कहानजैनशास्त्रमाळा ]
भावार्थः — गाथासूत्रमां आचार्ये ‘वक्ष्यामि’ कह्युं छे तेनो अर्थ टीकाकारे ‘वच् परिभाषणे’ धातुथी ‘परिभाषण’ कर्यो छे. तेनो आशय आ प्रमाणे सूचित थाय छेः चौद पूर्वमां ज्ञानप्रवाद नामना पांचमा पूर्वमां बार ‘वस्तु’ अधिकार छे; तेमां पण एक एकना वीश वीश ‘प्राभृत’ अधिकार छे. तेमां दशमा वस्तुमां समय नामनुं जे प्राभृत छे तेनां मूळ सूत्रोना शब्दोनुं ज्ञान तो पहेलां मोटा आचार्योने हतुं अने तेना अर्थनुं ज्ञान आचार्योनी परिपाटी अनुसार श्री कुंदकुंदाचार्यने पण हतुं. तेमणे समयप्राभृतनुं परिभाषण कर्युं — परिभाषासूत्र बांध्युं. सूत्रनी दश जातिओ कहेवामां आवी छे तेमां एक ‘परिभाषा’ जाति पण छे. अधिकारने जे यथास्थानमां अर्थ द्वारा सूचवे ते परिभाषा कहेवाय छे. श्री कुंदकुंदाचार्य समयप्राभृतनुं परिभाषण करे छे एटले के समयप्राभृतना अर्थने ज यथास्थानमां जणावनारुं परिभाषासूत्र रचे छे.
आचार्ये मंगळ अर्थे सिद्धोने नमस्कार कर्यो छे. संसारीने शुद्ध आत्मा साध्य छे अने सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा छे तेथी तेमने नमस्कार करवो उचित छे. कोई इष्टदेवनुं नाम लई नमस्कार केम न कर्यो तेनी चर्चा टीकाकारना मंगळ पर करेली छे ते अहीं पण जाणवी. सिद्धोने ‘सर्व’ एवुं विशेषण आप्युं छे; तेथी ते सिद्धो अनंत छे एवो अभिप्राय बताव्यो अने ‘शुद्ध आत्मा एक ज छे’ एवुं कहेनार अन्यमतीओनो व्यवच्छेद कर्यो. श्रुतकेवळी शब्दना अर्थमां, (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम अने केवळी अर्थात् सर्वज्ञदेव कह्या, तेम ज (२) श्रुत-अपेक्षाए केवळी समान एवा गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधरो कह्या; तेमनाथी समयप्राभृतनी उत्पत्ति कही छे. ए रीते ग्रंथनी प्रमाणता बतावी अने पोतानी बुद्धिथी कल्पित कहेवानो निषेध कर्यो; अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) पोतानी बुद्धिथी पदार्थनुं स्वरूप गमे ते प्रकारे कही विवाद करे छे तेनुं असत्यार्थपणुं बताव्युं.
आ ग्रंथनां अभिधेय, संबंध, प्रयोजन तो प्रगट ज छे. शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ते अभिधेय छे. तेना वाचक आ ग्रंथमां शब्दो छे तेमनो अने शुद्ध आत्मानो वाच्यवाचकरूप संबंध ते संबंध छे. शुद्धात्माना स्वरूपनी प्राप्ति थवी ते प्रयोजन छे.
प्रथम गाथामां समयनुं प्राभृत कहेवानी प्रतिज्ञा करी. त्यां ए आकांक्षा थाय के समय एटले शुं? तेथी हवे पहेलां समयने ज कहे छेः —