इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभिनिर्वर्त्य- [अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति ] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यन्त वेगसे जब तक प्रवृत्तिको प्राप्त न हो, [तावत् ] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [सकल-भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता ] सकल अन्यभावोंसे रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो [आविर्बभूव ] प्रगट हो गई ।
भावार्थ : — यह परभावके त्यागका दृष्टान्त कहा उस पर दृष्टि पड़े उससे पूर्व, समस्त अन्य भावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभव तो तत्काल हो गया; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि वस्तुको परकी जान लेनेके बाद ममत्व नहीं रहता ।२९।
अब, ‘इस अनुभूतिसे परभावका भेदज्ञान कैसे हुआ ?’ ऐसी आशंका करके, पहले तो जो भावकभाव — मोहकर्मके उदयरूप भाव, उसके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं : —
१गाथार्थ : — [बुध्यते ] जो यह जाने कि [मोहः मम कः अपि नास्ति ] ‘मोह मेरा कोई भी (सम्बन्धी) नहीं है, [एकः उपयोगः एव अहम् ] एक उपयोग ही मैं हूँ — [तं ] ऐसे जाननेको [समयस्य ] सिद्धान्तके अथवा स्वपरस्वरूपके [विज्ञायकाः ] जाननेवाले [मोहनिर्ममत्वं ] मोहसे निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] कहते हैं ।
टीका : — निश्चयसे, (यह मेरे अनुभवमें) फलदानकी सामर्थ्यसे प्रगट होकर १इस गाथाका दूसरा अर्थ यह भी है कि : — ‘किंचित्मात्र मोह मेरा नहीं है, मैं एक हूँ’ ऐसा उपयोग ही