कहानजैनशास्त्रमाळा ]
मैकाग्य्रमेव कलयन्ति सदैव ये ते ।
पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम् ।।१२०।।
सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानी कहेवामां आवे छे ते योग्य ज छे. ‘ज्ञानी’ शब्द मुख्यपणे त्रण अपेक्षाए वपराय छेः — (१) प्रथम तो, जेने ज्ञान होय ते ज्ञानी कहेवाय; आम सामान्य ज्ञाननी अपेक्षाए तो सर्व जीवो ज्ञानी छे. (२) सम्यक् ज्ञान अने मिथ्या ज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्ज्ञान होवाथी ते अपेक्षाए ते ज्ञानी छे अने मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी छे. (३) संपूर्ण ज्ञान अने अपूर्ण ज्ञाननी अपेक्षा लेवामां आवे तो केवळी भगवान ज्ञानी छे अने छद्मस्थ अज्ञानी छे कारण के सिद्धांतमां पांच भावोनुं कथन करतां बारमा गुणस्थान सुधी अज्ञानभाव कह्यो छे. आ प्रमाणे अनेकांतथी अपेक्षा वडे विधिनिषेध निर्बाधपणे सिद्ध थाय छे; सर्वथा एकांतथी कांई पण सिद्ध थतुं नथी.
हवे, ज्ञानीने बंध थतो नथी ए शुद्धनयनुं माहात्म्य छे माटे शुद्धनयना महिमानुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य ] उद्धत ज्ञान ( – कोईनुं दबाव्युं दबाय नहि एवुं उन्नत ज्ञान) जेनुं लक्षण छे एवा शुद्धनयमां रहीने अर्थात् शुद्धनयनो आश्रय करीने [ ये ] जेओ [ सदा एव ] सदाय [ ऐकाग्य्रम् एव ] एकाग्रपणानो ज [ कलयन्ति ] अभ्यास करे छे [ ते ] तेओ, [ सततं ] निरंतर [ रागादिमुक्तमनसः भवन्तः ] रागादिथी रहित चित्तवाळा वर्तता थका, [ बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित एवा समयना सारने (अर्थात् पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपने) [ पश्यन्ति ] देखे छे — अनुभवे छे.
भावार्थः — अहीं शुद्धनय वडे एकाग्रतानो अभ्यास करवानुं कह्युं छे. ‘हुं केवळ ज्ञानस्वरूप छुं, शुद्ध छुं’ — एवुं जे आत्मद्रव्यनुं परिणमन ते शुद्धनय. आवा परिणमनने लीधे वृत्ति ज्ञानमां वळ्या करे अने स्थिरता वधती जाय ते एकाग्रतानो अभ्यास.
शुद्धनय श्रुतज्ञाननो अंश छे अने श्रुतज्ञान तो परोक्ष छे तेथी ते अपेक्षाए शुद्धनय द्वारा थतो शुद्ध स्वरूपनो अनुभव पण परोक्ष छे. वळी ते अनुभव एकदेश शुद्ध छे ते अपेक्षाए तेने व्यवहारथी प्रत्यक्ष पण कहेवामां आवे छे. साक्षात् शुद्धनय तो केवळज्ञान थये थाय छे. १२०.