परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात् प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम् ।
यथा हि कश्चित्पुरुषः सम्भ्रान्त्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीयप्रतिपत्त्या परिधाय रहित है, क्योंकि ज्ञानस्वभावसे स्वयं छूटा नहीं है, इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही है — ऐसा अनुभव करना चाहिए ।
भावार्थ : — आत्माको परभावके त्यागका कर्तृत्व है वह नाममात्र है । वह स्वयं तो ज्ञानस्वभाव है । परद्रव्यको पर जाना, और फि र परभावका ग्रहण न करना वही त्याग है । इसप्रकार, स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञानके अतिरिक्त कोई दूसरा भाव नहीं है ।।३४।।
अब यहाँ यह प्रश्न होता है कि ज्ञाताका प्रत्याख्यान ज्ञान ही कहा है, तो उसका दृष्टान्त क्या है ? उसके उत्तरमें दृष्टान्त-दार्ष्टान्तरूप गाथा कहते हैं : —
त्यों औरके हैं जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ।।३५।।
गाथार्थ : — [यथा नाम ] जैसे लोकमें [कः अपि पुरुषः ] कोई पुरुष [परद्रव्यम् इदम् इति ज्ञात्वा ] परवस्तुको ‘यह परवस्तु है’ ऐसा जाने तो ऐसा जानकर [त्यजति ] परवस्तुका त्याग करता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [सर्वान् ] समस्त [परभावान् ] परद्रव्योंके भावोंको [ज्ञात्वा ] ‘यह परभाव है’ ऐसा जानकर [विमुञ्चति ] उनको छोड़ देता है ।
टीका : — जिसप्रकार — कोई पुरुष धोबीके घरसे भ्रमवश दूसरेका वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी ( – यह वस्त्र दूसरेका है ऐसे ज्ञानसे रहित) हो रहा है; (किन्तु) जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्रका छोर (पल्ला) पकड़कर खींचता