– इति नगरे वर्णितेऽपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेऽपि प्राकारोपवनपरिखादिमत्त्वाभावाद्वर्णनं
न स्यात् ।
तथैव —
(आर्या)
नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यम् ।
अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ।।२६।।
– इति शरीरे स्तूयमानेऽपि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य तदधिष्ठातृत्वेऽपि सुस्थितसर्वांगत्व-
लावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न स्यात् ।
अथ निश्चयस्तुतिमाह । तत्र ज्ञेयज्ञायकसंक रदोषपरिहारेण तावत् —
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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-अम्बरम् ] कोटके द्वारा आकाशको ग्रसित कर रखा है (अर्थात् इसका कोट बहुत ऊँचा है),
[उपवन-राजी-निर्गीर्ण-भूमितलम् ] बगीचोंकी पंक्तियोंसे जिसने भूमितलको निगल लिया है
(अर्थात् चारों ओर बगीचोंसे पृथ्वी ढक गई है) और [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव ] कोटके
चारों ओरकी खाईके घेरेसे मानों पातालको पी रहा है (अर्थात् खाई बहुत गहरी है) ।२५।
इसप्रकार नगरका वर्णन करने पर भी उससे राजाका वर्णन नहीं होता क्योंकि, यद्यपि राजा
उसका अधिष्ठाता है तथापि, वह राजा कोट-बाग-खाई-आदिवाला नहीं है ।
इसीप्रकार शरीरका स्तवन करने पर तीर्थङ्करका स्तवन नहीं होता यह भी श्लोक द्वारा कहते
हैं : —
श्लोकार्थ : — [जिनेन्द्ररूपं परं जयति ] जिनेन्द्रका रूप उत्कृष्टतया जयवन्त वर्तता है,
[नित्यम्-अविकार-सुस्थित-सर्वांगम् ] जिसमें सभी अंग सदा अविकार और सुस्थित हैं, [अपूर्व
-सहज-लावण्यम् ] जिसमें (जन्मसे ही) अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है (जो सर्वप्रिय है)
और [समुद्रं इव अक्षोभम् ] जो समुद्रकी भांति क्षोभरहित है, चलाचल नहीं है ।२६।
इसप्रकार शरीरका स्तवन करने पर भी उससे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन नहीं होता
क्योंकि, यद्यपि तीर्थंकर-केवलीपुरुषके शरीरका अधिष्ठातृत्व है तथापि, सुस्थित सर्वांगता, लावण्य
आदि आत्माके गुण नहीं हैं, इसलिये तीर्थंकर-केवलीपुरुषके उन गुणोंका अभाव है ।।३०।।
अब, (तीर्थंकर-केवलीकी) निश्चयस्तुति कहते हैं । उसमें पहले ज्ञेय-ज्ञायकके
संकरदोषका परिहार करके स्तुति कहते हैं : —