परजीवानहं हिनस्मि, परजीवैर्हिंस्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्याास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्द्रष्टिः ।
श्लोकार्थः — [यः जानाति सः न करोति] जे जाणे छे ते करतो नथी [तु] अने [यः करोति अयं खलु जानाति न] जे करे छे ते जाणतो नथी. [तत् किल कर्मरागः] जे करवुं ते तो खरेखर कर्मराग छे [तु] अने [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः] रागने (मुनिओए) अज्ञानमय अध्यवसाय कह्यो छे; [सः नियतं मिथ्यादृशः] ते (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियमथी मिथ्याद्रष्टिने होय छे [च] अने [सः बन्धहेतुः] ते बंधनुं कारण छे. १६७.
हवे मिथ्याद्रष्टिना आशयने गाथामां स्पष्ट रीते कहे छेः —
गाथार्थः — [यः] जे [मन्यते] एम माने छे के [हिनस्मि च] ‘हुं पर जीवोने मारुं छुं ( – हणुं छुं) [परैः सत्त्वैः हिंस्ये च] अने पर जीवो मने मारे छे’, [सः] ते [मूढः] मूढ ( – मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत (अर्थात् आवुं नथी मानतो) ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.
टीकाः — ‘पर जीवोने हुं हणुं छुं अने पर जीवो मने हणे छे’ — एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे ( – निश्चितपणे, नियमथी) अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.
भावार्थः — ‘पर जीवोने हुं मारुं छुं अने पर मने मारे छे’ एवो आशय अज्ञान छे तेथी जेने एवो आशय छे ते अज्ञानी छे — मिथ्याद्रष्टि छे अने जेने एवो आशय नथी ते ज्ञानी छे — सम्यग्द्रष्टि छे.
निश्चयनये कर्तानुं स्वरूप ए छे के — पोते स्वाधीनपणे जे भावरूपे परिणमे ते
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