Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 172.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

आस्रव अधिकार
२७१
दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण
णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ।।१७२।।
दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ।।१७२।।

यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव किन्तु सोऽपि यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति च तावत्तस्यापि, जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलङ्कविपाक- सद्भावात्, पुद्गलकर्मबन्धः स्यात् अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य यावान् पूर्णो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा निरास्रव एव स्यात्

चारित्र, दर्शन, ज्ञान जेथी जघन्य भावे परिणमे,
तेथी ज ज्ञानी विविध पुद्गलकर्मथी बंधाय छे. १७२.

गाथार्थः[ यत् ] कारण के [ दर्शनज्ञानचारित्रं ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [ जघन्यभावेन ] जघन्य भावे [ परिणमते ] परिणमे छे [ तेन तु ] तेथी [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ विविधेन ] अनेक प्रकारनां [ पुद्गलकर्मणा ] पुद्गलकर्मथी [ बध्यते ] बंधाय छे.

टीकाःजे खरेखर ज्ञानी छे ते, बुद्धिपूर्वक (इच्छापूर्वक) रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावोनो तेने अभाव होवाथी, निरास्रव ज छे. परंतु त्यां एटलुं विशेष छे केते ज्ञानी ज्यां सुधी ज्ञानने सर्वोत्कृष्ट भावे देखवाने, जाणवाने अने आचरवाने अशक्त वर्ततो थको जघन्य भावे ज ज्ञानने देखे छे, जाणे छे अने आचरे छे त्यां सुधी तेने पण, जघन्य भावनी अन्यथा अनुपपत्ति वडे (अर्थात् जघन्य भाव अन्य रीते नहि बनतो होवाने लीधे) जेनुं अनुमान थई शके छे एवा अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकना विपाकनो सद्भाव होवाथी, पुद्गलकर्मनो बंध थाय छे. माटे त्यां सुधी ज्ञानने देखवुं, जाणवुं अने आचरवुं के ज्यां सुधीमां ज्ञाननो जेवडो पूर्ण भाव छे तेवडो देखवामां, जाणवामां अने आचरवामां बराबर आवी जाय. त्यारथी साक्षात् ज्ञानी थयो थको (आत्मा) सर्वथा निरास्रव ज होय छे.

भावार्थःज्ञानीने बुद्धिपूर्वक (अज्ञानमय) रागद्वेषमोहनो अभाव होवाथी ज्ञानी निरास्रव ज छे. परंतु ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी ते ज्ञानी ज्ञानने सर्वोत्कृष्ट