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परिणामकरणस्य दर्शनात् ।
त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वङ्कषः कर्मणाम् ।
पूर्णं ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः ।।१२३।।
बंधरूपे परिणमावे छे. अने आ अप्रसिद्ध पण नथी (अर्थात् आनुं द्रष्टांत जगतमां प्रसिद्ध – जाणीतुं छे); कारण के उदराग्नि, पुरुषे ग्रहेला आहारने रस, रुधिर, मांस आदि भावे परिणमावे छे एम जोवामां आवे छे.
भावार्थः — ज्ञानी शुद्धनयथी छूटे त्यारे तेने रागादिभावोनो सद्भाव थाय छे, रागादिभावोना निमित्ते द्रव्यास्रवो अवश्य कर्मबंधनां कारण थाय छे अने तेथी कार्मणवर्गणा बंधरूपे परिणमे छे. टीकामां जे एम कह्युं छे के ‘‘द्रव्यप्रत्ययो पुद्गलकर्मने बंधरूपे परिणमावे छे’’, ते निमित्तथी कह्युं छे. त्यां एम समजवुं के ‘‘द्रव्यप्रत्ययो निमित्तभूत थतां कार्मणवर्गणा स्वयं बंधरूपे परिणमे छे’’.
हवे आ सर्व कथनना तात्पर्यरूप श्लोक कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ अत्र ] अहीं [ इदम् एव तात्पर्यं ] आ ज तात्पर्य छे के [ शुद्धनयः न हि हेयः ] शुद्धनय त्यागवायोग्य नथी; [ हि ] कारण के [ तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति ] तेना अत्यागथी (कर्मनो) बंध थतो नथी अने [ तत्-त्यागात् बन्धः एव ] तेना त्यागथी बंध ज थाय छे. १२२.
फरी, ‘शुद्धनय छोडवायोग्य नथी’ एवा अर्थने द्रढ करनारुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — [ धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः ] धीर (चळाचळता रहित) अने उदार (सर्व पदार्थोमां विस्तारयुक्त) जेनो महिमा छे एवा अनादिनिधन ज्ञानमां स्थिरता बांधतो (अर्थात् ज्ञानमां परिणतिने स्थिर राखतो) शुद्धनय — [ कर्मणाम् सर्वंकषः ] के जे कर्मोने मूळथी नाश करनारो छे ते — [ कृतिभिः ] पवित्र धर्मी (सम्यग्द्रष्टि) पुरुषोए [ जातु ] कदी पण [ न त्याज्यः ] छोडवायोग्य नथी. [ तत्रस्थाः ] शुद्धनयमां स्थित ते पुरुषो, [ बहिः निर्यत् स्व-मरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य ] बहार नीकळता एवा पोतानां