कहानजैनशास्त्रमाळा ]
पराश्रितत्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एव चायं, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्, पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च ।
छे, कारण के व्यवहारनयने पण पराश्रितपणुं समान ज छे ( – जेम अध्यवसान पराश्रित छे तेम व्यवहारनय पण पराश्रित छे, तेमां तफावत नथी). अने आ व्यवहारनय ए रीते निषेधवा- योग्य ज छे; कारण के आत्माश्रित निश्चयनयनो आश्रय करनाराओ ज (कर्मथी) मुक्त थाय छे अने पराश्रित व्यवहारनयनो आश्रय तो एकांते नहि मुक्त थतो एवो अभव्य पण करे छे.
भावार्थः — आत्माने परना निमित्तथी जे अनेक भावो थाय छे ते बधा व्यवहारनयना विषय होवाथी व्यवहारनय तो पराश्रित छे, अने जे एक पोतानो स्वाभाविक भाव छे ते ज निश्चयनयनो विषय होवाथी निश्चयनय आत्माश्रित छे. अध्यवसान पण व्यवहारनयनो ज विषय छे तेथी अध्यवसाननो त्याग ते व्यवहारनयनो ज त्याग छे, अने पहेलांनी गाथाओमां अध्यवसानना त्यागनो उपदेश छे ते व्यवहारनयना ज त्यागनो उपदेश छे. आ प्रमाणे निश्चयनयने प्रधान करीने व्यवहारनयना त्यागनो उपदेश कर्यो छे तेनुं कारण ए छे के — जेओ निश्चयना आश्रये प्रवर्ते छे तेओ ज कर्मथी छूटे छे अने जेओ एकांते व्यवहारनयना ज आश्रये प्रवर्ते छे तेओ कर्मथी कदी छूटता नथी.
हवे पूछे छे के अभव्य जीव पण व्यवहारनयनो कई रीते आश्रय करे छे? तेनो उत्तर कहे छेः —
गाथार्थः — [जिनवरैः] जिनवरोए [प्रज्ञप्तम्] कहेलां [व्रतसमितिगुप्तयः] व्रत, समिति, गुप्ति, [शीलतपः] शील, तप [कुर्वन् अपि] करतां छतां पण [अभव्यः] अभव्य जीव