Samaysar (Hindi). Gatha: 36.

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अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशंक्य भावकभावविवेकप्रकारमाह
णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।।३६।।
नास्ति मम कोऽपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेकः
तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।।३६।।
इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभिनिर्वर्त्य-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
७७
[अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति ] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यन्त वेगसे जब
तक प्रवृत्तिको प्राप्त न हो, [तावत् ] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [सकल-भावैः अन्यदीयैः
विमुक्ता ]
सकल अन्यभावोंसे रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो
[आविर्बभूव ] प्रगट हो गई
भावार्थ :यह परभावके त्यागका दृष्टान्त कहा उस पर दृष्टि पड़े उससे पूर्व, समस्त
अन्य भावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभव तो तत्काल हो गया; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि
वस्तुको परकी जान लेनेके बाद ममत्व नहीं रहता
।२९।
अब, ‘इस अनुभूतिसे परभावका भेदज्ञान कैसे हुआ ?’ ऐसी आशंका करके, पहले तो
जो भावकभावमोहकर्मके उदयरूप भाव, उसके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं :
कुछ मोह वो मेरा नहीं, उपयोग केवल एक मैं,
इस ज्ञानको, ज्ञायक समयके मोहनिर्ममता कहे ।।३६।।
गाथार्थ :[बुध्यते ] जो यह जाने कि [मोहः मम कः अपि नास्ति ] ‘मोह मेरा कोई
भी (सम्बन्धी) नहीं है, [एकः उपयोगः एव अहम् ] एक उपयोग ही मैं हूँ[तं ] ऐसे जाननेको
[समयस्य ] सिद्धान्तके अथवा स्वपरस्वरूपके [विज्ञायकाः ] जाननेवाले [मोहनिर्ममत्वं ] मोहसे
निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
टीका :निश्चयसे, (यह मेरे अनुभवमें) फलदानकी सामर्थ्यसे प्रगट होकर
इस गाथाका दूसरा अर्थ यह भी है कि :‘किंचित्मात्र मोह मेरा नहीं है, मैं एक हूँ’ ऐसा उपयोग ही
(आत्मा ही) जाने, उस उपयोगको (आत्माको) समयके जाननेवाले मोहके प्रति निर्मम (ममता रहित)
कहते हैं