कहानजैनशास्त्रमाळा ]
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन मार्गात्प्रच्युतस्यात्मनो मार्गे एव
स्थितिकरणात् स्थितिकारी, ततोऽस्य मार्गच्यवनकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
हतो ते थतो नथी, निर्जरा ज थाय छे. जोके ज्यां सुधी अंतरायनो उदय छे त्यां सुधी निर्बळता छे तोपण तेना अभिप्रायमां निर्बळता नथी, पोतानी शक्ति अनुसार कर्मना उदयने जीतवानो महान उद्यम वर्ते छे.
हवे स्थितिकरण गुणनी गाथा कहे छेः —
गाथार्थः — [यः चेतयिता] जे चेतयिता [उन्मार्गं गच्छन्तं] उन्मार्गे जता [स्वकम् अपि] पोताना आत्माने पण [मार्गे] मार्गमां [स्थापयति] स्थापे छे, [सः] ते [स्थितिकरणयुक्त :] स्थितिकरणयुक्त (स्थितिकरणगुण सहित) [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाः — कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे, जो पोतानो आत्मा मार्गथी (अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गथी) च्युत थाय तो तेने मार्गमां ज स्थित करतो होवाथी, स्थितिकारी छे, तेथी तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.
भावार्थः — जे, पोताना स्वरूपरूपी मोक्षमार्गथी च्युत थता पोताना आत्माने मार्गमां (मोक्षमार्गमां) स्थित करे ते स्थितिकरणगुणयुक्त छे. तेने मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध नथी परंतु उदय आवेलां कर्म रस दईने खरी जतां होवाथी निर्जरा ज छे.