. २४३.

१. तुष = डांगरनां फोतरां; अनाजनां फोतरां.
२. तंडुल = फोतरां विनाना चोखा; फोतरां विनानुं अनाज.


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ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे
णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ।।४१४।।
व्यावहारिकः पुनर्नयो द्वे अपि लिङ्गे भणति मोक्षपथे
निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिङ्गानि ।।४१४।।

यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थः, तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वा- भावात्; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं द्रशिज्ञप्तिप्रवृत्तवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेवैकमिति निस्तुषसञ्चेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात् ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते, ते समयसारमेव न सञ्चेतयन्ते; य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया

‘व्यवहारनय ज मुनिलिंगने अने श्रावकलिंगनेए बन्ने लिंगोने मोक्षमार्ग कहे छे, निश्चयनय कोई लिंगने मोक्षमार्ग कहेतो नथी’एम हवे गाथामां कहे छेः

व्यवहारनय ए उभय लिंगो मोक्षपंथ विषे कहे,
निश्चय नहीं माने कदी को लिंग मुक्तिपथ विषे. ४१४.

गाथार्थः[व्यावहारिकः नयः पुनः] व्यवहारनय [द्वे लिङ्गे अपि] बन्ने लिंगोने [मोक्षपथे भणति] मोक्षमार्गमां कहे छे (अर्थात् व्यवहारनय मुनिलिंग तेम ज गृहीलिंगने मोक्षमार्ग कहे छे); [निश्चयनयः] निश्चयनय [सर्वलिङ्गानि] सर्व लिंगोने (अर्थात् कोई पण लिंगने) [मोक्षपथे न इच्छति] मोक्षमार्गमां गणतो नथी.

टीकाःश्रमण अने श्रमणोपासकना भेदे बे प्रकारनां द्रव्यलिंगो मोक्षमार्ग छे एवो जे प्ररूपण - प्रकार (अर्थात् एवा प्रकारनी जे प्ररूपणा) ते केवळ व्यवहार ज छे, परमार्थ नथी, कारण के ते (प्ररूपणा) पोते अशुद्ध द्रव्यना अनुभवनस्वरूप होवाथी तेने परमार्थपणानो अभाव छे; श्रमण अने श्रमणोपासकना भेदोथी अतिक्रांत, दर्शनज्ञानमां प्रवृत्त परिणतिमात्र (मात्र दर्शन - ज्ञानमां प्रवर्तेली परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ज एक छेएवुं जे निस्तुष (निर्मळ) अनुभवन ते परमार्थ छे, कारण के ते (अनुभवन) पोते शुद्ध द्रव्यना अनुभवन- स्वरूप होवाथी तेने ज परमार्थपणुं छे. माटे जेओ व्यवहारने ज परमार्थबुद्धिथी (परमार्थ मानीने) अनुभवे छे, तेओ समयसारने ज नथी अनुभवता; जेओ परमार्थने परमार्थबुद्धिथी


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चेतयन्ते, ते एव समयसारं चेतयन्ते

(मालिनी)
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै-
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फू र्तिमात्रा-
न्न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति
।।२४४।।
(अनुष्टुभ्)
इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम्
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ।।२४५।।

अनुभवे छे, तेओ ज समयसारने अनुभवे छे.

भावार्थःव्यवहारनयनो विषय तो भेदरूप अशुद्धद्रव्य छे, तेथी ते परमार्थ नथी; निश्चयनयनो विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य छे, तेथी ते ज परमार्थ छे. माटे, जेओ व्यवहारने ज निश्चय मानीने प्रवर्ते छे तेओ समयसारने अनुभवता नथी; जेओ परमार्थने परमार्थ मानीने प्रवर्ते छे तेओ ज समयसारने अनुभवे छे (तेथी तेओ ज मोक्षने पामे छे).

‘बहु कथनथी बस थाओ, एक परमार्थनो ज अनुभव करो’एवा अर्थनुं काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थः[अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम्] बहु कहेवाथी अने बहु दुर्विकल्पोथी बस थाओ, बस थाओ; [इह] अहीं एटलुं ज कहेवानुं छे के [अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम्] आ परमार्थने एकने ज निरंतर अनुभवो; [स्व - रस - विसर - पूर्ण - ज्ञान - विस्फू र्ति - मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति] कारण के निज रसना फेलावथी पूर्ण जे ज्ञान तेना स्फुरायमान थवामात्र जे समयसार (परमात्मा) तेनाथी ऊंचुं खरेखर बीजुं कांई पण नथी (समयसार सिवाय बीजुं कांई पण सारभूत नथी).

भावार्थःपूर्णज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव करवो; आ उपरांत खरेखर बीजुं कांई पण सारभूत नथी. २४४.

हवे छेल्ली गाथामां आ समयसार ग्रंथना अभ्यास वगेरेनुं फळ कहीने आचार्यभगवान आ ग्रंथ पूर्ण करशे; तेनी सूचनानो श्लोक प्रथम कहे छेः

श्लोकार्थः[आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षतां नयत्] आनंदमय विज्ञानघनने (शुद्ध


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जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णादुं
अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं ।।४१५।।
यः समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा
अर्थे स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यम् ।।४१५।।

यः खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्व- समयस्य प्रतिपादनात् स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदमधीत्य, विश्वप्रकाशनसमर्थ- परमार्थभूतचित्प्रकाशरूपमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य, अस्यैवार्थभूते भगवति एकस्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वारम्भेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षण-


परमात्माने, समयसारने) प्रत्यक्ष करतुं [इदम् एकम् अक्षयं जगत्-चक्षुः] आ एक (अद्वितीय) अक्षय जगत - चक्षु (समयप्राभृत) [पूर्णताम् याति] पूर्णताने पामे छे.

भावार्थःआ समयप्राभृत ग्रंथ वचनरूपे तेम ज ज्ञानरूपेबन्ने प्रकारे जगतने अक्षय (अर्थात् जेनो विनाश न थाय एवुं) अद्वितीय नेत्र समान छे, कारण के जेम नेत्र घटपटादिने प्रत्यक्ष देखाडे छे तेम समयप्राभृत आत्माना शुद्ध स्वरूपने प्रत्यक्ष अनुभवगोचर देखाडे छे. २४५.

हवे भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव आ ग्रंथने पूर्ण करे छे तेथी तेना महिमारूपे तेना अभ्यास वगेरेनुं फळ गाथामां कहे छेः

आ समयप्राभृत पठन करीने, अर्थ - तत्त्वथी जाणीने,
ठरशे अरथमां आतमा जे, सौख्य उत्तम ते थशे. ४१५.

गाथार्थः[यः चेतयिता] जे आत्मा (भव्य जीव) [इदं समयप्राभृतम् पठित्वा] आ समयप्राभृतने भणीने, [अर्थतत्त्वतः ज्ञात्वा] अर्थ अने तत्त्वथी जाणीने, [अर्थे स्थास्यति] तेना अर्थमां स्थित थशे, [सः] ते [उत्तमं सौख्यम् भविष्यति] उत्तम सौख्यस्वरूप थशे.

टीकाःसमयसारभूत आ भगवान परमात्मानुंके जे विश्वनो प्रकाशक होवाथी विश्वसमय छे तेनुंप्रतिपादन करतुं होवाथी जे पोते शब्दब्रह्म समान छे एवा आ शास्त्रने जे आत्मा खरेखर भणीने, विश्वने प्रकाशवामां समर्थ एवा परमार्थभूत, चैतन्य - प्रकाशरूप आत्मानो निश्चय करतो थको (आ शास्त्रने) अर्थथी अने तत्त्वथी जाणीने, तेना ज अर्थभूत