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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
शयानः स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदंचलमालम्ब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय
परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति
ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुंचति तच्चीवरमचिरात्, तथा ज्ञातापि सम्भ्रान्त्या परकीयान्भावा-
परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति
ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुंचति तच्चीवरमचिरात्, तथा ज्ञातापि सम्भ्रान्त्या परकीयान्भावा-
नादायात्मीयप्रतिपत्त्यात्मन्यध्यास्य शयानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वैकीक्रियमाणो
मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते
परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुंचति सर्वान्परभावानचिरात् ।
मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते
परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुंचति सर्वान्परभावानचिरात् ।
(मालिनी)
अवतरति न यावद् वृत्तिमत्यन्तवेगा-
दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः ।
दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः ।
झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।।२९।।
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।।२९।।
है और उसे नग्न कर कहता है कि ‘तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदलेमें आ गया
है, यह मेरा है सो मुझे दे दे’, तब बारम्बार कहे गये इस वाक्यको सुनता हुआ वह, (उस वस्त्रके)
सर्व चिह्नोंसे भलीभान्ति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह वस्त्र दूसरेका ही है’ ऐसा जानकर , ज्ञानी
होता हुआ, उस (दूसरेके) वस्त्रको शीघ्र ही त्याग देता है । इसीप्रकार — ज्ञाता भी भ्रमवश
है, यह मेरा है सो मुझे दे दे’, तब बारम्बार कहे गये इस वाक्यको सुनता हुआ वह, (उस वस्त्रके)
सर्व चिह्नोंसे भलीभान्ति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह वस्त्र दूसरेका ही है’ ऐसा जानकर , ज्ञानी
होता हुआ, उस (दूसरेके) वस्त्रको शीघ्र ही त्याग देता है । इसीप्रकार — ज्ञाता भी भ्रमवश
परद्रव्योंके भावोंको ग्रहण करके, उन्हें अपना जानकर, अपनेमें एकरूप करके सो रहा है और
अपने आप अज्ञानी हो रहा है ; जब श्री गुरु परभावका विवेक (भेदज्ञान) करके उसे एक
आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि ‘तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तवमें
एक (ज्ञानमात्र) ही है, (अन्य सर्व परद्रव्यके भाव हैं )’, तब बारम्बार कहे गये इस आगमके
वाक्यको सुनता हुआ वह, समस्त (स्व-परके) चिह्नोंसे भलीभांति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह
परभाव ही हैं, (मैं एक ज्ञानमात्र ही हूँ)’ यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावोंको शीघ्र
छोड़ देता है
अपने आप अज्ञानी हो रहा है ; जब श्री गुरु परभावका विवेक (भेदज्ञान) करके उसे एक
आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि ‘तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तवमें
एक (ज्ञानमात्र) ही है, (अन्य सर्व परद्रव्यके भाव हैं )’, तब बारम्बार कहे गये इस आगमके
वाक्यको सुनता हुआ वह, समस्त (स्व-परके) चिह्नोंसे भलीभांति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह
परभाव ही हैं, (मैं एक ज्ञानमात्र ही हूँ)’ यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावोंको शीघ्र
छोड़ देता है
।
भावार्थ : — जब तक परवस्तुको भूलसे अपनी समझता है तब तक ममत्व रहता है; और जब यथार्थ ज्ञान होनेसे परवस्तुको दूसरेकी जानता है तब दूसरेकी वस्तुमें ममत्व कैसे रहेगा ? अर्थात् नहीं रहे यह प्रसिद्ध है ।।३५।।
अब इसी अर्थका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अपर-भाव-त्याग-दृष्टान्त-दृष्टिः ] यह परभावके त्यागके दृष्टान्तकी दृष्टि,