Samaysar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

अभव्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते, नित्यमेव भेदविज्ञानानर्हत्वात् ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धत्ते, भोग- निमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्ते तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनै- रुपरितनग्रैवेयकभोगमात्रमास्कन्देत्, न पुनः कदाचनापि विमुच्येत ततोऽस्य भूतार्थधर्म- श्रद्धानाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एव


कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नहि. (कर्मक्षयना निमित्तरूप धर्मने नथी श्रद्धतो, नथी तेनी प्रतीत करतो, नथी तेनी रुचि करतो अने नथी तेने स्पर्शतो.)

टीकाःअभव्य जीव नित्यकर्मफळचेतनारूप वस्तुने श्रद्धे छे परंतु नित्यज्ञानचेतना- मात्र वस्तुने नथी श्रद्धतो कारण के ते (अभव्य) सदाय (स्वपरना) भेदविज्ञानने अयोग्य छे. माटे ते (अभव्य जीव) कर्मथी छूटवाना निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ (सत्यार्थ) धर्मने नथी श्रद्धतो, भोगना निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मने ज श्रद्धे छे; तेथी ज ते अभूतार्थ धर्मनां श्रद्धान, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शनथी उपरना ग्रैवेयक सुधीना भोगमात्रने पामे छे परंतु कदापि कर्मथी छूटतो नथी. तेथी तेने भूतार्थ धर्मना श्रद्धानना अभावने लीधे (साचुं) श्रद्धान पण नथी.

आम होवाथी निश्चयनय वडे व्यवहारनयनो निषेध योग्य ज छे.

भावार्थःअभव्य जीवने भेदज्ञान थवानी योग्यता नहि होवाथी ते कर्मफळचेतनाने जाणे छे परंतु ज्ञानचेतनाने जाणतो नथी; तेथी शुद्ध आत्मिक धर्मनुं श्रद्धान तेने नथी. ते शुभ कर्मने ज धर्म समजी श्रद्धान करे छे तेथी तेना फळ तरीके ग्रैवेयक सुधीना भोगने पामे छे परंतु कर्मनो क्षय थतो नथी. आ रीते सत्यार्थ धर्मनुं श्रद्धान नहि होवाथी तेने श्रद्धान ज कही शकातुं नथी.

आ प्रमाणे व्यवहारनयने आश्रित अभव्य जीवने ज्ञान-श्रद्धान नहि होवाथी निश्चयनय वडे करवामां आवतो व्यवहारनो निषेध योग्य ज छे.

अहीं एटलुं विशेष जाणवुं केआ हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रंथ छे तेथी तेमां भव्य -अभव्यनो अनुभवनी अपेक्षाए निर्णय छे. हवे जो आने अहेतुवाद आगम साथे मेळवीए तोअभव्यने व्यवहारनयना पक्षनो सूक्ष्म, केवळीगम्य आशय रही जाय छे के जे छद्मस्थने अनुभवगोचर नथी पण होतो, मात्र सर्वज्ञदेव जाणे छे; ए रीते केवळ व्यवहारनो पक्ष रहेवाथी तेने सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व रहे छे. अभव्यने आ व्यवहारनयना पक्षनो आशय सर्वथा कदी पण मटतो ज नथी.

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