आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं
समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि
ज सघळोय छोडाव्यो छे’. [तत्] तो पछी, [अमी सन्तः] आ सत्पुरुषो [एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य] एक सम्यक् निश्चयने ज निष्कंपपणे अंगीकार करीने [शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामां ( – आत्मस्वरूपमां) [धृतिम् किं न बध्नन्ति] स्थिरता केम धरता नथी?
भावार्थः — जिनेश्वरदेवे अन्य पदार्थोमां आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छोडाव्यां छे तेथी आ पराश्रित व्यवहार ज बधोय छोडाव्यो छे एम जाणवुं. माटे ‘शुद्धज्ञानस्वरूप पोताना आत्मामां स्थिरता राखो’ एवो शुद्धनिश्चयना ग्रहणनो उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे. वळी, ‘‘जो भगवाने अध्यवसान छोडाव्यां छे तो हवे सत्पुरुषो निश्चयने निष्कंपपणे अंगीकार करी स्वरूपमां केम नथी ठरता — ए अमने अचरज छे’’ एम कहीने आचार्यदेवे आश्चर्य बताव्युं छे. १७३.
हवे आ अर्थने गाथामां कहे छेः —
गाथार्थः — [एवं] ए रीते (पूर्वोक्त रीते) [व्यवहारनयः] (पराश्रित एवो) व्यवहारनय [निश्चयनयेन] निश्चयनय वडे [प्रतिषिद्धः जानीहि] निषिद्ध जाण; [पुनः निश्चयनयाश्रिताः] निश्चयनयने आश्रित [मुनयः] मुनिओ [निर्वाणम्] निर्वाणने [प्राप्नुवन्ति] पामे छे.
टीकाः — आत्माश्रित (अर्थात् स्व-आश्रित) निश्चयनय छे, पराश्रित (अर्थात् परने आश्रित) व्यवहारनय छे. त्यां, पूर्वोक्त रीते पराश्रित समस्त अध्यवसान (अर्थात् पोताना ने परना एकपणानी मान्यतापूर्वक परिणमन) बंधनुं कारण होवाने लीधे मुमुक्षुने तेनो ( – अध्यवसाननो) निषेध करता एवा निश्चयनय वडे खरेखर व्यवहारनयनो ज निषेध करायो
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