भावात्, शुभेनाशुभेन वा कर्मणा न खलु लिप्येरन् ।
प्रकाशती ज्ञानज्योति जरा पण अज्ञानरूप, मिथ्यादर्शनरूप अने अचारित्ररूप नहि थती होवाथी) शुभ के अशुभ कर्मथी खरेखर लेपाता नथी.
भावार्थः — आ जे अध्यवसानो छे ते ‘हुं परने हणुं छुं’ ए प्रकारनां छे, ‘हुं नारक छुं’ ए प्रकारनां छे तथा ‘हुं परद्रव्यने जाणुं छुं’ ए प्रकारनां छे. तेओ, ज्यां सुधी आत्मानो ने रागादिकनो, आत्मानो ने नारकादि कर्मोदयजनित भावोनो तथा आत्मानो ने ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योनो भेद न जाण्यो होय, त्यां सुधी प्रवर्ते छे. तेओ भेदज्ञानना अभावने लीधे मिथ्याज्ञानरूप छे, मिथ्यादर्शनरूप छे अने मिथ्याचारित्ररूप छे; एम त्रण प्रकारे प्रवर्ते छे. ते अध्यवसानो जेमने नथी ते मुनिकुंजरो छे. तेओ आत्माने सम्यक् जाणे छे, सम्यक् श्रद्धे छे अने सम्यक् आचरे छे, तेथी अज्ञानना अभावथी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप थया थका कर्मोथी लेपाता नथी.
‘‘अध्यवसान शब्द वारंवार कहेता आव्या छो, ते अध्यवसान शुं छे? तेनुं स्वरूप बराबर समजवामां नथी आव्युं.’’ आम पूछवामां आवतां, हवे अध्यवसाननुं स्वरूप गाथामां कहे छेः —
गाथार्थः — [बुद्धिः] बुद्धि, [व्यवसायः अपि च] व्यवसाय, [अध्यवसानं] अध्यवसान, [मतिः च] मति, [विज्ञानम् ] विज्ञान, [चित्तं] चित्त, [भावः] भाव [च] अने [परिणामः] परिणाम — [सर्वं ] ए बधा [एकार्थम् एव] एकार्थ ज छे ( – नाम जुदां छे, अर्थ जुदा नथी).
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