Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

पूर्वरंग

सद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यन्तमनन्तद्रव्यसङ्करेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनाट्टङ्कोत्कीर्ण- चित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः

अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेक ज्योतिरुद्गमना- त्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा दर्शनज्ञान- चारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च स्वसमय इति, यदा त्वनाद्यविद्याकन्दलीमूल- कन्दायमानमोहानुवृत्तितन्त्रतया दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्यय- मोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते एवं किल समयस्य द्वैविध्यमुद्धावति


प्राप्त कर्युं छे (अर्थात् जेमां अनेक वस्तुओना आकार प्रतिभासे छे एवा एक ज्ञानना आकाररूप ते छे). आ विशेषणथी, ज्ञान पोताने ज जाणे छे, परने नथी जाणतुं एम एकाकार ज माननारनो, तथा पोताने नथी जाणतुं पण परने जाणे छे एम अनेकाकार ज माननारनो, व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवो छे? अन्य द्रव्योना जे विशिष्ट गुणोअवगाहन-गति-स्थिति- वर्तनाहेतुपणुं अने रूपीपणुंतेमना अभावने लीधे अने असाधारण चैतन्यरूपता-स्वभावना सद्भावने लीधे आकाश, धर्म, अधर्म, काळ अने पुद्गलए पांच द्रव्योथी जे भिन्न छे. आ विशेषणथी, एक ब्रह्मवस्तुने ज माननारनो व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवो छे? अनंत अन्यद्रव्यो साथे अत्यंत एकक्षेत्रावगाहरूप होवा छतां पण पोताना स्वरूपथी नहि छूटवाथी जे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप छे. आ विशेषणथी वस्तुस्वभावनो नियम बताव्यो.आवो जीव नामनो पदार्थ समय छे.

ज्यारे आ (जीव), सर्व पदार्थोना स्वभावने प्रकाशवामां समर्थ एवा केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योतिनो उदय थवाथी, सर्व परद्रव्योथी छूटी दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्व साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे त्यारे दर्शन-ज्ञान- चारित्रमां स्थित होवाथी युगपद् स्वने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा स्व-रूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘स्वसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे; पण ज्यारे ते, अनादि अविद्यारूपी जे केळ तेना मूळनी गांठ जेवो जे (पुष्ट थयेलो) मोह तेना उदय अनुसार प्रवृत्तिना आधीनपणाथी, दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वथी छूटी परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावो साथे एकत्वगतपणे (एकपणुं मानीने) वर्ते छे त्यारे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित होवाथी युगपद् परने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा पररूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘परसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे. आ रीते जीव नामना पदार्थने स्वसमय अने परसमयएवुं द्विविधपणुं प्रगट थाय छे.

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