शुकॢलोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं, तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव
तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य स्तवनात् ।
कथं शरीरस्तवनेन तदधिष्ठातृत्वादात्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यत इति चेत् —
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा क दा होदि ।
देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ।।३०।।
नगरे वर्णिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति ।
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवन्ति ।।३०।।
तथा हि —
(आर्या)
प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् ।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ।।२५।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन नहीं होता है, तीर्थंकर-केवलीपुरुषके गुणोंका स्तवन करनेसे ही
तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन होता है ।।२९।।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि आत्मा तो शरीरका अधिष्ठाता है, इसलिये शरीरके
स्तवनसे आत्माका स्तवन निश्चयसे क्यों युक्त नहीं है ? उसके उत्तररूप दृष्टान्त सहित गाथा
कहते हैं : —
रे ग्राम वर्णन करनेसे भूपाल वर्णन हो न ज्यों,
त्यों देहगुणके स्तवनसे नहिं केवलीगुण स्तवन हो ।।३०।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [नगरे ] नगरका [वर्णिते अपि ] वर्णन करने पर भी [राज्ञः
वर्णना ] राजाका वर्णन [न कृता भवति ] नहीं किया जाता, इसीप्रकार [देहगुणे स्तूयमाने ]
शरीरके गुणका स्तवन करने पर [केवलिगुणाः ] केवलीके गुणोंका [स्तुताः न भवन्ति ] स्तवन
नहीं होता ।
टीका : — उपरोक्त अर्थका काव्य (टीकामें) कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इदं नगरम् हि ] यह नगर ऐसा है कि जिसने [प्राकार-कवलित