Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 173.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

बंध अधिकार
४०३

स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः, व्यवसानमात्रत्वाद्वयवसायः, मननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो भवनमात्रत्वाद्भावः, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः

(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्
।।१७३।।

टीकाःस्व-परनो अविवेक होय (अर्थात् स्व-परनुं भेदज्ञान न होय) त्यारे जीवनी अध्यवसितिमात्र ते अध्यवसान छे; अने ते ज (अर्थात् जेने अध्यवसान कह्युं ते ज) बोधन- मात्रपणाथी बुद्धि छे, व्यवसानमात्रपणाथी व्यवसाय छे, मननमात्रपणाथी मति छे, विज्ञप्ति- मात्रपणाथी विज्ञान छे, चेतनामात्रपणाथी चित्त छे, चेतनना भवनमात्रपणाथी भाव छे, चेतनना परिणमनमात्रपणाथी परिणाम छे. (आ रीते आ बधाय शब्दो एकार्थ छे.)

भावार्थःआ जे बुद्धि आदि आठ नामोथी कह्या ते बधाय चेतन आत्माना परिणाम छे. ज्यां सुधी स्वपरनुं भेदज्ञान न होय त्यां सुधी जीवने जे पोताना ने परना एकपणाना निश्चयरूप परिणति वर्ते छे तेने बुद्धि आदि आठ नामोथी कहेवामां आवे छे.

‘अध्यवसान त्यागवायोग्य कह्यां छे तेथी एम समजाय छे के व्यवहारनो त्याग कराव्यो छे अने निश्चयनुं ग्रहण कराव्युं छे’एवा अर्थनुं, आगळना कथननी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः

श्लोकार्थःआचार्यदेव कहे छे केः[सर्वत्र यद् अध्यवसानम्] सर्व वस्तुओमां जे अध्यवसान थाय छे [अखिलं] ते बधांय (अध्यवसान) [जिनैः] जिन भगवानोए [एवम्] पूर्वोक्त रीते [त्याज्यं उक्तं] त्यागवायोग्य कह्यां छे [तत्] तेथी [मन्ये] अमे एम मानीए छीए के [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः] ‘पर जेनो आश्रय छे एवो व्यवहार

१. अध्यवसिति = (एकमां बीजानी मान्यतापूर्वक) परिणति; (मिथ्या) निश्चिति; (खोटो) निश्चय होवो ते.

२. व्यवसान = काममां लाग्या रहेवुं ते; उद्यमी होवुं ते; निश्चय होवो ते.
३. मनन = मानवुं ते; जाणवुं ते.