भूयमानासंगतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिन्द्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन
विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंक रदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षो-
द्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन
सर्वेभ्यो द्रव्यान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका
निश्चयस्तुतिः ।
अथ भाव्यभावकसंक रदोषपरिहारेण —
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं ।
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति ।।३२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
६९
द्वारा ग्रहण किये हुए, इन्द्रियोंके विषयभूत स्पर्शादि पदार्थोंको, अपनी चैतन्यशक्तिकी स्वयमेव
अनुभवमें आनेवाली असंगताके द्वारा सर्वथा अपनेसे अलग किया; सो यह इन्द्रियोंके
विषयभूत पदार्थोंका जीतना हुआ । इसप्रकार जो (मुनि) द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके
विषयभूत पदार्थोंको (तीनोंको) जीतकर, ज्ञेयज्ञायक-संकर नामक दोष आता था सो सब दूर
होनेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभावके द्वारा सर्व अन्यद्रव्योंसे परमार्थसे भिन्न ऐसे
अपने आत्माका अनुभव करता है वह निश्चयसे जितेन्द्रिय जिन है । (ज्ञानस्वभाव अन्य
अचेतन द्रव्योंमें नहीं है, इसलिए उसके द्वारा आत्मा सबसे अधिक, भिन्न ही है ।) कैसा
है यह ज्ञानस्वभाव ? इस विश्वके (समस्त पदार्थोंके) ऊ पर तिरता हुआ (उन्हें जानता हुआ
भी उनरूप न होता हुआ), प्रत्यक्ष उद्योतपनेसे सदा अन्तरङ्गमें प्रकाशमान, अविनश्वर,
स्वतःसिद्ध और परमार्थसत् — ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है ।।३१।।
इसप्रकार एक निश्चयस्तुति तो यह हुई ।
(ज्ञेयका — द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोंका और
ज्ञायकस्वरूप स्वयं आत्माका — उन दोनोंका अनुभव, विषयोंकी आसक्तिसे, एकसा था; जब
भेदज्ञानसे भिन्नत्व ज्ञात किया तब वह ज्ञेयज्ञायक-संकरदोष दूर हुआ ऐसा यहाँ जानना ।)
अब, भाव्यभावक-संकरदोष दूर करके स्तुति कहते हैं : —
कर मोहजय ज्ञानस्वभाव रु अधिक जाने आतमा,
परमार्थ-विज्ञायक पुरुषने उन हि जितमोही कहा ।।३२।।