Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 159.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(शार्दूलविक्रीडित)
प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्
तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्क सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५९।।

स्वरूप छे; (तेथी ज्ञान आत्मानी परम गुप्ति छे.) [अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत्] माटे आत्मानुं जरा पण अगुप्तपणुं नहि होवाथी [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] ज्ञानीने अगुप्तिनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

भावार्थः‘गुप्ति’ एटले जेमां कोई चोर वगेरे प्रवेश न करी शके एवो किल्लो, भोंयरुं वगेरे; तेमां प्राणी निर्भयपणे वसी शके छे. एवो गुप्त प्रदेश न होय पण खुल्लो प्रदेश होय तो तेमां रहेनार प्राणीने अगुप्तपणाने लीधे भय रहे छे. ज्ञानी जाणे छे केवस्तुना निज स्वरूपमां कोई बीजुं प्रवेश करी शकतुं नथी माटे वस्तुनुं स्वरूप ज वस्तुनी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे. पुरुषनुं अर्थात् आत्मानुं स्वरूप ज्ञान छे; ते ज्ञानस्वरूपमां रहेलो आत्मा गुप्त छे कारण के ज्ञानस्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेशी शकतुं नथी. आवुं जाणता ज्ञानीने अगुप्तपणानो भय क्यांथी होय? ते तो निःशंक वर्ततो थको पोताना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपने निरंतर अनुभवे छे. १५८.

हवे मरणभयनुं काव्य कहे छेः

श्लोकार्थः[प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति] प्राणोना नाशने (लोको) मरण कहे छे. [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं] आ आत्माना प्राण तो निश्चयथी ज्ञान छे. [तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते] ते (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होवाथी तेनो कदापि नाश थतो नथी; [अतः तस्य मरणं किञ्चन न भवेत्] माटे आत्मानुं मरण बिलकुल थतुं नथी. [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] तेथी (आवुं जाणता) ज्ञानीने मरणनो भय क्यांथी होय? [सः स्वयं सततं निश्शङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] ते तो पोते निरंतर निःशंक वर्ततो थको सहज ज्ञानने सदा अनुभवे छे.

भावार्थःइंद्रियादि प्राणो नाश पामे तेने लोको मरण कहे छे. परंतु आत्माने परमार्थे इंद्रियादि प्राण नथी, तेने तो ज्ञान प्राण छे. ज्ञान अविनाशी छेतेनो नाश थतो नथी; तेथी आत्माने मरण नथी. ज्ञानी आम जाणतो होवाथी तेने मरणनो भय नथी; ते

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