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वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् ।
न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।।११६।।
भावे देखी, जाणी अने आचरी शकतो नथी — जघन्य भावे देखी, जाणी अने आचरी शके छे; तेथी एम जणाय छे के ते ज्ञानीने हजु अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकनो विपाक (अर्थात् चारित्र- मोहसंबंधी रागद्वेष) विद्यमान छे अने तेथी तेने बंध पण थाय छे. माटे तेने एम उपदेश छे के — ज्यां सुधी केवळज्ञान न ऊपजे त्यां सुधी ज्ञाननुं ज निरंतर ध्यान करवुं, ज्ञानने ज देखवुं, ज्ञानने ज जाणवुं अने ज्ञानने ज आचरवुं. आ ज मार्गे दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं परिणमन वधतुं जाय छे अने एम करतां करतां केवळज्ञान प्रगटे छे. केवळज्ञान प्रगटे त्यारथी आत्मा साक्षात् ज्ञानी छे अने सर्व प्रकारे निरास्रव छे.
ज्यां सुधी क्षायोपशमिक ज्ञान छे त्यां सुधी अबुद्धिपूर्वक (अर्थात् चारित्रमोहनो) राग होवा छतां, बुद्धिपूर्वक रागना अभावनी अपेक्षाए ज्ञानीने निरास्रवपणुं कह्युं अने अबुद्धिपूर्वक रागनो अभाव थतां अने केवळज्ञान प्रगटतां सर्वथा निरास्रवपणुं कह्युं. आ, विवक्षानुं विचित्रपणुं छे. अपेक्षाथी समजतां ए सर्व कथन यथार्थ छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य छेः —
श्लोकार्थः — [ आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा ] आत्मा ज्यारे ज्ञानी थाय त्यारे, [ स्वयं ] पोते [ निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं ] पोताना समस्त बुद्धिपूर्वक रागने [ अनिशं ] निरंतर [ संन्यस्यन् ] छोडतो थको अर्थात् नहि करतो थको, [ अबुद्धिपूर्वम् ] वळी जे अबुद्धिपूर्वक राग छे [ तं अपि ] तेने पण [ जेतुं ] जीतवाने [ वारंवारम् ] वारंवार [ स्वशक्तिं स्पृशन् ] (ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्तिने स्पर्शतो थको अने (ए रीते) [ सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ] समस्त परवृत्तिने – परपरिणतिने – उखेडतो [ ज्ञानस्य पूर्णः भवन् ] ज्ञानना पूर्णभावरूप थतो थको, [ हि ] खरेखर [ नित्यनिरास्रवः भवति ] सदा निरास्रव छे.
भावार्थः — ज्ञानीए समस्त रागने हेय जाण्यो छे. ते रागने मटाडवाने उद्यम कर्या करे छे; तेने आस्रवभावनी भावनानो अभिप्राय नथी; तेथी ते सदा निरास्रव ज कहेवाय छे.
परवृत्ति (परपरिणति) बे प्रकारनी छे — अश्रद्धारूप अने अस्थिरतारूप. ज्ञानीए अश्रद्धारूप परवृत्ति छोडी छे अने अस्थिरतारूप परवृत्ति जीतवा माटे ते निज शक्तिने वारंवार