कहानजैनशास्त्रमाळा ]
अनुभूतिनी अर्थात् अनुभवनरूप परिणतिनी [परमविशुद्धिः] परम विशुद्धि (समस्त रागादि विभावपरिणति रहित उत्कृष्ट निर्मळता) [भवतु] थाओ. केवी छे ते परिणति? [परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नः अनुभावात्] परपरिणतिनुं कारण जे मोह नामनुं कर्म तेना अनुभाव(-उदयरूप विपाक)ने लीधे [अविरतम् अनुभाव्य-व्याप्ति-कल्माषितायाः] जे अनुभाव्य(रागादि परिणामो)नी व्याप्ति छे तेनाथी निरंतर कल्माषित (मेली) छे. अने हुं केवो छुं? [शुद्धचिन्मात्रमूर्तेः] द्रव्यद्रष्टिथी शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति छुं.
भावार्थः — आचार्य कहे छे के शुद्धद्रव्यार्थिक नयनी द्रष्टिए तो हुं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति छुं. परंतु मारी परिणति मोहकर्मना उदयनुं निमित्त पामीने मेली छे — रागादिस्वरूप थई रही छे. तेथी शुद्ध आत्मानी कथनीरूप जे आ समयसार ग्रंथ छे तेनी टीका करवानुं फळ ए चाहुं छुं के मारी परिणति रागादि रहित थई शुद्ध थाओ, मारा शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति थाओ. बीजुं कांई पण — ख्याति, लाभ, पूजादिक — चाहतो नथी. आ प्रकारे आचार्ये टीका करवानी प्रतिज्ञागर्भित एना फळनी प्रार्थना करी. ३.
हवे मूळगाथासूत्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य ग्रंथना आदिमां मंगळपूर्वक प्रतिज्ञा करे छेः —
गाथार्थः — आचार्य कहे छेः हुं [ध्रुवाम्] ध्रुव, [अचलाम्] अचळ अने [अनौपम्यां] अनुपम — ए त्रण विशेषणोथी युक्त [गतिं] गतिने [प्राप्तान्] प्राप्त थयेल एवा [सर्वसिद्धान्] सर्व सिद्धोने [वन्दित्वा] नमस्कार करी, [अहो] अहो! [श्रुतकेवलिभणितम्] श्रुतकेवळीओए कहेला [इदं] आ [समयप्राभृतम्] समयसार नामना प्राभृतने [वक्ष्यामि] कहीश.