Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 673

 

(१२)

शास्त्रोनो सार आवी जाय छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य पछी लखायेला घणा ग्रंथोनां बीजडां आ त्रण परमागमोमां रहेलां छे एम सूक्ष्म द्रष्टिथी अभ्यास करतां जणाय छे. पंचास्तिकायमां छ द्रव्यनुं अने नव तत्त्वनुं स्वरूप संक्षेपमां कह्युं छे. प्रवचनसारने ज्ञान, ज्ञेय अने चरणानुयोगना त्रण अधिकारोमां विभाजित कर्युं छे. समयसारमां नव तत्त्वोनुं शुद्धनयनी द्रष्टिथी कथन छे.

श्री समयसार अलौकिक शास्त्र छे. आचार्यभगवाने आ जगतना जीवो पर परम करुणा करीने आ शास्त्र रच्युं छे. तेमां मोक्षमार्गनुं यथार्थ स्वरूप जेम छे तेम कहेवामां आव्युं छे. अनंत काळथी परिभ्रमण करता जीवोने जे कांई समजवुं बाकी रही गयुं छे ते आ परमागममां समजाव्युं छे. परम कृपाळु आचार्यभगवान आ शास्त्र शरू करतां पोते ज कहे छेः‘कामभोगबंधनी कथा बधाए सांभळी छे, परिचय कर्यो छे, अनुभवी छे पण परथी जुदा एकत्वनी प्राप्ति ज केवळ दुर्लभ छे. ते एकत्वनीपरथी भिन्न आत्मानीवात हुं आ शास्त्रमां समस्त निज विभवथी (आगम, युक्ति, परंपरा अने अनुभवथी) कहीश.’ आ प्रतिज्ञा प्रमाणे आचार्यदेव आ शास्त्रमां आत्मानुं एकत्वपरद्रव्यथी अने परभावोथी भिन्नतासमजावे छे. तेओश्री कहे छे के ‘जे आत्माने अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त देखे छे ते समग्र जिनशासनने देखे छे.’ वळी तेओ कहे छे के ‘आवुं नहि देखनार अज्ञानीना सर्व भावो अज्ञानमय छे.’ आ रीते, ज्यां सुधी जीवने पोतानी शुद्धतानो अनुभव थतो नथी त्यां सुधी ते मोक्षमार्गी नथी; पछी भले ते व्रत, समिति, गुप्ति आदि व्यवहार चारित्र पाळतो होय अने सर्व आगमो पण भणी चूक्यो होय. जेने शुद्ध आत्मानो अनुभव वर्ते छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे. रागादिना उदयमां समकिती जीव कदी एकाकाररूप परिणमतो नथी परंतु एम अनुभवे छे के ‘आ, पुद्गलकर्मरूप रागना विपाकरूप उदय छे; ए मारो भाव नथी, हुं तो एक ज्ञायकभाव छुं.’ अहीं प्रश्न थशे के रागादिभावो थता होवा छतां आत्मा शुद्ध केम होई शके? उत्तरमां स्फटिकमणिनुं द्रष्टांत आपवामां आव्युं छे. जेम स्फटिकमणि लाल कपडाना संयोगे लाल देखाय छे

थाय छे तोपण स्फटिकमणिना

स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां स्फटिकमणिए निर्मळपणुं छोड्युं नथी, तेम आत्मा रागादि कर्मोदयना संयोगे रागी देखाय छेथाय छे तोपण शुद्धनयनी द्रष्टिथी तेणे शुद्धता छोडी नथी. पर्यायद्रष्टिए अशुद्धता वर्ततां छतां द्रव्यद्रष्टिए शुद्धतानो अनुभव थई शके छे. ते अनुभव चोथे गुणस्थाने थाय छे. आ परथी वाचकने समजाशे के सम्यग्दर्शन केटलुं दुष्कर छे. सम्यग्द्रष्टिनुं परिणमन ज फरी गयुं होय छे. ते गमे ते कार्य करतां शुद्ध आत्माने अनुभवे छे. जेम लोलुपी माणस मीठाना अने शाकना स्वादने जुदा पाडी शकतो नथी तेम अज्ञानी ज्ञानने अने रागने जुदां पाडी शकतो नथी; जेम अलुब्ध माणस शाकथी मीठानो जुदो स्वाद लई शके छे तेम सम्यग्द्रष्टि रागथी ज्ञानने जुदुं अनुभवे छे. हवे ए प्रश्न थाय छे के आवुं सम्यग्दर्शन कई रीते प्राप्त करी शकाय अर्थात् राग ने आत्मानी भिन्नता कई रीते अनुभवांशे समजाय? आचार्यभगवान उत्तर आपे छे के, प्रज्ञारूपी छीणीथी छेदतां ते बन्ने जुदा पडी जाय छे, अर्थात् ज्ञानथी ज

वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी

ओळखाणथी ज, अनादि काळथी रागद्वेष साथे एकाकाररूपे परिणमतो आत्मा भिन्नपणे