यथा कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि कार्तस्वरस्य व्यवहारमात्रेणैव पाण्डुरं कार्तस्वरमित्यस्ति व्यपदेशः, तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलि-
भावार्थ : — व्यवहारनय तो आत्मा और शरीरको एक कहता है और निश्चयनय भिन्न कहता है । इसलिये व्यवहारनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन माना जाता है ।।२७।।
माने मुनी जो केवली वन्दन हुआ, स्तवना हुई ।।२८।।
गाथार्थ : — [जीवात् अन्यत् ] जीवसे भिन्न [इदम् पुद्गलमयं देहं ] इस पुद्गलमय देहकी [स्तुत्वा ] स्तुति करके [मुनिः ] साधु [मन्यते खलु ] ऐसा मानते हैं कि [मया ] मैंने [केवली भगवान् ] केवली भगवानकी [स्तुतः ] स्तुति की और [वन्दितः ] वन्दना की ।
टीका : — जैसे, परमार्थसे सफे दी सोनेका स्वभाव नहीं है, फि र भी चांदीका जो श्वेत गुण है, उसके नामसे सोनेका नाम ‘श्वेत स्वर्ण’ कहा जाता है यह व्यवहारमात्रसे ही कहा जाता है; इसीप्रकार, परमार्थसे शुक्ल-रक्तता तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्वभाव न होने पर भी, शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं, उनके स्तवनसे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका ‘शुक्ल-रक्त तीर्थंकर-केवलीपुरुष’ के रूपमें स्तवन किया जाता है वह व्यवहारमात्रसे ही किया जाता है । किन्तु निश्चयनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन नहीं हो सकता ।