Samaysar (Hindi). Gatha: 29.

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पुरुष इत्यस्ति स्तवनम निश्चयनयेन तु शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमनुपपन्नमेव
तथा हि
तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो
केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ।।२९।।
तन्निश्चये न युज्यते न शरीरगुणा हि भवन्ति केवलिनः
केवलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्वं केवलिनं स्तौति ।।२९।।
यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तद्वयपदेशेन व्यपदेशः,
कार्तस्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात्; तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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भावार्थ :यहाँ कोई प्रश्न करे किव्यवहारनय तो असत्यार्थ कहा है और शरीर जड़
है तब व्यवहाराश्रित जड़की स्तुतिका क्या फल है ? उसका उत्तर यह है :व्यवहारनय सर्वथा
असत्यार्थ नहीं है, उसे निश्चयको प्रधान करके असत्यार्थ कहा है और छद्मस्थको अपना, परका
आत्मा साक्षात् दिखाई नहीं देता, शरीर दिखाई देता है, उसकी शान्तरूप मुद्राको देखकर अपनेको
भी शान्त भाव होते हैं
ऐसा उपकार समझकर शरीरके आश्रयसे भी स्तुति करता है; तथा शान्त
मुद्राको देखकर अन्तरङ्गमें वीतराग भावका निश्चय होता है यह भी उपकार है ।।२८।।
ऊ परकी बातको गाथामें कहते हैं :
निश्चयविषैं नहिं योग्य ये, नहिं देहगुण केवलि हि के;
जो केवलीगुणको स्तवे परमार्थ केवलि वो स्तवे
।।२९।।
गाथार्थ :[तत् ] वह स्तवन [निश्चये ] निश्चयमें [न युज्यते ] योग्य नहीं है, [हि ]
क्योंकि [शरीरगुणाः ] शरीरके गुण [केवलिनः ] केवलीके [न भवन्ति ] नहीं होते; [यः ] जो
[केवलिगुणान् ] केवलीके गुणोंकी [स्तौति ] स्तुति करता है [सः ] वह [तत्त्वं ] परमार्थसे
[केवलिनं ] केवलीकी [स्तौति ] स्तुति करता है
टीका :जैसे चांदीका गुण जो सफे दपना, उसका सुवर्णमें अभाव है, इसलिये निश्चयसे
सफे दीके नामसे सोनेका नाम नहीं बनता, सुवर्णके गुण जो पीलापन आदि हैं उनके नामसे ही
सुवर्णका नाम होता है; इसीप्रकार शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं उनका तीर्थंकर-
केवलीपुरुषमें अभाव है, इसलिये निश्चयसे शरीरके शुक्ल-रक्तता आदि गुणोंका स्तवन करनेसे