द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् ।
स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ।।१००।।
शुद्धात्मा जेणे लह्यो, नमुं चरण हित जाणी.
प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे एक ज कर्म बे पात्ररूप थईने पुण्य-पापरूपे प्रवेश करे छे’.
जेम नृत्यना अखाडामां एक ज पुरुष पोताने बे रूपे बतावी नाचतो होय तेने यथार्थ जाणनार ओळखी ले छे अने एक ज जाणे छे, तेवी रीते जोके कर्म एक ज छे तोपण पुण्य-पापना भेदे बे प्रकारनां रूप करी नाचे छे तेने, सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान के जे यथार्थ छे ते एकरूप जाणी ले छे. ते ज्ञानना महिमानुं काव्य आ अधिकारनी शरूआतमां टीकाकार आचार्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ अथ ] हवे (कर्ताकर्म अधिकार पछी), [ शुभ-अशुभ-भेदतः ] शुभ अने अशुभना भेदने लीधे [ द्वितयतां गतम् तत् कर्म ] बे-पणाने पामेला ते कर्मने [ ऐक्यम् उपानयन् ] एकरूप करतो, [ ग्लपित-निर्भर-मोहरजा ] जेणे अत्यंत मोहरजने दूर करी छे एवो [ अयं अवबोध-सुधाप्लवः ] आ (प्रत्यक्ष – अनुभवगोचर) ज्ञान-सुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रमा) [ स्वयम् ] स्वयं [ उदेति ] उदय पामे छे.