कहानजैनशास्त्रमाळा ]
दर्शनस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः, षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।
स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः ।
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।१७४।।
असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज दर्शननो सद्भाव छे; शुद्ध आत्मा ज चारित्रनो आश्रय छे, कारण के छ जीव-निकायना सद्भावमां के असद्भावमां तेना (अर्थात् शुद्ध आत्माना) सद्भावथी ज चारित्रनो सद्भाव छे.
भावार्थः — आचारांग आदि शब्दश्रुतनुं जाणवुं, जीवादि नव पदार्थोनुं श्रद्धान करवुं तथा छ कायना जीवोनी रक्षा — ए सर्व होवा छतां अभव्यने ज्ञान, दर्शन, चारित्र नथी होतां, तेथी व्यवहारनय तो निषेध्य छे; अने शुद्धात्मा होय त्यां ज्ञान, दर्शन, चारित्र होय ज छे, तेथी निश्चयनय व्यवहारनो निषेधक छे. माटे शुद्धनय उपादेय कह्यो छे.
हवे आगळना कथननी सूचनानुं काव्य कहे छेः —
श्लोकार्थः — ‘‘[रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः] रागादिकने बंधनां कारण कह्या अने वळी [ते शुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्ताः] तेमने शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिथी (अर्थात् आत्माथी) भिन्न कह्या; [तद्-निमित्तम्] त्यारे ते रागादिकनुं निमित्त [किमु आत्मा वा परः] आत्मा छे के बीजुं कोई?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः] एवा (शिष्यना) प्रश्नथी प्रेरित थया थका आचार्यभगवान फरीने आम (नीचे प्रमाणे) कहे छे. १७४.
उपरना प्रश्नना उत्तररूपे आचार्यभगवान गाथा कहे छेः —